Durga Saptashati – Adhyay 05 with Meaning


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दुर्गा सप्तशती अध्याय की लिस्ट – Index

सप्तशती के पिछले अध्यायों में देवी माँ के महामाया स्वरुप, माँ दुर्गा का अवतार और महिषासुर संहार के बारे में बताया गया था।

दुर्गा सप्तशती इस अध्याय 5 में – या देवी सर्वभूतेषु मंत्र विस्तार से दिया गया है।

दुर्गा सप्तशती के 700 श्लोकों में से इस अध्याय में 129 श्लोक आते हैं।

माँ दुर्गा को नमस्कार


इस अध्याय पांच में, या देवी सर्वभूतेषु मंत्र के जरिये, देवता किस प्रकार देवीकी स्तुति करते है, यह बताया गया है।

या देवी सर्वभूतेषु मंत्र से यह पता चलता है की देवी माँ किस प्रकार जगत के सभी प्राणियों में अपने अलग अलग स्वरूपों में निरंतर स्थित रहती है, जैसे की बुद्धि रूप में, शांति रूप में, क्षमा रूप में, दया रूप में आदि।

साथ ही साथ इस अध्याय में चण्ड-मुण्ड और शुम्भ निशुम्भ असुरों के प्रसंग की शुरुआत है।

अम्बिकाके रूपकी प्रशंसा सुनकर शुम्भका उनके पास दूत भेजना, देवी और दूत का संवाद और दूतका निराश लौटना आदि प्रसंग भी इसी अध्याय में आते हैं।

अम्बा माता को नमस्कार


इस पोस्ट से सम्बन्धित एक महत्वपूर्ण बात

इस लेख में दुर्गा सप्तशती अध्याय 5 के सभी 129 श्लोक अर्थ सहित दिए गए हैं।

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देवी माँ को नमस्कार


दुर्गा सप्तशती अध्याय 5 का विनियोग और ध्यान

॥विनियोगः॥

ॐ अस्य श्रीउत्तरचरित्रस्य रूद्र ऋषिः, महासरस्वती देवता, अनुष्टुप्
छन्दः, भीमा शक्तिः, भ्रामरी बीजम्, सूर्यस्तत्त्वम्, सामवेदः स्वरूपम्,
महासरस्वतीप्रीत्यर्थे उत्तरचरित्रपाठे विनियोगः।

विनियोग

ॐ – इस उत्तर चरित्रके रुद्र ऋषि हैं, महासरस्वती देवता हैं, अनुष्टप छन्द है, भीमा शक्ति है, भ्रामरी बीज है, सूर्य तत्त्व है और सामवेद स्वरूप है।

महासरस्वतीकी प्रसत्रताके लिये उत्तर चरित्रके पाठमें इसका विनियोग किया जाता है।

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॥ध्यानम्॥
ॐ घण्टाशूलहलानि शङ्‌खमुसले चक्रं धनुः सायकं
हस्ताब्जैर्दधतीं घनान्तविलसच्छीतांशुतुल्यप्रभाम्।
गौरीदेहसमुद्भवां त्रिजगतामाधारभूतां महा-
पूर्वामत्र सरस्वतीमनुभजे शुम्भादिदैत्यार्दिनीम्॥

ध्यान

जो अपने करकमलोंमें घण्टा, शूल, हल, शंख, मूसल, चक्र, धनुष और बाण धारण करती हैं।

शरद-ऋतुके शोभासम्पत्र चन्द्रमाके समान जिनकी मनोहर कान्ति है,

जो तीनों लोकोंकी आधारभूता और शुम्भ आदि दैत्योंका नाश करनेवाली हैं तथा गौरीके शरीरसे जिनका प्राकट्य हुआ है, उन महासरस्वती देवीका, मैं निरन्तर भजन करता (करती) हूँ।

ऊं नमश्चंडिकायैः नमो नमः

माँ चंडिका देवी को नमस्कार

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दुर्गा सप्तशती अध्याय 5 – देवीकी स्तुति – या देवी सर्वभूतेषु

शुम्भ और निशुम्भ का घमंड – इंद्र से राज्य छिना

ॐ क्लीं ऋषिरुवाच॥१॥
पुरा शुम्भनिशुम्भाभ्यामसुराभ्यां शचीपतेः।
त्रैलोक्यं यज्ञभागाश्‍च हृता मदबलाश्रयात्॥२॥

महर्षि मेधा कहते हैं –
पूर्वकाल में शुम्भ और निशुम्भ नामक असुरों ने अपने बल के घमंड में आकर. इंद्र के हाथ से तीनों लोकों का राज्य और यज्ञभाग छीन लिए।

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देवताओं के कार्य भी दैत्य करने लगे

तावेव सूर्यतां तद्वदधिकारं तथैन्दवम्।
कौबेरमथ याम्यं च चक्राते वरुणस्य च॥३॥

वे दोनों सूर्य, चंद्रमा, कुबेर, यम और वरुण के अधिकारों का भी उपयोग करने लगे।

वायु और अग्नि का कार्य भी, वे ही करने लगे।

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देवताओं को स्वर्ग से निकाल दिया

तावेव पवनर्द्धिं च चक्रतुर्वह्निकर्म च।
ततो देवा विनिर्धूता भ्रष्टराज्याः पराजिताः॥४॥

उन दोनों ने सब देवताऒं को अपमानित, राज्यभ्रष्ट, पराजित तथा अधिकारहीन करके स्वर्ग से निकाल दिया।

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इंद्र आदि देवता, माँ जगदम्बा की शरण में जाते है

हृताधिकारास्त्रिदशास्ताभ्यां सर्वे निराकृताः।
महासुराभ्यां तां देवीं संस्मरन्त्यपराजिताम्॥५॥
तयास्माकं वरो दत्तो यथाऽऽपत्सु स्मृताखिलाः।
भवतां नाशयिष्यामि तत्क्षणात्परमापदः॥६॥

उन दोनों असुरों से तिरस्कृत देवताऒं ने, अपराजिता देवी का स्मरण किया और सोचा – “जगदम्बा ने वर दिया था कि आपत्ति काल में स्मरण करने पर, मैं तुम्हारी आपत्तियों का नाश कर दूंगी।”

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देवताओं द्वारा माँ भगवती की स्तुति

इति कृत्वा मतिं देवा हिमवन्तं नगेश्‍वरम्।
जग्मुस्तत्र ततो देवीं विष्णुमायां प्रतुष्टुवुः॥७॥

यह विचारकर देवता गिरिराज हिमालयपर गए और वहां भगवती विष्णु माया की स्तुति करने लगे।

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जगदम्बा देवी को नमस्कार

देवा ऊचुः॥८॥
नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्मताम्॥९॥

देवता बोले –
देवी को नमस्कार है, महादेवी शिवा को सर्वदा नमस्कार है।

प्रकृति एवं भद्रा को प्रणाम है। हमलोग नियमपूर्वक जगदम्बा को नमस्कार करते हैं।

माँ जगदम्बा को नमस्कार

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माँ गौरी को नमस्कार

रौद्रायै नमो नित्यायै गौर्ये धात्र्यै नमो नमः।
ज्योत्स्नायै चेन्दुरूपिण्यै सुखायै सततं नमः॥१०॥

रौद्रा को नमस्कार है।

नित्या, गौरी एवं धात्री को बारम्बार नमस्कार है।

ज्योत्सनामयी, चद्ररूपिणी एवं सुखस्वरूपा देवी को सतत प्रणाम है।

माँ गौरी, रौद्रा को नमस्कार

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लक्ष्मी माता को नमस्कार

कल्याण्यै प्रणतां वृद्ध्यै सिद्ध्यै कुर्मो नमो नमः।
नैर्ऋत्यै भूभृतां लक्ष्म्यै शर्वाण्यै ते नमो नमः॥११॥

शरणागतों का कल्याण करने वाली, वृद्धि एवं सिद्धिरूपा देवी को हम बारम्बार नमस्कार करते हैं।

नैर्ऋती (राक्षसों की लक्ष्मी), राजाऒं की लक्ष्मी तथा शर्वाणी (शिवपत्नी)-स्वरूपा,
आप जगदम्बा को बार-बार नमस्कार है।

माँ लक्ष्मी को नमस्कार

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माँ दुर्गा को नमस्कार

दुर्गायै दुर्गपारायै सारायै सर्वकारिण्यै।
ख्यात्यै तथैव कृष्णायै धूम्रायै सततं नमः॥१२॥

दुर्गा, दुर्गपारा (दुर्गम संकट से पार उतारनेवाली), सारा (सबकी सारभूता), सर्वकारिणी, ख्याति, कृष्णा और धूम्रा देवी को सर्वदा नमस्कार है।

दुर्गा देवी को नमस्कार

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रौद्ररूपा को नमस्कार

अतिसौम्यातिरौद्रायै नतास्तस्यै नमो नमः।
नमो जगत्प्रतिष्ठायै देव्यै कृत्यै नमो नमः॥१३॥

अत्यंत सौम्य तथा अत्यंत रौद्ररूपा देवी को हम नमस्कार करते हैं, उन्हें हमारा बारम्बार प्रणाम है।

रौद्र और सौम्यरूपा देवी को नमस्कार

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जगत की आधार, विष्णु माया को नमस्कार

या देवी सर्वभूतेषु विष्णुमायेति शब्दिता।
नमस्तस्यै॥१४॥
नमस्तस्यै॥१५॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥१६॥

जगत की आधारभूता कृति देवी को बारम्बार नमस्कार है।

जो देवी सब प्राणियों में विष्णु माया के नाम से कही जाती हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।

विष्णुमाया माँ भगवती को नमस्कार

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सब जीवों में देवी माँ कौन से स्वरूपों में स्थित रहती है?

सब प्राणियों में चेतना स्वरूप

या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते।
नमस्तस्यै॥१७॥
नमस्तस्यै॥१८॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥१९॥

जो देवी सब प्राणियों में चेतना कहलाती हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।

चेतन स्वरूपा देवी को नमस्कार

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देवी बुद्धिरूप में

या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥२०॥
नमस्तस्यै॥२१॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥२२॥

जो देवी सब प्राणियों में बुद्धिरूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार,
उनको बारम्बार नमस्कार है।

बुद्धिस्वरूपा देवी को नमस्कार

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देवी निद्रा रूप में

या देवी सर्वभूतेषु निद्रारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥२३॥
नमस्तस्यै॥२४॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥२५॥

जो देवी सब प्राणियों में निद्रा रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार,
उनको बारम्बार नमस्कार है।

निद्रारूपा देवी को नमस्कार

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देवी क्षुधा रूप में

या देवी सर्वभूतेषु क्षुधारूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै॥२६॥
नमस्तस्यै॥२७॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥२८॥

जो देवी सब प्राणियों में क्षुधा रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार,
उनको बारम्बार नमस्कार है।

  • क्षुधा अर्थात भूख, भोजन करने की इच्छा

क्षुधारूपा देवी को नमस्कार

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देवी छाया रूप में

या देवी सर्वभूतेषु छायारूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥२९॥
नमस्तस्यै॥३०॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥३१॥

जो देवी सब प्राणियों में छाया रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार,
उनको बारम्बार नमस्कार है।

छायास्वरूपा देवी को नमस्कार

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देवी शक्ति रूप में

या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥३२॥
नमस्तस्यै॥३३॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥३४॥

जो देवी सब प्राणियों में शक्ति रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार,
उनको बारम्बार नमस्कार है।

शक्तिस्वरूपा देवी को नमस्कार

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देवी तृष्णा रूप में

या देवी सर्वभूतेषु तृष्णारूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥३५॥
नमस्तस्यै॥३६॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥३७॥

जो देवी सब प्राणियों में तृष्णा रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार,
उनको बारम्बार नमस्कार है।

तृष्णास्वरूपा देवी को नमस्कार

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देवी क्षमा रूप में

या देवी सर्वभूतेषु क्षान्तिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥३८॥
नमस्तस्यै॥३९॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥४०॥

जो देवी सब प्राणियों में क्षमा रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार,
उनको बारम्बार नमस्कार है।

क्षमास्वरूपा देवी को नमस्कार

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देवी जाति अर्थात जन्म रूप में

या देवी सर्वभूतेषु जातिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥४१॥
नमस्तस्यै॥४२॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥४३॥

जो देवी सब प्राणियों में जातिरूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार,
उनको बारम्बार नमस्कार है।

  • जाति अर्थात – जन्म, सभी वस्तुओ का मूल कारण और
    जातिरूपेण अर्थात जो देवी सभी प्राणियों का मूल कारण है

जातिस्वरूपा देवी महामाया को नमस्कार

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देवी लज्जा रूप में

या देवी सर्वभूतेषु लज्जारूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥४४॥
नमस्तस्यै॥४५॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥४६॥

जो देवी सब प्राणियों में लज्जा रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार,
उनको बारम्बार नमस्कार है।

लज्जास्वरूपा देवी को नमस्कार

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देवी शान्ति रूप में

या देवी सर्वभूतेषु शान्तिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥४७॥
नमस्तस्यै॥४८॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥४९॥

जो देवी सब प्राणियों में शान्ति रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार,
उनको बारम्बार नमस्कार है।

शांतिस्वरूपा देवी को नमस्कार

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देवी श्रद्धा रूप में

या देवी सर्वभूतेषु श्रद्धारूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥५०॥
नमस्तस्यै॥५१॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥५२॥

जो देवी सब प्राणियों में श्रद्धा रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार,
उनको बारम्बार नमस्कार है।

श्रद्धास्वरूपा देवी को नमस्कार

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देवी कांति रूप में

या देवी सर्वभूतेषु कान्तिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥५३॥
नमस्तस्यै॥५४॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥५५॥

जो देवी सब प्राणियों में कांति रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार,
उनको बारम्बार नमस्कार है।

कांतिस्वरूपा देवी को नमस्कार

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देवी लक्ष्मी रूप में

या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मीरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥५६॥
नमस्तस्यै॥५७॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥५८॥

जो देवी सब प्राणियों में लक्ष्मी रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार,
उनको बारम्बार नमस्कार है।

लक्ष्मी माता को नमस्कार

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देवी वृत्ति रूप में

या देवी सर्वभूतेषु वृत्तिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥५९॥
नमस्तस्यै॥६०॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥६१॥

जो देवी सब प्राणियों में वृत्ति रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार,
उनको बारम्बार नमस्कार है।

वृत्तिस्वरूपा देवी को नमस्कार

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देवी स्मृति रूप में

या देवी सर्वभूतेषु स्मृतिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥६२॥
नमस्तस्यै॥६३॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥६४॥

जो देवी सब प्राणियों में स्मृति रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार,
उनको बारम्बार नमस्कार है।

स्मृति रूपा देवी को नमस्कार

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देवी दया रूप में

या देवी सर्वभूतेषु दयारूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥६५॥
नमस्तस्यै॥६६॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥६७॥

जो देवी सब प्राणियों में दया रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार,
उनको बारम्बार नमस्कार है।

दयास्वरूपा देवी को नमस्कार

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देवी तुष्टि रूप में

या देवी सर्वभूतेषु तुष्टिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥६८॥
नमस्तस्यै॥६९॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥७०॥

जो देवी सब प्राणियों में तुष्टि रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार,
उनको बारम्बार नमस्कार है।

तुष्टीस्वरूपा देवी को नमस्कार

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देवी मातारूप में

या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥७१॥
नमस्तस्यै॥७२॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥७३॥

जो देवी सब प्राणियों में मातारूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार,
उनको बारम्बार नमस्कार है।

माता स्वरूप देवी को नमस्कार

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देवी भ्रांति रूप में

या देवी सर्वभूतेषु भ्रान्तिरूपेण संस्थिता॥
नमस्तस्यै॥७४॥
नमस्तस्यै॥७५॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥७६॥

जो देवी सब प्राणियों में भ्रांति रूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार,
उनको बारम्बार नमस्कार है।

भ्रान्ति स्वरूपा देवी को नमस्कार

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सब जीवों में सदा स्थित

इन्द्रियाणामधिष्ठात्री भूतानां चाखिलेषु या।
भूतेषु सततं तस्यै व्याप्तिदेव्यै नमो नमः॥७७॥

जो जीवों के इंद्रिय वर्ग की अधिष्ठात्री देवी एवं सब प्राणियों में सदा व्याप्त रहने वाली हैं, उन व्याप्ति देवी को बारम्बार नमस्कार है।

कण कण में स्थित देवी को नमस्कार

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देवी का चैतन्य रूप

चितिरूपेण या कृत्स्नमेतद् व्याप्य स्थिता जगत्।
नमस्तस्यै॥७८॥
नमस्तस्यै॥७९॥
नमस्तस्यै नमो नमः॥८०॥

जो देवी चैतन्य रूप से, इस सम्पूर्ण जगत को व्याप्त करके स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।

चैतन्य स्वरूपा देवी को नमस्कार

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देवी माँ हमारा कल्याण करें

स्तुता सुरैः पूर्वमभीष्टसंश्रयात्तथा सुरेन्द्रेण दिनेषु सेविता।
करोतु सा नः शुभहेतुरीश्‍वरी शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापदः॥८१॥

पूर्वकाल में अपने अभीष्ट की प्राप्ति होने से देवताऒं ने जिनकी स्तुति की तथा देवराज इंद्र ने बहुत दिनोंतक जिनका ध्यान किया, वह कल्याण की साधनभूता ईश्वरी, हमारा कल्याण और मंगल करें तथा सारी आपत्तियों का नाश कर डाले।

माँ दुर्गा हमारा कल्याण करो

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माँ जगदम्बा हमारे संकट दूर करें

या साम्प्रतं चोद्धतदैत्यतापितैरस्माभिरीशा च सुरैर्नमस्यते।
या च स्मृता तत्क्षणमेव हन्ति नः सर्वापदो भक्तिविनम्रमूर्तिभिः॥८२॥

उद्दंड दैत्यों से सताए हुए हम सभी देवता जिन परमेश्वरी को इस समय नमस्कार करते हैं, तथा जो भक्ति से विनम्र पुरुषों द्वारा स्मरण की जाने पर तत्काल ही सभी संकटों का नाश कर देती हैं, वे जगदम्बा हमारा संकट दूर करें।

देवी माँ हमारे संकट दूर करो

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देवी पार्वती, अम्बिका, कौशिकी और कालिका

देवी पार्वती देवताओं से पूछती है

ऋषिरुवाच॥८३॥
एवं स्तवादियुक्तानां देवानां तत्र पार्वती।
स्नातुमभ्याययौ तोये जाह्नव्या नृपनन्दन॥८४॥

मेधा ऋषि कहते हैं –
राजन! इस प्रकार जब देवता स्तुति कर रहे थे, उस समय पार्वती देवी गंगाजी के जल में स्नान करने के लिए वहां आईं।

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देवी पार्वती से देवी शिवा का प्रकट होना

साब्रवीत्तान् सुरान् सुभ्रूर्भवद्भिः स्तूयतेऽत्र का।
शरीरकोशतश्‍चास्याः समुद्भूताब्रवीच्छिवा॥८५॥

उन सुंदर भौंहों वाली भगवती ने देवताऒं से पूछा – आपलोग यहां किसकी स्तुति करते हैं?

