Stuti – Prarthana – Upasana


Prayer

स्तुति, प्रार्थना और उपासना में क्या फर्क है?


स्तुति

स्तुति का अर्थ है – किसी भी पदार्थमें स्थित उसके गुणोंका यथोचित रूपमें वर्णन करना।

इस दृष्टिसे जब कोई कहता हैं कि – गौतम बहुत श्रेष्ठ व्यक्ति है, सदाचारी है, सत्यवादी है – तब उसका अभिप्राय केवल इतना ही नहीं होता कि, वह जिससे (जिन शब्दो से) गौतमकी स्तुति करता हैं, वह उसके गुणोंको जान जाय।

बल्कि उसकी इच्छा होनी चाहिए कि जब वह गौतमके गुणोंका वर्णन करता हैं, तब वह उसके समीप जाय, उससे भेंट करे, उसका संग करे और उससे लाभ उठाये।


ईश्वर की स्तुति

ईश्वर की स्तुति शब्द का उपयोग, ईश्वर के जो अवतार हुए है उनके गुणों के कीर्तन के लिए किया जाता है।

परन्तु जब कोई व्यक्ति ईश्वर के गुणों का गान सिर्फ दिखावे के लिए कर रहा है या अंधविश्वास के कारण कर रहा है, और उन गुणों को अपने जीवन में नहीं अपनाता है, तो उसका स्तुति करना व्यर्थ है।

जब हम भगवान् रामके मर्यादा पुरुषोत्तम-तत्वके गुणोंका बखान करते हैं, तो हमारी इच्छा होनी चाहिए कि हम उनके आदर्शोपर चले।

इसलिये स्तुति तब तक निरर्थक ही रहती है, जब तक उसके बाद की क्रिया प्रार्थना या उपासना न की जाय।

अतः स्तुतिका अन्त होता है प्रार्थनामें अथवा उपासनामें।


प्रार्थना और उपासना

प्रार्थना अर्थात – जिसकी हम स्तुति कर रहे है, उसके गुणोंका बखान करके, उससे उन गुणों की प्राप्तिके लिये सामर्थ्य की याचना करना। जिससे उन गुणों को हम अपने जीवन में उतार सके।

उपासना अर्थात – जिसकी हम स्तुति कर रहे है, उसके गुणोंको अपने अंदर धारण करके उसके समीपमें जाना।


जब तक उपासक और उपास्य (जिसकी उपासना कर रहे है) में एकरूपता न होगी, उपासना अर्थात समीप बैठना, समीप जाना वा बन्धुत्व-प्राप्ति करना नितान्त असम्भव है; क्योंकि – समानशीलव्यसनेषु मैत्री अर्थात समान गुण-कर्मवालों में ही मैत्री होती है।


उपासना कब संभव है?

भगवान के जो अवतार है, वे है ज्ञानके पुञ्ज, सत्यव्रत, सर्वदोष-विवर्जित।
और मनुष्य है अज्ञानान्धकारसे आवृत, सर्वदोषयुक्त, मिथ्यावादी (झूठ बोलने वाला)।
– तब कभी भी उपासना नहीं हो सकती।

उपासक और उपास्य में जितना फर्क ज्यादा रहेगा, सच्ची भक्ति या उपासना नहीं हो सकती।

इसलिए स्तुति के बाद हमे, सतगुणो को अपने जीवन में उतारने के लिए, ईश्वर से प्रार्थना और उपासना करनी चाहिए, ताकि सिर्फ स्तुति निरर्थक ना हो जाए।


उदाहरण – स्तुति के बाद प्रार्थना, उपासना

इसलिये वेदोंके और उपनिषदोंके मन्त्रों में ईश्वर की स्तुतिके साथ प्रार्थना वा उपासना दोनोंमेंसे एक अंग अवश्य साथ रहता है।


उपनिषदकी एक प्रार्थना सर्व प्रसिद्ध है –

असतो मा सद् गमय।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्मामृतं गमय॥

हे प्रभो! हमें असतसे (अज्ञानसे) सत् (ज्ञानकी) प्राप्ति कराओ। ज्ञान प्राप्त होनेपर तम (अन्धकार) को दूर करके अपनी शुभ ज्योति प्रकाशको प्राप्त कराओ और मृत्युसे (जन्म-मरणके चक्रसे) छुड़ाकर अमृतको प्राप्त कराओ।


