शिव पुराण - विद्येश्वर संहिता - 18


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


रुद्राक्षधारणकी महिमा तथा उसके विविध भेदोंका वर्णन

सूतजी कहते हैं –

महाप्राज्ञ! महामते! शिवरूप शौनक! अब मैं संक्षेपसे रुद्राक्षका माहात्म्य बता रहा हूँ, सुनो।

रुद्राक्ष शिवको बहुत ही प्रिय है।

इसे परम पावन समझना चाहिये।

रुद्राक्षके दर्शनसे, स्पर्शसे तथा उसपर जप करनेसे वह समस्त पापोंका अपहरण करनेवाला माना गया है।

मुने! पूर्वकालमें परमात्मा शिवने समस्त लोकोंका उपकार करनेके लिये देवी पार्वतीके सामने रुद्राक्षकी महिमाका वर्णन किया था।

भगवान् शिव बोले – महेश्वरि शिवे! मैं तुम्हारे प्रेमवश भक्तोंके हितकी कामनासे रुद्राक्षकी महिमाका वर्णन करता हूँ, सुनो।

महेशानि! पूर्वकालकी बात है, मैं मनको संयममें रखकर हजारों दिव्य वर्षोंतक घोर तपस्यामें लगा रहा।

एक दिन सहसा मेरा मन क्षुब्ध हो उठा।

परमेश्वरि! मैं सम्पूर्ण लोकोंका उपकार करनेवाला स्वतन्त्र परमेश्वर हूँ।

अतः उस समय मैंने लीलावश ही अपने दोनों नेत्र खोले, खोलते ही मेरे मनोहर नेत्रपुटोंसे कुछ जलकी बूँदें गिरीं।

आँसूकी उन बूँदोंसे वहाँ रुद्राक्ष नामक वृक्ष पैदा हो गया।

भक्तोंपर अनुग्रह करनेके लिये वे अश्रुबिन्दु स्थावरभावको प्राप्त हो गये।

वे रुद्राक्ष मैंने विष्णुभक्तको तथा चारों वर्णोंके लोगोंको बाँट दिये।

भूतलपर अपने प्रिय रुद्राक्षोंको मैंने गौड़ देशमें उत्पन्न किया।

मथुरा, अयोध्या, लंका, मलयाचल, सह्यगिरि, काशी तथा अन्य देशोंमें भी उनके अंकुर उगाये।

वे उत्तम रुद्राक्ष असह्य पापसमूहोंका भेदन करनेवाले तथा श्रुतियोंके भी प्रेरक हैं।

मेरी आज्ञासे वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जातिके भेदसे इस भूतलपर प्रकट हुए।

रुद्राक्षोंकी ही जातिके शुभाक्ष भी हैं।

उन ब्राह्मणादि जातिवाले रुद्राक्षोंके वर्ण श्वेत, रक्त, पीत तथा कृष्ण जानने चाहिये।

मनुष्योंको चाहिये कि वे क्रमशः वर्णके अनुसार अपनी जातिका ही रुद्राक्ष धारण करें।

भोग और मोक्षकी इच्छा रखनेवाले चारों वर्णोंके लोगों और विशेषतः शिवभक्तोंको शिव-पार्वतीकी प्रसन्नताके लिये रुद्राक्षके फलोंको अवश्य धारण करना चाहिये।

आँवलेके फलके बराबर जो रुद्राक्ष हो, वह श्रेष्ठ बताया गया है।

जो बेरके फलके बराबर हो, उसे मध्यम श्रेणीका कहा गया है और जो चनेके बराबर हो, उसकी गणना निम्नकोटिमें की गयी है।

अब इसकी उत्तमताको परखनेकी यह दूसरी उत्तम प्रक्रिया बतायी जाती है।

इसे बतानेका उद्देश्य है भक्तोंकी हितकामना।

पार्वती! तुम भलीभाँति प्रेमपूर्वक इस विषयको सुनो।

महेश्वरि! जो रुद्राक्ष बेरके फलके बराबर होता है, वह उतना छोटा होनेपर भी लोकमें उत्तम फल देनेवाला तथा सुख-सौभाग्यकी वृद्धि करनेवाला होता है।

जो रुद्राक्ष आँवलेके फलके बराबर होता है, वह समस्त अरिष्टोंका विनाश करनेवाला होता है तथा जो गुंजाफलके समान बहुत छोटा होता है, वह सम्पूर्ण मनोरथों और फलोंकी सिद्धि करनेवाला है।