तब उन्हीं के शरीर कोश से प्रकट हुई शिवा देवी बोलीं –

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देवी शिवा, दैत्यों के आतंक के बारे में बताती है

स्तोत्रं ममैतत् क्रियते शुम्भदैत्यनिराकृतैः।
देवैः समेतैः समरे निशुम्भेन पराजितैः॥८६॥

शुम्भ दैत्य से तिरस्कृत और युद्ध में निशुम्भ से पराजित हो, यहाँ एकत्रित हुए ये समस्त देवता मेरी ही स्तुति कर रहे हैं।

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अम्बाजी का नाम कौशिकी कैसे पड़ा?

शरीरकोशाद्यत्तस्याः पार्वत्या निःसृताम्बिका।
कौशिकीति समस्तेषु ततो लोकेषु गीयते॥८७॥

पार्वतीजी के शरीर कोश से अम्बिका का प्रादुर्भाव हुआ था, इसलिए वे समस्त लोकों में कौशिकी कही जाती हैं।

कौशिकी देवी को नमस्कार

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पार्वती देवी का नाम कलिका देवी कैसे पड़ा?

तस्यां विनिर्गतायां तु कृष्णाभूत्सापि पार्वती।
कालिकेति समाख्याता हिमाचलकृताश्रया॥८८॥

कौशिकी के प्रकट होने के बाद पार्वती देवी का शरीर काले रंग का हो गया, अत: वे हिमालयपर रहनेवाली कालिका देवी के नामसे विख्यात हुईं।

काली माता को नमस्कार

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चंड-मुंड, शुम्भ-निशुम्भ का संवाद

चंड-मुंड ने माँ अम्बिका को हिमालय पर्वत पर देखा

ततोऽम्बिकां परं रूपं बिभ्राणां सुमनोहरम्।
ददर्श चण्डो मुण्डश्‍च भृत्यौ शुम्भनिशुम्भयोः॥८९॥

तदनंतर, शुम्भ-निशुम्भ के भृत्य चंड-मुंड वहां आए, और उन्होंने परम मनोहर रूप धारण करने वाली अम्बिका देवी को देखा।

अम्बिका देवी को नमस्कार

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चंड-मुंड, शुम्भ राक्षस को माँ अम्बिका के बारे में बताते है

ताभ्यां शुम्भाय चाख्याता अतीव सुमनोहरा।
काप्यास्ते स्त्री महाराज भासयन्ती हिमाचलम्॥९०॥

वे शुम्भ के पास जाकर बोले – महाराज! एक अत्यंत मनोहर स्त्री है, जो अपनी दिव्य कांति से हिमालय को प्रकाशित कर रही है।

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चंड-मुंड देवी के बारें में पता लगाने के लिए कहते है

नैव तादृक् क्वचिद्रूपं दृष्टं केनचिदुत्तमम्।
ज्ञायतां काप्यसौ देवी गृह्यतां चासुरेश्‍वर॥९१॥

वैसा उत्तम रूप कहीं किसी ने भी नहीं देखा होगा।

असुरेश्वर! पता लगाइए वह देवी कौन है और उसे ले लीजिये।

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चंड-मुंड देवी के स्वरुप के बारें में बताते हैं

स्त्रीरत्‍नमतिचार्वङ्‌गी द्योतयन्ती दिशस्त्विषा।
सा तु तिष्ठति दैत्येन्द्र तां भवान् द्रष्टुमर्हति॥९२॥

स्त्रियों में तो वह रत्न है; उसका प्रत्येक अंग बहुत ही सुंदर तथा वह अपनी प्रभा से संपूर्ण दिशाऒं में प्रकाश फैला रही है।

दैत्यराज! अभी वह हिमालय पर ही मौजूद है। आप उसे देख सकते हैं।

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चंड-मुंड द्वारा असुर शुम्भ और निशुम्भ की प्रशंसा

यानि रत्‍नानि मणयो गजाश्‍वादीनि वै प्रभो।
त्रैलोक्ये तु समस्तानि साम्प्रतं भान्ति ते गृहे॥९३॥

हे प्रभो! तीनों लोकों में मणि, हाथी और घोड़े आदि जितने भी रत्न हैं, वे सब इस समय आपके चरणों में शोभा पाते हैं।

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इंद्र से ऐरावत, पारिजात, उच्चैश्रवा घोड़ा

ऐरावतः समानीतो गजरत्‍नं पुरन्दरात्।
पारिजाततरुश्‍चायं तथैवोच्चैःश्रवा हयः॥९४॥

हाथियों में रत्नभूत ऐरावत, यह पारिजात का वृक्ष और यह उच्चैश्रवा घोड़ा – यह सब आपने इंद्र से ले लिया है।

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ब्रह्माजी का विमान, कुबेर से निधि

विमानं हंससंयुक्तमेतत्तिष्ठति तेऽङ्‌गणे।
रत्‍नभूतमिहानीतं यदासीद्वेधसोऽद्भुतम्॥९५॥

हंसों से जुता हुआ यह विमान भी आपके आंगन में शोभा पाता है।

यह रत्नभूत अद्भुत विमान, जो पहले ब्रह्माजी के पास था, अब आपके यहां लाया गया है।

यह महापद्म नामक निधि आप कुबेर से छीन लाए हैं।

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समुद्रने से किंजल्किनी माला

निधिरेष महापद्मः समानीतो धनेश्‍वरात्।
किञ्जल्किनीं ददौ चाब्धिर्मालामम्लानपङ्‌कजाम्॥९६॥

समुद्रने भी आपको किंजल्किनी नाम की माला भेंट की है, जो केसरों से सुशोभित है और जिसके कमल कभी कुम्हलाते नहीं हैं।

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वरुण का सोने का छत्र और प्रजापति का रथ

छत्रं ते वारुणं गेहे काञ्चनस्रावि तिष्ठति।
तथायं स्यन्दनवरो यः पुराऽऽसीत्प्रजापतेः॥९७॥

सुवर्ण की वर्षा करनेवाला वरुण का छत्र भी आपके घर में शोभा पाता है।

तथा यह श्रेष्ठ रथ, जो पहले प्रजा पतीके अधिकार में था, अब आपके पास मौजूद है।

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मृत्यु की शक्ति, अग्नि से वस्त्र, रत्नों का भंडार

मृत्योरुत्क्रान्तिदा नाम शक्तिरीश त्वया हृता।
पाशः सलिलराजस्य भ्रातुस्तव परिग्रहे॥९८॥
निशुम्भस्याब्धिजाताश्‍च समस्ता रत्‍नजातयः।
वह्निरपि ददौ तुभ्यमग्निशौचे च वाससी॥९९॥

दैत्येश्वर! मृत्यु की उत्क्रांतिदा नामक शक्ति भी आपने छीन ली है तथा

वरुण का पाश और समुद्र में होने वाले सब प्रकार के रत्न आपके भाई निशुम्भके अधिकारमें हैं।

अग्नि ने भी स्वत: शुद्ध किए हुए दो वस्त्र आपकी सेवामें अर्पित किए हैं।

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चंड-मुंड शुम्भ को देवी को जितने के लिए कहते है

एवं दैत्येन्द्र रत्‍नानि समस्तान्याहृतानि ते।
स्त्रीरत्‍नमेषा कल्याणी त्वया कस्मान्न गृह्यते॥१००॥

है दैत्यराज! इस प्रकार सभी रत्न आपने एकत्र कर लिए हैं।

फिर जो यह स्त्रियों में रत्नरूप कल्याणमयी देवी हैं, इसे आप क्यों नहीं अपने अधिकारमें कर लेते?

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शुम्भ दूत को देवी के पास भेजता है

ऋषिरुवाच॥१०१॥
निशम्येति वचः शुम्भः स तदा चण्डमुण्डयोः।
प्रेषयामास सुग्रीवं दूतं देव्या महासुरम्॥१०२॥
इति चेति च वक्तव्या सा गत्वा वचनान्मम।
यथा चाभ्येति सम्प्रीत्या तथा कार्यं त्वया लघु॥१०३॥

मेधा ऋषि कहते हैं – चंड-मुंड का यह वचन सुनकर शुम्भ ने महादैत्य सुग्रीव को दूत बनाकर देवी के पास भेजा और कहा –
– तुम मेरी ये-ये बातें कहना और ऐसा उपाय करना जिससे प्रसन्न होकर वह शीघ्र ही यहां आ जाए।

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शुम्भ निशुम्भ के दूत और देवी माँ संवाद

दूत देवी के पास जाता है

स तत्र गत्वा यत्रास्ते शैलोद्देशेऽतिशोभने।
सा देवी तां ततः प्राहश्‍लक्ष्णं मधुरया गिरा॥१०४॥

वह दूत पर्वत के रमणीय प्रदेश में जहां देवी मौजूद थीं वहां गया और मधुर वाणी में कोमल वचन बोला।

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दूत स्वयं के बारे में बताता है

दूत उवाच॥१०५॥
देवि दैत्येश्‍वरः शुम्भस्त्रैलोक्ये परमेश्‍वरः।
दूतोऽहं प्रेषितस्तेन त्वत्सकाशमिहागतः॥१०६॥

दूत बोला –
देवि! दैत्यराज शुम्भ इस समय तीनों लोकों के परमेश्वर हैं।

मैं उन्हीं का भेजा दूत हूं और यहां तुम्हारे पास आया हूं।”

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दूत शुम्भ-निशुम्भ की तारीफ़ करता है

अव्याहताज्ञः सर्वासु यः सदा देवयोनिषु।
निर्जिताखिलदैत्यारिः स यदाह श्रृणुष्व तत्॥१०७॥

उनकी आज्ञा सदा सब देवता एक स्वर से मानते हैं। कोई उसका उल्लंघन नहीं कर सकता।

वे सम्पूर्ण देवताऒं को परास्त कर चुके हैं। उन्होंने तुम्हारे लिए जो संदेश दिया है, उसे सुनो –

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दूत शुम्भ-निशुम्भ का आदेश सुनाता है

मम त्रैलोक्यमखिलं मम देवा वशानुगाः।
यज्ञभागानहं सर्वानुपाश्‍नामि पृथक् पृथक्॥१०८॥

सम्पूर्ण त्रिलोकी मेरे अधिकार में है। देवता भी मेरी आज्ञाके अधीन चलते हैं। सभी यज्ञों के भागों को मैं ही पृथक-पृथक भोगता हूं।

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शुम्भ-निशुम्भ के पास रत्नों का भण्डार

त्रैलोक्ये वररत्‍नानि मम वश्‍यान्यशेषतः।
तथैव गजरत्‍नं च हृत्वा देवेन्द्रवाहनम्॥१०९॥

तीनों लोकों में जितने श्रेष्ठ रत्न हैं, वे सब मेरे अधिकार में हैं।

देवराज इंद्र का वाहन ऐरावत, जो हाथियों में रत्नके समान है, मैंने छीन लिया है।

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देवताओं से जीती हुई चीजें

क्षीरोदमथनोद्भूतमश्वरत्‍नं ममामरैः।
उच्चैःश्रवससंज्ञं तत्प्रणिपत्य समर्पितम्॥११०॥

क्षीर सागर का मंथन करने से जो अश्वरत्न उच्चैश्रवा प्रकट हुआ था, उसे देवताऒं ने
मेरे पैरों पर पड़कर समर्पित किया है।

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गधर्वों और नागों से जीती हुई वस्तुएं

यानि चान्यानि देवेषु गन्धर्वेषूरगेषु च।
रत्‍नभूतानि भूतानि तानि मय्येव शोभने॥१११॥

सुंदरी!
उनके सिवा और भी जितने रत्नभूत पदार्थ, देवताऒं, गधर्वों और नागों के पास थे, वे सब मेरे ही पास आ गए हैं।

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शुम्भ का घमंड

स्त्रीरत्‍नभूतां त्वां देवि लोके मन्यामहे वयम्।
सा त्वमस्मानुपागच्छ यतो रत्‍नभुजो वयम्॥११२॥

देवि! हम लोग तुम्हें संसार की स्त्रियों में रत्न मानते हैं, अत: तुम हमारे पास आ जाऒ, क्योंकि रत्नों का उपभोग करनेवाले हम ही हैं।

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अहंकार से भरी शुम्भ-निशुम्भ की बातें

मां वा ममानुजं वापि निशुम्भमुरुविक्रमम्।
भज त्वं च चञ्चलापाङ्‌गि रत्‍नभूतासि वै यतः॥११३॥

चंचल कटाक्षों वाली सुंदरी! तुम मेरी या मेरे भाई महापराक्रमी निशुम्भ की सेवा में आ जाऒ, क्योंकि तुम रत्न स्वरूपा हो।

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शुम्भ देवी को महल में आने के लिए कहता है

परमैश्‍वर्यमतुलं प्राप्स्यसे मत्परिग्रहात्।
एतद् बुद्ध्या समालोच्य मत्परिग्रहतां व्रज॥११४॥

मेरा वरण करने से तुम्हें तुलनारहित महान ऐश्वर्य की प्राप्ति होगी।

अपनी बुद्धि से यह विचारकर तुम मेरी पत्नी बन जाऒ।

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जगतजननी माँ भगवती दूत को समझाती है

ऋषिरुवाच॥११५॥
इत्युक्ता सा तदा देवी गम्भीरान्तःस्मिता जगौ।
दुर्गा भगवती भद्रा ययेदं धार्यते जगत्॥११६॥
देव्युवाच॥११७॥
सत्यमुक्तं त्वया नात्र मिथ्या किञ्चित्त्वयोदितम्।
त्रैलोक्याधिपतिः शुम्भो निशुम्भश्‍चापि तादृशः॥११८॥

मेधा ऋषि कहते हैं –
दूत के यों कहने पर कल्याणमयी भगवती दुर्गादेवी, जो इस जगत को धारण करती हैं, मन-ही-मन गम्भीर भाव से मुस्कराई और इस प्रकार बोलीं –

दूत! तुमने सत्य कहा है, इसमें तनिक भी मिथ्या नहीं है।

शुम्भ तीनों लोकों का स्वामी है और निशुम्भ भी उसी के समान पराक्रमी है

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देवी दुर्गा दूत को अपनी प्रतिज्ञा के बारें में बताती है

किं त्वत्र यत्प्रतिज्ञातं मिथ्या तत्क्रियते कथम्।
श्रूयतामल्पबुद्धित्वात्प्रतिज्ञा या कृता पुरा॥११९॥

किंतु इस विषयमें मैंने जो प्रतिज्ञा कर ली है, उसे मिथ्या कैसे करूँ?

मैंने अपनी अल्पबुद्धि के कारण, पहले से जो प्रतिज्ञा कर रखी है उसे सुनो।

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देवी के समान बलवान, वही उनका स्वामी

यो मां जयति संग्रामे यो मे दर्पं व्यपोहति।
यो मे प्रतिबलो लोके स मे भर्ता भविष्यति॥१२०॥

जो मुझे संग्राम में जीत लेगा, जो मेरे अभिमान को चूर कर देगा तथा संसार में जो मेरे समान बलवान होगा, वही मेरा स्वामी होगा।

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देवी, शुम्भ निशुम्भ को युद्ध के लिए कहती है

तदागच्छतु शुम्भोऽत्र निशुम्भो वा महासुरः।
मां जित्वा किं चिरेणात्र पाणिं गृह्णातु मे लघु॥१२१॥

इसलिए शुम्भ अथवा निशुम्भ स्वयं ही यहां पधारें और मुझे जीतकर मेरा पाणिग्रहण कर लें, इसमें विलम्ब की क्या आवश्यकता?