इसी प्रकार वेदोंके मन्त्रों में स्तुतिके साथ प्रार्थना या उपासना दोनों में से एक अंग अवश्य सम्बद्ध रहता है। जैसे की –

त्वं हि नः पिता वसो त्वं माता शतक्रतो बभूविथ।
अधा ते सुम्नमीमहे। (ऋ० ८। ९८। ११)

अर्थ-
हे प्रभु! सबको बसानेवाले, सारे संसारको आच्छादित करनेवाले अर्थात् सबसे महान् तुम ही हमारे पिता हो, पालक हो, रक्षक हो। हे ईश्वर! सैकड़ों सहस्रों प्रकारके कार्योको करनेवाले विविध ब्रह्माण्डके रचयिता प्रभो! तुम ही हमारी माता हो।

तुम जैसे सर्वतोमहान् माता-पिताको पाकर तुमसे ही तुम्हारे उस सुखकी, उस आनन्दकी कामना करते हैं, याचना करते हैं जो तुम्हारे में है। जिससे तुम आनन्दस्वरूप हो। वही नित्यानन्द हमें भी प्राप्त कराओ।


स नः पितेव सूनवे अग्ने सूपायनो भव।
सचस्वा नः स्वस्तये॥ (ऋ० १।१।९)

अर्थ –
हे अग्ने ! प्रकाशमान ज्ञानस्वरूप प्रभो! आप हमारे पर वैसे ही कृपालु होओ, वैसे ही सुखों के प्राप्त करानेवाले होओ, जैसे पिता अपने बालकोंके सुखकी कामना करता है। और हमें नित्य रहनेवाले अखण्ड कल्याणके लिये समर्थ करो।


विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परा सुव।
यद्भद्रं तन्न आ सुव॥ (ऋ० ५। ८२। ५)

अर्थ –
हे सम्पूर्ण संसारके प्रकाशक और उत्पन्न करनेवाले देव! हमारे सम्पूर्ण दुरितोंको, पापोंको-पापमयी वासनाओंको हमसे दूर करिये और जो कुछ भी संसारमें भद्र है, हमारे लिये कल्याणकारी है, ऐसे उत्तम श्रेष्ठ गुणों वा पदार्थोंको प्राप्त कराइये।


नमः सायं नमः प्रातर्नमो रात्र्या नमो दिवा।
भद्राय च शर्वाय चोभाभ्यामकरं नमः॥
(अथर्व० ११। २। १६)

अर्थ –
हे भव! सारे संसारको उत्पन्न करनेवाले और सुखस्वरूप तथा सर्वजीवोंके सभी दु:खोंके नाश करनेवाले प्रभो! तुम्हारे दोनों स्वरूपोंके लिये हम प्रातः-सायं दिन-रात बहुधा नमस्कार करते हैं। आप कृपा करके हमारे लिये सुखके देनेवाले और दुःखोंको दूर करनेवाले होइये।


अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नम उक्तिं विधेम।
(ऋ० १।१८९। १)

अर्थ –
हे मार्गदर्शक नेता ! आप हमें धन, सम्पत्ति वा आत्मिक कल्याणके लिये अच्छे मार्गसे-शुभमार्गसे ले चलिये। हे देव! आप हमारे सब कर्मोको जाननेवाले हैं; क्योंकि आप घट-घटवासी हैं। इतना ही नहीं, हे प्रभो! हमारे सम्पूर्ण पापोंको–कुटिलताओंको हमसे दूर करिये, जिससे हम निष्पाप हो सकें। इसके लिये हे प्रभो! हम आपको बहुत प्रकारसे स्तुति-प्रार्थना करते हैं।


यद्ग्रामे यदरण्ये यत् सभायां यदिन्द्रिये।
यदेनश्चकृमा वयमिदं तदव यजामहे स्वाहा॥
(यजु० ३।४४)

