शिव पुराण - रुद्र संहिता - सृष्टि खण्ड - 1


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नारदमोहका प्रसंग

ऋषियोंके प्रश्नके उत्तरमें नारद-ब्रह्म-संवादकी अवतारणा करते हुए सूतजीका उन्हें नारदमोहका प्रसंग सुनाना

विश्वोद्भवस्थितिलयादिषु हेतुमेकं गौरीपतिं विदिततत्त्वमनन्तकीर्तिम् ।
मायाश्रयं विगतमायमचिन्त्यरूपं बोधस्वरूपममलं हि शिवं नमामि।।

जो विश्वकी उत्पत्ति, स्थिति और लय आदिके एकमात्र कारण हैं, गौरी गिरिराजकुमारी उमाके पति हैं, तत्त्वज्ञ हैं, जिनकी कीर्तिका कहीं अन्त नहीं है, जो मायाके आश्रय होकर भी उससे अत्यन्त दूर हैं तथा जिनका स्वरूप अचिन्त्य है, उन विमल बोधस्वरूप भगवान् शिवको मैं प्रणाम करता हूँ।

वन्दे शिवं तं प्रकृतेरनादिं प्रशान्तमेकं पुरुषोत्तमं हि ।
स्वमायया कुत्स्नमिदं हि सृष्ट् वा नभोवदन्तर्बहिरास्थितो यः ।।

मैं स्वभावसे ही उन अनादि, शान्तस्वरूप, एकमात्र पुरुषोत्तम शिवकी वन्दना करता हूँ, जो अपनी मायासे इस सम्पूर्ण विश्वकी सृष्टि करके आकाशकी भाँति इसके भीतर और बाहर भी स्थित हैं।

वन्देऽन्तरस्थं निजगूढरूपं शिवं स्वतस्स्रष्टुमिदं विचष्टे ।
जगन्ति नित्यं परितो भ्रमन्ति यत्संनिधौ चुम्बकलोहवत्तम् ।।

जैसे लोहा चुम्बकसे आकृष्ट होकर उसके पास ही लटका रहता है, उसी प्रकार ये सारे जगत् सदा सब ओर जिसके आसपास ही भ्रमण करते हैं, जिन्होंने अपनेसे ही इस प्रपंचको रचनेकी विधि बतायी थी, जो सबके भीतर अन्तर्यामी-रूपसे विराजमान हैं तथा जिनका अपना स्वरूप अत्यन्त गूढ़ है, उन भगवान् शिवकी मैं सादर वन्दना करता हूँ।

व्यासजी कहते हैं—जगत् के पिता भगवान् शिव, जगन्माता कल्याणमयी पार्वती तथा उनके पुत्र गणेशजीको नमस्कार करके हम इस पुराणका वर्णन करते हैं।

एक समयकी बात है, नैमिषारण्यमें निवास करनेवाले शौनक आदि सभी मुनियोंने उत्तम भक्तिभावके साथ सूतजीसे पूछा— ऋषि बोले—महाभाग सूतजी! विद्येश्वरसंहिताकी जो साध्य-साधन-खण्ड नामवाली शुभ एवं उत्तम कथा है, उसे हमलोगोंने सुन लिया।

उसका आदिभाग बहुत ही रमणीय है तथा वह शिव-भक्तोंपर भगवान् शिवका वात्सल्य-स्नेह प्रकट करनेवाली है।

विद्वन्! अब आप भगवान् शिवके परम उत्तम स्वरूपका वर्णन कीजिये।

साथ ही शिव और पार्वतीके दिव्य चरित्रोंका पूर्णरूपसे श्रवण कराइये।

हम पूछते हैं, निर्गुण महेश्वर लोकमें सगुणरूप कैसे धारण करते हैं? हम सब लोग विचार करनेपर भी शिवके तत्त्वको नहीं समझ पाते।

