शिव पुराण - रुद्र संहिता - पार्वती खण्ड - 17


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


देवताओंका भगवान् शिवसे पार्वतीके साथ विवाह करनेका अनुरोध, भगवान् का विवाहके दोष बताकर अस्वीकार करना तथा उनके पुनः प्रार्थना करनेपर स्वीकार कर लेना

ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! देवताओंने वहाँ पहुँचकर भगवान् रुद्रको प्रणाम करके उनकी स्तुति की।

तब नन्दिकेश्वरने भगवान् शिवसे उनकी दीनबन्धुता एवं भक्त-वत्सलताकी प्रशंसा करते हुए कहा—‘प्रभो! देवता और मुनि संकटमें पड़कर आपकी शरणमें आये हैं।

सर्वेश्वर! आप उनका उद्धार करें।’ दयालु नन्दीके इस प्रकार सूचित करनेपर भगवान् शम्भु धीरे-धीरे आँखें खोलकर ध्यानसे उपरत हुए।

समाधिसे विरत हो परमज्ञानी परमात्मा एवं ईश्वर शम्भुने समस्त देवताओंसे इस प्रकार कहा।

शम्भु बोले—श्रीविष्णु और ब्रह्मा आदि देवेश्वरो! तुम सब लोग मेरे समीप कैसे आये? तुम अपने आनेका जो भी कारण हो, वह शीघ्र बताओ।

भगवान् शंकरका यह वचन सुनकर सब देवता प्रसन्न हो कारण बतानेके लिये भगवान् विष्णुके मुँहकी ओर देखने लगे।

तब शिवके महान् भक्त और देवताओंके हितकारी श्रीविष्णु मेरे बताये हुए देवताओंके महत्तर कार्यको सूचित करने लगे।

उन्होंने कहा—‘शम्भो! तारकासुरने देवताओंको अत्यन्त अद्भुत एवं महान् कष्ट प्रदान किया है।

यही बतानेके लिये सब देवता यहाँ आये हैं।

भगवन्! आपके औरस पुत्रसे ही तारक दैत्य मारा जा सकेगा और किसी प्रकारसे नहीं।

मेरा यह कथन सर्वथा सत्य है।

महादेव! इस प्रकार विचार करके आप कृपा करें।

आपको नमस्कार है।

स्वामिन्! तारकासुरके द्वारा उपस्थित किये गये इस कष्टसे आप देवताओंका उद्धार कीजिये।

देव! शम्भो! आप दाहिने हाथसे गिरिजाका पाणिग्रहण करें।

गिरिराज हिमवान् के द्वारा दी हुई महानुभावा पार्वतीको पाणिग्रहणके द्वारा ही अनुगृहीत कीजिये।’ श्रीविष्णुका यह वचन सुनकर योग-परायण भगवान् शिवने उन सबको उत्तम गतिका दर्शन कराते हुए इस प्रकार कहा—‘देवताओ! ज्यों ही मैंने सर्वांगसुन्दरी गिरिजा देवीको स्वीकार किया, त्यों ही समस्त सुरेश्वर तथा ऋषि-मुनि सकाम हो जायँगे।

फिर तो वे परमार्थपथपर चलनेमें समर्थ न हो सकेंगे।

दुर्गा अपने पाणिग्रहण-मात्रसे ही कामदेवको जीवित कर देंगी।

विष्णो! मैंने कामदेवको जलाकर देवताओंका बहुत बड़ा कार्य सिद्ध किया है।

आजसे सब लोग मेरे साथ सुनिश्चितरूपसे निष्काम होकर रहें।

देवताओ! जैसे मैं हूँ, उसी तरह तुम सब लोग पृथक्-पृथक् रहकर कोई विशेष प्रयत्न किये बिना ही अत्यन्त दुष्कर एवं उत्तम तपस्या कर सकोगे।

अब उस मदनके न होनेसे तुम सब देवता समाधिके द्वारा परमानन्दका अनुभव करते हुए निर्विकार हो जाओ; क्योंकि काम नरककी ही प्राप्ति करानेवाला है।

कामसे क्रोध होता है, क्रोधसे मोह होता है और मोहसे तपस्या नष्ट होती है।

अतः तुम सभी श्रेष्ठ देवताओंको काम और क्रोधका परित्याग कर देना चाहिये, मेरे इस कथनको कभी अन्यथा नहीं मानना चाहिये।* ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! वृषभके चिह्नसे युक्त ध्वजा धारण करनेवाले भगवान् महादेवने इस प्रकारकी बातें सुनाकर ब्रह्मा, विष्णु, देवताओं तथा मुनियोंको निष्काम धर्मका उपदेश दिया।

तदनन्तर भगवान् शम्भु पुनः ध्यान लगाकर चुप हो गये और पहलेकी ही भाँति पार्षदोंसे घिरे हुए सुस्थिरभावसे बैठ गये।