अर्थ –
हे पापोंको दूर करनेवाले प्रभो ! हमने जो ग्राममें, जो सभामें, जो अपनी इन्द्रियोंके विषयमें अर्थात् अपने और परायेके लिये जो भी पाप, बुरा कर्म, बुरा आचरण मनसा-वाचा-कर्मणा किया है, उसको हम इसी समय आपकी प्रत्यक्षतामें आपको सर्वद्रष्टा जानते हुए छोड़ रहे हैं।

हम अपनी प्रतिज्ञाके निभानेके लिये समर्थ हों। प्रभो! हमें इस शुभ प्रतिज्ञाके निभानेके लिये सामर्थ्य दो।


इस प्रकार वेदोंमें और उपनिषदोंमें प्रभुकी सर्वत्र विविध नामोंसे स्तुति करके अपने दोषोंको दूर करने और शुभ गुणोंकी प्राप्तिके लिये प्रार्थनाएँ मिलती हैं।


वैदिक प्रार्थनाओंका वैशिष्ट्य

वैदिक प्रार्थनाओंका एक वैशिष्ट्य यह भी है कि उसमे अपने सुखकी वा कल्याणकी अपेक्षा सामूहिक कल्याणको महत्त्व दिया गया है। उसमें प्रायः समष्टिका का, सर्वत्र बहुवचनका प्रयोग है। इससे यह स्पष्ट है कि वैदिक धर्ममें सामूहिक कल्याणको प्रधानता दी गई है ।

इसीके अनुरूप हम भगवान् वाल्मीकिके शब्दों में आज भी कामना करते हैं

सर्वे भवन्तु सुखिनः
सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु
मा कश्चिद् दुःखभाग् भवेत्॥

अर्थात् सब सुखी हों, सब स्वस्थ हों, सब कल्याणके भागी हों। कोई भी दुःखी न रहे।

सब मनोकामनाएँ, चाहे वे लौकिकी हों, चाहे पारलौकिकी, प्रभुकी प्रार्थना, प्रभुकी भक्ति और प्रभुके नामस्मरणसे ही पूर्ण होती है ।

Stuti Prarthana Upasana
Stuti Prarthana Upasana

Prayer Songs

Stuti Prarthana Upasana

Lata Mangeshkar

Prayer Songs and Bhajans

Mahakali Avtaar Katha – माँ दुर्गा के महाकाली महामाया की अवतार कथा


महाकाली महामाया की अवतार कथा

(दुर्गा सप्तशती अध्याय १ से )
कल्प (प्रलय) के अन्त में सम्पूर्ण जगत् जल में डूबा हुआ था। सबके प्रभु भगवान विष्णु शेषनाग की शय्या बिछाकर योगनिद्रा का आश्रय ले शयन कर रहे थे। उस समय उनके कानों की मैल से दो भयंकर असुर उत्पन्न हुए, जो मधु और कैटभ के नाम से विख्यात थे।
वे दोनों ब्रह्मा जी का वध करने को तैयार हो गये। प्रजापति ब्रह्माजी ने जब उन दोनों भयानक असुरों को अपने पास आया और भगवान को सोया हुआ देखा तो सोचा की मुझे कौन बचाएगा।
एकाग्रचित्त होकर ब्रम्हाजी भगवान विष्णु को जगाने के लिए उनके नेत्रों में निवास करने वाली योगनिद्रा की स्तुति करने लगे, जो विष्णु भगवान को सुला रही थी।


  • जो इस विश्व की अधीश्वरी, जगत को धारण करने वाली,
  • संसार का पालन और संहार करने वाली
  • तथा तेज:स्वरूप भगवान विष्णु की अनुपम शक्ति हैं,
  • उन्हीं भगवती निद्रादेवी की भगवान ब्रह्मा स्तुति करने लगे।