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दूत को आश्चर्य होता है

दूत उवाच॥१२२॥
अवलिप्तासि मैवं त्वं देवि ब्रूहि ममाग्रतः।
त्रैलोक्ये कः पुमांस्तिष्ठेदग्रे शुम्भनिशुम्भयोः॥१२३॥

दूत बोला –
देवि! तुम घमंड में भरी मेरे सामने ऐसी बातें न करो।

तीनों लोकों में कौन ऐसा पुरुष है, जो शुम्भ-निशुम्भके सामने खड़ा हो सके।

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दूत देवी से पूछता है

अन्येषामपि दैत्यानां सर्वे देवा न वै युधि।
तिष्ठन्ति सम्मुखे देवि किं पुनः स्त्री त्वमेकिका॥१२४॥

देवि! अन्य दैत्यों के सामने भी सारे देवता युद्ध में नहीं ठहर सकते, फिर तुम अकेली स्त्री होकर कैसे ठहर सकती हो।

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दूत देवी से पूछता है

इन्द्राद्याः सकला देवास्तस्थुर्येषां न संयुगे।
शुम्भादीनां कथं तेषां स्त्री प्रयास्यसि सम्मुखम्॥१२५॥

जिन शुम्भ आदि दैत्यों के सामने, इंद्र आदि सब देवता भी युद्ध में खड़े नहीं हुए,
उनके सामने तुम स्त्री होकर कैसे जाऒगी।

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निशुम्भ के दूत के अज्ञानी वचन

सा त्वं गच्छ मयैवोक्ता पार्श्‍वं शुम्भनिशुम्भयोः।
केशाकर्षणनिर्धूतगौरवा मा गमिष्यसि॥१२६॥

इसलिए तुम मेरे ही कहने से शुम्भ-निशुम्भ के पास चलो।

ऐसा करने से तुम्हारे गौरवकी रक्षा होगी, अन्यथा जब वे केश पकड़कर घसीटेंगे, तब तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा खोकर जाना पड़ेगा।

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देवी फिर से प्रतिज्ञा के बारें में कहती है

देव्युवाच॥१२७॥
एवमेतद् बली शुम्भो निशुम्भश्‍चातिवीर्यवान्।
किं करोमि प्रतिज्ञा मे यदनालोचिता पुरा॥१२८॥

देवी ने कहा –
तुम्हारा कहना ठीक है, शुम्भ बलवान हैं, निशुम्भ भी पराक्रमी है; किंतु मैंने पहले ही प्रतिज्ञा कर ली है।

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देवी माँ दूत को जाने के लिए कहती है

स त्वं गच्छ मयोक्तं ते यदेतत्सर्वमादृतः।
तदाचक्ष्वासुरेन्द्राय स च युक्तं करोतु तत्॥ॐ॥१२९॥

अत: अब तुम जाऒ। मैंने तुमसे जो कुछ कहा है, वह सब अपने स्वामी से कहना।

वे जो उचित जान पड़े, करें।

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देवी-दूत-संवाद नामक पांचवां अध्याय समाप्त

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये देव्या
दूतसंवादो नाम पञ्चमोऽध्यायः॥५॥

इस प्रकार श्रीमार्कंडेय पुराण में, सावर्णिक मन्वंतर की कथा के अंतर्गत, देवीमाहाम्य में “देवी-दूत-संवाद नामक” पांचवां अध्याय पूरा हुआ।


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दुर्गा सप्तशती अध्याय – 6

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Durga Saptashati – Adhyay 04 with Meaning


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दुर्गा सप्तशती अध्याय की लिस्ट – Index

दुर्गा सप्तशती अध्याय 4 में,
इन्द्रादि देवताओं द्वारा देवीकी स्तुति की गयी है।

दुर्गा सप्तशती के 700 श्लोकों में से
इस अध्याय में 42 श्लोक आते हैं।


इस पोस्ट से सम्बन्धित एक महत्वपूर्ण बात

इस लेख में दुर्गा सप्तशती अध्याय 4 के सभी 42 श्लोक अर्थ सहित दिए गए हैं।

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दुर्गा सप्तशती अध्याय 4 का ध्यान

॥ध्यानम्॥
ॐ कालाभ्राभां कटाक्षैररिकुलभयदां मौलिबद्धेन्दुरेखां
शड्‌खं चक्रं कृपाणं त्रिशिखमपि करैरुद्वहन्तीं त्रिनेत्राम्।
सिंहस्कन्धाधिरूढां त्रिभुवनमखिलं तेजसा पूरयन्तीं
ध्यायेद् दुर्गां जयाख्यां त्रिदशपरिवृतां सेवितां सिद्धिकामैः॥

ध्यान

सिद्धिकी इच्छा रखनेवाले पुरुष जिनकी सेवा करते हैं तथा देवता जिन्हें सब ओरसे घेरे रहते हैं, उन – जया – नामवाली दुर्गा देवीका ध्यान करे।

उनके श्रीअंगोकी आभा काले मेघके समान श्याम है।

वे अपने कटाक्षोंसे शत्रुसमूहको भय प्रदान करती हैं।

उनके मस्तकपर आबद्ध चन्द्रमाकी रेखा शोभा पाती है।

वे अपने हाथोंमें शुद्ध चक्र, कृपाण और त्रिशूल धारण करती हैं।

उनके तीन नेत्र हैं।

वे सिंहके कंधेपर चढ़ी हुई हैं और अपने तेजसे तीनों लोकोंको परिपूर्ण कर रही हैं।

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महिषासुर संहार के बाद देवताओं द्वारा देवी की स्तुति

ॐ ऋषिरुवाच॥१॥
शक्रादयः सुरगणा निहतेऽतिवीर्ये
तस्मिन्दुरात्मनि सुरारिबले च देव्या।
तां तुष्टुवुः प्रणतिनम्रशिरोधरांसा
वाग्भिः प्रहर्षपुलकोद्‌गमचारुदेहाः॥२॥

ऋषि कहते हैं –
अत्यन्त पराक्रमी दुरात्मा महिषासुर तथा उसकी दैत्य-सेनाके देवीके हाथसे मारे जानेपर इन्द्र आदि देवता प्रणामके लिये गर्दन तथा कंधे झुकाकर उन भगवती दुर्गा की उत्तम वचनोंद्वारा स्तुति करने लगे।

उस समय उनके सुन्दर अंगोमे अत्यन्त हर्षके कारण रोमांच हो आया था।

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देवी का स्वरुप – सभी देवताओं की शक्ति का समुदाय

देव्या यया ततमिदं जगदात्मशक्त्या
निश्‍शेषदेवगणशक्तिसमूहमूर्त्या।
तामम्बिकामखिलदेवमहर्षिपूज्यां
भक्त्या नताः स्म विदधातु शुभानि सा नः॥३॥

देवता बोले –
संपूर्ण देवताओंकी शक्तिका समुदाय ही जिनका स्वरूप है तथा जिन देवीने अपनी शक्तिसे संपूर्ण जगत्‌को व्याप्त कर रखा है, समस्त देवताओं और महर्षियोंकी पूजनीया उन जगदम्बाको हम भक्तिपूर्वक नमस्कार करते हैं।

वे हम लोगोंका कल्याण करें।।३।।

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देवी भगवती का अनुपम प्रभाव और तेज

यस्याः प्रभावमतुलं भगवाननन्तो
ब्रह्मा हरश्‍च न हि वक्तुमलं बलं च।
सा चण्डिकाखिलजगत्परिपालनाय
नाशाय चाशुभभयस्य मतिं करोतु॥४॥

जिनके अनुपम प्रभाव और बलका वर्णन करनेमें भगवान् शेषनाग, ब्रह्माजी तथा महादेवजी भी समर्थ नहीं हैं, वे भगवती चण्डिका, सम्पूर्ण जगत्‌का पालन एवं अशुभ भयका नाश करनेका विचार करें।

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संपूर्ण जगत में देवी के कई स्वरुप

या श्रीः स्वयं सुकृतिनां भवनेष्वलक्ष्मीः
पापात्मनां कृतधियां हृदयेषु बुद्धिः।
श्रद्धा सतां कुलजनप्रभवस्य लज्जा
तां त्वां नताः स्म परिपालय देवि विश्‍वम्॥५॥

जो
– पुण्यात्माओंके घरोंमें स्वयं ही लक्ष्मीरूपसे,
– पापियोंके यहाँ दरिद्रतारूपसे,
– शुद्ध अन्तःकरणवाले पुरूषोंके हृदयमें बुद्धिरूपसे,
– सतपुरुषोंमें श्रद्धारूपसे तथा
– कुलीन मनुष्यमें लज्जारूपसे निवास करती हैं,
उन भगवती दुर्गाको हम नमस्कार करते हैं।

देवि! आप संपूर्ण विश्वका पालन कीजिये।

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देवी का स्वरुप, पराक्रम और चरित्र

किं वर्णयाम तव रूपमचिन्त्यमेतत्
किं चातिवीर्यमसुरक्षयकारि भूरि।
किं चाहवेषु चरितानि तवाद्भुतानि
सर्वेषु देव्यसुरदेवगणादिकेषु॥६॥

देवि! आपके इस अचिन्त्य रूपका, असुरोंका नाश करनेवाले भारी पराक्रमका तथा समस्त देवताओं और दैत्योंके समक्ष युद्धमें प्रकट किये हुए आपके अद्भुत चरित्रोंका, हम किस प्रकार वर्णन करें।

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जगतजननी, गुणातीत, भक्तवत्सल, परा प्रकृति

हेतुः समस्तजगतां त्रिगुणापि दोषैर्न
ज्ञायसे हरिहरादिभिरप्यपारा।
सर्वाश्रयाखिलमिदं जगदंशभूत-
मव्याकृता हि परमा प्रकृतिस्त्वमाद्या॥७॥

आप संपूर्ण जगत्‌की उत्पत्तिमें कारण हैं।

आपमें सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण – ये तीनों गुण मौजूद हैं; तो भी दोषोंके साथ आपका संसर्ग नहीं जान पड़ता।

भगवान् विष्णु और महादेवजी आदि देवता भी आपका पार नहीं पाते।

आप ही सबका आश्रय हैं। यह समस्त जगत् आपका अंशभूत है; क्योंकि आप सबकी आदिभूत अव्याकृता परा प्रकृति हैं।

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स्वाहा और स्वधा

यस्याः समस्तसुरता समुदीरणेन
तृप्तिं प्रयाति सकलेषु मखेषु देवि।
स्वाहासि वै पितृगणस्य च तृप्तिहेतु-
रुच्चार्यसे त्वमत एव जनैः स्वधा च॥८॥

देवि! संपूर्ण यज्ञोंमें जिसके उच्चारणसे सब देवता तृप्ति लाभ करते हैं, वह स्वाहा आप ही हैं।

इसके अतिरिक्त आप पितरोंकी भी तृप्तिका कारण हैं, अतएव सब लोग आपको स्वधा भी कहते हैं।

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देवी भगवती की महिमा

या मुक्तिहेतुरविचिन्त्यमहाव्रता त्व*-
मभ्यस्यसे सुनियतेन्द्रियतत्त्वसारैः।
मोक्षार्थिभिर्मुनिभिरस्तसमस्तदोषै-
र्विर्द्यासि सा भगवती परमा हि देवि॥९॥

देवि! जो मोक्षकी प्राप्तिका साधन है, अचिंत्य महाव्रत स्वरूपा है, वह भगवती आप ही हैं।

समस्त दोषोंसे रहित, जितेन्द्रिय, तत्त्वको ही सार वस्तु माननेवाले तथा मोक्षकी अभिलाषा रखनेवाले मुनिजन, जिसका अभ्यास करते हैं, वह भगवती परा विद्या आप ही हैं।

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वेदों का आधार, जगत की पालनकर्ता और संकटनाशक

शब्दात्मिका सुविमलर्ग्यजुषां निधान-
मुद्‌गीथरम्यपदपाठवतां च साम्नाम्।
देवी त्रयी भगवती भवभावनाय
वार्ता च सर्वजगतां परमार्तिहन्त्री॥१०॥

आप शब्दस्वरूपा हैं। अत्यन्त निर्मल ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा उद्‌गीथके मनोहर पदोंके पाठसे युक्त, सामवेदका भी आधार आप ही हैं।

आप देवी, त्रयी (तीनों वेद) और भगवती (छहों ऐश्वर्योंसे युक्त) हैं।

इस विश्वकी उत्पत्ति एवं पालनके लिये आप ही वार्ता (खेती एवं आजीविका) के रूप में प्रकट हुई हैं।

आप सम्यूर्ण जगत्‌की घोर पीड़ाका नाश करनेवाली हैं।

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ज्ञानस्वरूप, तारणहार, भगवान् विष्णु और महादेव की शक्ति

मेधासि देवि विदिताखिलशास्त्रसारा
दुर्गासि दुर्गभवसागरनौरसङ्‌गा।
श्रीः कैटभारिहृदयैककृताधिवासा
गौरी त्वमेव शशिमौलिकृतप्रतिष्ठा॥११॥

देवि! जिससे समस्त शास्त्रोंके सारका ज्ञान होता है, वह मेधाशक्ति आप ही हैं।

दुर्गम भवसागरसे पार उतारनेवाली नौकारूप दुर्गादेवी भी आप ही हैं।

आपकी कहीं भी आसक्ति नहीं है।

कैटभके शत्रु भगवान् विष्णुके वक्षःस्थलमें एकमात्र निवास करनेवाली भगवती लक्ष्मी
तथा भगवान् चन्द्रशेखर द्वारा सम्मानित गौरी देवी भी आप ही हैं।

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देवी का निर्मल स्वरुप

ईषत्सहासममलं परिपूर्णचन्द्र-
बिम्बानुकारि कनकोत्तमकान्तिकान्तम्।
अत्यद्भुतं प्रहृतमात्तरुषा तथापि
वक्त्रं विलोक्य सहसा महिषासुरेण॥१२॥

आपका मुख मन्द मुसकानसे सुशोभित, निर्मल, पूर्ण चन्द्रमाके बिम्बका अनुकरण करनेवाला और उत्तम सुवर्णकी मनोहर कान्तिसे कमनीय है;

तो भी उसे देखकर महिषासुरको क्रोध हुआ और सहसा उसने उसपर प्रहार कर दिया, यह बड़े आश्चर्यकी बात है।

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देवी का क्रोधित स्वरुप

दृष्ट्‌वा तु देवि कुपितं भ्रुकुटीकराल-
मुद्यच्छशाङ्‌कसदृशच्छवि यन्न सद्यः।
प्राणान्मुमोच महिषस्तदतीव चित्रं
कैर्जीव्यते हि कुपितान्तकदर्शनेन॥१३॥

देवि! वही मुख जब क्रोधसे युक्त होनेपर उदयकालके चन्द्रमाकी भांति लाल और
तनी हुई भौंहोंके कारण विकराल हो उठा, तब उसे देखकर जो महिषासुरके प्राण तुरंत नहीं निकल गये, यह उससे भी बढ़कर आश्चर्यकी बात है;

क्योंकि क्रोधमें भरे हुए यमराजको देखकर भला कौन जीवित रह सकता है?।

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प्रसन्न स्वरुप में जगतका पालन, और क्रोधित रूप में राक्षसों का संहार

देवि प्रसीद परमा भवती भवाय
सद्यो विनाशयसि कोपवती कुलानि।
विज्ञातमेतदधुनैव यदस्तमेत-
न्नीतं बलं सुविपुलं महिषासुरस्य॥१४॥

देवि! आप प्रसन्न हों।

परमात्मस्वरूपा, आपके प्रसत्र होनेपर जगत्‌का अभुदय होता है और
क्रोधमें भर जानेपर आप तत्काल ही कितने कुलोंका सर्वनाश कर डालती हैं, यह बात अभी अनुभवमें आयी है;

क्योंकि महिषासुरकी यह विशाल सेना क्षणभरमें आपके कोपसे नष्ट हो गयी है।

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देवी के प्रसन्न होने पर मनुष्य को धन-धान्य और धर्म

ते सम्मता जनपदेषु धनानि तेषां
तेषां यशांसि न च सीदति धर्मवर्गः।
धन्यास्त एव निभृतात्मजभृत्यदारा
येषां सदाभ्युदयदा भवती प्रसन्ना॥१५॥

सदा अभ्युदय प्रदान करनेवाली, आप जिनपर प्रसन्न रहती हैं, –

वे ही देशमें सम्मानित हैं, उन्हींको धन और यशकी प्राप्ति होती है, उन्हींका धर्म कभी शिथिल नहीं होता तथा वे ही अपने हृष्ट-पुष्ट स्त्री, पुत्र और भाईयोके साथ धन्य माने जाते हैं।

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देवी की कृपा से ही धर्म के अनुकूल कर्म और स्वर्गलोक

धर्म्याणि देवि सकलानि सदैव कर्मा-
ण्यत्यादृतः प्रतिदिनं सुकृती करोति।
स्वर्गं प्रयाति च ततो भवतीप्रसादा-
ल्लोकत्रयेऽपि फलदा ननु देवि तेन॥१६॥

देवि! आपकी ही कृपासे पुण्यात्मा पुरुष प्रतिदिन अत्यन्त श्रद्धापूर्वक, सदा सब प्रकारके धर्मानुकूल कर्म करता है और उसके प्रभावसे स्वर्गलोकमें जाता है।

इसलिये आप तीनों लोकोंमें निश्चय ही मनोवांछित फल देनेवाली हैं।

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माँ दुर्गा की कृपा से दुःख, दरिद्रता और भय से मुक्ति

दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः
स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।
दारिद्र्यदुःखभयहारिणि का त्वदन्या
सर्वोपकारकरणाय सदाऽऽर्द्रचित्ता॥१७॥

माँ दुर्गे! आप स्मरण करनेपर सब प्राणियोंका भय हर लेती हैं और स्वस्थ पुरुषोंद्वारा चिन्तन करनेपर उन्हें परम कल्याणमयी बुद्धि प्रदान करती हैं।

दुःख, दरिद्रता और भय हरनेवाली देवि! आपके सिवा दूसरी कौन है जिसका चित्त सबका उपकार करनेके लिये सदा ही दयार्द्र रहता हो।

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देवी चंडी का राक्षसों से युद्ध क्यों?