सृष्टिके पहले भगवान् शिव किस प्रकार अपने स्वरूपसे स्थित होते हैं? फिर सृष्टिके मध्यकालमें वे भगवान् किस तरह क्रीडा करते हुए सम्यक् व्यवहार-बर्ताव करते हैं और सृष्टिकल्पका अन्त होनेपर वे महेश्वरदेव किस रूपमें स्थित रहते हैं? लोककल्याणकारी शंकर कैसे प्रसन्न होते हैं और प्रसन्न हुए महेश्वर अपने भक्तों तथा दूसरोंको कौन-सा उत्तम फल प्रदान करते हैं? यह सब हमसे कहिये? हमने सुना है कि भगवान् शिव शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं।

वे महान् दयालु हैं, इसलिये अपने भक्तोंका कष्ट नहीं देख सकते।

ब्रह्मा, विष्णु और महेश—ये तीन देवता शिवके ही अंगसे उत्पन्न हुए हैं।

उनके प्राकट्यकी कथा तथा उनके विशेष चरित्रोंका वर्णन कीजिये।

प्रभो! आप उमाके आविर्भाव और विवाहकी भी कथा कहिये।

विशेषतः उनके गार्हस्थ्यधर्मका और अन्य लीलाओंका भी वर्णन कीजिये।

निष्पाप सूतजी! (हमारे प्रश्नके उत्तरमें) आपको ये सब तथा दूसरी बातें भी अवश्य कहनी चाहिये।

सूतजीने कहा—मुनीश्वरो! आपलोगोंने बड़ी उत्तम बात पूछी है।

भगवान् सदाशिवकी कथामें आपलोगोंकी जो आन्तरिक निष्ठा हुई है, इसके लिये आप धन्यवादके पात्र हैं।

ब्राह्मणो! भगवान् शंकरका गुणानुवाद सात्त्विक, राजस और तामस तीनों ही प्रकृतिके मनुष्योंको सदा आनन्द प्रदान करनेवाला है।

पशुओंकी हिंसा करनेवाले निष्ठुर कसाईके सिवा दूसरा कौन पुरुष उस गुणानुवादको सुननेसे ऊब सकता है।

जिनके मनमें कोई तृष्णा नहीं है, ऐसे महात्मा पुरुष भगवान् शिवके उन गुणोंका गान करते हैं; क्योंकि वह गुणावली संसाररूपी रोगकी दवा है, मन तथा कानोंको प्रिय लगनेवाली और सम्पूर्ण मनोरथोंको देनेवाली है*।

ब्राह्मणो! आपलोगोंके प्रश्नके अनुसार मैं यथाबुद्धि प्रयत्नपूर्वक शिव-लीलाका वर्णन करता हूँ, आप आदरपूर्वक सुनें।

जैसे आपलोग पूछ रहे हैं, उसी प्रकार देवर्षि नारदजीने शिवरूपी भगवान् विष्णुसे प्रेरित होकर अपने पितासे पूछा था।

अपने पुत्र नारदका प्रश्न सुनकर शिवभक्त ब्रह्माजीका चित्त प्रसन्न हो गया और वे उन मुनिशिरोमणिको हर्ष प्रदान करते हुए प्रेमपूर्वक भगवान् शिवके यशका गान करने लगे।


कामविजयके गर्वसे युक्त हुए नारदका शिव, ब्रह्मा तथा विष्णुके पास जाकर अपने तपका प्रभाव बताना

एक समयकी बात है, मुनिशिरोमणि विप्रवर नारदजीने, जो ब्रह्माजीके पुत्र हैं, विनीतचित्त हो तपस्यामें मन लगाया।