ब्रह्मा जी ने कहा –

  • देवि तुम्हीं स्वाहा,
  • तुम्हीं स्वधा और
  • तम्ही वषट्कार हो।
  • स्वर भी तुम्हारे ही स्वरूप हैं।
  • तुम्हीं जीवनदायिनी सुधा हो।
  • नित्य अक्षर प्रणव में अकार, उकार, मकार – इन तीन मात्राओं के रूप में तुम्हीं स्थित हो
  • तथा इन तीन मात्राओं के अतिरिक्त जो बिन्दुरूपा नित्य अर्धमात्रा है, जिसका विशेष रूप से उच्चारण नहीं किया जा सकता, वह भी तुम्हीं हो।
  • देवी! तुम्हीं संध्या, सावित्री तथा परम जननी हो।
  • देवी! तुम्हीं इस विश्व ब्रह्माण्ड को धारण करती हो।
  • तुम से ही इस जगत की सृष्टि होती है।
  • तुम्हीं से इसका पालन होता है और
  • सदा तुम्ही कल्प के अंत में सबको अपना ग्रास बना लेती हो।
  • जगन्मयी देवि! इस जगत की उत्पप्ति के समय तुम सृष्टिरूपा हो,
  • पालन-काल में स्थितिरूपा हो तथा
  • कल्पान्त के समय संहाररूप धारण करने वाली हो।
  • तुम्हीं महाविद्या, महामाया,
  • महामेधा, महास्मृति,
  • महामोह रूपा, महादेवी और महासुरी हो।
  • तुम्हीं तीनों गुणों को उत्पन्न करने वाली सबकी प्रकृति हो।
  • भयंकर कालरात्रि, महारात्रि और मोहरात्रि भी तुम्हीं हो।
  • तुम्हीं श्री, तुम्हीं ईश्वरी, तुम्हीं ह्रीं और तुम्हीं बोधस्वरूपा बुद्धि हो।
  • लज्जा , पुष्टि, तुष्टि, शान्ति और क्षमा भी तुम्हीं हो।
  • तुम खङ्गधारिणी, शूलधारिणी, घोररूपा तथा गदा, चक्र, शंख और धनुष धारण करने वाली हो।
  • बाण, भुशुण्डी और परिघ – ये भी तुम्हारे अस्त्र हैं।
  • तुम सौम्य और सौम्यतर हो – इतना ही नहीं, जितने भी सौम्य एवं सुन्दर पदार्थ हैं, उन सबकी अपेक्षा तुम अत्याधिक सुन्दरी हो।
  • पर और अपर – सबसे परे रहने वाली परमेश्वरी तुम्हीं हो।
  • सर्वस्वरूपे देवि! कहीं भी सत्-असत् रूप जो कुछ वस्तुएँ हैं और उन सबकी जो शक्ति है, वह तुम्हीं हो।
  • ऐसी अवस्था में तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है।
  • जो इस जगत की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं, उन भगवान को भी जब तुमने निद्रा के अधीन कर दिया है, तो तुम्हारी स्तुति करने में यहाँ कौन समर्थ हो सकता है।
  • मुझको, भगवान शंकर को तथा भगवान विष्णु को भी तुमने ही शरीर धारण कराया है।
  • अत: तुम्हारी स्तुति करने की शक्ति किसमें है। देवि! तुम तो अपने इन उदार प्रभावों से ही प्रशंसित हो।

ये जो दोनों दुर्घर्ष असुर मधु और कैटभ हैं, इनको मोह में डाल दो और जगदीश्वर भगवान विष्णु को शीघ्र ही जगा दो। साथ ही इनके भीतर इन दोनों महान असुरों को मार डालने की बुद्धि उत्पन्न कर दो।
जब ब्रह्मा जी ने वहाँ मधु और कैटभ को मारने के उद्देश्य से भगवान विष्णु को जगाने के लिए तमोगुण की अधिष्ठात्री देवी योगनिद्रा की इस प्रकार स्तुति की, तब वे भगवान के नेत्र, मुख, नासिका, बाहु, हृदय और वक्ष स्थल से निकलकर अव्यक्तजन्मा ब्रह्माजी की दृष्टि के समक्ष खडी हो गयी।
योगनिद्रा से मुक्त होने पर जगत के स्वामी भगवान जनार्दन उस एकार्णव के जल में शेषनाग की शय्या से जाग उठे।
फिर उन्होंने उन दोनों असुरों को देखा। वे दुरात्मा मधु और कैटभ अत्यन्त बलवान तथा परक्रमी थे और
क्रोध से ऑंखें लाल किये ब्रह्माजी को खा जाने के लिये उद्योग कर रहे थे।
तब भगवान श्री हरि ने उठकर उन दोनों के साथ पाँच हजार वर्षों तक केवल बाहु युद्ध किया।
वे दोनों भी अत्यन्त बल के कारण उन्मत्त हो रहे थे।
तब महामाया ने उन्हें (असुरो को) मोह में डाल दिया। और वे भगवान विष्णु से कहने लगे – हम तुम्हारी वीरता से संतुष्ट हैं। तुम हम लोगों से कोई वर माँगो।
श्री भगवान् बोले – यदि तुम दोनों मुझ पर प्रसन्न हो तो अब मेरे हाथ से मारे जाओ। बस, इतना सा ही मैंने वर माँगा है। यहाँ दूसरे किसी वर से क्या लेना है।
दैत्योको को अब अपनी भूल मालूम पड़ी। उन्होंने देखा की सब जगह पानी ही पानी है और कही भी सुखा स्थान नहीं दिखाई दे रहा है। (कल्प – प्रलय के अन्त में सम्पूर्ण जगत् जल में डूबा हुआ था।)
इसलिए उन्होंने कमलनयन भगवान से कहा – जहाँ पृथ्वी जल में डूबी हुई न हो, जहाँ सूखा स्थान हो, वहीं हमारा वध करो।
ऋषि कहते हैं- तब तथास्तु कहकर शंख, चक्र और गदा धारण करने वाले भगवान ने उन दोनों के मस्तक अपनी जाँघ पर रखकर चक्रसे काट डाले।
इस प्रकार ये देवी महामाया महाकाली ब्रह्माजी की स्तुति करने पर स्वयं प्रकट हुई थीं।