रुद्राक्ष जैसे-जैसे छोटा होता है, वैसे-ही-वैसे अधिक फल देनेवाला होता है।

एक-एक बड़े रुद्राक्षसे एक-एक छोटे रुद्राक्षको विद्वानोंने दसगुना अधिक फल देनेवाला बताया है।

पापोंका नाश करनेके लिये रुद्राक्ष-धारण आवश्यक बताया गया है।

वह निश्चय ही सम्पूर्ण अभीष्ट मनोरथोंका साधक है।

अतः अवश्य ही उसे धारण करना चाहिये।

परमेश्वरि! लोकमें मंगलमय रुद्राक्ष जैसा फल देनेवाला देखा जाता है, वैसी फलदायिनी दूसरी कोई माला नहीं दिखायी देती।

देवि! समान आकार-प्रकारवाले, चिकने, मजबूत, स्थूल, कण्टकयुक्त (उभरे हुए छोटे-छोटे दानोंवाले) और सुन्दर रुद्राक्ष अभिलषित पदार्थोंके दाता तथा सदैव भोग और मोक्ष देनेवाले हैं।

जिसे कीड़ोंने दूषित कर दिया हो, जो टूटा-फूटा हो, जिसमें उभरे हुए दाने न हों, जो व्रणयुक्त हो तथा जो पूरा-पूरा गोल न हो, इन पाँच प्रकारके रुद्राक्षोंको त्याग देना चाहिये।

जिस रुद्राक्षमें अपने-आप ही डोरा पिरोनेके योग्य छिद्र हो गया हो, वही यहाँ उत्तम माना गया है।

जिसमें मनुष्यके प्रयत्नसे छेद किया गया हो, वह मध्यम श्रेणीका होता है।

रुद्राक्ष-धारण बड़े-बड़े पातकोंका नाश करनेवाला है।

इस जगत् में ग्यारह सौ रुद्राक्ष धारण करके मनुष्य जिस फलको पाता है उसका वर्णन सैकड़ों वर्षोंमें भी नहीं किया जा सकता।

भक्तिमान् पुरुष साढ़े पाँच सौ रुद्राक्षके दानोंका सुन्दर मुकुट बना ले और उसे सिरपर धारण करे।

तीन सौ साठ दानोंको लंबे सूत्रमें पिरोकर एक हार बना ले।

वैसे-वैसे तीन हार बनाकर भक्तिपरायण पुरुष उनका यज्ञोपवीत तैयार करे और उसे यथास्थान धारण किये रहे।

इसके बाद किस अंगमें कितने रुद्राक्ष धारण करने चाहिये, यह बताकर सूतजी बोले – महर्षियो! सिरपर ईशान-मन्त्रसे, कानमें तत्पुरुष-मन्त्रसे तथा गले और हृदयमें अघोर-मन्त्रसे रुद्राक्ष धारण करना चाहिये।

विद्वान् पुरुष दोनों हाथोंमें अघोर-बीजमन्त्रसे रुद्राक्ष धारण करे।

उदरपर वामदेव-मन्त्रसे पंद्रह रुद्राक्षोंद्वारा गुँथी हुई माला धारण करे अथवा अंगोंसहित प्रणवका पाँच बार जप करके रुद्राक्षकी तीन, पाँच या सात मालाएँ धारण करे अथवा मूलमन्त्र (‘नमः शिवाय’)-से ही समस्त रुद्राक्षोंको धारण करे।

रुद्राक्षधारी पुरुष अपने खान-पानमें मदिरा, मांस, लहसुन, प्याज, सहिजन, लिसोड़ा आदिको त्याग दे।

गिरिराजनन्दिनी उमे! श्वेत रुद्राक्ष केवल ब्राह्मणोंको ही धारण करना चाहिये।

गहरे लाल रंगका रुद्राक्ष क्षत्रियोंके लिये हितकर बताया गया है।

वैश्योंके लिये प्रतिदिन बारंबार पीले रुद्राक्षको धारण करना आवश्यक है और शूद्रोंको काले रंगका रुद्राक्ष धारण करना चाहिये – यह वेदोक्त मार्ग है।

ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ, गृहस्थ और संन्यासी – सबको नियमपूर्वक रुद्राक्ष धारण करना उचित है।

