शिव पुराण - रुद्र संहिता - सृष्टि खण्ड - 14


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सृष्टिका वर्णन

तदनन्तर नारदजीके पूछनेपर ब्रह्माजी बोले—मुने! हमें पूर्वोक्त आदेश देकर जब महादेवजी अन्तर्धान हो गये, तब मैं उनकी आज्ञाका पालन करनेके लिये ध्यानमग्न हो कर्तव्यका विचार करने लगा।

उस समय भगवान् शंकरको नमस्कार करके श्रीहरिसे ज्ञान पाकर परमानन्दको प्राप्त हो मैंने सृष्टि करनेका ही निश्चय किया।

तात! भगवान् विष्णु भी वहाँ सदाशिवको प्रणाम करके मुझे आवश्यक उपदेश दे तत्काल अदृश्य हो गये।

वे ब्रह्माण्डसे बाहर जाकर भगवान् शिवकी कृपा प्राप्त करके वैकुण्ठधाममें जा पहुँचे और सदा वहीं रहने लगे।

मैंने सृष्टिकी इच्छासे भगवान् शिव और विष्णुका स्मरण करके पहलेके रचे हुए जलमें अपनी अंजलि डालकर जलको ऊपरकी ओर उछाला।

इससे वहाँ एक अण्ड प्रकट हुआ, जो चौबीस तत्त्वोंका समूह कहा जाता है।

विप्रवर! वह विराट् आकारवाला अण्ड जडरूप ही था।

उसमें चेतनता न देखकर मुझे बड़ा संशय हुआ और मैं अत्यन्त कठोर तप करने लगा।

बारह वर्षोंतक भगवान् विष्णुके चिन्तनमें लगा रहा।

तात! वह समय पूर्ण होनेपर भगवान् श्रीहरि स्वयं प्रकट हुए और बड़े प्रेमसे मेरे अंगोंका स्पर्श करते हुए मुझसे प्रसन्नतापूर्वक बोले।

श्रीविष्णुने कहा—ब्रह्मन्! तुम वर माँगो।

मैं प्रसन्न हूँ।

मुझे तुम्हारे लिये कुछ भी अदेय नहीं है।

भगवान् शिवकी कृपासे मैं सब कुछ देनेमें समर्थ हूँ।

ब्रह्मा बोले—(अर्थात् मैंने कहा—) महाभाग! आपने जो मुझपर कृपा की है, वह सर्वथा उचित ही है; क्योंकि भगवान् शंकरने मुझे आपके हाथोंमें सौंप दिया है।

विष्णो! आपको नमस्कार है।

आज मैं आपसे जो कुछ माँगता हूँ, उसे दीजिये।

प्रभो! यह विराट् रूप चौबीस तत्त्वोंसे बना हुआ अण्ड किसी तरह चेतन नहीं हो रहा है, जडीभूत दिखायी देता है।

हरे! इस समय भगवान् शिवकी कृपासे आप यहाँ प्रकट हुए हैं।

अतः शंकरकी सृष्टि-शक्ति या विभूतिसे प्राप्त हुए इस अण्डमें चेतनता लाइये।

मेरे ऐसा कहनेपर शिवकी आज्ञामें तत्पर रहनेवाले महाविष्णुने अनन्तरूपका आश्रय ले उस अण्डमें प्रवेश किया।

उस समय उन परम पुरुषके सहस्रों मस्तक, सहस्रों नेत्र और सहस्रों पैर थे।

उन्होंने भूमिको सब ओरसे घेरकर उस अण्डको व्याप्त कर लिया।

मेरे द्वारा भलीभाँति स्तुति की जानेपर जब श्रीविष्णुने उस अण्डमें प्रवेश किया, तब वह चौबीस तत्त्वोंका विकाररूप अण्ड सचेतन हो गया।

पातालसे लेकर सत्यलोकतककी अवधिवाले उस अण्डके रूपमें वहाँ साक्षात् श्रीहरि ही विराजने लगे।