वे अपने मनमें ही स्वयं आत्मस्वरूप, निरंजन, निराभास, निर्विकार, निरामय, परात्पर, नित्य ममतारहित, निरवग्रह, शब्दातीत, निर्गुण, ज्ञानगम्य एवं प्रकृतिसे पर परमात्माका चिन्तन करने लगे।

इस प्रकार परम स्वरूपका चिन्तन करते हुए वे ध्यानमें स्थित हो गये।

बहुत-से प्राणियोंकी सृष्टि करनेवाले भगवान् शिव ध्यान करते-करते ही परमानन्दमें निमग्न हो गये।

श्रीहरि एवं इन्द्र आदि देवताओंने जब परमेश्वर शिवको ध्यानमग्न देखा, तब उन्होंने नन्दीकी सम्मति ली।

नन्दीने पुनः दीनभावसे स्तुति करनेके लिये कहा।

उनकी इस सत्सम्मतिके अनुसार देवता स्तुति करने लगे।

वे बोले—‘देवदेव! महादेव! करुणासागर प्रभो! हम आपकी शरणमें आये हैं।

आप महान् क्लेशसे हमारा उद्धार कीजिये।’ ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! इस प्रकार बहुत दीनतापूर्ण उक्तिसे देवताओंने भगवान् शंकरकी स्तुति की।

इसके बाद वे सब देवता प्रेमसे व्याकुलचित्त हो उच्चस्वरसे फूट-फूटकर रोने लगे।

मेरे साथ भगवान् श्रीहरि उत्तम भक्तिभावसे युक्त हो मन-ही-मन भगवान् शम्भुका स्मरण करते हुए अत्यन्त दीनतापूर्ण वाणीद्वारा उनसे अपना अभिप्राय निवेदन करने लगे।

देवताओंके, मेरे तथा श्रीहरिके इस प्रकार बहुत स्तुति करनेपर भगवान् महेश्वर अपनी भक्तवत्सलताके कारण ध्यानसे विरत हो गये।

उनका मन अत्यन्त प्रसन्न था।

वे भक्तवत्सल शंकर श्रीहरि आदिको करुणा-दृष्टिसे देखकर उनका हर्ष बढ़ाते हुए बोले—‘विष्णो! ब्रह्मन्! तथा इन्द्र आदि देवताओ! तुम सब लोग एक साथ यहाँ किस अभिप्रायसे आये हो? मेरे सामने सच-सच बताओ।’ श्रीहरिने कहा—महेश्वर! आप सर्वज्ञ हैं, सबके अन्तर्यामी ईश्वर हैं।

क्या आप हमारे मनकी बात नहीं जानते? अवश्य जानते हैं, तथापि आपकी आज्ञासे मैं स्वयं भी कहता हूँ।

सुखदायक शंकर! हम सब देवताओंको तारकासुरसे अनेक प्रकारका दुःख प्राप्त हुआ है।

इसीलिये देवताओंने आपको प्रसन्न किया है।

आपके लिये ही उन्होंने गिरिराज हिमालयसे शिवाकी उत्पत्ति करायी है।

शिवाके गर्भसे आपके द्वारा जो पुत्र उत्पन्न होगा, उसीसे तारकासुरकी मृत्यु होगी, दूसरे किसी उपायसे नहीं।

ब्रह्माजीने उस दैत्यको यही वर दिया है।

इस कारण दूसरेसे उसकी मृत्यु नहीं हो पा रही है।

अतएव वह निडर होकर सारे संसारको कष्ट दे रहा है।

इधर नारदजीकी आज्ञासे पार्वती कठोर तपस्या कर रही हैं।

उनके तेजसे समस्त चराचर प्राणियों-सहित त्रिलोकी आच्छादित हो गयी है।

इसलिये परमेश्वर! आप शिवाको वर देनेके लिये जाइये।

स्वामिन्! देवताओंका दुःख मिटाइये और हमें सुख दीजिये।

शंकर! मेरे तथा देवताओंके हृदयमें आपके विवाहका उत्सव देखनेके लिये बड़ा भारी उत्साह है।

अतः आप यथोचित रीतिसे विवाह कीजिये।

परात्पर परमेश्वर! आपने रतिको जो वर दिया था, उसकी पूर्तिका अवसर आ गया है।

अतः अपनी प्रतिज्ञाको शीघ्र सफल कीजिये।

ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! ऐसा कह उन्हें प्रणाम करके श्रीविष्णु आदि देवताओं और महर्षियोंने नाना प्रकारके स्तोत्रोंद्वारा पुनः उनकी स्तुति की।

फिर वे सब-के-सब उनके सामने खड़े हो गये।

भक्तोंके अधीन रहनेवाले भगवान् शंकर भी, जो वेदमर्यादाके रक्षक हैं, देवताओंकी बात सुन हँसकर बोले—‘हे हरे! हे विधे! और हे देवताओ! तुम सब लोग आदरपूर्वक सुनो।