हिमालय पर्वतमें कोई एक गुफा थी, जो बड़ी शोभासे सम्पन्न दिखायी देती थी।

उसके निकट देवनदी गंगा निरन्तर वेगपूर्वक बहती थीं।

वहाँ एक महान् दिव्य आश्रम था, जो नाना प्रकारकी शोभासे सुशोभित था।

दिव्यदर्शी नारदजी तपस्या करनेके लिये उसी आश्रममें गये।

उस गुफाको देखकर मुनिवर नारदजी बड़े प्रसन्न हुए और सुदीर्घकालतक वहाँ तपस्या करते रहे।

उनका अन्तःकरण शुद्ध था।

वे दृढ़तापूर्वक आसन बाँधकर मौन हो प्राणायामपूर्वक समाधिमें स्थित हो गये।

ब्राह्मणो! उन्होंने वह समाधि लगायी, जिसमें ब्रह्मका साक्षात्कार करानेवाला ‘अहं ब्रह्मास्मि’ (मैं ब्रह्म हूँ)—यह विज्ञान प्रकट होता है।

मुनिवर नारदजी जब इस प्रकार तपस्या करने लगे, उस समय यह समाचार पाकर देवराज इन्द्र काँप उठे।

वे मानसिक संतापसे विह्वल हो गये।

‘ये नारदमुनि मेरा राज्य लेना चाहते हैं’—मन-ही-मन ऐसा सोचकर इन्द्रने उनकी तपस्यामें विघ्न डालनेके लिये प्रयत्न करनेकी इच्छा की।

उस समय देवराजने अपने मनसे कामदेवका स्मरण किया।

स्मरण करते ही कामदेव आ गये।

महेन्द्रने उन्हें नारदजीकी तपस्यामें विघ्न डालनेका आदेश दिया।

यह आज्ञा पाकर कामदेव वसन्तको साथ ले बड़े गर्वसे उस स्थानपर गये और अपना उपाय करने लगे।

उन्होंने वहाँ शीघ्र ही अपनी सारी कलाएँ रच डालीं।

वसन्तने भी मदमत्त होकर अपना प्रभाव अनेक प्रकारसे प्रकट किया।

मुनिवरो! कामदेव और वसन्तके अथक प्रयत्न करनेपर भी नारदमुनिके चित्तमें विकार नहीं उत्पन्न हुआ।

महादेवजीके अनुग्रहसे उन दोनोंका गर्व चूर्ण हो गया।

शौनक आदि महर्षियो! ऐसा होनेमें जो कारण था, उसे आदरपूर्वक सुनो।

महादेवजीकी कृपासे ही नारदमुनिपर कामदेवका कोई प्रभाव नहीं पड़ा।

पहले उसी आश्रममें कामशत्रु भगवान् शिवने उत्तम तपस्या की थी और वहीं उन्होंने मुनियोंकी तपस्याका नाश करनेवाले कामदेवको शीघ्र ही भस्म कर डाला था।

उस समय रतिने कामदेवको पुनः जीवित करनेके लिये देवताओंसे प्रार्थना की।

तब देवताओंने समस्त लोकोंका कल्याण करनेवाले भगवान् शंकरसे याचना की।

उनके याचना करनेपर वे बोले—‘देवताओ! कुछ समय व्यतीत होनेके बाद कामदेव जीवित तो हो जायँगे, परंतु यहाँ उनका कोई उपाय नहीं चल सकेगा।

अमरगण! यहाँ खड़े होकर लोग चारों ओर जितनी दूरतककी भूमिको नेत्रसे देख पाते हैं, वहाँतक कामदेवके बाणोंका प्रभाव नहीं चल सकेगा, इसमें संशय नहीं है।’ भगवान् शंकरकी इस उक्तिके अनुसार उस समय वहाँ नारदजीके प्रति कामदेवका निजी प्रभाव मिथ्या सिद्ध हुआ।

वे शीघ्र ही स्वर्गलोकमें इन्द्रके पास लौट गये।

वहाँ कामदेवने अपना सारा वृत्तान्त और मुनिका प्रभाव कह सुनाया, तत्पश्चात् इन्द्रकी आज्ञासे वे वसन्तके साथ अपने स्थानको लौट गये।

