शिव पुराण - रुद्र संहिता - सृष्टि खण्ड - 17


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भगवान् शिवका कैलास पर्वतपर गमन तथा सृष्टिखण्डका उपसंहार

ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! मुने! कुबेरके तपोबलसे भगवान् शिवका जिस प्रकार पर्वतश्रेष्ठ कैलासपर शुभागमन हुआ, वह प्रसंग सुनो।

कुबेरको वर देनेवाले विश्वेश्वर शिव जब उन्हें निधिपति होनेका वर देकर अपने उत्तम स्थानको चले गये, तब उन्होंने मन-ही-मन इस प्रकार विचार किया—‘ब्रह्माजीके ललाटसे जिनका प्रादुर्भाव हुआ है तथा जो प्रलयका कार्य सँभालते हैं, वे रुद्र मेरे पूर्ण स्वरूप हैं।

अतः उन्हींके रूपमें मैं गुह्यकोंके निवासस्थान कैलास पर्वतको जाऊँगा।

उन्हींके रूपमें मैं कुबेरका मित्र बनकर उसी पर्वतपर विलासपूर्वक रहूँगा और बड़ा भारी तप करूँगा।’ शिवकी इस इच्छाका चिन्तन करके उन रुद्रदेवने कैलास जानेके लिये उत्सुक डमरू बजाया।

डमरूकी वह ध्वनि, जो उत्साह बढ़ानेवाली थी, तीनों लोकोंमें व्याप्त हो गयी।

उसका विचित्र एवं गम्भीर शब्द आह्वानकी गतिसे युक्त था अर्थात् सुननेवालोंको अपने पास आनेके लिये प्रेरणा दे रहा था।

उस ध्वनिको सुनकर मैं तथा श्रीविष्णु आदि सभी देवता, ऋषि, मूर्तिमान् आगम, निगम और सिद्ध वहाँ आ पहुँचे।

देवता और असुर आदि सब लोग बड़े उत्साहमें भरकर वहाँ आये।

भगवान् शिवके समस्त पार्षद तथा सर्वलोकवन्दित महाभाग गणपाल जहाँ कहीं भी थे, वहाँसे आ गये।

इतना कहकर ब्रह्माजीने वहाँ आये हुए गणपालोंका नामोल्लेखपूर्वक विस्तृत परिचय दिया, फिर इस प्रकार कहना आरम्भ किया।

वे बोले—वहाँ असंख्य महाबली गणपाल पधारे।

वे सब-के-सब सहस्रों भुजाओंसे युक्त थे और मस्तकपर जटाका ही मुकुट धारण किये हुए थे।

सभी चन्द्रचूड़, नीलकण्ठ और त्रिलोचन थे।

हार, कुण्डल, केयूर तथा मुकुट आदिसे अलंकृत थे।

वे मेरे, श्रीविष्णुके तथा इन्द्रके समान तेजस्वी जान पड़ते थे।

अणिमा आदि आठों सिद्धियोंसे घिरे थे तथा करोड़ों सूर्योंके समान उद्भासित हो रहे थे।

उस समय भगवान् शिवने विश्वकर्माको उस पर्वतपर निवासस्थान बनानेकी आज्ञा दी।

अनेक भक्तोंके साथ अपने और दूसरोंके रहनेके लिये यथायोग्य आवास तैयार करनेका आदेश दिया।

मुने! तब विश्वकर्माने भगवान् शिवकी आज्ञाके अनुसार उस पर्वतपर जाकर शीघ्र ही नाना प्रकारके गृहोंकी रचना की।

फिर श्रीहरिकी प्रार्थनासे कुबेरपर अनुग्रह करके भगवान् शिव सानन्द कैलास पर्वतपर गये।

उत्तम मुहूर्तमें अपने स्थानमें प्रवेश करके भक्तवत्सल परमेश्वर शिवने सबको प्रेमदान दे सनाथ किया, इसके बाद आनन्दसे भरे हुए श्रीविष्णु आदि समस्त देवताओं, मुनियों और सिद्धोंने शिवका प्रसन्नतापूर्वक अभिषेक किया।

हाथोंमें नाना प्रकारकी भेंटें लेकर सबने क्रमशः उनका पूजन किया और बड़े उत्सवके साथ उनकी आरती उतारी।

मुने! उस समय आकाशसे फूलोंकी वर्षा हुई, जो मंगलसूचक थी।

सब ओर जय-जयकार और नमस्कारके शब्द गूँजने लगे।

महान् उत्साह फैला हुआ था, जो सबके सुखको बढ़ा रहा था।

उस समय सिंहासनपर बैठकर श्रीविष्णु आदि सभी देवताओंद्वारा की हुई यथोचित सेवाको बारंबार ग्रहण करते हुए भगवान् शिव बड़ी शोभा पा रहे थे।

देवता आदि सब लोगोंने सार्थक एवं प्रिय वचनों-द्वारा लोककल्याणकारी भगवान् शंकरका पृथक्-पृथक् स्तवन किया।

सर्वेश्वर प्रभुने प्रसन्नचित्तसे वह स्तवन सुनकर उन सबको प्रसन्नतापूर्वक मनोवांछित वर एवं अभीष्ट वस्तुएँ प्रदान कीं।

मुने! तदनन्तर श्रीविष्णुके साथ मैं तथा अन्य सब देवता और मुनि मनोवांछित वस्तु पाकर आनन्दित हो भगवान् शिवकी आज्ञासे अपने-अपने धामको चले गये।

कुबेर भी शिवकी आज्ञासे प्रसन्नतापूर्वक अपने स्थानको गये।

फिर वे भगवान् शम्भु, जो सर्वथा स्वतन्त्र हैं, योगपरायण एवं ध्यान-तत्पर हो पर्वतप्रवर कैलासपर रहने लगे।

कुछ काल बिना पत्नीके ही बिताकर परमेश्वर शिवने दक्षकन्या सतीको पत्नीरूपमें प्राप्त किया।

देवर्षे! फिर वे महेश्वर दक्षकुमारी सतीके साथ विहार करने लगे और लोकाचारपरायण हो सुखका अनुभव करने लगे।

मुनीश्वर! इस प्रकार मैंने तुमसे यह रुद्रके अवतारका वर्णन किया है, साथ ही उनके कैलासपर आगमन और कुबेरके साथ मैत्रीका भी प्रसंग सुनाया है।

कैलासके अन्तर्गत होनेवाली उनकी ज्ञानवर्द्धिनी लीलाका भी वर्णन किया, जो इहलोक और परलोकमें सदा सम्पूर्ण मनोवांछित फलोंको देनेवाली है।

जो एकाग्रचित्त हो इस कथाको सुनता या पढ़ता है, वह इस लोकमें भोग पाकर परलोकमें मोक्ष लाभ करता है। (अध्याय २०)

।। रुद्रसंहिताका सृष्टिखण्ड सम्पूर्ण ।।


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