(दुर्गा सप्तशती अध्याय १ से )

For more bhajans from category, Click -

Maa Durga Bhakti Geet


Bhajan List

Krishna Bhajans
Ram Bhajan
Bhajan, Aarti, Chalisa, Dohe – List

Maa Durga Bhajan Lyrics



Bhajans and Aarti



Bhakti Song Lyrics


महाकाली महामाया की अवतार कथा

Importance of Prayer


प्रार्थना के लाभ

प्रार्थनासे बुद्धि शुद्ध होती है। देवताओंकी प्रार्थनासे दैवीशक्ति प्राप्त होती है। द्रौपदीकी प्रार्थनासे सूर्य-भगवान्‌ने दिव्य बटलोई दी थी। नल-नीलको प्रार्थनासे पत्थर तैरानेकी शक्ति प्राप्त हुई थी।

महात्मा तुलसीदासजीको श्रीपवनसुत हनुमानजीसे प्रार्थना करनेपर भगवान् रामके दर्शन हुए। भगवान्‌से प्रार्थना करनेपर डाकू रत्नाकर की बुद्धि अत्यन्त शुद्ध हो गयी। वे वाल्मीकि ऋषिके नामसे प्रसिद्ध हुए और भगवान् श्रीरामचन्द्रजीने उनको साष्टांग दण्डवत् प्रणाम किया।
वर्तमान समयमें भी प्रार्थनासे लाभ उठानेवाले बहुत लोग हो चुके है और अब भी है।


प्रार्थना करनेसे शारीरिक क्लेशोका भी शमन होता है। प्रातःस्मरणीय गोस्वामी तुलसीदासजीकी बाँहमें असहनीय पीड़ा हो रही थी, श्रीहनुमान्‌जीसे प्रार्थना करनेपर अर्थात् उन्हें “हनुमान-बाहुक” सुनाते ही सारी पीड़ा शान्त हो गयी।
प्रार्थनासे कामना की पूर्ती होती है। राजा मनुकी प्रार्थनापर भगवान्‌ने पुत्ररूपसे उनके गृहमें अवतार लेनेकी स्वीकृति दी। सत्यनारायणकी कथामें लिखा है कि दरिद्र लकड़हारेकी प्रार्थनापर भगवान्‌ने उसे संपत्तिशाली बना दिया।