एभिर्हतैर्जगदुपैति सुखं तथैते
कुर्वन्तु नाम नरकाय चिराय पापम्।
संग्राममृत्युमधिगम्य दिवं प्रयान्तु
मत्वेति नूनमहितान् विनिहंसि देवि॥१८॥

देवि! इन राक्षसोंके मारनेसे संसारको सुख मिले तथा ये राक्षस चिरकालतक नरकमें रहनेके लिये भले ही पाप करते रहे हों, इस समय संग्राममें मृत्युको प्राप्त होकर स्वर्गलोकमें जाये – निश्चय ही यही सोचकर आप शत्रुओंका वध करती हैं।

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दुर्गा देवी का राक्षसों पर शस्त्रों से प्रहार क्यों?

दृष्ट्‌वैव किं न भवती प्रकरोति भस्म
सर्वासुरानरिषु यत्प्रहिणोषि शस्त्रम्।
लोकान् प्रयान्तु रिपवोऽपि हि शस्त्रपूता
इत्थं मतिर्भवति तेष्वपि तेऽतिसाध्वी॥१९॥

आप शत्रुओंपर शस्त्रोंका प्रहार क्यों करती हैं?

समस्त असुरोंको दृष्टिपात मात्रसे ही भस्म क्यों नहीं कर देतीं?

इसमें एक रहस्य है।

ये शत्रु भी हमारे शस्त्रोंसे पवित्र होकर उत्तम लोकोंमें जाये, इस प्रकार उनके प्रति भी आपका विचार अत्यन्त उत्तम रहता है।

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देवी के त्रिशूल का तेज

खड्‌गप्रभानिकरविस्फुरणैस्तथोग्रैः
शूलाग्रकान्तिनिवहेन दृशोऽसुराणाम्।
यन्नागता विलयमंशुमदिन्दुखण्ड-
योग्याननं तव विलोकयतां तदेतत्॥२०॥

खड्‌गके तेज-पूंजकी भयंकर दीप्तिसे तथा आपके त्रिशूलके अग्रभागकी घनीभूत प्रभासे चौंधियाकर, जो असुरोंकी आँखे फूट नहीं गयीं,

उसमें कारण यही था कि वे मनोहर रश्मियोंसे युक्त, चन्द्रमाके समान आनन्द प्रदान करनेवाले आपके इस सुन्दर मुखका दर्शन करते थे।

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देवी का शील, बल, पराक्रम और उनकी दया

दुर्वृत्तवृत्तशमनं तव देवि शीलं
रूपं तथैतदविचिन्त्यमतुल्यमन्यैः।
वीर्यं च हन्तृ हृतदेवपराक्रमाणां
वैरिष्वपि प्रकटितैव दया त्वयेत्थम्॥२१॥

देवि! आपका शील, दुराचारियोंके बुरे बर्तावको दूर करनेवाला है।

साथ ही यह रूप ऐसा है, जो कभी चिन्तनमें भी नहीं आ सकता और जिसकी कभी दूसरोंसे तुलना भी नहीं हो सकती; तथा आपका बल और पराक्रम तो उन दैत्योंका भी नाश करनेवाला है, जो कभी देवताओंके पराक्रमको भी नष्ट कर चुके थे।

इस प्रकार आपने शत्रुओंपर भी अपनी दया ही प्रकट की है।

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युद्ध में कठोरता और ह्रदय में भक्तों के लिए कृपा

केनोपमा भवतु तेऽस्य पराक्रमस्य
रूपं च शत्रुभयकार्यतिहारि कुत्र।
चित्ते कृपा समरनिष्ठुरता च दृष्टा
त्वय्येव देवि वरदे भुवनत्रयेऽपि॥२२॥

वरदायिनी देवि! आपके इस पराक्रमकी किसके साथ तुलना हो सकती है तथा शत्रुओंको भय देनेवाला एवं अत्यन्त मनोहर ऐसा रूप भी आपके सिवा और कहाँ है?

हृदयमें कृपा और युद्धमें निष्ठुरता, ये दोनों बातें तीनों लोकोंके भीतर केवल आपमें ही देखी गयी हैं।

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देवी द्वारा दैत्यों का संहार करके जगतकी रक्षा

त्रैलोक्यमेतदखिलं रिपुनाशनेन
त्रातं त्वया समरमूर्धनि तेऽपि हत्वा।
नीता दिवं रिपुगणा भयमप्यपास्त-
मस्माकमुन्मदसुरारिभवं नमस्ते॥२३॥

मात:! आपने शत्रुओंका नाश करके इस समस्त त्रिलोकीकी रक्षा की है।

उन शत्रुओंको भी युद्धभूमिमें मारकर स्वर्गलोकमें पहुँचाया है तथा उन्मत्त दैत्योंसे प्राप्त होनेवाले हम लोगोंके भयको भी दूर कर दिया है, आपको हमारा नमस्कार है।

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देवी माँ, हमारी रक्षा करो

शूलेन पाहि नो देवि पाहि खड्‌गेन चाम्बिके।
घण्टास्वनेन नः पाहि चापज्यानिःस्वनेन च॥२४॥

देवि! आप शूलसे हमारी रक्षा करें।

अम्बिके! आप खड़गसे भी हमारी रक्षा करें तथा घण्टाकी ध्वनि और धनुषकी टंकारसे भी हम लोगोंकी रक्षा करें।

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माँ चंडी, सभी दिशाओं में हमारी रक्षा करो

प्राच्यां रक्ष प्रतीच्यां च चण्डिके रक्ष दक्षिणे।
भ्रामणेनात्मशूलस्य उत्तरस्यां तथेश्वरि॥२५॥

चण्डिके! पूर्व, पश्चिम और दक्षिण दिशामें आप हमारी रक्षा करें।

ईश्वरि! अपने त्रिशूलको घुमाकर आप उत्तर दिशामें भी हमारी रक्षा करें।

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हे देवी, भूलोककी रक्षा करो

सौम्यानि यानि रूपाणि त्रैलोक्ये विचरन्ति ते।
यानि चात्यर्थघोराणि तै रक्षास्मांस्तथा भुवम्॥२६॥

तीनों लोकोंमें आपके जो परम सुन्दर एवं अत्यन्त भयंकर रूप विचरते रहते हैं, उनके द्वारा भी आप हमारी तथा इस भूलोककी रक्षा करें।

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देवी अम्बा, आपके शस्त्र हमारी रक्षा करें

खड्‌गशूलगदादीनि यानि चास्त्राणी तेऽम्बिके।
करपल्लवसङ्‌गीनि तैरस्मान् रक्ष सर्वतः॥२७॥

अम्बिके! आपके करमें शोभा पानेवाले खड़ग, शूल और गदा आदि जो-जो अस्त्र हों,
उन सबके द्वारा आप सब ओरसे हमलोगोंकी रक्षा करें।

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देवताओं ने देवी की स्तुति और पूजा की

ऋषिरुवाच॥२८॥
एवं स्तुता सुरैर्दिव्यैः कुसुमैर्नन्दनोद्भवैः।
अर्चिता जगतां धात्री तथा गन्धानुलेपनैः॥२९॥

ऋषि कहते हैं –
इस प्रकार जब देवताओंने जगन्माता दुर्गाकी स्तुति की और नन्दनवनके दिव्य पुष्पों एवं गन्ध-चन्दन आदिके द्वारा उनका पूजन किया,

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देवताओं की भक्ति से देवी प्रसन्न हुयी

भक्त्या समस्तैस्त्रिदशैर्दिव्यैर्धूपैस्तु* धूपिता।
प्राह प्रसादसुमुखी समस्तान् प्रणतान् सुरान्॥३०॥

फिर सबने मिलकर जब भक्तिपूर्वक दिव्य धूपोंकी सुगन्ध निवेदन की, तब देवीने प्रसत्रवदन होकर प्रणाम करते हुए सब देवताओंसे कहा।

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देवी ने देवताओं को वर मांगने के लिए कहा

देव्युवाच॥३१॥
व्रियतां त्रिदशाः सर्वे यदस्मत्तोऽभिवाञ्छितम्*॥३२॥

देवी बोलीं –
देवताओ! तुम सब लोग मुझसे जिस वस्तुकी अभिलाषा रखते हो, उसे माँगो।

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देवी की कृपा से सभी इच्छाएं पूरी हो गयी

देवा ऊचुः॥३३॥
भगवत्या कृतं सर्वं न किंचिदवशिष्यते॥३४॥

देवता बोले –
भगवतीने हमारी सब इच्छा पूर्ण कर दी, अब कुछ भी बाकी नहीं है।

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देवता, माँ भगवती से वर मांगते है

यदयं निहतः शत्रुरस्माकं महिषासुरः।
यदि चापि वरो देयस्त्वयास्माकं महेश्‍वरि॥३५॥

क्योंकि हमारा यह शत्रु महिषासुर मारा गया।

महेश्वरि! इतनेपर भी यदि आप हमें और वर देना चाहती हैं।

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जब जब देवी का स्मरण करे, देवी दर्शन देकर संकट दूर करें

संस्मृता संस्मृता त्वं नो हिंसेथाः परमापदः।
यश्‍च मर्त्यः स्तवैरेभिस्त्वां स्तोष्यत्यमलानने॥३६॥

तो हम जब-जब आपका स्मरण करें, तब-तब आप दर्शन देकर हम लोगोंके महान् संकट दूर कर दिया करें तथा

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जो मनुष्य देवी की स्तुति करे, देवी उस भक्त की इच्छाएं पूरी करें

तस्य वित्तर्द्धिविभवैर्धनदारादिसम्पदाम्।
वृद्धयेऽस्मत्प्रसन्ना त्वं भवेथाः सर्वदाम्बिके॥३७॥

प्रसत्रमुखी अम्बिके! जो मनुष्य इन स्तोत्रोंद्वारा आपकी स्तुति करे, उसे वित्त, समृद्धि और वैभव देनेके साथ ही उसकी धन आदि सम्पत्तिको भी बढ़ानेके लिये आप सदा हमपर प्रसत्र रहें।

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देवी ने देवताओं को वर दिया

ऋषिरुवाच॥३८॥
इति प्रसादिता देवैर्जगतोऽर्थे तथाऽऽत्मनः।
तथेत्युक्त्वा भद्रकाली बभूवान्तर्हिता नृप॥३९॥

ऋषि कहते हैं –
राजन्! देवताओंने जब अपने तथा जगत्‌के कल्याणके लिये, भद्रकाली देवीको इस प्रकार प्रसन्न किया, तब वे – तथास्तु – कहकर वहीं अन्तर्धान हो गयीं।

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जगतकी रक्षा करने वाली देवी की कथा

इत्येतत्कथितं भूप सम्भूता सा यथा पुरा।
देवी देवशरीरेभ्यो जगत्त्रयहितैषिणी॥४०॥

भूपाल! इस प्रकार पूर्वकालमें तीनों लोकोंका हित चाहनेवाली देवी जिस प्रकार देवताओंके शरीरोंसे प्रकट हुई थीं, वह सब कथा मैंने कह सुनायी।

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शुम्भ-निशुम्भ के संहार की कथा

पुनश्‍च गौरीदेहात्सा* समुद्भूता यथाभवत्।
वधाय दुष्टदैत्यानां तथा शुम्भनिशुम्भयोः॥४१॥
रक्षणाय च लोकानां देवानामुपकारिणी।
तच्छृणुष्व मयाऽऽख्यातं यथावत्कथयामि ते॥ह्रीं ॐ॥४२॥

अब पुन: देवताओंका उपकार करनेवाली वे देवी, दुष्ट दैत्यों तथा शुम्भ-निशुम्भका वध करने एवं सब लोकोंकी रक्षा करनेके लिये गौरीदेवीके शरीरसे जिस प्रकार प्रकट हुई थीं, वह सब प्रसंग मेरे मुँहसे सुनो।

मैं उसका तुमसे यथावत् वर्णन करता हूँ।

देवी-महात्म्य का चौथा अध्याय समाप्त

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
शक्रादिस्तुतिर्नाम चतुर्थोऽध्यायः॥४॥

इस प्रकार श्रीमार्कंडेय पुराण में, सावर्णिक मन्वंतर की कथा के अंतर्गत, देवी-महात्म्य में चौथा अध्याय पूरा हुआ।


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दुर्गा सप्तशती अध्याय – 5

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Durga Saptashati – 5

Durga Saptashati – Adhyay 03 with Meaning


दुर्गा सप्तशती अध्याय 3 में देवी ने कैसे सेनापतियोंसहित महिषासुर राक्षस का वध किया, इसका वर्णन दिया गया है।

साथ ही साथ महापराक्रमी सेनापति चिक्षुर, चामर और कई अन्य दैत्यों के संहार का भी वर्णन इस अध्याय में हैं।

दुर्गा सप्तशती के 700 श्लोकों में से इस तीसरे अध्याय में 44 श्लोक आते हैं।

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दुर्गा सप्तशती अध्याय की लिस्ट – Index


इस पोस्ट से सम्बन्धित एक महत्वपूर्ण बात

इस लेख में दुर्गा सप्तशती अध्याय 3 के सभी 44 श्लोक अर्थ सहित दिए गए हैं।

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दुर्गा सप्तशती अध्याय 3 का ध्यान

॥ध्यानम्॥
ॐ उद्यद्भानुसहस्रकान्तिमरुणक्षौमां शिरोमालिकां
रक्तालिप्तपयोधरां जपवटीं विद्यामभीतिं वरम्।
हस्ताब्जैर्दधतीं त्रिनेत्रविलसद्वक्त्रारविन्दश्रियं
देवीं बद्धहिमांशुरत्‍नमुकुटां वन्देऽरविन्दस्थिताम्॥

ध्यान

जगदम्बाके श्रीअंगोकी कान्ति उदयकालके सहस्रों सूर्योंके समान है।

वे लाल रंगकी रेशमी साड़ी पहने हुए हैं।

उनके गलेमें मुण्डमाला शोभा पा रही है। दोनों स्तनोंपर रक्त चन्दनका लेप लगा है।

वे अपने कर-कमलोंमें जपमालिका, विद्या और अभय तथा वर नामक मुद्राएँ धारण किये हुए हैं।

तीन नेत्रोंसे सुशोभित मुखार विन्दकी बड़ी शोभा हो रही है।

उनके मस्तकपर चन्द्रमाके साथ ही रत्नमय मुकुट बँधा है तथा वे कमलके आसन पर विराजमान हैं।

ऐसी देवीको मैं भक्तिपूर्वक प्रणाम करता (करती) हूँ।

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सेनापति चिक्षुर का संहार

महिषासुर का सेनापति चिक्षुर युद्ध के लिए आया

ॐ ऋषिररुवाच॥१॥
निहन्यमानं तत्सैन्यमवलोक्य महासुरः।
सेनानीश्‍चिक्षुरः कोपाद्ययौ योद्‍धुमथाम्बिकाम्॥२॥

ऋषि कहते है – दैत्यों की सेना को इस प्रकार तहस-नहस होते देख महादैत्य सेनापति चिक्षुर क्रोध में भरकर अम्बिका देवीसे युद्ध करने के लिये आगे बढ़ा।

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चिक्षुर दैत्य की बाणवर्षा

स देवीं शरवर्षेण ववर्ष समरेऽसुरः।
यथा मेरुगिरेः श्रृङ्‌गं तोयवर्षेण तोयदः॥३॥

वह असुर रणभूमि में देवी के ऊपर इस प्रकार बाणवर्षा करने लगा, जैसे बादल मेरुगिरि के शिखर पर पानी की धार बरसा रहा हो।

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अम्बिकादेवी ने चिक्षुर के शस्त्रों को काट डाला

तस्यच्छित्त्वा ततो देवी लीलयैव शरोत्करान्।
जघान तुरगान् बाणैर्यन्तारं चैव वाजिनाम्॥४॥
चिच्छेद च धनुः सद्यो ध्वजं चातिसमुच्छ्रितम्।
विव्याध चैव गात्रेषु छिन्नधन्वानमाशुगैः॥५॥

तब देवी ने अपने बाणों से उसके बाण समूह को अनायास ही काटकर उसके घोड़ों और सारथि को भी मार डाला।

साथ ही उसके धनुष तथा अत्यंत ऊंची ध्वजा को भी तत्काल काट गिराया।

धनुष कट जाने पर उसके अंगों को अपने बाणों से बींध डाला।

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चिक्षुर तलवार लेकर आगे बढ़ा

सच्छिन्नधन्वा विरथो हताश्‍वो हतसारथिः।
अभ्यधावत तां देवीं खड्‌गचर्मधरोऽसुरः॥६॥

धनुष, रथ, घोड़े और सारथि के नष्ट हो जाने पर वह असुर ढाल और तलवार लेकर देवी की ऒर दौड़ा।

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चिक्षुर ने माँ दुर्गा के वाहन सिंह पर शस्त्र चलाया

सिंहमाहत्य खड्‌गेन तीक्ष्णधारेण मूर्धनि।
आजघान भुजे सव्ये देवीमप्यतिवेगवान्॥७॥

उसने तीखी धार वाली तलवार से सिंह के मस्तक पर चोट करके देवी की भी बायीं भुजा में बड़े वेग से प्रहार किया।

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असुर के शस्त्र को देवी माँ ने काट दिया

तस्याः खड्‌गो भुजं प्राप्य पफाल नृपनन्दन।
ततो जग्राह शूलं स कोपादरुणलोचनः॥८॥

राजन्! देवी की बांह पर पहुंचते ही वह तलवार टूट गयी।

फिर तो क्रोध से लाल आंखें करके उस राक्षस ने शूल हाथ में लिया।

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चिक्षुर ने शूल चलाया

चिक्षेप च ततस्तत्तु भद्रकाल्यां महासुरः।
जाज्वल्यमानं तेजोभी रविबिम्बमिवाम्बरात्॥९॥