उस विराट् अण्डमें व्यापक होनेसे ही वे प्रभु ‘वैराज पुरुष’ कहलाये।

पंचमुख महादेवने केवल अपने रहनेके लिये सुरम्य कैलास-नगरका निर्माण किया, जो सब लोकोंसे ऊपर सुशोभित होता है।

देवर्षे! सम्पूर्ण ब्रह्माण्डका नाश हो जानेपर भी वैकुण्ठ और कैलास—इन दो धामोंका यहाँ कभी नाश नहीं होता।

मुनिश्रेष्ठ! मैं सत्यलोकका आश्रय लेकर रहता हूँ।

तात! महादेवजीकी आज्ञासे ही मुझमें सृष्टि रचनेकी इच्छा उत्पन्न हुई है।

बेटा! जब मैं सृष्टिकी इच्छासे चिन्तन करने लगा, उस समय पहले मुझसे अनजानमें ही पापपूर्ण तमोगुणी सृष्टिका प्रादुर्भाव हुआ, जिसे अविद्या-पंचक (अथवा पंचपर्वा अविद्या) कहते हैं।

तदनन्तर प्रसन्नचित्त होकर शम्भुकी आज्ञासे मैं पुनः अनासक्त-भावसे सृष्टिका चिन्तन करने लगा।

उस समय मेरे द्वारा स्थावर-संज्ञक वृक्ष आदिकी सृष्टि हुई, जिसे मुख्य-सर्ग कहते हैं।

(यह पहला सर्ग है।) उसे देखकर तथा वह अपने लिये पुरुषार्थका साधक नहीं है, यह जानकर सृष्टिकी इच्छावाले मुझ ब्रह्मासे दूसरा सर्ग प्रकट हुआ, जो दुःखसे भरा हुआ है; उसका नाम है—तिर्यक्स्रोता*।

वह सर्ग भी पुरुषार्थका साधक नहीं था।

उसे भी पुरुषार्थ-साधनकी शक्तिसे रहित जान जब मैं पुनः सृष्टिका चिन्तन करने लगा, तब मुझसे शीघ्र ही तीसरे सात्त्विक सर्गका प्रादुर्भाव हुआ, जिसे ‘ऊर्ध्वस्रोता’ कहते हैं।

यह देवसर्गके नामसे विख्यात हुआ।

देवसर्ग सत्यवादी तथा अत्यन्त सुखदायक है।

उसे भी पुरुषार्थसाधनकी रुचि एवं अधिकारसे रहित मानकर मैंने अन्य सर्गके लिये अपने स्वामी श्रीशिवका चिन्तन आरम्भ किया।

तब भगवान् शंकरकी आज्ञासे एक रजोगुणी सृष्टिका प्रादुर्भाव हुआ, जिसे अर्वाक्स्रोता कहा गया है।

इस सर्गके प्राणी मनुष्य हैं, जो पुरुषार्थ-साधनके उच्च अधिकारी हैं।

तदनन्तर महादेवजीकी आज्ञासे भूत आदिकी सृष्टि हुई।

इस प्रकार मैंने पाँच तरहकी वैकृत सृष्टिका वर्णन किया है।

इनके सिवा तीन प्राकृत सर्ग भी कहे गये हैं, जो मुझ ब्रह्माके सांनिध्यसे प्रकृतिसे ही प्रकट हुए हैं।

इनमें पहला महत्तत्त्वका सर्ग है, दूसरा सूक्ष्म भूतों अर्थात् तन्मात्राओंका सर्ग है और तीसरा वैकारिकसर्ग कहलाता है।

इस तरह ये तीन प्राकृत सर्ग हैं।

प्राकृत और वैकृत दोनों प्रकारके सर्गोंको मिलानेसे आठ सर्ग होते हैं।

इनके सिवा नवाँ कौमारसर्ग है, जो प्राकृत और वैकृत भी है।

इन सबके अवान्तर भेदका मैं वर्णन नहीं कर सकता; क्योंकि उसका उपयोग बहुत थोड़ा है।

अब द्विजात्मक सर्गका प्रतिपादन करता हूँ।

इसीका दूसरा नाम कौमारसर्ग है, जिसमें सनक-सनन्दन आदि कुमारोंकी महत्त्वपूर्ण सृष्टि हुई है।