इसे धारण करनेका सौभाग्य बड़े पुण्यसे प्राप्त होता है।

उमे! पहले आँवलेके बराबर और फिर उससे भी छोटे रुद्राक्ष धारण करे।

जो रोगी हों, जिनमें दाने न हों, जिन्हें कीड़ोंने खा लिया हो, जिनमें पिरोनेयोग्य छेद न हों, ऐसे रुद्राक्ष मंगलाकांक्षी पुरुषोंको नहीं धारण करने चाहिये।

रुद्राक्ष मेरा मंगलमय लिंग-विग्रह है।

वह अन्ततोगत्वा चनेके बराबर लघुतर होता है।

सूक्ष्म रुद्राक्षको ही सदा प्रशस्त माना गया है।

सभी आश्रमों, समस्त वर्णों, स्त्रियों और शूद्रोंको भी भगवान् शिवकी आज्ञाके अनुसार सदैव रुद्राक्ष धारण करना चाहिये।* यतियोंके लिये प्रणवके उच्चारणपूर्वक रुद्राक्षधारणका विधान है।

जिसके ललाटमें त्रिपुण्ड्र लगा हो और सभी अंग रुद्राक्षसे विभूषित हों तथा जो मृत्युंजय-मन्त्रका जप कर रहा हो, उसका दर्शन करनेसे साक्षात् रुद्रके दर्शनका फल प्राप्त होता है।

पार्वती! रुद्राक्ष अनेक प्रकारके बताये गये हैं।

मैं उनके भेदोंका वर्णन करता हूँ।

वे भेद भोग और मोक्षरूप फल देनेवाले हैं।

तुम उत्तम भक्तिभावसे उनका परिचय सुनो।

एक मुखवाला रुद्राक्ष साक्षात् शिवका स्वरूप है।

वह भोग और मोक्षरूपी फल प्रदान करता है।

जहाँ रुद्राक्षकी पूजा होती है, वहाँसे लक्ष्मी दूर नहीं जातीं।

उस स्थानके सारे उपद्रव नष्ट हो जाते हैं तथा वहाँ रहनेवाले लोगोंकी सम्पूर्ण कामनाएँ पूर्ण होती हैं।

दो मुखवाला रुद्राक्ष देवदेवेश्वर कहा गया है।

वह सम्पूर्ण कामनाओं और फलोंको देनेवाला है।

तीन मुखवाला रुद्राक्ष सदा साक्षात् साधनका फल देनेवाला है, उसके प्रभावसे सारी विद्याएँ प्रतिष्ठित होती हैं, चार मुखवाला रुद्राक्ष साक्षात् ब्रह्माका रूप है।

वह दर्शन और स्पर्शसे शीघ्र ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – इन चारों पुरुषार्थोंको देनेवाला है।

पाँच मुखवाला रुद्राक्ष साक्षात् कालाग्निरुद्ररूप है।

वह सब कुछ करनेमें समर्थ है।

सबको मुक्ति देनेवाला तथा सम्पूर्ण मनोवांछित फल प्रदान करनेवाला है।

पंचमुख रुद्राक्ष समस्त पापोंको दूर कर देता है।

छः मुखोंवाला रुद्राक्ष कार्तिकेयका स्वरूप है।

यदि दाहिनी बाँहमें उसे धारण किया जाय तो धारण करनेवाला मनुष्य ब्रह्महत्या आदि पापोंसे मुक्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं है।

महेश्वरि! सात मुखवाला रुद्राक्ष अनंगस्वरूप और अनंग नामसे ही प्रसिद्ध है।

देवेशि! उसको धारण करनेसे दरिद्र भी ऐश्वर्यशाली हो जाता है।

आठ मुखवाला रुद्राक्ष अष्टमूर्ति भैरवरूप है, उसको धारण करनेसे मनुष्य पूर्णायु होता है और मृत्युके पश्चात् शूलधारी शंकर हो जाता है।

नौ मुखवाले रुद्राक्षको भैरव तथा कपिल-मुनिका प्रतीक माना गया है अथवा नौ रूप धारण करनेवाली महेश्वरी दुर्गा उसकी अधिष्ठात्री देवी मानी गयी हैं।

जो मनुष्य भक्तिपरायण हो अपने बायें हाथमें नवमुख रुद्राक्षको धारण करता है, वह निश्चय ही मेरे समान सर्वेश्वर हो जाता है – इसमें संशय नहीं है।

