शिव पुराण - रुद्र संहिता - पार्वती खण्ड - 18

शिव पुराण – रुद्र संहिता – पार्वती खण्ड – 18


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


भगवान् शिवकी आज्ञासे सप्तर्षियोंका पार्वतीके आश्रमपर जा उनके शिवविषयक अनुरागकी परीक्षा करना और भगवान् को सब वृत्तान्त बताकर स्वर्गको जाना

ब्रह्माजी कहते हैं—देवताओंके अपने आश्रममें चले जानेपर पार्वतीके तपकी परीक्षाके लिये भगवान् शंकर समाधिस्थ हो गये।

वे स्वयं अपने-आपमें, अपने ही परात्पर, स्वस्थ, मायारहित तथा उपद्रवशून्य स्वरूपका चिन्तन करने लगे।

उस ध्येय वस्तुके रूपमें साक्षात् भगवान् महेश्वर ही विराजमान हैं।

उनकी गतिका किसीको ज्ञान नहीं होता।

वे भगवान् वृषभध्वज ही सबके स्रष्टा—परमेश्वर हैं।

तात! उन दिनों पार्वतीदेवी बड़ी भारी तपस्या कर रही थीं।

उस तपस्यासे रुद्रदेव भी बड़े विस्मयमें पड़ गये।

भक्ताधीन होनेके कारण ही वे समाधिसे विचलित हो गये और किसी कारणसे नहीं।

तदनन्तर सृष्टिकर्ता हरने वसिष्ठ आदि सप्तर्षियोंका स्मरण किया।

उनके स्मरण करते ही वे सातों ऋषि शीघ्र ही वहाँ आ पहुँचे।

उनके मुखपर प्रसन्नता छा रही थी तथा वे सब-के-सब अपने सौभाग्यकी अधिक सराहना करते थे।

उन्हें आया देख भगवान् शिवके नेत्र प्रसन्नतासे प्रफुल्ल कमलके समान खिल उठे और वे हँसते हुए बोले—‘तात सप्तर्षियो! तुम सब लोग मेरे हितकारी तथा सम्पूर्ण वस्तुओंके ज्ञानमें निपुण हो।

अतः शीघ्र मेरी बात सुनो।

गिरिराजकुमारी देवेश्वरी पार्वती इस समय सुस्थिरचित्त हो गौरी-शिखर नामक पर्वतपर तपस्या कर रही हैं।

मुझे पतिरूपमें प्राप्त करना ही उनकी तपस्याका उद्देश्य है।

द्विजो! इस समय केवल सखियाँ उनकी सेवामें हैं।

मेरे सिवा दूसरी समस्त कामनाओं-का परित्याग करके वे एक उत्तम निश्चयपर पहुँच चुकी हैं।

मुनिवरो! तुम सब लोग मेरी आज्ञासे वहाँ जाओ और प्रेमपूर्ण हृदयसे उनकी दृढ़ताकी परीक्षा करो।

वहाँ तुम्हें सर्वथा छलयुक्त बातें कहनी चाहिये।

उत्तम व्रतधारी महर्षियो! मेरी आज्ञासे ऐसा करना है।

इसलिये तुम्हें संशय नहीं करना चाहिये।’ भगवान् शंकरकी यह आज्ञा पाकर वे सातों ऋषि तुरंत ही उस स्थानपर जा पहुँचे, जहाँ दीप्तिमती जगन्माता पार्वती विराजमान थीं।

सप्तर्षियोंने वहाँ शिवाको तपस्याकी मूर्तिमती दूसरी सिद्धिके समान देखा।

उनका तेज महान् था।

वे अपने उत्तम तेजसे प्रकाशित हो रही थीं।

उन उत्तम व्रतधारी सप्तर्षियोंने उन्हें मन-ही-मन प्रणाम किया और उनके द्वारा विशेषतः पूजित हो वे मस्तक झुकाये इस प्रकार बोले— ऋषियोंने कहा—देवि! गिरिराजनन्दिनि! हमारी यह बात सुनो।

हम जानना चाहते हैं कि तुम किसलिये तपस्या करती हो? तथा इसके द्वारा किस देवताको और किस फलको पाना चाहती हो? उन द्विजोंके इस प्रकार पूछनेपर गिरिराजकुमारी देवी शिवाने उनके सामने अत्यन्त गोपनीय होनेपर भी सच्ची बात बतायी।

