शिव पुराण - रुद्र संहिता - सृष्टि खण्ड - 9

शिव पुराण – रुद्र संहिता – सृष्टि खण्ड – 9


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


श्रीहरिको सृष्टिकी रक्षाका भार एवं भोग-मोक्ष-दानका अधिकार दे भगवान् शिवका अन्तर्धान होना

परमेश्वर शिव बोले—उत्तम व्रतका पालन करनेवाले हरे! विष्णो! अब तुम मेरी दूसरी आज्ञा सुनो।

उसका पालन करनेसे तुम सदा समस्त लोकोंमें माननीय और पूजनीय बने रहोगे।

ब्रह्माजीके द्वारा रचे गये लोकमें जब कोई दुःख या संकट उत्पन्न हो, तब तुम उन सम्पूर्ण दुःखोंका नाश करनेके लिये सदा तत्पर रहना।

तुम्हारे सम्पूर्ण दुस्सह कार्योंमें मैं तुम्हारी सहायता करूँगा।

तुम्हारे जो दुर्जेय और अत्यन्त उत्कट शत्रु होंगे, उन सबको मैं मार गिराऊँगा।

हरे! तुम नाना प्रकारके अवतार धारण करके लोकमें अपनी उत्तम कीर्तिका विस्तार करो और सबके उद्धारके लिये तत्पर रहो।

तुम रुद्रके ध्येय हो और रुद्र तुम्हारे ध्येय हैं।

तुममें और रुद्रमें कुछ भी अन्तर नहीं है।* जो मनुष्य रुद्रका भक्त होकर तुम्हारी निन्दा करेगा, उसका सारा पुण्य तत्काल भस्म हो जायगा।

पुरुषोत्तम विष्णो! तुमसे द्वेष करनेके कारण मेरी आज्ञासे उसको नरकमें गिरना पड़ेगा।

यह बात सत्य है, सत्य है।

इसमें संशय नहीं है।१ तुम इस लोकमें मनुष्योंके लिये विशेषतः भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले और भक्तोंके ध्येय तथा पूज्य होकर प्राणियोंका निग्रह और अनुग्रह करो।

ऐसा कहकर भगवान् शिवने मेरा हाथ पकड़ लिया और श्रीविष्णुको सौंपकर उनसे कहा—‘तुम संकटके समय सदा इनकी सहायता करते रहना।

सबके अध्यक्ष होकर सभीको भोग और मोक्ष प्रदान करना तथा सर्वदा समस्त कामनाओंका साधक एवं सर्वश्रेष्ठ बने रहना।

जो तुम्हारी शरणमें आ गया, वह निश्चय ही मेरी शरणमें आ गया।

जो मुझमें और तुममें अन्तर समझता है, वह अवश्य नरकमें गिरता है।’२ ब्रह्माजी कहते हैं—देवर्षे! भगवान् शिवका यह वचन सुनकर मेरे साथ भगवान् विष्णुने सबको वशमें करनेवाले विश्वनाथको प्रणाम करके मन्दस्वरमें कहा— श्रीविष्णु बोले—करुणासिन्धो! जगन्नाथ शंकर! मेरी यह बात सुनिये।

मैं आपकी आज्ञाके अधीन रहकर यह सब कुछ करूँगा।

स्वामिन्! जो मेरा भक्त होकर आपकी निन्दा करे, उसे आप निश्चय ही नरकवास प्रदान करें।

नाथ! जो आपका भक्त है, वह मुझे अत्यन्त प्रिय है।

जो ऐसा जानता है, उसके लिये मोक्ष दुर्लभ नहीं है।३ श्रीहरिका यह कथन सुनकर दुःखहारी हरने उनकी बातका अनुमोदन किया और नाना प्रकारके धर्मोंका उपदेश देकर हम दोनोंके हितकी इच्छासे हमें अनेक प्रकारके वर दिये।

इसके बाद भक्तवत्सल भगवान् शम्भु कृपापूर्वक हमारी ओर देखकर हम दोनोंके देखते-देखते सहसा वहीं अन्तर्धान हो गये।

तभीसे इस लोकमें लिंग-पूजाका विधान चालू हुआ है।

लिंगमें प्रतिष्ठित भगवान् शिव भोग और मोक्ष देनेवाले हैं।

शिवलिंगकी जो वेदी या अर्घा है, वह महादेवीका स्वरूप है और लिंग साक्षात् महेश्वरका।

लयका अधिष्ठान होनेके कारण भगवान् शिवको लिंग कहा गया है; क्योंकि उन्हींमें निखिल जगत् का लय होता है।

महामुने! जो शिवलिंगके समीप कोई कार्य करता है, उसके पुण्यफलका वर्णन करनेकी शक्ति मुझमें नहीं है।

(अध्याय १०)

* रुद्रध्येयो भवांश्चैव भवद् ध्येयो हरस्तथा।

युवयोरन्तरं नैव तव रुद्रस्य किंचन।।

(शि० पु० रु० सृ० खं० १०।६) १- रुद्रभक्तो नरो यस्तु तव निन्दां करिष्यति।

तस्य पुण्यं च निखिलं द्रुतं भस्म भविष्यति।।

नरके पतनं तस्य त्वद् द्वेषात्पुरुषोत्तम।

मदाज्ञया भवेद्विष्णो सत्यं सत्यं न संशयः।।

(शि० पु० रु० सृ० खं० १०।८-९) २- त्वां यः समाश्रितो नूनं मामेव सः समाश्रितः।

अन्तरं यश्च जानाति निरये पतति ध्रुवम्।।

(शि० पु० रु० सृ० खं० १०।१४) ३- मम भक्तश्च यः स्वामिंस्तव निन्दां करिष्यति।

तस्य वै निरये वासं प्रयच्छ नियतं ध्रुवम्।।

त्वद्भक्तो यो भवेत्स्वामिन्मम प्रियतरो हि सः।

एवं वै यो विजानाति तस्य मुक्तिर्न दुर्लभा।।

(शि० पु० रु० सृ० खं० १०।३०-३१)


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