महेश्वरि! दस मुखवाला रुद्राक्ष साक्षात् भगवान् विष्णुका रूप है।

देवेशि! उसको धारण करनेसे मनुष्यकी सम्पूर्ण कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं।

परमेश्वरि! ग्यारह मुखवाला जो रुद्राक्ष है, वह रुद्ररूप है।

उसको धारण करनेसे मनुष्य सर्वत्र विजयी होता है।

बारह मुखवाले रुद्राक्षको केशप्रदेशमें धारण करे।

उसके धारण करनेसे मानो मस्तकपर बारहों आदित्य विराजमान हो जाते हैं।

तेरह मुखवाला रुद्राक्ष विश्वेदेवोंका स्वरूप है।

उसको धारण करके मनुष्य सम्पूर्ण अभीष्टोंको पाता तथा सौभाग्य और मंगल लाभ करता है।

चौदह मुखवाला जो रुद्राक्ष है, वह परम शिवरूप है।

उसे भक्तिपूर्वक मस्तकपर धारण करे।

इससे समस्त पापोंका नाश हो जाता है।

गिरिराजकुमारी! इस प्रकार मुखोंके भेदसे रुद्राक्षके चौदह भेद बताये गये।

अब तुम क्रमशः उन रुद्राक्षोंके धारण करनेके मन्त्रोंको प्रसन्नतापूर्वक सुनो।

१. ॐ ह्रीं नमः।

२. ॐ नमः।

३. ॐ क्लीं नमः।

४. ॐ ह्रीं नमः।

५. ॐ ह्रीं नमः।

६. ॐ ह्रीं हुं नमः।

७. ॐ हुं नमः।

८. ॐ हुं नमः।

९. ॐ ह्रीं हुं नमः।

१०. ॐ ह्रीं नमः।

११. ॐ ह्रीं हुं नमः।

१२. ॐ क्रौं क्षौं रौं नमः।

१३. ॐ ह्रीं नमः।

१४. ॐ नमः।

इन चौदह मन्त्रोंद्वारा क्रमशः एकसे लेकर चौदह मुखवाले रुद्राक्षको धारण करनेका विधान है।

साधकको चाहिये कि वह निद्रा और आलस्यका त्याग करके श्रद्धा-भक्तिसे सम्पन्न हो सम्पूर्ण मनोरथोंकी सिद्धिके लिये उक्त मन्त्रोंद्वारा उन-उन रुद्राक्षोंको धारण करे।

रुद्राक्षकी माला धारण करनेवाले पुरुषको देखकर भूत, प्रेत, पिशाच, डाकिनी, शाकिनी तथा जो अन्य द्रोहकारी राक्षस आदि हैं, वे सब-के-सब दूर भाग जाते हैं।

जो कृत्रिम अभिचार आदि प्रयुक्त होते हैं, वे सब रुद्राक्षधारीको देखकर सशंक हो दूर खिसक जाते हैं।

पार्वती! रुद्राक्ष-मालाधारी पुरुषको देखकर मैं शिव, भगवान् विष्णु, देवी दुर्गा, गणेश, सूर्य तथा अन्य देवता भी प्रसन्न हो जाते हैं।

महेश्वरि! इस प्रकार रुद्राक्षकी महिमाको जानकर धर्मकी वृद्धिके लिये भक्तिपूर्वक पूर्वोक्त मन्त्रोंद्वारा विधिवत् उसे धारण करना चाहिये।

मुनीश्वर! भगवान् शिवने देवी पार्वतीके सामने जो कुछ कहा था, वह सब तुम्हारे प्रश्नके अनुसार मैंने कह सुनाया।

मुनीश्वरो! मैंने तुम्हारे समक्ष इस विद्येश्वरसंहिताका वर्णन किया है।

यह संहिता सम्पूर्ण सिद्धियोंको देनेवाली तथा भगवान् शिवकी आज्ञासे नित्य मोक्ष प्रदान करनेवाली है। (अध्याय २५)

।। विद्येश्वरसंहिता सम्पूर्ण ।।

* सर्वाश्रमाणां वर्णानां स्त्रीशूद्राणां शिवाज्ञया ।
धार्याः सदैव रुद्राक्षा ।। (शि० पु० वि० २५।४७)


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