उस समय देवराज इन्द्रको बड़ा विस्मय हुआ।

उन्होंने नारदजीकी भूरि-भूरि प्रशंसा की।

परंतु शिवकी मायासे मोहित होनेके कारण वे उस पूर्ववृत्तान्तको स्मरण न कर सके।

वास्तवमें इस संसारके भीतर सभी प्राणियोंके लिये शम्भुकी मायाको जानना अत्यन्त कठिन है।

जिसने भगवान् शिवके चरणोंमें अपने-आपको समर्पित कर दिया है, उस भक्तको छोड़कर शेष सारा जगत् उनकी मायासे मोहित हो जाता है।* नारदजी भी भगवान् शंकरकी कृपासे वहाँ चिरकालतक तपस्यामें लगे रहे।

जब उन्होंने अपनी तपस्याको पूर्ण हुई समझा, तब वे मुनि उससे विरत हो गये।

‘कामदेवपर मेरी विजय हुई’ ऐसा मानकर उन मुनीश्वरके मनमें व्यर्थ ही गर्व हो गया।

भगवान् शिवकी मायासे मोहित होनेके कारण उन्हें यथार्थ बातका ज्ञान नहीं रहा।

(वे यह नहीं समझ सके कि कामदेवके पराजित होनेमें भगवान् शंकरका प्रभाव ही कारण है।) उस मायासे अत्यन्त मोहित हो मुनिशिरोमणि नारद अपना काम-विजय-सम्बन्धी वृत्तान्त बतानेके लिये तुरंत ही कैलास पर्वतपर गये।

उस समय वे विजयके मदसे उन्मत्त हो रहे थे।

वहाँ रुद्रदेवको नमस्कार करके गर्वसे भरे हुए मुनिने अपने-आपको महात्मा मानकर तथा अपने ही प्रभावसे कामदेवपर अपनी विजय हुई समझकर उनसे सारा वृत्तान्त कह सुनाया।

वह सब सुनकर भक्तवत्सल भगवान् शंकरने नारदजीसे, जो अपनी (शिवकी) ही मायासे मोहित होनेके कारण कामविजय-के यथार्थ कारणको नहीं जानते थे और अपने विवेकको भी खो बैठे थे, कहा— रुद्र बोले—तात नारद! तुम बड़े विद्वान् हो, धन्यवादके पात्र हो।

परंतु मेरी यह बात ध्यान देकर सुनो।

अबसे फिर कभी ऐसी बात कहीं भी न कहना।

विशेषतः भगवान् विष्णुके सामने इसकी चर्चा कदापि न करना।

तुमने मुझसे अपना जो वृत्तान्त बताया है, उसे पूछनेपर भी दूसरोंके सामने न कहना।

यह सिद्धि-सम्बन्धी वृत्तान्त सर्वथा गुप्त रखने योग्य है, इसे कभी किसीपर प्रकट नहीं करना चाहिये।

तुम मुझे विशेष प्रिय हो, इसीलिये अधिक जोर देकर मैं तुम्हें यह शिक्षा देता हूँ और इसे न कहनेकी आज्ञा देता हूँ; क्योंकि तुम भगवान् विष्णुके भक्त हो और उनके भक्त होते हुए ही मेरे अत्यन्त अनुगामी हो।

इस प्रकार बहुत कुछ कहकर संसारकी सृष्टि करनेवाले भगवान् रुद्रने नारदजीको शिक्षा दी—अपने वृत्तान्तको गुप्त रखनेके लिये उन्हें समझाया-बुझाया।

परंतु वे तो शिवकी मायासे मोहित थे।

इसलिये उन्होंने उनकी दी हुई शिक्षाको अपने लिये हितकर नहीं माना।

तदनन्तर मुनिशिरोमणि नारद ब्रह्मलोकमें गये।

वहाँ ब्रह्माजीको नमस्कार करके उन्होंने कहा—‘पिताजी! मैंने अपने तपोबलसे कामदेवको जीत लिया है।’ उनकी वह बात सुनकर ब्रह्माजीने भगवान् शिवके चरणारविन्दोंका चिन्तन किया और सारा कारण जानकर अपने पुत्रको यह सब कहनेसे मना किया।

