शिव पुराण - रुद्र संहिता - सृष्टि खण्ड - 8


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


उमासहित भगवान् शिवका प्राकट्य, उनके द्वारा अपने स्वरूपका विवेचन तथा ब्रह्मा आदि तीनों देवताओंकी एकताका प्रतिपादन

ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! भगवान् विष्णुके द्वारा की हुई अपनी स्तुति सुनकर करुणानिधि महेश्वर बड़े प्रसन्न हुए और उमादेवीके साथ सहसा वहाँ प्रकट हो गये।

उस समय उनके पाँच मुख और प्रत्येक मुखमें तीन-तीन नेत्र शोभा पाते थे।

भालदेशमें चन्द्रमाका मुकुट सुशोभित था।

सिरपर जटा धारण किये गौरवर्ण, विशालनेत्र शिवने अपने सम्पूर्ण अंगोंमें विभूति लगा रखी थी।

उनके दस भुजाएँ थीं।

कण्ठमें नील चिह्न था।

उनके श्रीअंग समस्त आभूषणोंसे विभूषित थे।

उन सर्वांगसुन्दर शिवके मस्तक भस्ममय त्रिपुण्ड्रसे अंकित थे।

ऐसे विशेषणोंसे युक्त परमेश्वर महादेवजीको भगवती उमाके साथ उपस्थित देख मैंने और भगवान् विष्णुने पुनः प्रिय वचनोंद्वारा उनकी स्तुति की।

तब पापहारी करुणाकर भगवान् महेश्वरने प्रसन्नचित्त होकर उन श्रीविष्णुदेवको श्वासरूपसे वेदका उपदेश दिया।

मुने! उनके बाद शिवने परमात्मा श्रीहरिको गुह्य ज्ञान प्रदान किया।

फिर उन परमात्माने कृपा करके मुझे भी वह ज्ञान दिया।

वेदका ज्ञान प्राप्त करके कृतार्थ हुए भगवान् विष्णुने मेरे साथ हाथ जोड़ महेश्वरको नमस्कार करके पुनः उनसे पूजनकी विधि बताने तथा सदुपदेश देनेके लिये प्रार्थना की।

ब्रह्माजी कहते हैं—मुने! श्रीहरिकी यह बात सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुए कृपानिधान भगवान् शिवने प्रीतिपूर्वक यह बात कही।

श्रीशिव बोले—सुरश्रेष्ठगण! मैं तुम दोनोंकी भक्तिसे निश्चय ही बहुत प्रसन्न हूँ।

तुमलोग मुझ महादेवकी ओर देखो।

इस समय तुम्हें मेरा स्वरूप जैसा दिखायी देता है, वैसे ही रूपका प्रयत्नपूर्वक पूजन-चिन्तन करना चाहिये।

तुम दोनों महाबली हो और मेरी स्वरूपभूता प्रकृतिसे प्रकट हुए हो।

मुझ सर्वेश्वरके दायें-बायें अंगोंसे तुम्हारा आविर्भाव हुआ है।

ये लोकपितामह ब्रह्मा मेरे दाहिने पार्श्वसे उत्पन्न हुए हैं और तुम विष्णु मुझ परमात्माके वाम पार्श्वसे प्रकट हुए हो।

मैं तुम दोनोंपर भलीभाँति प्रसन्न हूँ और तुम्हें मनोवांछित वर देता हूँ।

मेरी आज्ञासे तुम दोनोंकी मुझमें सुदृढ़ भक्ति हो।

ब्रह्मन्! तुम मेरी आज्ञाका पालन करते हुए जगत् की सृष्टि करो और वत्स विष्णो! तुम इस चराचर जगत् का पालन करते रहो।

हम दोनोंसे ऐसा कहकर भगवान् शंकरने हमें पूजाकी उत्तम विधि प्रदान की, जिसके अनुसार पूजित होनेपर वे पूजकको अनेक प्रकारके फल देते हैं।

शम्भुकी उपर्युक्त बात सुनकर मेरेसहित श्रीहरिने महेश्वरको हाथ जोड़ प्रणाम करके कहा।

भगवान् विष्णु बोले—प्रभो! यदि हमारे प्रति आपके हृदयमें प्रीति उत्पन्न हुई है और यदि आप हमें वर देना आवश्यक समझते हैं तो हम यही वर माँगते हैं कि आपमें हम दोनोंकी सदा अनन्य एवं अविचल भक्ति बनी रहे।