सनक आदि मेरे चार मानस पुत्र हैं, जो मुझ ब्रह्माके ही समान हैं।

वे महान् वैराग्यसे सम्पन्न तथा उत्तम व्रतका पालन करनेवाले हुए।

उनका मन सदा भगवान् शिवके चिन्तनमें ही लगा रहता है।

वे संसारसे विमुख एवं ज्ञानी हैं।

उन्होंने मेरे आदेश देनेपर भी सृष्टिके कार्यमें मन नहीं लगाया।

मुनिश्रेष्ठ नारद! सनकादि कुमारोंके दिये हुए नकारात्मक उत्तरको सुनकर मैंने बड़ा भयंकर क्रोध प्रकट किया।

उस समय मुझपर मोह छा गया।

उस अवसरपर मैंने मन-ही-मन भगवान् विष्णुका स्मरण किया।

वे शीघ्र ही आ गये और उन्होंने समझाते हुए मुझसे कहा—‘तुम भगवान् शिवकी प्रसन्नताके लिये तपस्या करो।’ मुनिश्रेष्ठ! श्रीहरिने जब मुझे ऐसी शिक्षा दी, तब मैं महाघोर एवं उत्कृष्ट तप करने लगा।

सृष्टिके लिये तपस्या करते हुए मेरी दोनों भौंहों और नासिकाके मध्यभागसे, जो उनका अपना ही अविमुक्त नामक स्थान है, महेश्वरकी तीन मूर्तियोंमेंसे अन्यतम पूर्णांश, सर्वेश्वर एवं दयासागर भगवान् शिव अर्धनारीश्वररूपमें प्रकट हुए।

जो जन्मसे रहित, तेजकी राशि, सर्वज्ञ तथा सर्वस्रष्टा हैं, उन नीललोहित-नामधारी साक्षात् उमावल्लभ शंकरको सामने देख बड़ी भक्तिसे मस्तक झुका उनकी स्तुति करके मैं बड़ा प्रसन्न हुआ और उन देवदेवेश्वरसे बोला—‘प्रभो! आप भाँति-भाँतिके जीवोंकी सृष्टि कीजिये।’ मेरी यह बात सुनकर उन देवाधिदेव महेश्वर रुद्रने अपने ही समान बहुत-से रुद्रगणोंकी सृष्टि की।

तब मैंने अपने स्वामी महेश्वर महारुद्रसे फिर कहा—‘देव! आप ऐसे जीवोंकी सृष्टि कीजिये, जो जन्म और मृत्युके भयसे युक्त हों।’ मुनिश्रेष्ठ! मेरी ऐसी बात सुनकर करुणासागर महादेवजी हँस पड़े और तत्काल इस प्रकार बोले।

महादेवजीने कहा—विधातः! मैं जन्म और मृत्युके भयसे युक्त अशोभन जीवोंकी सृष्टि नहीं करूँगा; क्योंकि वे कर्मोंके अधीन हो दुःखके समुद्रमें डूबे रहेंगे।

मैं तो दुःखके सागरमें डूबे हुए उन जीवोंका उद्धारमात्र करूँगा, गुरुका स्वरूप धारण करके उत्तम ज्ञान प्रदानकर उन सबको संसार-सागरसे पार करूँगा।

प्रजापते! दुःखमें डूबे हुए सारे जीवकी सृष्टि तो तुम्हीं करो।

मेरी आज्ञासे इस कार्यमें प्रवृत्त होनेके कारण तुम्हें माया नहीं बाँध सकेगी।

मुझसे ऐसा कहकर श्रीमान् भगवान् नीललोहित महादेव मेरे देखते-देखते अपने पार्षदोंके साथ वहाँसे तत्काल तिरोहित हो गये।

(अध्याय १५) * पशु, पक्षी आदि तिर्यक्स्रोता कहलाते हैं।

वायुकी भाँति तिरछा चलनेके कारण ये तिर्यक् अथवा ‘तिर्यक्स्रोता’ कहे गये हैं।


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