शिव पुराण - रुद्र संहिता - सती खण्ड - 1


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रुद्रसंहिता, द्वितीय (सती) खण्ड

नारदजीके प्रश्न और ब्रह्माजीके द्वारा उनका उत्तर, सदाशिवसे त्रिदेवोंकी उत्पत्ति तथा ब्रह्माजीसे देवता आदिकी सृष्टिके पश्चात् एक नारी और एक पुरुषका प्राकट्य

नारदजी बोले – महाभाग! महाप्रभो! विधातः! आपके मुखारविन्दसे मंगल-कारिणी शम्भुकथा सुनते-सुनते मेरा जी नहीं भर रहा है।

अतः भगवान् शिवका सारा शुभ चरित्र मुझसे कहिये।

सम्पूर्ण विश्वकी सृष्टि करनेवाले ब्रह्मदेव! मैं सतीकी कीर्तिसे युक्त शिवका दिव्य चरित्र सुनना चाहता हूँ।

शोभाशालिनी सती किस प्रकार दक्षपत्नीके गर्भसे उत्पन्न हुईं? महादेवजीने विवाहका विचार कैसे किया? पूर्वकालमें दक्षके प्रति रोष होनेके कारण सतीने अपने शरीरका त्याग कैसे किया? चेतनाकाशको प्राप्त होकर वे फिर हिमालयकी कन्या कैसे हुईं? पार्वतीने किस प्रकार उग्र तपस्या की और कैसे उनका विवाह हुआ? कामदेवका नाश करनेवाले भगवान् शंकरके आधे शरीरमें वे किस प्रकार स्थान पा सकीं? महामते! इन सब बातोंको आप विस्तारपूर्वक कहिये।

आपके समान दूसरा कोई संशयका निवारण करनेवाला न है, न होगा।

ब्रह्माजीने कहा – मुने! देवी सती और भगवान् शिवका शुभ यश परम-पावन, दिव्य तथा गोपनीयसे भी अत्यन्त गोपनीय है।

तुम वह सब मुझसे सुनो।

पूर्वकालमें भगवान् शिव निर्गुण, निर्विकल्प, निराकार, शक्तिरहित, चिन्मय तथा सत् और असत् से विलक्षण स्वरूपमें प्रतिष्ठित थे।

फिर वे ही प्रभु सगुण और शक्तिमान् होकर विशिष्ट रूप धारण करके स्थित हुए।

उनके साथ भगवती उमा विराजमान थीं।

विप्रवर! वे भगवान् शिव दिव्य आकृतिसे सुशोभित हो रहे थे।

उनके मनमें कोई विकार नहीं था।

वे अपने परात्पर स्वरूपमें प्रतिष्ठित थे।

मुनिश्रेष्ठ! उनके बायें अंगसे भगवान् विष्णु, दायें अंगसे मैं ब्रह्मा और मध्य अंग अर्थात् हृदयसे रुद्रदेव प्रकट हुए।

मैं ब्रह्मा सृष्टिकर्ता हुआ, भगवान् विष्णु जगत् का पालन करने लगे और स्वयं रुद्रने संहारका कार्य सँभाला।

इस प्रकार भगवान् सदाशिव स्वयं ही तीन रूप धारण करके स्थित हुए।

उन्हींकी आराधना करके मुझ लोकपितामह ब्रह्माने देवता, असुर और मनुष्य आदि सम्पूर्ण जीवोंकी सृष्टि की।

दक्ष आदि प्रजापतियों और देवशिरोमणियोंकी सृष्टि करके मैं बहुत प्रसन्न हुआ तथा अपनेको सबसे अधिक ऊँचा मानने लगा।

मुने! जब मरीचि, अत्रि, पुलह, पुलस्त्य, अंगिरा, क्रतु, वसिष्ठ, नारद, दक्ष और भृगु – इन महान् प्रभावशाली मानसपुत्रोंको मैंने उत्पन्न किया, तब मेरे हृदयसे अत्यन्त मनोहर रूपवाली एक सुन्दरी नारी उत्पन्न हुई, जिसका नाम ‘संध्या’ था।

वह दिनमें क्षीण हो जाती, परंतु सायंकालमें उसका रूप-सौन्दर्य खिल उठता था।

वह मूर्तिमती सायं-संध्या ही थी और निरन्तर किसी मन्त्रका जप करती रहती थी।

सुन्दर भौंहोंवाली वह नारी सौन्दर्यकी चरम सीमाको पहुँची हुई थी और मुनियोंके भी मनको मोहे लेती थी।

इसी तरह मेरे मनसे एक मनोहर पुरुष भी प्रकट हुआ, जो अत्यन्त अद्भुत था।

उसके शरीरका मध्यभाग (कटिप्रदेश) पतला था।

दाँतोंकी पंक्तियाँ बड़ी सुन्दर थीं।

उसके अंगोंसे मतवाले हाथीकी-सी गन्ध प्रकट होती थी।

नेत्र प्रफुल्ल कमलके समान शोभा पाते थे।

अंगोंमें केसर लगा था, जिसकी सुगन्ध नासिकाको तृप्त कर रही थी।

उस पुरुषको देखकर दक्ष आदि मेरे सभी पुत्र अत्यन्त उत्सुक हो उठे।

उनके मनमें विस्मय भर गया था।

जगत् की सृष्टि करनेवाले मुझ जगदीश्वर ब्रह्माकी ओर देखकर उस पुरुषने विनयसे गर्दन झुका दी और मुझे प्रणाम करके कहा।

वह पुरुष बोला – ब्रह्मन्! मैं कौन-सा कार्य करूँगा? मेरे योग्य जो काम हो, उसमें मुझे लगाइये; क्योंकि विधाता! आज आप ही सबसे अधिक माननीय और योग्य पुरुष हैं।

यह लोक आपसे ही शोभित हो रहा है।

ब्रह्माजीने कहा – भद्रपुरुष! तुम अपने इसी स्वरूपसे तथा फूलके बने हुए पाँच बाणोंसे स्त्रियों और पुरुषोंको मोहित करते हुए सृष्टिके सनातन कार्यको चलाओ।

इस चराचर त्रिभुवनमें ये देवता आदि कोई भी जीव तुम्हारा तिरस्कार करनेमें समर्थ नहीं होंगे।

तुम छिपे रूपसे प्राणियोंके हृदयमें प्रवेश करके सदा स्वयं उनके सुखका हेतु बनकर सृष्टिका सनातन कार्य चालू रखो।

समस्त प्राणियोंका जो मन है, वह तुम्हारे पुष्पमय बाणका सदा अनायास ही अद्भुत लक्ष्य बन जायगा और तुम निरन्तर उन्हें मदमत्त किये रहोगे।

यह मैंने तुम्हारा कर्म बताया है, जो सृष्टिका प्रवर्तक होगा और तुम्हारे ठीक-ठीक नाम क्या होंगे, इस बातको मेरे ये पुत्र बतायेंगे।

सुरश्रेष्ठ! ऐसा कहकर अपने पुत्रोंके मुखकी ओर दृष्टिपात करके मैं क्षणभरके लिये अपने कमलमय आसनपर चुपचाप बैठ गया। (अध्याय १-२)


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