प्रार्थना और एकता

प्रार्थनाके द्वारा मनुष्यमें परस्पर प्रेम उत्पन्न होता है। प्रार्थना एकताके लिये सुदृढ़ सूत्र है।
इंटके टुकड़ों तथा बालूसे मन्दिर बनाना असम्भव-सा है। पर यदि उसमें सीमेंट मिला दी जाय तो सभी बालुके कण एवं इंटे एक शिलाके समान जुड़ जाती हैं।
वर्तमान समयमें देखा गया है कि मनुष्यके जिन समुदायोंमें निश्वित प्रार्थना निश्चित समय और निश्वित स्थानपर होती है, ऐसे समुदायोंको तोड़नेके लिये बड़ी-बड़ी प्रबल शक्तियाँ जुटी, परंतु उन्हें भिन्न करनेमें असमर्थ सिद्ध हुइँ। वर्तमान युगमें भी ऐसी घटनाएँ हो चुकी है, प्राचीनकालमें भी हुई हैं।
एक समय रावाणादी सक्षसोंके घोर उपद्रवसे त्रस्त होकर दैवी स्वभावके प्राणी – सुर, मुनि; गन्धर्व आदि हिमालयकी कन्दराओंमें छिप गए और उन्होंने एक सभाका आयोजन किया, जिसमें आशुतोष भगवान् शंकर भी पधारे थे।
देवता सोचने लगे – ‘आसुरी समुदाय दैवीसमुदायको नष्ट करनेपर तुला हुआ है। उससे मुक्ति पानेके लिये किस साधन को अपनाया जाय? हम सब दीन, हीन, असहाय दीनबंधु भगवान्‌को कहा द्वँढें? परिणाम यह हुआ कि सभामें कई भिन्न मत हो गये। इस विघटनकी दशाको देरवकर भगवान् शंकर बोले
शंकरजीने बताया कि ‘ऐसे विकट समयमें भगवानको ढूंढने कोई कहीं न जाय। सब सम्मिलित होकर आर्त हृदय-से भावपूर्ण एक ही प्रार्थना एक साथ करें। भक्तवत्सल भगवान् तुरंतही आश्वासन देंगे। यह मत सभीको अच्छा लगा और सभी नेत्रोंमें जल भरे हुए तथा अश्रुबिन्दु गिराते हुए गद्‌गद कंठसे करबद्ध होकर ‘जय जय सुरनायक‘ आदि प्रार्थना करने लगे –
प्रार्थना समाप्त हुई कि तुरत आकाशवाणी हुई। ब्रह्माजी सबको शिक्षा तथा आश्वासन देकर तथा देवताओं से यह कहकर ब्रह्मलोकको चले गये कि – तुमलोग वानररूप धारणकर सुसंगठित हो भगवान्‌का भजन करते हुए पृथ्वीपर रहो।’ प्रार्थना सफल हुई, मर्यादा-पुरुषोत्तम भगवान् श्री-रामचन्द्रजीका अवतार हुआ। देवता, गौएँ, ऋषि; मुनि, पृथ्वी, भक्त समाज-सब सुखी और परमधामके अधिकारी हुए।

प्रार्थना में अपार शक्ति है

प्रार्थनासे कितना लाभ हो सकता है अथवा प्रार्थनाका कितना महत्त्व है – यह लिखा नही जा सकता।
प्रार्थनाके द्वारा मृत आत्माओंको शान्ति मिलती है; जिसकी प्रथा आज भी बड़ी-बड़ी सभाओंमें देख पड़ती है। किसी महापुरुषके देहावसान हो जानेपर दो-चार मिनट मृतात्माकी शान्तिके लिये सभाओंमें सामूहिक प्रार्थना की जाती है।
प्रार्थनाके उपासक महात्मा गांधी, महामना मालवीयजी आदि धार्मिक-राजनीतिक नेताओंका अधिक स्वास्थ्य बिगड़नेपर जब-जब समाजमें प्रार्थना की गयी, तब तब लाभ प्रतीत हुआ। और भी अनेकों उदाहरण हैं।


प्रार्थनामें विश्वासकी प्रधानता है। प्रार्थना हृदयसे होनी चाहिये। निरन्तर, आदरपूर्वक, दीर्घकालतक होनेसे वह सफल होती है।
इष्टदेवको सुनानेके लिये प्रार्थना करनी चाहिये, जनताको सुनानेकी दृष्टिसे नहीं।
प्रार्थनासे आस्तिकता बढती है। आस्तिकतासे मनुष्योंकी पापमें प्रवृत्ति नही होती। दुराचार- के नाश और सदाचारकी वृद्धिसे समाजमें दरिद्रता, कलह, शारीरिक रोग, चरित्र-पतन समाप्त होकर परस्पर प्रेम, आरोग्य, सुख सम्पत्तिकी वृद्धि होती।
अतएव मनुष्य को अपना जीवन सुव्यवस्थित बनाने के लिये प्रार्थनाको मुख्या स्थान देना ही चाहिए।

गणेश जी की पूजा सबसे पहले क्यों की जाती है?