उस महादैत्य ने उस शूल को भगवती भद्रकाली के ऊपर चलाया।

वह शूल आकाश से गिरते हुए सूर्यमंडल की भाँति अपने तेज से प्रज्वलित हो उठा।

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माँ अम्बिका ने सेनापति चिक्षुर का संहार किया

दृष्ट्‍वा तदापतच्छूलं देवी शूलममुञ्चत।
तच्छूलं* शतधा तेन नीतं स च महासुरः॥१०॥

उस शूल को अपनी ऒर आते देख देवी ने भी शूल का प्रहार किया।

उससे राक्षस के शूल के सैकड़ों टुकड़े हो गए, साथ ही महादैत्य चिक्षुर की भी धज्जियां उड़ गईं।

वह प्राणों से हाथ धो बैठा।

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चामर का वध

अब चामर दैत्य युद्ध करने के लिए आया

हते तस्मिन्महावीर्ये महिषस्य चमूपतौ।
आजगाम गजारूढश्‍चामरस्त्रिदशार्दनः॥११॥

महिषासुर के सेनापति उस महापराक्रमी चिक्षुर के मारे जाने पर देवताऒं को पीड़ा देनेवाला चामर हाथी पर चढ़कर आया।

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माँ दुर्गा ने चामर के शक्ति अस्त्र को निष्प्रभ किया

सोऽपि शक्तिं मुमोचाथ देव्यास्तामम्बिका द्रुतम्।
हुंकाराभिहतां भूमौ पातयामास निष्प्रभाम्॥१२॥

उसने भी देवी के ऊपर शक्ति का प्रहार किया, किंतु जगदम्बा ने उसे अपने हुंकार से ही आहत एवं निष्प्रभ करके पृथ्वी पर गिरा दिया।

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माँ जगदम्बा ने चामर के शूल को भी काट डाला

भग्नां शक्तिं निपतितां दृष्ट्‌वा क्रोधसमन्वितः।
चिक्षेप चामरः शूलं बाणैस्तदपि साच्छिनत्॥१३॥

शक्ति टूटकर गिरी हुई देख चामर को बड़ा क्रोध हुआ।

अब उसने शूल चलाया किंतु देवी ने उसे भी अपने बाणों द्वारा काट डाला।

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देवी माँ के वाहन सिंह का चामर से युद्ध

ततः सिंहः समुत्पत्य गजकुम्भान्तरे स्थितः।
बाहुयुद्धेन युयुधे तेनोच्चैस्त्रिदशारिणा॥१४॥

इतने में ही देवी का सिंह उछलकर हाथी के मस्तकपर चढ़ बैठा और उस दैत्य के साथ खूब जोर लगाकर बाहुयुद्ध करने लगा।

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सिंह का चामर से युद्ध

युद्ध्यमानौ ततस्तौ तु तस्मान्नागान्महीं गतौ।
युयुधातेऽतिसंरब्धौ प्रहारैरतिदारुणैः॥१५॥

वे दोनों लड़ते-लड़ते हाथी से पृथ्वीपर आ गए और क्रोध में भरकर एक-दूसरे पर बड़े भयंकर प्रहार करते हुए लडऩे लगे।

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देवी माँ के सिंह ने चामर का वध किया

ततो वेगात् खमुत्पत्य निपत्य च मृगारिणा।
करप्रहारेण शिरश्‍चामरस्य पृथक्कृतम्॥१६॥

उसके बाद सिंह बड़े वेग से आकाश की ऒर उछला और उधर से गिरते समय उसने पंजों की मार से चामर का सिर धड़ से अलग कर दिया।

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माँ जगदम्बा ने, उदग्र, कराल आदि दूसरे राक्षसों का संहार किया

उदग्रश्‍च रणे देव्या शिलावृक्षादिभिर्हतः।
दन्तमुष्टितलैश्‍चैव करालश्‍च निपातितः॥१७॥

इसी प्रकार उदग्र भी शिला और वृक्ष आदि की मार खाकर रणभूमि में देवी के हाथसे मारा गया।

कराल भी दाँतों, मुक्कों और थपड़ों की चोट से धराशायी हो गया।

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माँ भगवती ने दूसरे राक्षसों का भी संहार किया

देवी क्रुद्धा गदापातैश्‍चूर्णयामास चोद्धतम्।
बाष्कलं भिन्दिपालेन बाणैस्ताम्रं तथान्धकम्॥१८॥

क्रोध में भरी हुई देवी ने गदा की चोट से उद्धत का कचूमर निकाल डाला।

भिदिपाल से वाष्कल को तथा बाणों से ताम्र और अधक को मौत के घाट उतार दिया।

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माँ परमेश्वरि ने कई असुरों को मार डाला

उग्रास्यमुग्रवीर्यं च तथैव च महाहनुम्।
त्रिनेत्रा च त्रिशूलेन जघान परमेश्वरी॥१९॥

तीन नेत्रों वाली परमेश्वरी ने त्रिशूल से उग्रास्य, उग्रवीर्य तथा महाहनु नामक दैत्य को मार डाला।

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देवि माँ ने दुर्मुख और दुर्धर राक्षसों को यमलोक भेजा

बिडालस्यासिना कायात्पातयामास वै शिरः।
दुर्धरं दुर्मुखं चोभौ शरैर्निन्ये यमक्षयम्*॥२०॥

तलवार की चोट से विडाल के मस्तक को धड़ से काट गिराया।

दुर्धर और दुर्मुख इन दोनों को भी अपने बाणों से यमलोक भेज दिया।

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महिषासुर का वध

महिषासुर ने भैंसे का रूप धारण किया

एवं संक्षीयमाणे तु स्वसैन्ये महिषासुरः।
माहिषेण स्वरूपेण त्रासयामास तान् गणान्॥२१॥

इस प्रकार अपनी सेना का संहार होता देख महिषासुर ने भैंसे का रूप धारण करके
देवी के गणों पर प्रहार आरम्भ किया।

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महिषासुर का भैंसे के रूप में युद्ध

कांश्‍चित्तुण्डप्रहारेण खुरक्षेपैस्तथापरान्।
लाङ्‌गूलताडितांश्‍चान्याञ्छृङ्‌गाभ्यां च विदारितान्॥२२॥
वेगेन कांश्‍चिदपरान्नादेन भ्रमणेन च।
निःश्वासपवनेनान्यान् पातयामास भूतले॥२३॥

महिषासुर थूथुन से मारकर, खुरों का प्रहार करके, पूंछ से चोट पहुंचाकर, सींगों से विदीर्ण करके, कुछ को सिंहनाद से, कुछ को चक्कर देकर और नि:श्वास-वायु के झोंके से देवी के गणों को धराशायी कर दिया।

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महिषासुर देवी माँ से युद्ध के लिए बढ़ा

निपात्य प्रमथानीकमभ्यधावत सोऽसुरः।
सिंहं हन्तुं महादेव्याः कोपं चक्रे ततोऽम्बिका॥२४॥

इस प्रकार गणों की सेना को गिराकर वह असुर
महादेवी के सिंह को मारने के लिए झपटा।

इससे जगदम्बा को बड़ा क्रोध हुआ।

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महिषासुर दैत्य का क्रोध

सोऽपि कोपान्महावीर्यः खुरक्षुण्णमहीतलः।
श्रृङ्‌गाभ्यां पर्वतानुच्चांश्चिक्षेप च ननाद च॥२५॥

उधर महापराक्रमी महिषासुर भी क्रोध में भरकर धरती को खुरों से खोदने लगा।

अपने सींगों से ऊंचे-ऊंचे पर्वतों को उठाकर फेंकने और गर्जने लगा।

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महिषासुर दैत्य के क्रोध का धरती और सागर पर असर

वेगभ्रमणविक्षुण्णा मही तस्य व्यशीर्यत।
लाङ्‌गूलेनाहतश्‍चाब्धिः प्लावयामास सर्वतः॥२६॥

उसके वेग से चक्कर देने के कारण पृथ्वी क्षुब्ध होकर फटने लगी।

उसकी पूंछ से टकराकर समुद्र सब ऒर से धरती को डुबोने लगा।

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महिषासुर दैत्य के क्रोध का आकाश पर असर

धुतश्रृङ्‌गविभिन्नाश्‍च खण्डं* खण्डं ययुर्घनाः।
श्‍वासानिलास्ताः शतशो निपेतुर्नभसोऽचलाः॥२७॥

हिलते हुए सींगों के आघात से विदीर्ण होकर बादलों के टुकड़े-टुकड़े हो गए।

उसके श्वास की प्रचंड वायु के वेग से उड़े हुए सैकड़ों पर्वत आकाश से गिरने लगे।

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महिषासुर ने सिंह का रूप धारण किया

इति क्रोधसमाध्मातमापतन्तं महासुरम्।
दृष्ट्‌वा सा चण्डिका कोपं तद्वधाय तदाकरोत्॥२८॥
सा क्षिप्त्वा तस्य वै पाशं तं बबन्ध महासुरम्।
तत्याज माहिषं रूपं सोऽपि बद्धो महामृधे॥२९॥

इस प्रकार क्रोधमें भरे हुए उस महादैत्य को अपनी ऒर आते देख चंडिका ने उसका वध करने के लिए महान क्रोध किया।

उन्होंने पाश फेंककर उस महान असुर को बांध लिया।

उस महासंग्राम में बँध जाने पर उसने भैंसे का रूप त्यागकर तत्काल सिंह के रूप में प्रकट हो गया।

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महिषासुर खड्गधारी पुरुष के रूप में

ततः सिंहोऽभवत्सद्यो यावत्तस्याम्बिका शिरः।
छिनत्ति तावत्पुरुषः खड्‌गपाणिरदृश्यत॥३०॥

उस अवस्था में जगदम्बा ज्योंही उसका मस्तक काटने के लिए उद्दत हुईं, त्योंही वह खड्गधारी पुरुष के रूप में दिखायी देने लगा।

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महिषासुर हाथी के रूप में

तत एवाशु पुरुषं देवी चिच्छेद सायकैः।
तं खड्‌गचर्मणा सार्धं ततः सोऽभून्महागजः॥३१॥

तब देवी ने तुरंत ही बाणों की वर्षा करके, ढाल और तलवार के साथ उस पुरुष को भी बींध डाला।

इतने में ही वह महान गजराज के रूप में परिणत हो गया।

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देवी ने हाथीरुपी महिषासुर की सूंड काटी

करेण च महासिंहं तं चकर्ष जगर्ज च।
कर्षतस्तु करं देवी खड्‌गेन निरकृन्तत॥३२॥

वह अपनी सूंड़ से देवी के विशाल सिंह को खींचने और गर्जने लगा।

खींचते समय देवी ने तलवार से उसकी सूँड़ काट डाली।

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महिषासुर फिर से भैंसे के रूप में

ततो महासुरो भूयो माहिषं वपुरास्थितः।
तथैव क्षोभयामास त्रैलोक्यं सचराचरम्॥३३॥

तब उस महादैत्य ने पुन: भैंसे का शरीर धारण कर लिया और पहले की ही भांति चराचर प्राणियों सहित तीनों लोकों को व्याकुल करने लगा।

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चंडिका माँ का मधुपान और क्रोध

ततः क्रुद्धा जगन्माता चण्डिका पानमुत्तमम्।
पपौ पुनः पुनश्‍चैव जहासारुणलोचना॥३४॥

तब क्रोध में भरी हुई जगत माता चंडिका बारंबार उत्तम मधु का पान करने और लाल आंखें करके हंसने लगीं।

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घमंडी महिषासुर का देवी से युद्ध

ननर्द चासुरः सोऽपि बलवीर्यमदोद्‌धतः।
विषाणाभ्यां च चिक्षेप चण्डिकां प्रति भूधरान्॥३५॥

उधर वह बल और पराक्रम के मद से उमड़ा हुआ राक्षस गर्जने लगा और अपने सींगों से चंडी के ऊपर पर्वतों को फेंकने लगा।

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माँ चंडी का क्रोधित स्वरुप

सा च तान् प्रहितांस्तेन चूर्णयन्ती शरोत्करैः।
उवाच तं मदोद्‌धूतमुखरागाकुलाक्षरम्॥३६॥

उस समय देवी अपने बाणों के समूहों से उसके फेंके हुए पर्वतों को चूर्ण करती हुई बोली।

बोलते समय उनका मुख मधु के मद से लाल हो रहा था और वाणी लडख़ड़ा रही थी।

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माँ भगवती का मधुपान

देव्युवाच॥३७॥
गर्ज गर्ज क्षणं मूढ मधु यावत्पिबाम्यहम्।
मया त्वयि हतेऽत्रैव गर्जिष्यन्त्याशु देवताः॥३८॥

देवीने कहा – ऒ मूढ़! मैं जब तक मधु पीती हूँ, तब तक तू क्षणभर के लिए खूब गर्जना कर ले।

मेरे हाथ से यही तेरी मृत्यु हो जाने पर अब शीघ्र ही देवता भी गर्जना करेंगे।

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महादैत्य महिषासुर, माँ भगवती के पैरों के निचे

ऋषिरुवाच॥३९॥
एवमुक्त्वा समुत्पत्य साऽऽरूढा तं महासुरम्।
पादेनाक्रम्य कण्ठे च शूलेनैनमताडयत्॥४०॥

ऋषि कहते हैं – इतना कहकर देवी उछली और उस महादैत्य के ऊपर चढ़ गईं।

फिर अपने पैर से उसे दबाकर उन्होंने शूल से उसके कंठ में आघात किया।

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महिषासुर का फिर से प्रयत्न

ततः सोऽपि पदाऽऽक्रान्तस्तया निजमुखात्ततः।
अर्धनिष्क्रान्त एवासीद्* देव्या वीर्येण संवृतः॥४१॥

उनके पैर से दबा होने पर भी महिषासुर अपने मुख से दूसरे रूपमें बाहर होने लगा।

अभी आधे शरीर से ही वह बाहर निकलने पाया था कि देवीने अपने प्रभावसे उसे रोक दिया।

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माँ दुर्गा ने महिषासुर का संहार किया

अर्धनिष्क्रान्त एवासौ युध्यमानो महासुरः।
तया महासिना देव्या शिरश्छित्त्वा निपातितः*॥४२॥

आधा निकला होने पर भी वह महादैत्य देवी से युद्ध करने लगा।

तब देवी ने बहुत बड़ी तलवार से उसका मस्तक काट गिराया।

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महिषासुर के संहार के कारण देवता प्रसन्न हुए

ततो हाहाकृतं सर्वं दैत्यसैन्यं ननाश तत्।
प्रहर्षं च परं जग्मुः सकला देवतागणाः॥४३॥

फिर तो हाहाकार करती हुई दैत्यों की सारी सेना भाग गई तथा देवता अत्यंत प्रसन्न हो गए।

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देवताओं ने देवी की स्तुति की

तुष्टुवुस्तां सुरा देवीं सह दिव्यैर्महर्षिभिः।
जगुर्गन्धर्वपतयो ननृतुश्‍चाप्सरोगणाः॥ॐ॥४४॥

देवताऒंने दिव्य महर्षियों के साथ दुर्गा देवी की स्तुति की।

गंधर्वराज गाने लगे तथा असराएं नृत्य करने लगीं।

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महिषासुरवध नामक तीसरा अध्याय समाप्त

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
महिषासुरवधो नाम तृतीयोऽध्यायः॥३॥

इस प्रकार श्रीमार्कंडेय पुराण में सावर्णिक मन्वंतर की कथा के अंतर्गत, देवी माहाम्य में महिषासुरवध नामक तीसरा अध्याय संपन्न हुआ।



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दुर्गा सप्तशती अध्याय – 4

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दुर्गा सप्तशती अध्याय की लिस्ट – Index

दुर्गा सप्तशती अध्याय 2 में, देवताओं के तेज से किस प्रकार देवी दुर्गा का प्रादुर्भाव हुआ अर्थात प्रकट हुई और उसके बाद देवी ने कैसे महिषासुर की सेना का वध किया, इसका वर्णन है।

दुर्गा सप्तशती के 700 श्लोकों में से इस अध्याय में 69 श्लोक आते हैं।


इस पोस्ट से सम्बन्धित एक महत्वपूर्ण बात

इस लेख में दुर्गा सप्तशती अध्याय 2 के सभी 69 श्लोक अर्थ सहित दिए गए हैं।

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माँ दुर्गा को प्रणाम

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दुर्गा सप्तशती अध्याय 2 का विनियोग और ध्यान

दूसरे अध्याय का विनियोग क्या है?

॥विनियोगः॥

ॐ मध्यमचरित्रस्य विष्णुर्ऋषिः, महालक्ष्मीर्देवता, उष्णिक् छन्दः,
शाकम्भरी शक्तिः, दुर्गा बीजम्, वायुस्तत्त्वम्, यजुर्वेदः स्वरूपम्,
श्रीमहालक्ष्मीप्रीत्यर्थं मध्यमचरित्रजपे विनियोगः।

विनियोग

ॐ – मध्यम चरित्रके विष्णु ऋषि, महालक्ष्मी देवता, उष्णिक् छन्द, शाकम्भरी शक्ति, दुर्गा बीज, वायु तत्त्व और यजुर्वेद स्वरूप है। श्रीमहालक्ष्मीकी प्रसत्रताके लिये मध्यम चरित्रके पाठमें इसका विनियोग है।

ऊँ नमश्चंडिकायैः नमः

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दूसरे अध्याय से पहले ध्यान कैसे करें?