मैं यथोचित, विशेषतः विवेकपूर्ण बात कह रहा हूँ।

विवाह करना मनुष्योंके लिये उचित कार्य नहीं है; क्योंकि विवाह दृढ़तापूर्वक बाँध रखनेवाली एक बहुत बड़ी बेड़ी है।

जगत् में बहुत-से कुसंग हैं; परंतु स्त्रीका संग उनमें सबसे बढ़कर है।

मनुष्य सारे बन्धनोंसे छुटकारा पा सकता है, परंतु स्त्रीप्रसंगरूपी बन्धनसे वह मुक्त नहीं हो पाता।

लोहे और काठकी बनी हुई बेड़ियोंमें दृढ़तापूर्वक बँधा हुआ पुरुष भी एक दिन उस कैदसे छुटकारा पा जाता है, परंतु स्त्री-पुत्र आदिके बन्धनमें बँधा हुआ मनुष्य कभी छूट नहीं पाता।

महान् बन्धनमें डालनेवाले विषय सदा बढ़ते रहते हैं।

जिसका मन विषयोंके वशीभूत हो गया है, उसके लिये मोक्ष स्वप्नमें भी दुर्लभ है।

विद्वान् पुरुष यदि सुख चाहता है तो वह विषयोंको विधिपूर्वक त्याग दे।

विषयोंको विषके समान बताया गया है, जिनके द्वारा मनुष्य मारा जाता है।

विषयीके साथ वार्ता करने-मात्रसे मनुष्य क्षणभरमें पतित हो जाता है।

आचार्योंने विषयको मिश्री मिलायी हुई वारुणी (मदिरा) कहा है*।

यद्यपि मैं इस बातको जानता हूँ और यद्यपि विषयोंके इन सारे दोषोंका मुझे विशेष ज्ञान है, तथापि मैं तुम्हारी प्रार्थनाको सफल करूँगा; क्योंकि मैं भक्तोंके अधीन रहता हूँ और भक्त-वत्सलतावश उचित-अनुचित सारे कार्य करता हूँ।

इसलिये तीनों लोकोंमें ‘अयथोचितकर्ता’ के रूपमें मेरी प्रसिद्धि है।

भक्तोंके लिये मैंने अनेक बार बहुत-से प्रयत्न करके कष्ट सहन किये हैं, गृहपति होकर विश्वानर मुनिका दुःख दूर किया है।

हरे! विधे! अब अधिक कहनेकी क्या आवश्यकता।

मेरी जो प्रतिज्ञा है, उसे तुम सब लोग अच्छी तरह जानते हो।

मैं यह सत्य कहता हूँ कि जब-जब भक्तोंपर कहीं विपत्ति आती है, तब-तब मैं तत्काल उनके सारे कष्ट हर लेता हूँ।

तारकासुरसे तुम सब लोगोंको जो दुःख प्राप्त हुआ है, उसे मैं जानता हूँ और उसका हरण करूँगा, यह भी सत्य-सत्य बता रहा हूँ।

यद्यपि मेरे मनमें विवाह करनेकी कोई रुचि नहीं है तथापि मैं पुत्रोत्पादनके लिये गिरिजाके साथ विवाह करूँगा।

तुम सब देवता अब निर्भय होकर अपने-अपने घर जाओ।

मैं तुम्हारा कार्य सिद्ध करूँगा।

इस विषयमें अब कोई विचार नहीं करना चाहिये।’ ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! ऐसा कहकर भगवान् शंकर मौन हो समाधिमें स्थित हो गये और विष्णु आदि सभी देवता अपने-अपने धामको चले गये।

(अध्याय २४) * कामो हि नरकायैव तस्मात् क्रोधोऽभिजायते।

क्रोधाद्भवति सम्मोहो मोहाच्च भ्रंशते तपः।।

कामक्रोधौ परित्याज्यौ भवद्भिः सुरसत्तमैः।

सर्वैरेव च मन्तव्यं मद्वाक्यं नान्यथा क्वचित्।।

(शि० पु० रु० सं० पा० खं० २४।२७-२८) * कुसङ्गा बहवो लोके स्त्रीसङ्गस्तत्र चाधिकः।

उद्धरेत्सकलैर्बन्धैर्न स्त्रीसङ्गात् प्रमुच्यते।।

लोहदारुमयैः पाशैर्दृढं बद्धोऽपि मुच्यते।

स्त्र्यादिपाशसुसम्बद्धो मुच्यते न कदाचन।।

वर्द्धन्ते विषयाः शश्वन्महाबन्धनकारिणः।

विषयाक्रान्तमनसः स्वप्ने मोक्षोऽपि दुर्लभः।।

सुखमिच्छति चेत् प्राज्ञो विधिवद् विषयांस्त्यजेत्।

विषवद् विषयानाहुर्विषयैर्यैर्निहन्यते।।

जनो विषयिणा साकं वार्तातः पतति क्षणात्।

विषयं प्राहुराचार्याः सितालिप्तेन्द्रवारुणीम्।।

(शि० पु० रु० सं० पा० खं० २४।६१—६५)


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