Ganesh Bhajan

गणपति को प्रथम क्यों पूजा जाता है?


गणेश पुराण से

प्राचीन काल की बात है – नैमिषारण्य क्षेत्र में ऋषि-महर्षि और साधु-संतों का समाज जुड़ा था।

उसमें श्री सूतजी भी विद्यमान थे।

शौनक जी ने उनकी सेवा में उपस्थित होकर निवेदन किया कि हे सूतजी! हमारे कानों के लिए अमृत के समान जीवन प्रदान करने वाले कथा तत्व का वर्णन कीजिए।

हमारे हृदयों में ज्ञान के प्रकाश की वृध्दि तथा भक्ति, वैराग्य और विवेक की उत्पत्ति जिस कथा से हो सकती हो, वह हमारे प्रति कहने की कृपा कीजिए।

शौनक जी की जिज्ञासा से सूतजी बड़े प्रसन्न हुए।

सूतजी बोले – शौनक जी, मैं आपको ज्ञान के परम स्रोत्र रूप श्रीगणेश जी का जनम कर्म रूप चरित्र सुनाऊंगा।

ज्ञान के परम स्रोत्र रूप श्रीगणेश जी

गणेशजी से ही सभी ज्ञानों, सभी विद्याओं का उद्भव हुआ है। अब आप सावधान चित्त से विराजमान हों और श्री गणेश जी के ध्यान और नमस्कारपूर्वक उनका चरित्र श्रवण करें।

अग्रपूजा के अधिकारी गणेश, यह कहकर, सूतजी कुछ समय के लिए मौन हो गए, और फिर बोले – शौनक जी! भगवान् गणेश जी ही सर्वप्रथम पूजा-प्राप्ति के अधिकारी हैं। किसी भी देवता की पूजा करो, पहले उन्हीं को पूजना होगा।


क्यों होती है गणेशजी की अग्रपूजा?

शौनक जी ने निवेदन किया – हे भगवान! सर्व प्रथम यह बताने की कृपा कीजिए कि गणेश जी को अग्रपूजा का अधिकार किस प्रकार प्राप्त हुआ? इस विषय में मेरी बुध्दि मोह को प्राप्त हो रही है कि सृष्टि रचयिता ब्रह्माजी, पालनकर्ता भगवान् नारायण और संहारकर्ता शिवजी में से किसी को अग्रपूजा का अधिकारी क्यों नहीं माना गया? यह त्रिदेव ही तो सबसे बड़े देवता माने जाते हैं।

सृष्टि रचयिता ब्रह्माजी, पालर्नकत्ता नारायण और संहार्रकत्ता शिवजी

सूतजी ने कहा – शौनक जी! यह भी एक रहस्य ही है। देखो, अधिकार मांगने से नहीं मिलता, इसके लिए योग्यता होनी चाहिए। संसार में अनेक देवी-देवता पूजे जाते हैं। पहले जो जिसका इष्टदेव होता, वही उसी की पूजा किया करता है। इससे बड़े देवताओं के महत्व में कमी आने की आशंका उत्पन्न हो गई। इस कारण देवताओं में परस्पर विवाद होने लगा।

वे उसका निर्णय प्राप्त करने के लिए शिवजी के पास पहुंचे और प्रणाम करके पूछने लगे – प्रभो! हम सबमें अग्रपूजा का अधिकारी कौन है?


क्यों की जाती है गणेश जी की सबसे पहले पूजा

शिवजी सोचने लगे कि किसे अग्रपूजा अधिकारी मानें?

तभी उन्हें एक युक्ति सूझी, बोले – देवगण! इसका निपटारा बातों से नहीं तथ्यों से होगा। इसके लिए एक प्रतियोगिता रखनी होगी। विश्व परिक्रमा की प्रतियोगिता।

देवगण उनका मुख देखने लगे। शंकित हृदय से सोचते थे कि कैसी प्रतियोगिता रहेगी?