महिषासुर-मर्दिनी भगवती महालक्ष्मीका का ध्यान मन्त्र इस प्रकार है:

॥ध्यानम्॥
ॐ अक्षस्रक्‌परशुं गदेषुकुलिशं पद्मं धनुष्कुण्डिकां
दण्डं शक्तिमसिं च चर्म जलजं घण्टां सुराभाजनम्।
शूलं पाशसुदर्शने च दधतीं हस्तैः प्रसन्नाननां
सेवे सैरिभमर्दिनीमिह महालक्ष्मीं सरोजस्थिताम्॥

ध्यान

मैं कमलके आसनपर बैठी हुई, प्रसत्र मुखवाली महिषासुर-मर्दिनी भगवती महालक्ष्मीका भजन करता / करती हूँ, जो अपने हाथोंमें
– अक्षमाला, फरसा, गदा, बाण, वज्र, पद्य, धनुष, कुण्डिका, दण्ड, शक्ति, खड़ग, ढाल, शुद्ध, घण्टा, मधुपात्र, शूल, पाश और चक्र धारण करती हैं।

कमलके आसनपर बैठी हुई, हाथों में शस्त्र धारण किये हुए,
महिषासुर-मर्दिनी भगवती महालक्ष्मीका ध्यान।

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दुर्गा सप्तशती अध्याय 2

देवताओंका किसके साथ युद्ध हुआ और उसमे कौन जीता?

ॐ ह्रीं ऋषिरुवाच॥१॥
देवासुरमभूद्युद्धं पूर्णमब्दशतं पुरा।
महिषेऽसुराणामधिपे देवानां च पुरन्दरे॥२॥
तत्रासुरैर्महावीर्यैर्देवसैन्यं पराजितम्।
जित्वा च सकलान् देवानिन्द्रोऽभून्महिषासुरः॥३॥

मार्केंडेय ऋषि कहते हैं – पूर्वकाल में देवताओं और असुरों में सौ वर्षों तक घोर संग्राम हुआ था।

उसमें असुरोंका स्वामी महिषासुर था, और देवताओंके नायक इंद्र थे।

उस युद्धमें देवताओं की सेना महाबली असुरों से परास्त हो गयी।

सम्पूर्ण देवताओं को जीतकर महिषासुर इंद्र बन बैठा।

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युद्ध में परास्त होने पर देवता क्या करते है?

ततः पराजिता देवाः पद्मयोनिं प्रजापतिम्।
पुरस्कृत्य गतास्तत्र यत्रेशगरुडध्वजौ॥४॥
यथावृत्तं तयोस्तद्वन्महिषासुरचेष्टितम्।
त्रिदशाः कथयामासुर्देवाभिभवविस्तरम्॥५॥

तब पराजित देवता प्रजापति ब्रह्माजीको के साथ उस स्थान पर गये, जहाँ भगवान् शंकर और विष्णु विराजमान थे।

देवताओं ने महिषासुर के पराक्रम तथा अपनी पराजय का पूरा वृतांत उन दोनों देवेश्वरों से कह सुनाया।

माँ भगवती को नमस्कार

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देवता, भगवान् विष्णु और शिवजी से क्या प्रार्थना करते है?

सूर्येन्द्राग्न्यनिलेन्दूनां यमस्य वरुणस्य च।
अन्येषां चाधिकारान् स स्वयमेवाधितिष्ठति॥६॥
स्वर्गान्निराकृताः सर्वे तेन देवगणा भुवि।
विचरन्ति यथा मर्त्या महिषेण दुरात्मना॥७॥
एतद्वः कथितं सर्वममरारिविचेष्टितम्।
शरणं वः प्रपन्नाः स्मो वधस्तस्य विचिन्त्यताम्॥८॥

देवता बोले – भगवन्! सूर्य, इंद्र, अग्रि, वायु, चन्द्रमा, यम, वरुण तथा अन्य देवताओं के अधिकार छीनकर महिषासुर स्वयं ही सबका अधिष्ठाता बना बैठा है।

उस दुरात्मा महिष ने समस्त देवताओं को स्वर्ग से निकाल दिया है। अब वे मनुष्यों की भाँति पृथ्वी पर विचरते हैं।

दैत्यों की यह सारी करतूत हमने आपसे कह सुनाई। अब हम आपकी ही शरण में हैं। उसके वध का कोई उपाय सोचिए।

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भगवान और देवताओं के तेज से देवी का प्रगट होना

देवताओं का तेज

इत्थं निशम्य देवानां वचांसि मधुसूदनः।
चकार कोपं शम्भुश्च भ्रुकुटीकुटिलाननौ॥९॥
ततोऽतिकोपपूर्णस्य चक्रिणो वदनात्ततः।
निश्‍चक्राम महत्तेजो ब्रह्मणः शंकरस्य च॥१०॥
अन्येषां चैव देवानां शक्रादीनां शरीरतः।
निर्गतं सुमहत्तेजस्तच्चैक्यं समगच्छत॥११॥
अतीव तेजसः कूटं ज्वलन्तमिव पर्वतम्।
ददृशुस्ते सुरास्तत्र ज्वालाव्याप्तदिगन्तरम्॥१२॥

देवताओं के वचन सुनकर, भगवान विष्णु और शिव अत्यंत क्रोध से भर गये।

कोप में भरे चक्रपाणि श्रीविष्णु के मुख से एक महान तेज प्रकट हुआ।

इसी प्रकार ब्रह्मा, शंकर तथा इंद्र आदि अन्य देवताओं के शरीर से भी बड़ा भारी तेज निकला। वह सब तेज़ मिलकर एक हो गया।

वह तेज पुंज जलते पर्वत सा जान पड़ा। उसकी ज्वालाएं, सभी दिशाओं में व्याप्त हो रही थीं।

समस्त देवताओं के शरीर से प्रकट हुए उस तेज की कहीं तुलना नहीं थी।

माता लक्ष्मी को प्रणाम

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देवताओं का तेज मिलकर देवी का प्रकट होना

अतुलं तत्र तत्तेजः सर्वदेवशरीरजम्।
एकस्थं तदभून्नारी व्याप्तलोकत्रयं त्विषा॥१३॥

एकत्रित होने पर वह नारीरूप में परिणत हो गया और अपने प्रकाश से तीनों लोकों में व्याप्त जान पड़ा।

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शंकर, विष्णु और यमराज का तेज

यदभूच्छाम्भवं तेजस्तेनाजायत तन्मुखम्।
याम्येन चाभवन् केशा बाहवो विष्णुतेजसा॥१४॥

भगवान शंकर का जो तेज़ था, उससे देवी का मुख प्रकट हुआ।

यमराज के तेज से सिर के बाल निकल आए।

श्रीविष्णु के तेज से भुजाएं उत्पन्न हुईं।

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इंद्र, चन्द्रमा, वायु और पृथ्वी का तेज

सौम्येन स्तनयोर्युग्मं मध्यं चैन्द्रेण चाभवत्।
वारुणेन च जङ्‍घोरू नितम्बस्तेजसा भुवः॥१५॥

चंद्रमा के तेज़ से वक्षस्थल का और इंद्र के तेज़ से मध्यभाग (कटिप्रदेश) का प्रादुर्भाव हुआ।

वरुण के तेज से जंघा और पिंडली तथा पृथ्वी के तेज से नितम्ब भाग प्रकट हुआ।

माँ दुर्गा को प्रणाम

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ब्रह्मा, सूर्य, कुबेर और वसुओं का तेज

ब्रह्मणस्तेजसा पादौ तदङ्‌गुल्योऽर्कतेजसा।
वसूनां च कराङ्‌गुल्यः कौबेरेण च नासिका॥१६॥

ब्रह्मा के तेज से दोनों चरण और सूर्य के तेज से उनकी अंगुलियां हुईं।

वसुओं के तेज से हाथों की अँगुलियां और कुबेर के तेज से नासिका प्रकट हुई।

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प्रजापति, अग्नि, संध्या और वायु का तेज

तस्यास्तु दन्ताः सम्भूताः प्राजापत्येन तेजसा।
नयनत्रितयं जज्ञे तथा पावकतेजसा॥१७॥
भ्रुवौ च संध्ययोस्तेजः श्रवणावनिलस्य च।
अन्येषां चैव देवानां सम्भवस्तेजसां शिवा॥१८॥
ततः समस्तदेवानां तेजोराशिसमुद्भवाम्।
तां विलोक्य मुदं प्रापुरमरा महिषार्दिताः॥१९॥

उस देवी के दाँत प्रजापति के तेज से और तीनों नेत्र अग्नि के तेज़ से प्रकट हुए।

उनकी भौंहें संध्या के और कान वायु के तेज से उत्पन्न हुए थे।

उसी प्रकार अन्यान्य देवताओं के तेज से भी उस कल्याणमयी देवी का आविर्भाव हुआ।

समस्त देवताओं के तेजपुंज से प्रकट हुई देवी को देखकर महिषासुर के सताए देवता बहुत प्रसन्न हुए।

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देवताओं ने देवी माँ को कौन-कौन से अस्त्र-शस्त्र भेंट किए?

शंकर और विष्णु के शस्त्र

शूलं शूलाद्विनिष्कृष्य ददौ तस्यै पिनाकधृक्।
चक्रं च दत्तवान् कृष्णः समुत्पाद्य स्वचक्रतः॥२०॥

पिनाकधारी भगवान शंकर ने अपने शूल से एक शूल निकालकर उन्हें दिया।

फिर भगवान विष्णु ने भी अपने चक्रसे चक्र उत्पन्न करके भगवती को अर्पण किया।

माँ दुर्गा को प्रणाम

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वरुण, अग्नि और वायु के शस्त्र

शङ्‌खं च वरुणः शक्तिं ददौ तस्यै हुताशनः।
मारुतो दत्तवांश्‍चापं बाणपूर्णे तथेषुधी॥२१॥

वरुण ने शंख भेंट किया, अग्नि ने शक्ति दी और वायु ने धनुष तथा बाण से भरे हुए दो तरकस प्रदान किए।

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इंद्र का शस्त्र

वज्रमिन्द्रः समुत्पाद्य कुलिशादमराधिपः।
ददौ तस्यै सहस्राक्षो घण्टामैरावताद् गजात्॥२२॥

सहस्र नेत्रों वाले देवराज इंद्र ने अपने वज्र से वज्र उत्पन्न करके दिया और ऐरावत हाथी से उतारकर एक घंटा भी प्रदान किया।

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यमराज, वरुण, ब्रम्हाजी की भेंट

कालदण्डाद्यमो दण्डं पाशं चाम्बुपतिर्ददौ।
प्रजापतिश्‍चाक्षमालां ददौ ब्रह्मा कमण्डलुम्॥२३॥

यमराज ने कालदंड से दंड, वरूण ने पाश, प्रजापति ने स्फटिक की माला दी।

ब्रह्माजी ने कमंडलु भेंट किया।

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सूर्य और काल की भेंट

समस्तरोमकूपेषु निजरश्मीन् दिवाकरः।
कालश्‍च दत्तवान् खड्‌गं तस्याश्‍चर्म च निर्मलम्॥२४॥

सूर्य ने देवी के समस्त रोम-कूपों में अपनी किरणों का तेज भर दिया।

काल ने चमकती ढाल और तलवार दी।

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क्षीरसागर की भेंट

क्षीरोदश्‍चामलं हारमजरे च तथाम्बरे।
चूडामणिं तथा दिव्यं कुण्डले कटकानि च॥२५॥

क्षीरसागर ने धवल हार तथा कभी जीर्ण न होने वाले दो दिव्य वस्त्र भेंट किये।

माँ दुर्गा को प्रणाम

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क्षीरसागर और विश्वकर्मा की भेंट

अर्धचन्द्रं तथा शुभ्रं केयूरान् सर्वबाहुषु।
नूपुरौ विमलौ तद्वद् ग्रैवेयकमनुत्तमम्॥२६॥
अङ्‌गुलीयकरत्‍नानि समस्तास्वङ्‌गुलीषु च।
विश्‍वकर्मा ददौ तस्यै परशुं चातिनिर्मलम्॥२७॥

साथ ही उन्होंने दिव्य चूडामणि, दो कुंडल, कड़े, उज्जवल अर्धचंद्र, सब बाहुओं के लिए केयूर, दोनों चरणों के लिए निर्मल नूपुर, गले की हंसली और सब अंगुलियों के लिए रत्नों की अंगूठियां भी दीं।

विश्वकर्मा ने उन्हें फरसा भेंट किया।

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विश्वकर्मा की भेंट

अस्त्राण्यनेकरूपाणि तथाभेद्यं च दंशनम्।
अम्लानपङ्‌कजां मालां शिरस्युरसि चापराम्॥२८॥

साथ ही अनेक प्रकार के अस्त्र और अभेद्य कवच दिए।

इनके अलावा मस्तक और वक्ष:स्थल पर धारण करने के लिए, कभी न कुम्हलाने वाले कमलों की मालाएं दीं।

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जलधि और हिमालय की भेंट

अददज्जलधिस्तस्यै पङ्‌कजं चातिशोभनम्।
हिमवा‍न् वाहनं सिंहं रत्‍नानि विविधानि च॥२९॥

जलधि ने उन्हें सुंदर कमल का फूल भेंट किया।

हिमालय ने सवारी के लिए सिंह तथा भांति-भांति के रत्न समर्पित किए।

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कुबेर और शेष राजा की भेंट

ददावशून्यं सुरया पानपात्रं धनाधिपः।
शेषश्‍च सर्वनागेशो महामणिविभूषितम्॥३०॥
नागहारं ददौ तस्यै धत्ते यः पृथिवीमिमाम्॥
अन्यैरपि सुरैर्देवी भूषणैरायुधैस्तथा॥३१॥

धनाध्यक्ष कुबेर ने मधु से भरा पानपात्र दिया तथा सम्पूर्ण नागों के राजा शेष ने, जो इस पृथ्वी का धारण करते हैं, उन्हें बहुमूल्य मणियों से विभूषित नागहार भेंट किया।

इसी प्रकार अन्य देवताओं ने भी आभूषण और अस्त्र-शस्त्र देकर देवी का सम्मान किया।

माँ दुर्गा को प्रणाम

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देवी की गर्जना का प्रभाव कैसा था?

सम्मानिता ननादोच्चैः साट्टहासं मुहुर्मुहुः।
तस्या नादेन घोरेण कृत्स्नमापूरितं नभः॥३२॥
अमायतातिमहता प्रतिशब्दो महानभूत्।
चुक्षुभुः सकला लोकाः समुद्राश्‍च चकम्पिरे॥३३॥
चचाल वसुधा चेलुः सकलाश्‍च महीधराः।
जयेति देवाश्‍च मुदा तामूचुः सिंहवाहिनीम्॥३४॥
तुष्टुवुर्मुनयश्‍चैनां भक्तिनम्रात्ममूर्तयः।
दृष्ट्‌वा समस्तं संक्षुब्धं त्रैलोक्यममरारयः॥३५॥

इसके पश्चात देवी ने अट्ठासपूर्वक उच्च स्वर से गर्जना की।

उस भयंकर नाद से संपूर्ण आकाश गूंज उठा।

देवी का वह अत्यंत उच्च स्वरसे किया हुआ सिंहनाद कहीं समा ना सका, आकाश में बड़ी ज़ोर की प्रतिध्वनि हुई, जिससे सम्पूर्ण विश्व में हलचल मच गयी और समुद्र क़ांप उठे।

पृथ्वी डोलने लगी और समस्त पर्वत हिलने लगे।

उस समय देवताओं ने अत्यंत प्रसन्नता के साथ सिंहवाहिनी भवानी से कहा – देवि! तुम्हारी जय हो।

महर्षियों ने भक्तिभाव से विनम्र होकर उन्हे नमस्कार किया।

माँ दुर्गा को प्रणाम

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देवी माँ और महिषासुर का युद्ध

देवी माँ की गर्जना से महिषासुर को डर

सन्नद्धाखिलसैन्यास्ते समुत्तस्थुरुदायुधाः।
आः किमेतदिति क्रोधादाभाष्य महिषासुरः॥३६॥
अभ्यधावत तं शब्दमशेषैरसुरैर्वृतः।
स ददर्श ततो देवीं व्याप्तलोकत्रयां त्विषा॥३७॥

संपूर्ण त्रिलोकी को क्षोभग्रस्त देख दैत्य अपनी समस्त सेना को कवच आदि से सुसज्जित कर हाथों में हथियार ले सहसा उठकर खड़े हो गए।

महिषासुर ने बड़े क्रोध में आकर कहा – यह क्या हो रहा है?