ब्रह्माजी कहते हैं—मुने! श्रीहरिकी यह बात सुनकर भगवान् हरने पुनः मस्तक झुकाकर प्रणाम करके हाथ जोड़े खड़े हुए उन नारायणदेवसे स्वयं कहा।

श्रीमहेश्वर बोले—मैं सृष्टि, पालन और संहारका कर्ता हूँ, सगुण और निर्गुण हूँ तथा सच्चिदानन्दस्वरूप निर्विकार परब्रह्म परमात्मा हूँ।

विष्णो! सृष्टि, रक्षा और प्रलयरूप गुणों अथवा कार्योंके भेदसे मैं ही ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र नाम धारण करके तीन स्वरूपोंमें विभक्त हुआ हूँ।

हरे! वास्तवमें मैं सदा निष्कल हूँ।

विष्णो! तुमने और ब्रह्माने मेरे अवतारके निमित्त जो स्तुति की है, तुम्हारी उस प्रार्थनाको मैं अवश्य सच्ची करूँगा; क्योंकि मैं भक्तवत्सल हूँ।

ब्रह्मन्! मेरा ऐसा ही परम उत्कृष्ट रूप तुम्हारे शरीरसे इस लोकमें प्रकट होगा, जो नामसे ‘रुद्र’ कहलायेगा।

मेरे अंशसे प्रकट हुए रुद्रकी सामर्थ्य मुझसे कम नहीं होगी।

जो मैं हूँ, वही यह रुद्र है।

पूजाकी विधि-विधानकी दृष्टिसे भी मुझमें और उसमें कोई अन्तर नहीं है।

जैसे ज्योतिका जल आदिके साथ सम्पर्क होनेपर भी उसमें स्पर्शदोष नहीं लगता, उसी प्रकार मुझ निर्गुण परमात्माको भी किसीके संयोगसे बन्धन नहीं प्राप्त होता।

यह मेरा शिवरूप है।

जब रुद्र प्रकट होंगे, तब वे भी शिवके ही तुल्य होंगे।

महामुने! उनमें और शिवमें परायेपनका भेद नहीं करना चाहिये।

वास्तवमें एक ही रूप सब जगत् में व्यवहार-निर्वाहके लिये दो रूपोंमें विभक्त हो गया है।

अतः शिव और रुद्रमें कभी भेदबुद्धि नहीं करनी चाहिये।

वास्तवमें सारा दृश्य ही मेरे विचारसे शिवरूप है।

मैं, तुम, ब्रह्मा तथा जो ये रुद्र प्रकट होंगे, वे सब-के-सब एकरूप हैं।

इनमें भेद नहीं है।

भेद माननेपर अवश्य ही बन्धन होगा।

तथापि मेरा शिवरूप ही सनातन है।

यही सदा सब रूपोंका मूलभूत कहा गया है।

यह सत्य, ज्ञान एवं अनन्त ब्रह्म है।१ ऐसा जानकर सदा मनसे मेरे यथार्थ-स्वरूपका दर्शन करना चाहिये।

ब्रह्मन्! सुनो, मैं तुम्हें एक गोपनीय बात बता रहा हूँ।

मैं स्वयं ब्रह्माजीकी भ्रुकुटिसे प्रकट होऊँगा।

गुणोंमें भी मेरा प्राकट्य कहा गया है।

जैसा कि लोगोंने कहा है ‘हर तामस प्रकृतिके हैं।’ वास्तवमें उस रूपमें अहंकारका वर्णन हुआ है।

उस अहंकारको केवल तामस ही नहीं, वैकारिक (सात्त्विक) भी समझना चाहिये (क्योंकि सात्त्विक देवगण वैकारिक अहंकारकी ही सृष्टि हैं)।

यह तामस और सात्त्विक आदि भेद केवल नाममात्रका है, वस्तुतः नहीं है।

वास्तवमें ‘हर’को तामस नहीं कहा जा सकता।

ब्रह्मन्! इस कारणसे तुम्हें ऐसा करना चाहिये।

तुम तो इस सृष्टिके निर्माता बनो और श्रीहरि इसका पालन करें तथा मेरे अंशसे प्रकट होनेवाले जो रुद्र हैं, वे इसका प्रलय करनेवाले होंगे।

ये जो ‘उमा’ नामसे विख्यात परमेश्वरी प्रकृति देवी हैं, इन्हींकी शक्तिभूता वाग्देवी ब्रह्माजीका सेवन करेंगी।