शिवजी ने उनके मन के भाव ताड़ लिए, इसलिए सांत्वना भरे शब्दों में बोले – घबराओ मत, कोई कठिन परीक्षा नहीं ली जाएगी। बस इतना ही कि सभी अपने-अपने वाहनों पर चढ़कर संसार की परिक्रमा करो और फिर यहां लौट आओ। जो पहले लौटेगा, वही अग्रपूजा का अधिकारी होगा।


अब क्या देर थी, सभी अपने-अपने वाहनों पर चढ़कर दौड़ पड़े।

किसी का वाहन गजराज था, तो किसी का सिंह, किसी का भैंसा तो किसी का मृग, किसी का हंस तो किसी का उल्लू, किसी का अश्व तो किसी का श्वान।

अभिप्राय यह कि वाहनों की विविधता के दर्शन उस समय जितने भले प्रकार से हो सकते थे, उतने अन्य समय में नहीं।

सबसे गया-बीता वाहन गणेशजी का था मूषक। ऐसे वाहन के बल-भरोसे इस प्रतियोगिता में सफल होना तो क्या, सम्मिलित होना भी हास्यास्पद था।


गणेश जी ने सोचा छोड़ो, क्या होगा प्रतियोगिता में भाग लेने से? हम तो यहां बैठे रहकर ही तमाशा देखेंगे।

वे बहुत देर तक विचार करते रहे।

अंत में उन्हें एक युक्ति सूझी। शिवजी स्वयं ही जगदात्मा हैं, यह संसार उन्हीं का प्रतिबिंब है, तब क्यों न इन्हीं की परिक्रमा कर ली जाए। इनकी परिक्रमा करने से ही संसार की परिक्रमा हो जाएगी।


ऐसा निश्चय कर उन्होंने मूषक पर चढ़कर शिवजी की परिक्रमा की और उनके समक्ष जा पहुंचे।

शिवजी ने कहा – तुमने परिक्रमा पूर्ण कर ली?

गणेशजी ने उत्तर दिया – जी!

शिवजी सोचने लगे कि इसे तो यहीं घूमते हुए देखा, फिर परिक्रमा कैसे कर आया?

देवताओं का परिक्रमा करके लौटना आरंभ हुआ और उन्होंने गणेशजी को वहां बैठे देखा तो माथा ठनक गया।


फिर भी साहस करके बोले – अरे तुम विश्व की परिक्रमा के लिए नहीं गए?

गणेशजी ने कहा – मैं। कबका यहां आ गया!

देवता बोले – तुम्हें तो कहीं भी नहीं देखा?

गणेशजी ने उत्तर दिया – देखते कहां से? समस्त संसार शिवजी में विद्यमान हैं, इनकी परिक्रमा करने से ही संसार की परिक्रमा पूर्ण हो गई।

समस्त संसार शिवजी में विद्यमान हैं

सूतजी बाले – शौनक! इस प्रकार गणेशजी ने अपनी बुध्दि के बल पर ही विजय प्राप्त कर ली। उनका कथन सत्य था, इसलिए कोई विरोध करता भी तो कैसे?

बस उसी दिन से गणेश जी की अग्रपूजा होने लगी।

सूत जी बोले – हे शौनक जी, यह एक तथ्य भी है कि गणेश जी ही उसके पात्र भी है। बड़े-बड़े देवता भी कार्य सिद्धि में विघ्न आने पर उन विघ्नहर्ता गणपतिजी का आश्रय लेते हैं।

हे शौनक, गणेश जी भी बड़े दयालु है। नाम तो शिवजी का ही आशुतोष है, किंतु वे सर्वात्मा और सर्व रक्षक प्रभु तो शिव जी की अपेक्षा भी शीघ्र ही प्रकट हो जाते हैं।

उनका भक्त कभी किसी संकट में नहीं पड़ता। यदि प्रारब्ध वश कभी किसी विपत्ति में पड़ भी जाता है, तो गणेश जी की उपासना करने पर उनके अनुग्रह से उसके समस्त दुख दूर होकर परम सुख की प्राप्ति होती है।

Ganesh Bhajans