फिर वह (महिषासुर) असुरों से घिरकर उस सिंहनाद की ओर लक्ष्य करके दौड़ा और आगे पहुंचकर उसने देवी को देखा, जो अपनी प्रभा से तीनों लोकों को प्रकाशित कर रही थीं।

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देवी का विराट स्वरुप

पादाक्रान्त्या नतभुवं किरीटोल्लिखिताम्बराम्।
क्षोभिताशेषपातालां धनुर्ज्यानिःस्वनेन ताम्॥३८॥
दिशो भुजसहस्रेण समन्ताद् व्याप्य संस्थिताम्।
ततः प्रववृते युद्धं तया देव्या सुरद्विषाम्॥३९॥

उनके चरणों के भार से पृथ्वी दबी जा रही थी। माथे के मुकुट से आकाश में रेखा सी खिंच रही थी।

अपने धनुष की टंकार से वह सातों पातालों को क्षुब्ध कर देती थीं।

देवी अपनी हजारों भुजाओं से सभी दिशाओं को आच्छादित करके खड़ी थीं।

उनके साथ दैत्यों का युद्ध छिड़ गया।

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महिषासुर का सेनापति चिक्षुर

शस्त्रास्त्रैर्बहुधा मुक्तैरादीपितदिगन्तरम्।
महिषासुरसेनानीश्‍चिक्षुराख्यो महासुरः॥४०॥

नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्रों के प्रहार से दिशाएं उद्भासित होने लगीं।

चिक्षुर नामक असुर महिषासुर का सेनानायक था।

माँ दुर्गा को प्रणाम

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चामर और उदग्र दैत्य

युयुधे चामरश्‍चान्यैश्‍चतुरङ्‌गबलान्वितः।
रथानामयुतैः षड्‌भिरुदग्राख्यो महासुरः॥४१॥

वह देवी के साथ युद्ध करने लगा। चतुरंगिनी सेना लेकर चामर भी लडऩे लगा।

साठ हजार रथियों के साथ आकर उदग्र नामक महादैत्य ने लोहा लिया।

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दैत्यों की विशाल सेना

अयुध्यतायुतानां च सहस्रेण महाहनुः।
पञ्चाशद्‌भिश्‍च नियुतैरसिलोमा महासुरः॥४२॥

एक करोड़ रथियों को साथ लेकर महाहनु नामक दैत्य युद्ध करने लगा।

तलवार के समान तीखे रोएं वाला असिलोमा नामक असुर, पाँच करोड़ रथी सैनिकों सहित युद्ध में आ डटा।

साठ लाख रथियों से घिरा बाष्कल नामक दैत्य भी उस युद्धभूमि में लडऩे लगा।

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देवी का असुरों की विशाल सेना के साथ युद्ध

अयुतानां शतैः षड्‌भिर्बाष्कलो युयुधे रणे।
गजवाजिसहस्रौघैरनेकैः परिवारितः॥४३॥

परिवारित नामक राक्षस, हाथीसवार और घुड़सवारों के अनेक दलों तथा एक करोड़ रथियों की सेना लेकर युद्ध करने लगा।

बिडाल नामक दैत्य, पांच अरब रथियों से घिरकर लोहा लेने लगा।

इनके अतिरिक्त और भी हजारों महादैत्य, रथ, हाथी और करोड़ों की सेना साथ लेकर, देवी के साथ युद्ध करने लगे।

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दैत्यों के शस्त्र

वृतो रथानां कोट्या च युद्धे तस्मिन्नयुध्यत।
बिडालाख्योऽयुतानां च पञ्चाशद्भिरथायुतैः॥४४॥
युयुधे संयुगे तत्र रथानां परिवारितः।
अन्ये च तत्रायुतशो रथनागहयैर्वृताः॥४५॥
युयुधुः संयुगे देव्या सह तत्र महासुराः
कोटिकोटिसहस्रैस्तु रथानां दन्तिनां तथा॥४६॥
हयानां च वृतो युद्धे तत्राभून्महिषासुरः।
तोमरैर्भिन्दिपालैश्‍च शक्तिभिर्मुसलैस्तथा॥४७॥
युयुधुः संयुगे देव्या खड्‌गैः परशुपट्टिशैः।
केचिच्च चिक्षिपुः शक्तीः केचित्पाशांस्तथापरे॥४८॥
देवीं खड्‍गप्रहारैस्तु ते तां हन्तुं प्रचक्रमुः।
सापि देवी ततस्तानि शस्त्राण्यस्त्राणि चण्डिका॥४९॥

स्वयं महिषासुर रणभूमि में सहस्र रथ, हाथी और करोड़ों की सेना से घिरा हुआ खड़ा था।

वे दैत्य देवी के साथ तोमर, भिदिपाल, शक्ति, मूसल, खड्ग, परशु और पट्टिश आदि अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार करते हुए युद्ध कर रहे थे।

माँ दुर्गा को प्रणाम

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देवी ने राक्षसों के शस्त्र काट डाले

लीलयैव प्रचिच्छेद निजशस्त्रास्त्रवर्षिणी।
अनायस्तानना देवी स्तूयमाना सुरर्षिभिः॥५०॥

देवी ने क्रोध में भरकर खेल-खेलमें ही अपने अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करके, दैत्यों के समस्त अस्त्र-शस्त्र काट डाले।

उनके मुख पर परिश्रम या थकावट का लेशमात्र भी चिह्न नहीं था।

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माँ भवानी के सिंह का क्रोध

मुमोचासुरदेहेषु शस्त्राण्यस्त्राणि चेश्‍वरी।
सोऽपि क्रुद्धो धुतसटो देव्या वाहनकेशरी॥५१॥

देवता और ऋषि उनकी स्तुति करते थे और वे भगवती परमेश्वरी, दैत्यों पर अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करती रहीं।

देवी का वाहन सिंह भी क्रोध में भरकर गर्दन के बालों को हिलाता हुआ असुरों की सेना में इस प्रकार विचरने लगा, मानो वनों में दावानल फैल रहा हो।

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माँ भगवती से हजारों गण प्रकट हुए

चचारासुरसैन्येषु वनेष्विव हुताशनः।
निःश्‍वासान् मुमुचे यांश्च युध्यमाना रणेऽम्बिका॥५२॥

रणभूमि में दैत्यों के साथ युद्ध करती हुई अम्बिका देवी ने जितने नि:श्वास छोड़े, वे तत्काल सैकड़ों-हजारों गणों के रूप में प्रकट हो गए और परशु, भिदिपाल, खड्ग तथा पट्टिश आदि अस्त्रों द्वारा सुरों का सामना करने लगे।

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देवी के गणों का दैत्यों से युद्ध

त एव सद्यः सम्भूता गणाः शतसहस्रशः।
युयुधुस्ते परशुभिर्भिन्दिपालासिपट्टिशैः॥५३॥
नाशयन्तोऽसुरगणान् देवीशक्‍त्युपबृंहिताः।
अवादयन्त पटहान् गणाः शङ्‌खांस्तथापरे॥५४॥

देवी की शक्ति से बढ़े हुए वे गण असुरों का नाश करते हुए नगाड़ा और शंख आदि बाजे बजाने लगे।

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देवी अम्बिका ने राक्षसों का संहार किया

मृदङ्‌गांश्‍च तथैवान्ये तस्मिन् युद्धमहोत्सवे।
ततो देवी त्रिशूलेन गदया शक्तिवृष्टिभिः॥५५॥

उस संग्राम-महोत्सव में कितने ही गण मृदंग बजा रहे थे।

तदंतर देवी ने त्रिशूल से, गदा से, शक्ति की वर्षासे और खड्ग आदि से सैकड़ों महादैत्यों का संहार कर डाला।

माँ दुर्गा को प्रणाम

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देवी माँ का राक्षसों पर क्रोध

खड्‌गादिभिश्‍च शतशो निजघान महासुरान्।
पातयामास चैवान्यान् घण्टास्वनविमोहितान्॥५६॥
असुरान् भुवि पाशेन बद्‌ध्वा चान्यानकर्षयत्।
केचिद् द्विधा कृतास्तीक्ष्णैः खड्‌गपातैस्तथापरे॥५७॥

कितनों को कांटे के भयंकर नाद से मूर्च्छित करके मारा।

बहुतेरो को पाश से बांधकर धरती पर घसीटा।

अनगिनत दैत्य उनकी तलवार की मार से टुकड़े हो गए।

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राक्षसों का संहार

विपोथिता निपातेन गदया भुवि शेरते।
वेमुश्‍च केचिद्रुधिरं मुसलेन भृशं हताः॥५८॥

कितने ही गदा की चोट से घायल हो धरती पर सो गए।

कितने ही मूसल की मार से रक्त वमन करने लगे।

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दैत्य नष्ट होने लगे

केचिन्निपतिता भूमौ भिन्नाः शूलेन वक्षसि।
निरन्तराः शरौघेण कृताः केचिद्रणाजिरे॥५९॥
श्येनानुकारिणः प्राणान् मुमुचुस्त्रिदशार्दनाः।
केषांचिद् बाहवश्छिन्नाश्छिन्नग्रीवास्तथापरे॥६०॥

बाज की तरह झपटने वाले दैत्य अपने प्राणों से हाथ धोने लगे।

कुछ की बांहें छिन्न-भिन्न हो गईं। कितनों के गर्दन, मस्तक कटकर गिरे।

माँ दुर्गा को प्रणाम

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दैत्य फिर युद्ध के लिए तैयार हो जाते

शिरांसि पेतुरन्येषामन्ये मध्ये विदारिताः।
विच्छिन्नजङ्‌घास्त्वपरे पेतुरुर्व्यां महासुराः॥६१॥
एकबाह्वक्षिचरणाः केचिद्देव्या द्विधा कृताः।
छिन्नेऽपि चान्ये शिरसि पतिताः पुनरुत्थिताः॥६२॥
कबन्धा युयुधुर्देव्या गृहीतपरमायुधाः।
ननृतुश्‍चापरे तत्र युद्धे तूर्यलयाश्रिताः॥६३॥

मस्तक कट जाने पर भी फिर उठ जाते और केवल धड़ के ही रूप में ही
युद्ध करने लगते।

दूसरे कबध युद्ध के बाजों की लय पर नाचते।

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बिना सर के दैत्य

कबन्धाश्छिन्नशिरसः खड्‌गशक्त्यृष्टिपाणयः।
तिष्ठ तिष्ठेति भाषन्तो देवीमन्ये महासुराः॥६४॥

कितने ही बिना सिर के धड़, हाथों में खड्ग और शक्ति लिए दौड़ते थे तथा

दूसरे महादैत्य “ठहरो! ठहरो!” यह कहते हुए देवी को युद्ध के लिये ललकारते थे।

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रणभूमि का दृश्य

पातितै रथनागाश्‍वैरसुरैश्‍च वसुन्धरा।
अगम्या साभवत्तत्र यत्राभूत्स महारणः॥६५॥

जहां संग्राम हुआ वहां की धरती देवी के गिराए हुए रथ, हाथी, धोड़े और असुरों की लाशों से ऐसी पट गयी थी कि वहां चलना-फिरना असम्भव हो गया था।

माँ दुर्गा को प्रणाम

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रणभूमि का दृश्य

शोणितौघा महानद्यः सद्यस्तत्र प्रसुस्रुवुः।
मध्ये चासुरसैन्यस्य वारणासुरवाजिनाम्॥६६॥

दैत्यों की सेना में हाथी, घोड़े और असुरों के शरीरों से इतनी अधिक मात्रा में रक्तपात हुआ था कि थोड़ी ही देर में वहां खून की बड़ी-बड़ी नदियां बहने लगीं।

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माँ भवानी का असुरों पर क्रोध

क्षणेन तन्महासैन्यमसुराणां तथाम्बिका।
निन्ये क्षयं यथा वह्निस्तृणदारुमहाचयम्॥६७॥

जगदम्बा ने असुरों की विशाल सेना को क्षणभर में नष्ट कर दिया।

ठीक उसी तरह, जैसे तृण और काठ के भारी ढेर को आग कुछ ही क्षणों में भस्म कर देती है।

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माँ जगदम्बा के सिंह ने भी असुरों को मारा

स च सिंहो महानादमुत्सृजन्धुतकेसरः।
शरीरेभ्योऽमरारीणामसूनिव विचिन्वति॥६८॥

सिंह भी गर्दन के बालों को हिला-हिलाकर जोर-जोर से गर्जना करता हुआ दैत्यों के शरीरों से मानों उनके प्राण चुन लेता था।

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असुरों का संहार देखकर देवता प्रसन्न हुए

देव्या गणैश्‍च तैस्तत्र कृतं युद्धं महासुरैः।
यथैषां तुतुषुर्देवाः पुष्पवृष्टिमुचो दिवि॥ॐ॥६९॥

वहां देवीके गणों ने भी उन महादैत्यों के साथ ऐसा युद्ध किया जिससे आकाश में खड़े देवतागण उन पर बहुत संतुष्ट हुए और फूल बरसाने लगे।

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महिषासुर की सेना का वध नामक दूसरा अध्याय समाप्त

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
महिषासुरसैन्यवधो नाम द्वितीयोऽध्यायः॥२॥

इस प्रकार श्रीमार्कंडेय पुराण में सावर्णक मन्वतर की कथा के अंतर्गत, देवीमाहाम्य में महिषासुर की सेना का वध नामक दूसरा अध्याय पूरा हुआ।

माँ दुर्गा को प्रणाम



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दुर्गा सप्तशती अध्याय – 3

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Durga Saptashati – 3

Durga Saptashati – Adhyay List – Index


दुर्गा सप्तशती के अध्याय की लिस्ट

दुर्गा सप्तशती सात सौ श्वोकोंका संग्रह है, और उन सात सौ श्लोकों को तेरह अध्यायों में बांटा गया है।


दुर्गा सप्तशती के तेरह अध्यायों की लिंक निचे दी गयी है –

या देवी सर्वभूतेषु मंत्र – दुर्गा मंत्र – अर्थ सहित

दुर्गा सप्तशती अध्याय 1 – हिंदी में – अर्थ सहित

  • मार्कण्डेयजी द्वारा राजा सुरथ और समाधि की कथा
  • भगवती महामाया की महिमा
  • मधु और कैटभ के संहार का प्रसंग
  • देवी भगवती की महिमा, उनका प्रभाव और उनके स्वरुप

दुर्गा सप्तशती अध्याय 2 – अर्थ सहित – दुर्गा देवी का अवतार

दुर्गा सप्तशती अध्याय 3 – अर्थ सहित – महिषासुर संहार

दुर्गा सप्तशती अध्याय 4 – अर्थ सहित – देवी से प्रार्थना

दुर्गा सप्तशती अध्याय 5 – अर्थ सहित – या देवी सर्वभूतेषु मंत्र

दुर्गा सप्तशती अध्याय 6 – अर्थ सहित

दुर्गा सप्तशती अध्याय 7 – अर्थ सहित – चण्ड-मुण्ड का संहार

दुर्गा सप्तशती अध्याय 8 – अर्थ सहित

दुर्गा सप्तशती अध्याय 9 – अर्थ सहित

दुर्गा सप्तशती अध्याय 10 – अर्थ सहित

दुर्गा सप्तशती अध्याय 11 – अर्थ सहित

दुर्गा सप्तशती अध्याय 12 – अर्थ सहित – सप्तशती पाठ के लाभ

दुर्गा सप्तशती अध्याय 13 – अर्थ सहित


देवी माहात्म्य

दुर्गासप्तशती और देवी महात्म्य हिंदू-धर्मका सर्वमान्य ग्रन्थ है। देवी माहात्म्यमें भगवतीकी कृपाके सुन्दर इतिहासके साथ ही बड़े-बड़े गूढ़ साधन-रहस्य भरे हैं।

महर्षि मेधाने राजा सुरथसे कहा था – महाराज! आप उन्हीं भगवती परमेश्वरीकी शरण ग्रहण कीजिये। वे आराधनासे प्रसन्न होकर मनुष्योंको भोग, स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करती हैं।

इसीके अनुसार आराधना करके राजा सुरथने अखण्ड साम्राज्य प्राप्त किया तथा समाधि वैश्यने दुर्लभ ज्ञानके द्वारा मोक्षकी प्राप्ति की।

सप्तशतीके पाठमें विधिका ध्यान रखना तो उत्तम है ही, उसमें भी सबसे उत्तम बात है भगवती माँ दुर्गा के चरणोंमें प्रेमपूर्ण भक्ति।

श्रद्धा और भक्तिके साथ जगदम्बाके स्मरणपूर्वक सप्तशतीका पाठ करनेवालेको उनकी कृपाका शीघ्र अनुभव हो सकता है।



देवी माँ की आरती


दुर्गा सप्तशती में कितने अध्याय और चरित है?

शक्तिकी उपासनाके सम्बन्धमें जितने ग्रन्थ प्रचलित है, उनमे सप्तशतीका बहुत विशेष महत्त्व है।

आस्तिक हिन्दू बड़ी श्रद्धासे इसका पाठ किया करते है, और उनमेंसे अधिकांशका यह विश्वास है कि, सप्तशतीका पाठ प्रत्यक्ष फलदायक हुआ करता है।

कुछ लोगोंका कहना है – कली चण्डिविनायकौ अथवा कली चण्डिमहेश्वरौ, इस कथनसे भी विदित होता है कि, कलियुगमें चण्डीजीका विशेष महत्व है। और चण्डीजीके कृत्योंका उल्लेख, सप्तशती में विशेष सुन्दरताके साथ मिलता है। इस दृष्टिसे भी इस ग्रन्थकी महत्ता सिद्ध होती है।

दुर्गा सप्तशती तीन भागोंमें अथवा चरितोंमें विभक्त है।

प्रथम चरितमें, ब्रम्हाने योगनिद्राकी स्तुति करके विष्णुको जाग्रत कराया है और इस प्रकार जागृत होनेपर उनके द्वारा मधु-कैटभका नाश हुआ है।

द्वितीय चरितमें महिषासुर वधके लिये सब देवताओंकी शक्ति एकत्र हुई है और उस एकत्रित शक्तिके द्वारा महिषासुरका वध हुआ है।

तृतीय चरितमें शुम्भ-निशुम्भ वधके लिये देवताओंने प्रार्थना की, तब पार्वतीजीके शरीरसे शक्तिका प्रादुर्भाव हुआ और क्रमश: धूम्रलोचन, चण्ड-मुण्ड और रक्तबीजका वध होकर शुम्भ-निशुम्भका संहार हुआ है।

दुर्गा सप्तशती क्या है और क्यों पढ़ना चाहिए?


दुर्गा सप्तशती क्या है?