फिर इन प्रकृति देवीसे वहाँ जो दूसरी शक्ति प्रकट होगी वे लक्ष्मीरूपसे भगवान् विष्णुका आश्रय लेंगी।

तदनन्तर पुनः काली नामसे जो तीसरी शक्ति प्रकट होंगी, वे निश्चय ही मेरे अंशभूत रुद्रदेवको प्राप्त होंगी।

वे कार्यकी सिद्धिके लिये वहाँ ज्योतिरूपसे प्रकट होंगी।

इस प्रकार मैंने देवीकी शुभस्वरूपा पराशक्तियोंका परिचय दिया।

उनका कार्य क्रमशः सृष्टि, पालन और संहारका सम्पादन ही है।

सुरश्रेष्ठ! ये सब-की-सब मेरी प्रिया प्रकृति देवीकी अंशभूता हैं।

हरे! तुम लक्ष्मीका सहारा लेकर कार्य करो।

ब्रह्मन्! तुम्हें प्रकृतिकी अंशभूता वाग्देवीको पाकर मेरी आज्ञाके अनुसार मनसे सृष्टिकार्यका संचालन करना चाहिये और मैं अपनी प्रियाकी अंशभूता परात्पर कालीका आश्रय ले रुद्ररूपसे प्रलय-सम्बन्धी उत्तम कार्य करूँगा।

तुम सब लोग अवश्य ही सम्पूर्ण आश्रमों तथा उनसे भिन्न अन्यान्य विविध कार्योंद्वारा चारों वर्णोंसे भरे हुए लोककी सृष्टि एवं रक्षा आदि करके सुख पाओगे।

हरे! तुम ज्ञान-विज्ञानसे सम्पन्न तथा सम्पूर्ण लोकोंके हितैषी हो।

अतः अब मेरी आज्ञा पाकर जगत् में सब लोगोंके लिये मुक्तिदाता बनो।

मेरा दर्शन होनेपर जो फल प्राप्त होता है, वही तुम्हारा दर्शन होनेपर भी होगा।

मेरी यह बात सत्य है, सत्य है, इसमें संशयके लिये स्थान नहीं है।

मेरे हृदयमें विष्णु हैं और विष्णुके हृदयमें मैं हूँ।

जो इन दोनोंमें अन्तर नहीं समझता, वही मुझे विशेष प्रिय है।२ श्रीहरि मेरे बायें अंगसे प्रकट हुए हैं।

ब्रह्माका दाहिने अंगसे प्राकट्य हुआ है और महाप्रलयकारी विश्वात्मा रुद्र मेरे हृदयसे प्रादुर्भूत होंगे।

विष्णो! मैं ही सृष्टि, पालन और संहार करनेवाले रज आदि त्रिविध गुणोंद्वारा ब्रह्मा, विष्णु और रुद्रनामसे प्रसिद्ध हो तीन रूपोंमें पृथक्-पृथक् प्रकट होता हूँ।

साक्षात् शिव गुणोंसे भिन्न हैं।

वे प्रकृति और पुरुषसे भी परे हैं—अद्वितीय, नित्य, अनन्त, पूर्ण एवं निरंजन परब्रह्म परमात्मा हैं।

तीनों लोकोंका पालन करनेवाले श्रीहरि भीतर तमोगुण और बाहर सत्त्वगुण धारण करते हैं, त्रिलोकीका संहार करनेवाले रुद्रदेव भीतर सत्त्वगुण और बाहर तमोगुण धारण करते हैं तथा त्रिभुवनकी सृष्टि करनेवाले ब्रह्माजी बाहर और भीतरसे भी रजोगुणी ही हैं।

इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र—इन तीन देवताओंमें गुण हैं, परंतु शिव गुणातीत माने गये हैं।

विष्णो! तुम मेरी आज्ञासे इन सृष्टिकर्ता पितामहका प्रसन्नतापूर्वक पालन करो; ऐसा करनेसे तीनों लोकोंमें पूजनीय होओगे।

(अध्याय ९) १- मूलीभूतं सदोक्तं च सत्यज्ञानमनन्तकम्।

(शि० पु० रु० सृ० ९।४०) २- ममैव हृदये विष्णुर्विष्णोश्च हृदये ह्यहम्।। उभयोरन्तरं यो वै न जानाति मतो मम।

(शि० पु० रु० सृ० ९।५५-५६)


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