परंतु नारदजी शिवकी मायासे मोहित थे।

अतएव उनके चित्तमें मदका अंकुर जम गया था।

उनकी बुद्धि मारी गयी थी।

इसलिये नारदजी अपना सारा वृत्तान्त भगवान् विष्णुके सामने कहनेके लिये वहाँसे शीघ्र ही विष्णुलोकमें गये।

नारदमुनिको आते देख भगवान् विष्णु बड़े आदरसे उठे और शीघ्र ही आगे बढ़कर उन्होंने मुनिको हृदयसे लगा लिया।

मुनिके आगमनका क्या हेतु है, इसका उन्हें पहलेसे ही पता था।

नारदजीको अपने आसनपर बिठाकर भगवान् शिवके चरणारविन्दोंका चिन्तन करके श्रीहरिने उनसे पूछा— भगवान् विष्णु बोले—तात! कहाँसे आते हो? यहाँ किसलिये तुम्हारा आगमन हुआ है? मुनिश्रेष्ठ! तुम धन्य हो।

तुम्हारे शुभागमनसे मैं पवित्र हो गया।

भगवान् विष्णुका यह वचन सुनकर गर्वसे भरे हुए नारदमुनिने मदसे मोहित होकर अपना सारा वृत्तान्त बड़े अभिमानके साथ कह सुनाया।

नारदमुनिका वह अहंकारयुक्त वचन सुनकर मन-ही-मन भगवान् विष्णुने उनकी कामविजयके यथार्थ कारणको पूर्णरूपसे जान लिया।

तत्पश्चात् श्रीविष्णु बोले—मुनिश्रेष्ठ! तुम धन्य हो, तपस्याके तो भंडार ही हो।

तुम्हारा हृदय भी बड़ा उदार है।

मुने! जिसके भीतर भक्ति, ज्ञान और वैराग्य नहीं होते, उसीके मनमें समस्त दुःखोंको देनेवाले काम, मोह आदि विकार शीघ्र उत्पन्न होते हैं।

तुम तो नैष्ठिक ब्रह्मचारी हो और सदा ज्ञान-वैराग्यसे युक्त रहते हो; फिर तुममें कामविकार कैसे आ सकता है।

तुम तो जन्मसे ही निर्विकार तथा शुद्ध बुद्धिवाले हो।

श्रीहरिकी कही हुई ऐसी बहुत-सी बातें सुनकर मुनिशिरोमणि नारद जोर-जोरसे हँसने लगे और मन-ही-मन भगवान् को प्रणाम करके इस प्रकार बोले— नारदजीने कहा—स्वामिन्! जब मुझपर आपकी कृपा है, तब बेचारा कामदेव अपना क्या प्रभाव दिखा सकता है।

ऐसा कहकर भगवान् के चरणोंमें मस्तक झुकाकर इच्छानुसार विचरनेवाले नारदमुनि वहाँसे चले गये। (अध्याय १-२)

* शम्भोर्गुणानुवादात् को विरज्येत पुमान् द्विजाः।
विना पशुघ्नं त्रिविधजनानन्दकरात् सदा।।

गीयमानो वितृष्णैश्च भवरोगौषधोऽपि हि।
मनःश्रोत्रादिरामश्च यतः सर्वार्थदः स वै।।

(शि० पु० रुद्र० सृ० १।२३-२४) * दुर्ज्ञेया शाम्भवी माया सर्वेषां प्राणिनामिह।
भक्तं विनार्पितात्मानं तया सम्मोह्यते जगत्।।

(शि० पु० रु० सृ० २।२५)


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