दुर्गा सप्तशती अध्याय 7 - श्लोक अर्थ सहित - चण्ड-मुण्ड का संहार

Durga Saptashati – Adhyay 07 – Shlok with Meaning


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इस पेज में दुर्गा सप्तशती अध्याय – 07 के संस्कृत श्लोक अर्थसहित दिए गए है।

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दुर्गा सप्तशती अध्याय – 07 हिंदी में


दुर्गा सप्तशती के इस सातवें अध्याय में देवी ने कैसे चण्ड-मुण्ड दैत्यों का संहार किया, इसका वर्णन दिया गया है।

साथ ही साथ इस अध्याय में देवी काली का प्रकट होना और कैसे उनका नाम चामुंडा देवी पड़ा यह भी दिया गया है।

दुर्गा सप्तशती के पिछले अध्याय में, अध्याय छह में, देवी माँ ने कैसे शुम्भ के सेनापति धूम्रलोचन का संहार किया, इसका वर्णन था।

धूम्रलोचन के वध के कारण शुम्भ क्रोधित हो, चण्ड-मुण्ड को देवी से युद्ध के लिए भेजता है।

दुर्गा सप्तशती के 700 श्लोकों में से इस सातवे अध्याय में 27 श्लोक आते है।


॥ध्यानम्॥
ॐ ध्यायेयं रत्‍नपीठे शुककलपठितं शृण्वतीं श्यामलाङ्‌गीं
न्यस्तैकाङ्‌घ्रिं सरोजे शशिशकलधरां वल्लकीं वादयन्तीम्।
कह्लाराबद्धमालां नियमितविलसच्चोलिकां रक्तवस्त्रां
मातङ्‌गीं शङ्‍खपात्रां मधुरमधुमदां चित्रकोद्भासिभालाम्॥

ध्यान

मैं मातङ्गीदेवीका ध्यान करता (करती) हूँ। वे रत्नमय सिंहासनपर बैठकर पढ़ते हुए तोतेका मधुर शब्द सुन रही हैं।

उनके शरीरका वर्ण श्याम है। वे अपना एक पैर कमलपर रखे हुए हैं और मस्तकपर अर्धचन्द्र धारण करती हैं तथा पुष्पोंकी माला धारण किये वीणा बजाती हैं।

वे लाल रंगकी साड़ी पहने और हाथमें शंखमय पात्र लिये हुए हैं। उनके वदनपर मधुका हलका-हलका प्रभाव जान पड़ता है और ललाटमें बिंदी शोभा दे रही है।

  • वदन अर्थात – मुख, मुँह, चेहरा, मुखड़ा कथन, भाषण

ॐ ऋषिरुवाच॥१॥
आज्ञप्तास्ते ततो दैत्याश्‍चण्डमुण्डपुरोगमाः।
चतुरङ्‍गबलोपेता ययुरभ्युद्यतायुधाः॥२॥

ऋषि कहते हैं – तदनंतर शुम्भ की आज्ञा पाकर चंड-मुंड आदि दैत्य, चतुरंगिनी सेना के साथ अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित हो चल दिए।

ददृशुस्ते ततो देवीमीषद्धासां व्यवस्थिताम्।
सिंहस्योपरि शैलेन्द्रशृङ्‌गे महति काञ्चने॥३॥

फिर गिरिराज हिमालय के सुवर्णमय ऊंचे शिखर पर पहुंचकर उन्होंने सिंह पर बैठी देवी को देखा। वे मंद-मंद मुस्करा रही थीं।

ते दृष्ट्‌वा तां समादातुमुद्यमं चक्रुरुद्यताः।
आकृष्टचापासिधरास्तथान्ये तत्समीपगाः॥४॥

उन्हें देखकर दैत्य लोग तत्परता से पकडने का उद्योग करने लगे।

किसी ने धनुष तान लिया, किसी ने तलवार संभाली और कुछ लोग देवी के पास आकर खड़े हो गए।

ततः कोपं चकारोच्चैरम्बिका तानरीन् प्रति।
कोपेन चास्या वदनं मषीवर्णमभूत्तदा॥५॥

तब अम्बिका ने उन शत्रुऒं के प्रति बड़ा क्रोध किया।

उस समय क्रोध के कारण उनका मुख काला पड़ गया।

भ्रुकुटीकुटिलात्तस्या ललाटफलकाद्द्रुतम्।
काली करालवदना विनिष्क्रान्तासिपाशिनी॥६॥

ललाटमें भौंहें टेढ़ी हो गयीं और वहां से तुरंत विकरालमुखी काली प्रकट हुईं, जो तलवार और पाश लिए हुए थीं।