दुर्गा सप्तशती एक हिंदू धार्मिक ग्रंथ या शास्त्र है,
जो राक्षस महिषासुर पर देवी दुर्गा की जीत का वर्णन करता है।

यह ऋषि मार्कंडेय द्वारा लिखित मार्कंडेय पुराण का हिस्सा है।

इसे हिंदू धर्म के सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथों में से एक माना जाता है।

दुर्गा सप्तशती, देवी दुर्गा की स्तुति करने वाले श्लोकों और छंदों का संग्रह है।


दुर्गा सप्तशती में कितने श्लोक हैं?

सप्त का अर्थ है सात और शत का अर्थ है सौ,
इसलिए, सप्तशत अर्थात 700 श्लोक
और उसी के कारण पूरी रचना को दुर्गा सप्तशती के नाम से जाना जाता है।


सप्तशती में कितने अध्याय या पाठ हैं?

दुर्गा सप्तशती को 13 अध्यायों में बांटा गया है, यानी इसमें 13 पाठ हैं।

यह देवी महात्म्य का एक हिस्सा है,
जिसमें सप्तशती के 13 पाठ के साथ साथ
कवच, अर्गला और कीलक भी शामिल हैं।


दुर्गा सप्तशती का पाठ क्यों करना चाहिए ?

दुर्गा सप्तशती का पाठ क्यों करना चाहिए, इसके कई कारण हैं।

सबसे पहले, यह एक सुंदर और प्रेरक धार्मिक कहानी है,
जिसमें बुराई पर अच्छाई की कैसे जीत होती है,
कैसे देवी मां अपने भक्तों की रक्षा करती हैं,
आदि बाते विस्तार से दी गयी है,
जो आपको आस्था और भक्ति से भर देगी।

दूसरा, यह जीवन के बारे में महत्वपूर्ण सबक सिखाता है,
जैसे कि साहस, शक्ति और दृढ़ता का महत्व।

तीसरा, यह आपको देवी दुर्गा से जुड़ने और
उनका आशीर्वाद प्राप्त करने में मदद कर सकता है।

यदि आप एक ऐसे पाठ की तलाश कर रहे हैं, जो आपके आध्यात्मिक जीवन को समृद्ध करेगा, तो आपको दुर्गा सप्तशती की जरूर पढ़ना चाहिए।

यह एक ऐसा पाठ है जो आपके जीवन को बेहतर बनाने की शक्ति रखता है।


दुर्गा सप्तशती पढ़ने से क्या लाभ होता है?

दुर्गा सप्तशती पढ़ने के लाभ कुछ इस प्रकार हैं:

आध्यात्मिक लाभ

दुर्गा सप्तशती आध्यात्मिक प्रेरणा का एक शक्तिशाली स्रोत है।

यह एक सुंदर और प्रेरक पाठ है जो आपको अपने आध्यात्मिक पक्ष से जोड़ने में मदद कर सकता है।

यह आपको देवी दुर्गा की गहरी समझ विकसित करने और दिव्य स्त्री-ऊर्जा से जुड़ने में मदद कर सकता है।


जीवन के कठिन दौर में

यह आपके जीवन में आने वाली चुनौतियों और बाधाओं को दूर करने में आपकी मदद कर सकता है।

दुर्गा सप्तशती में कई स्थानों पर बताया गया है की,
किस प्रकार देवता, राक्षसों के संहार के लिए, माँ दुर्गा से प्रार्थना करते है।

दुर्गा सप्तशती बताती है कि कैसे माँ दुर्गा ने राक्षस महिषासुर को हराया, जो दुनिया को आतंकित कर रहा था। इसलिए, यह बुराई पर विजय की कहानी है।

तो, दुर्गा सप्तशती को पढ़कर,
यह पता चलता है की,
जीवन में अपनी बाधाओं को दूर करने के लिए
किस प्रकार देवी माँ से प्रार्थना करना चाहिए।

ऐसा माना जाता है कि यह सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित करने और नकारात्मक विचारों से छुटकारा पाने में मदद करता है।

यह आपको जीवन के कठिन दौर में मार्गदर्शन और सहायता प्रदान कर सकता है, ताकि आप अधिक सार्थक और पूर्ण जीवन जी सकें।


व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन के लिए

यह आपको आंतरिक शांति और शक्ति पाने में मदद कर सकता है।

दुर्गा सप्तशती एक पवित्र ग्रंथ है, जिसे पढ़ने वालों के लिए सौभाग्य और समृद्धि लाने वाला माना जाता है।

कहा जाता है कि दुर्गा सप्तशती का पाठ करने से आप अपने स्वास्थ्य, धन और रिश्तों में सुधार कर सकते हैं।

कहा जाता है कि प्रतिदिन दुर्गा सप्तशती का पाठ करने से पाठक के जीवन में सुख-शांति आती है।

इसके अतिरिक्त, यह एकाग्रता और स्मरण शक्ति में सुधार करने में भी मदद करता है।


हिंदू परंपरा और विरासत

दुर्गा सप्तशती हिंदू परंपरा का एक हिस्सा है, और यह आपको अपनी हिंदू विरासत से जुड़ने में मदद कर सकती है।

दुर्गा सप्तशती को पढ़कर, आप देवी दुर्गा के बारे में और जान सकते हैं, और हिंदू धर्म की अपनी समझ को गहरा कर सकते हैं।

यह 9 दिवसीय नवरात्रि समारोह का एक अनिवार्य हिस्सा है।

शक्तिशाली चंडी यज्ञ के दौरान दुर्गा सप्तशती के श्लोकों का जाप अनिवार्य है, जो अच्छे स्वास्थ्य और शत्रुओं पर विजय सुनिश्चित करने के लिए किया जाता है।


आप देवी महात्म्य और सप्तशती कहाँ पढ़ सकते हैं?

यदि आप दुर्गा सप्तशती को पढ़ने में रुचि रखते हैं, तो ऑनलाइन के साथ-साथ पुस्तकालयों में भी कई संसाधन उपलब्ध हैं।

आप किताबें, वीडियो, ऑडियो रिकॉर्डिंग और पाठ के हिंदी अनुवाद भी पा सकते हैं, क्योंकि देवी महात्म्य मूल रूप से संस्कृत में लिखा गया है।

इस वेबसाइट में आप दुर्गा सप्तशती के सभी 13 अध्याय, 700 श्लोकों और उनके आसानी से समझ में आने वाले हिंदी अर्थ पढ़ सकते हैं।

अतः दुर्गा सप्तशती का पाठ आरंभ करने के लिए, कृपया प्रथम अध्याय देखें –

दुर्गा सप्तशती अध्याय – 1

सप्तशती अध्याय इंडेक्स के लिए, कृपया लिंक पर क्लिक करें –

दुर्गा सप्तशती इंडेक्स

What is Durga Saptashati and Why You Should Read it?


What is Durga Saptashati ?

Durga Saptashati is a Hindu religious text or scripture describing the victory of the Maa Durga over the demon Mahishasura. It is a story of triumph over evil.

It is part of the Markandeya Purana, written by sage Markandeya.

It is considered to be one of the most important texts in Hinduism.

Durga Saptashati is a collection of hymns, shlokas or verses that praise the Hindu goddess Durga.


How many shlokas are there in Durga Saptashati?

Sapt means seven and shat means hundred,
so, saptashat means 700 verses,
and because of that the whole composition is known as Durga Saptashati.


How many chapters or paath are there in Saptashati?

Durga Saptashati is divided into 13 chapters, means it has 13 Paath.

It is a part of Devi Mahatmya,
which also includes Kavach, Argala and Keelak,
along with 13 paath of Saptashati.


Why You Should Read Durga Saptashati?

There are many reasons why you should read Durga Saptashati.

First, it is a beautiful and inspiring religious story about
how good wins over evil,
how devi maa protects her devotees,
that will fill you with faith and devotion.

Second, it teaches important lessons about life, such as the importance of courage, strength, and perseverance.

Third, it can help you to connect with the Goddess Durga and to receive her blessings.

If you are looking for a text that will enrich your spiritual life, then it is highly recommend that you Durga Saptashati.

It is a text that has the power to transform your life for the better.


What are the benefits of reading Durga Saptashati?

Here are some of the benefits of reading Durga Saptashati:

Spiritual Benefits

Durga Saptashati is a powerful source of spiritual inspiration.

It is a beautiful and inspiring text that can help you to connect with your spiritual side.

It can help you to develop a deeper understanding of the Goddess Durga and connect with the divine feminine energy.


During Difficult Phase of Life

It can help you to overcome challenges and obstacles in your life.

Durga Saptashati tells the story of how Durga defeated the demon Mahishasura, who was terrorizing the world. So, it is a story of triumph over evil. By reading Durga Saptashati, you can draw on Durga’s strength and courage to help you overcome your own obstacles in life.

It is believed to help in developing a positive attitude and getting rid of negative thoughts.

It can provide you with guidance and support during the difficult phase of life, so that you can live more meaningful and fulfilling life.


For Personal and Social Life

It can help you to find inner peace and strength.

Durga Saptashati is a sacred text that is believed to bring good luck and prosperity to those who read it.

It is said that by reading Durga Saptashati, you can improve your health, wealth, and relationships.

Reading Durga Saptashati daily is said to bring peace and happiness in the life of the reader.

Additionally, It also helps in improving concentration and memory power.


Hindu Tradition and Heritage

Durga Saptashati is a part of the Hindu tradition, and it can help you to connect with your Hindu heritage.

By reading Durga Saptashati, you can learn more about the Hindu goddess Durga, and you can deepen your understanding of Hinduism.

It is an essential part of the 9-day Navratri celebrations.

Chanting verses from Durga Saptashati is mandatory during the powerful Chandi Homa, which is done to ensure good health and victory over enemies.


Where Can You Read Devi Mahatmya and Saptashati?

If you are interested in reading Durga Saptashati, there are many resources available online as well as in libraries.

You can also find books, video, audio recordings and hindi translations of the text, as Devi Mahatmya is originally written in Sanskrit.

In this website, you can read all 13 chapters of Durga Saptashati, 700 shlokas and their easy to understand Hindi meaning.

So, to start reading Durga Saptashati, please visit the first chapter –

Durga Spatashati Chapter – 1

For Saptashati Chapter Index, please click the link –

Durga Sptashati Index

Mahakali Avtaar Katha – माँ दुर्गा के महाकाली महामाया की अवतार कथा


महाकाली महामाया की अवतार कथा

(दुर्गा सप्तशती अध्याय १ से )
कल्प (प्रलय) के अन्त में सम्पूर्ण जगत् जल में डूबा हुआ था। सबके प्रभु भगवान विष्णु शेषनाग की शय्या बिछाकर योगनिद्रा का आश्रय ले शयन कर रहे थे। उस समय उनके कानों की मैल से दो भयंकर असुर उत्पन्न हुए, जो मधु और कैटभ के नाम से विख्यात थे।
वे दोनों ब्रह्मा जी का वध करने को तैयार हो गये। प्रजापति ब्रह्माजी ने जब उन दोनों भयानक असुरों को अपने पास आया और भगवान को सोया हुआ देखा तो सोचा की मुझे कौन बचाएगा।
एकाग्रचित्त होकर ब्रम्हाजी भगवान विष्णु को जगाने के लिए उनके नेत्रों में निवास करने वाली योगनिद्रा की स्तुति करने लगे, जो विष्णु भगवान को सुला रही थी।


  • जो इस विश्व की अधीश्वरी, जगत को धारण करने वाली,
  • संसार का पालन और संहार करने वाली
  • तथा तेज:स्वरूप भगवान विष्णु की अनुपम शक्ति हैं,
  • उन्हीं भगवती निद्रादेवी की भगवान ब्रह्मा स्तुति करने लगे।

ब्रह्मा जी ने कहा –

  • देवि तुम्हीं स्वाहा,
  • तुम्हीं स्वधा और
  • तम्ही वषट्कार हो।
  • स्वर भी तुम्हारे ही स्वरूप हैं।
  • तुम्हीं जीवनदायिनी सुधा हो।
  • नित्य अक्षर प्रणव में अकार, उकार, मकार – इन तीन मात्राओं के रूप में तुम्हीं स्थित हो
  • तथा इन तीन मात्राओं के अतिरिक्त जो बिन्दुरूपा नित्य अर्धमात्रा है, जिसका विशेष रूप से उच्चारण नहीं किया जा सकता, वह भी तुम्हीं हो।
  • देवी! तुम्हीं संध्या, सावित्री तथा परम जननी हो।
  • देवी! तुम्हीं इस विश्व ब्रह्माण्ड को धारण करती हो।
  • तुम से ही इस जगत की सृष्टि होती है।
  • तुम्हीं से इसका पालन होता है और
  • सदा तुम्ही कल्प के अंत में सबको अपना ग्रास बना लेती हो।
  • जगन्मयी देवि! इस जगत की उत्पप्ति के समय तुम सृष्टिरूपा हो,
  • पालन-काल में स्थितिरूपा हो तथा
  • कल्पान्त के समय संहाररूप धारण करने वाली हो।
  • तुम्हीं महाविद्या, महामाया,
  • महामेधा, महास्मृति,
  • महामोह रूपा, महादेवी और महासुरी हो।
  • तुम्हीं तीनों गुणों को उत्पन्न करने वाली सबकी प्रकृति हो।
  • भयंकर कालरात्रि, महारात्रि और मोहरात्रि भी तुम्हीं हो।
  • तुम्हीं श्री, तुम्हीं ईश्वरी, तुम्हीं ह्रीं और तुम्हीं बोधस्वरूपा बुद्धि हो।
  • लज्जा , पुष्टि, तुष्टि, शान्ति और क्षमा भी तुम्हीं हो।
  • तुम खङ्गधारिणी, शूलधारिणी, घोररूपा तथा गदा, चक्र, शंख और धनुष धारण करने वाली हो।
  • बाण, भुशुण्डी और परिघ – ये भी तुम्हारे अस्त्र हैं।
  • तुम सौम्य और सौम्यतर हो – इतना ही नहीं, जितने भी सौम्य एवं सुन्दर पदार्थ हैं, उन सबकी अपेक्षा तुम अत्याधिक सुन्दरी हो।
  • पर और अपर – सबसे परे रहने वाली परमेश्वरी तुम्हीं हो।
  • सर्वस्वरूपे देवि! कहीं भी सत्-असत् रूप जो कुछ वस्तुएँ हैं और उन सबकी जो शक्ति है, वह तुम्हीं हो।
  • ऐसी अवस्था में तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है।
  • जो इस जगत की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं, उन भगवान को भी जब तुमने निद्रा के अधीन कर दिया है, तो तुम्हारी स्तुति करने में यहाँ कौन समर्थ हो सकता है।
  • मुझको, भगवान शंकर को तथा भगवान विष्णु को भी तुमने ही शरीर धारण कराया है।
  • अत: तुम्हारी स्तुति करने की शक्ति किसमें है। देवि! तुम तो अपने इन उदार प्रभावों से ही प्रशंसित हो।

ये जो दोनों दुर्घर्ष असुर मधु और कैटभ हैं, इनको मोह में डाल दो और जगदीश्वर भगवान विष्णु को शीघ्र ही जगा दो। साथ ही इनके भीतर इन दोनों महान असुरों को मार डालने की बुद्धि उत्पन्न कर दो।
जब ब्रह्मा जी ने वहाँ मधु और कैटभ को मारने के उद्देश्य से भगवान विष्णु को जगाने के लिए तमोगुण की अधिष्ठात्री देवी योगनिद्रा की इस प्रकार स्तुति की, तब वे भगवान के नेत्र, मुख, नासिका, बाहु, हृदय और वक्ष स्थल से निकलकर अव्यक्तजन्मा ब्रह्माजी की दृष्टि के समक्ष खडी हो गयी।
योगनिद्रा से मुक्त होने पर जगत के स्वामी भगवान जनार्दन उस एकार्णव के जल में शेषनाग की शय्या से जाग उठे।
फिर उन्होंने उन दोनों असुरों को देखा। वे दुरात्मा मधु और कैटभ अत्यन्त बलवान तथा परक्रमी थे और
क्रोध से ऑंखें लाल किये ब्रह्माजी को खा जाने के लिये उद्योग कर रहे थे।
तब भगवान श्री हरि ने उठकर उन दोनों के साथ पाँच हजार वर्षों तक केवल बाहु युद्ध किया।
वे दोनों भी अत्यन्त बल के कारण उन्मत्त हो रहे थे।
तब महामाया ने उन्हें (असुरो को) मोह में डाल दिया। और वे भगवान विष्णु से कहने लगे – हम तुम्हारी वीरता से संतुष्ट हैं। तुम हम लोगों से कोई वर माँगो।
श्री भगवान् बोले – यदि तुम दोनों मुझ पर प्रसन्न हो तो अब मेरे हाथ से मारे जाओ। बस, इतना सा ही मैंने वर माँगा है। यहाँ दूसरे किसी वर से क्या लेना है।
दैत्योको को अब अपनी भूल मालूम पड़ी। उन्होंने देखा की सब जगह पानी ही पानी है और कही भी सुखा स्थान नहीं दिखाई दे रहा है। (कल्प – प्रलय के अन्त में सम्पूर्ण जगत् जल में डूबा हुआ था।)
इसलिए उन्होंने कमलनयन भगवान से कहा – जहाँ पृथ्वी जल में डूबी हुई न हो, जहाँ सूखा स्थान हो, वहीं हमारा वध करो।
ऋषि कहते हैं- तब तथास्तु कहकर शंख, चक्र और गदा धारण करने वाले भगवान ने उन दोनों के मस्तक अपनी जाँघ पर रखकर चक्रसे काट डाले।
इस प्रकार ये देवी महामाया महाकाली ब्रह्माजी की स्तुति करने पर स्वयं प्रकट हुई थीं।

(दुर्गा सप्तशती अध्याय १ से )

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