विचित्रखट्‌वाङ्‌गधरा नरमालाविभूषणा।
द्वीपिचर्मपरीधाना शुष्कमांसातिभैरवा॥७॥

वे विचित्र खट्वाङ्ग धारण किए और चीते के चर्म की साड़ी पहने नर-मुंडो की मालासे विभूषित थीं।

उनके शरीर का मांस सूख गया था और केवल हड्डियों का ढांचा था, जिससे वे अयत भयंकर जान पड़ती थीं।

अतिविस्तारवदना जिह्वाललनभीषणा।
निमग्नारक्तनयना नादापूरितदिङ्‌मुखा॥८॥

उनका मुख बहुत विशाल था और जीभ लपलपाने के कारण वे और भी डरावनी प्रतीत होती थीं।

उनकी आंखें भीतर को धंसी हुई और कुछ लाल थीं।

वे अपनी भयंकर गर्जना से सम्पूर्ण दिशाऒं को गुंजा रही थीं।

सा वेगेनाभिपतिता घातयन्ती महासुरान्।
सैन्ये तत्र सुरारीणामभक्षयत तद्‌बलम्॥९॥

बड़े-बड़े दैत्यों का वध करती हुई वे कालिका देवी, बड़े वेग से दैत्यों की उस सेना पर टूट पड़ीं और उन सबका भक्षण करने लगीं।

पार्ष्णिग्राहाङ्‌कुशग्राहियोधघण्टासमन्वितान्।
समादायैकहस्तेन मुखे चिक्षेप वारणान्॥१०॥

वे पार्श्व रक्षकों, अंकुशधारी महावतों, योद्धाऒं और घंटा सहित कितने ही हाथियोंको एक ही हाथ से पकड़कर मुंह में डाल लेती थीं।

तथैव योधं तुरगै रथं सारथिना सह।
निक्षिप्य वक्त्रे दशनैश्‍चर्वयन्त्य*तिभैरवम्॥११॥

इसी प्रकार घोड़े, रथ और सारथि के साथ, रथी सैनिकों को मुंह में डालकर वे उन्हें बड़े भयानक रूप से चबा डालती थीं।

एकं जग्राह केशेषु ग्रीवायामथ चापरम्।
पादेनाक्रम्य चैवान्यमुरसान्यमपोथयत्॥१२॥

किसी के बाल पकड़ लेतीं, किसी का गला दबा देतीं, किसी को पैरों से कुचल डालतीं और किसी को छाती के धक्के से गिराकर मार डालती थीं।

तैर्मुक्तानि च शस्त्राणि महास्त्राणि तथासुरैः।
मुखेन जग्राह रुषा दशनैर्मथितान्यपि॥१३॥

वे असुरों के छोड़े हुए बड़े-बड़े अस्त्र-शस्त्र मुंह से पकड़ लेतीं और रोष में भरकर उनको दांतों से पीस डालती थीं।

बलिनां तद् बलं सर्वमसुराणां दुरात्मनाम्।
ममर्दाभक्षयच्चान्यानन्यांश्‍चाताडयत्तथा॥१४॥

काली ने बलवान एवं दुरात्मा दैत्यों की वह सारी सेना रौंद डाली, खा डाली और कितनों को मार भगाया।

असिना निहताः केचित्केचित्खट्‌वाङ्‌गताडिताः*।
जग्मुर्विनाशमसुरा दन्ताग्राभिहतास्तथा॥१५॥

कोई तलवार के घाट उतारे गए, कोई खट्वांग से पीटे गए और कितने ही असुर दांतों के अग्रभाग से कुचले जाकर मृत्यु को प्राप्त हुए।

क्षणेन तद् बलं सर्वमसुराणां निपातितम्।
दृष्ट्‌वा चण्डोऽभिदुद्राव तां कालीमतिभीषणाम्॥१६॥

इस प्रकार देवी ने असुरों की उस सारी सेनाको क्षणभर में मार गिराया।

यह देख चंड, उन अत्यंत भयानक काली देवी की ऒर दौड़ा।

शरवर्षैर्महाभीमैर्भीमाक्षीं तां महासुरः।
छादयामास चक्रैश्‍च मुण्डः क्षिप्तैः सहस्रशः॥१७॥

महादैत्य मुंड ने भी अत्यंत भयंकर बाणों की वर्षा से तथा हजारों बार चलाए हुए चक्रों से उन भयानक नेत्रों वाली देवी को आच्छादित कर दिया।

तानि चक्राण्यनेकानि विशमानानि तन्मुखम्।
बभुर्यथार्कबिम्बानि सुबहूनि घनोदरम्॥१८॥

वे अनेकों चक्र देवी के मुख में समाते हुए ऐसे जान पड़े, मानो सूर्य के बहुतेरे मंडल बादलों के उदर में प्रवेश कर रहे हों।

ततो जहासातिरुषा भीमं भैरवनादिनी।
कालीकरालवक्त्रान्तर्दुर्दर्शदशनोज्ज्वला॥१९॥

तब भयंकर गर्जना करने वाली काली ने अत्यंत रोष में भरकर विकट अट्टाहास किया।

उस समय उनके विकराल बदन के भीतर कठिनता से देखे जा सकने वाले दांतों की प्रभा से वे अत्यंत उज्वल दिखायी देती थीं।

उत्थाय च महासिं हं देवी चण्डमधावत।
गृहीत्वा चास्य केशेषु शिरस्तेनासिनाच्छिनत्*॥२०॥

देवी ने बहुत बड़ी तलवार हाथ में लेकर – हं – का उच्चारण करके चंड पर धावा किया और उसके केश पकड़कर उसी तलवार से उसका मस्तक काट डाला।

अथ मुण्डोऽभ्यधावत्तां दृष्ट्‌वा चण्डं निपातितम्।
तमप्यपातयद्भूमौ सा खड्गाभिहतं रुषा॥२१॥

चंड को मारा गया देखकर, मुंड भी देवी की ऒर दौड़ा।

तब देवी ने रोष में भरकर उसे भी तलवार से घायल करके धरती पर सुला दिया।

हतशेषं ततः सैन्यं दृष्ट्‌वा चण्डं निपातितम्।
मुण्डं च सुमहावीर्यं दिशो भेजे भयातुरम्॥२२॥

महापराक्रमी चंड और मुंड को मारा गया देख, मरने से बची हुई बाकी सेना भय से व्याकुल हो चारों ऒर भाग गयी।

शिरश्‍चण्डस्य काली च गृहीत्वा मुण्डमेव च।
प्राह प्रचण्डाट्टहासमिश्रमभ्येत्य चण्डिकाम्॥२३॥
मया तवात्रोपहृतौ चण्डमुण्डौ महापशू।
युद्धयज्ञे स्वयं शुम्भं निशुम्भं च हनिष्यसि॥२४॥

तदनंतर काली ने चंड और मुंड का मस्तक हाथ में ले, चंडिका के पास जाकर प्रचंड अट्टाहास करते हुए कहा –

देवि! मैंने चंड और मुंड नामक इन दो महापशुऒं को तुम्हें भेंट किया है।

अब युद्ध में तुम शुम्भ और निशुम्भ का स्वयं ही वध करना।

ऋषिरुवाच॥२५॥
तावानीतौ ततो दृष्ट्‌वा चण्डमुण्डौ महासुरौ।
उवाच कालीं कल्याणी ललितं चण्डिका वचः॥२६॥

ऋषि कहते हैं –
वहां लाए हुए उन चंड-मुंड नामक महादैत्यों को देखकर कल्याणमयी चंडी ने काली से मधुर वाणी में कहा।

यस्माच्चण्डं च मुण्डं च गृहीत्वा त्वमुपागता।
चामुण्डेति ततो लोके ख्याता देवि भविष्यसि॥ॐ॥२७॥

देवि!
तुम चंड और मुंड को लेकर मेरे पास आयी हो, इसलिए संसार में चांमुडा के नाम से तुम्हारी ख्याति होगी।

चंडिका देवी को नमस्कार है।

इति श्रीमार्कण्डेयपुराणे सावर्णिके मन्वन्तरे देवीमाहात्म्ये
चण्डमुण्डवधो नाम सप्तमोऽध्यायः॥७॥

इस प्रकार, श्री मार्कंडेयपुराण में, सावर्णिक मन्वंतर की कथा के अंतर्गत, देवीमाहाम्य में, ‘चंड-मुंड-वध’ नामक, सातवां अध्याय पूरा हुआ।


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