पार्वती बोलीं—मुनीश्वरो! आपलोग प्रसन्नतापूर्ण हृदयसे मेरी बात सुनें।

मैंने अपनी बुद्धिसे जिसका चिन्तन किया है, अपना वह विचार मैं आपके सामने रखती हूँ।

आपलोग मेरी असम्भव बातें सुनकर मेरा उपहास करेंगे, इसलिये उन्हें कहनेमें संकोच ही होता है, तथापि कहती हूँ।

क्या करूँ? मेरा यह मन अत्यन्त दृढ़तापूर्वक एक उत्कृष्ट कर्मके अनुष्ठानमें लगा है और ऐसा करनेके लिये विवश हो गया।

यह पानीके ऊपर बहुत बड़ी और ऊँची दीवार खड़ी करना चाहता है।

देवर्षिका उपदेश पाकर मैं ‘भगवान् रुद्र मेरे पति हों’ इस मनोरथको मनमें लिये अत्यन्त कठोर तप कर रही हूँ।

मेरा मनरूपी पक्षी बिना पाँखके ही हठपूर्वक आकाशमें उड़ रहा है।

मेरे स्वामी करुणानिधान भगवान् शंकर ही उसके इस आशाकी पूर्ति कर सकते हैं।

पार्वतीका यह वचन सुनकर वे मुनि हँस पड़े और गिरिजाका सम्मान करते हुए प्रसन्नतापूर्वक छलयुक्त मिथ्या वचन बोले।

ऋषियोंने कहा—गिरिराजनन्दिनि! देवर्षि नारद व्यर्थ ही अपनेको पण्डित मानते हैं।

उनके मनमें क्रूरता भरी रहती है।

आप समझदार होकर भी क्या उनके चरित्रको नहीं जानतीं।

नारद छल-कपटकी बातें करते हैं और दूसरोंके चित्तको मोहमें डालकर मथ डालते हैं।

उनकी बातें सुननेसे सर्वथा हानि ही होती है।

ब्रह्मपुत्र दक्षके पुत्रोंको नारदने जो छलपूर्ण उपदेश दिया, उसका फल यह हुआ कि वे सब-के-सब अपने पिताके घर लौटकर न आ सके।

यही हाल उन्होंने दक्षके दूसरे पुत्रोंका भी किया।

वे भी उनके चक्करमें आकर भिखारी बन गये।

विद्याधर चित्रकेतुको इन्होंने ऐसा उपदेश दिया कि उसका घर ही उजड़ गया।

प्रह्लादको अपना चेला बनाकर इन्होंने हिरण्यकशिपुसे बड़े-बड़े दुःख दिलवाये।

ये सदा दूसरोंकी बुद्धिमें भेद पैदा किया करते हैं।

नारदमुनि कानोंको पसंद आनेवाली अपनी विद्या जिस-जिसको सुना देते हैं, वही अपना घर छोड़कर तत्काल भीख माँगने लगता है।

उनका मन मलिन है।

केवल शरीर ही सदा उज्ज्वल दिखायी देता है।

हम उन्हें विशेष रूपसे जानते हैं; क्योंकि उनके साथ रहते हैं।

उनका उपदेश पाकर बड़े-बड़े विद्वानोंद्वारा सम्मानित होनेवाली तुम भी व्यर्थ ही भुलावेमें आ गयी और मूर्ख बनकर दुष्कर तपस्या करने लगी।

बाले! तुम जिनके लिये यह भारी तपस्या करती हो, वे रुद्र सदा उदासीन, निर्विकार तथा कामके शत्रु हैं—इसमें संशय नहीं है।

वे अमांगलिक वस्तुओंसे युक्त शरीर धारण करते हैं, लज्जाको तिलांजलि दे चुके हैं, उनका न कहीं घर है न द्वार।

वे किस कुलमें उत्पन्न हुए हैं, इसका भी किसीको पता नहीं है।

कुत्सित वेष धारण किये भूतों तथा प्रेत आदिके साथ रहते हैं और नंग-धड़ंग हो शूल धारण किये घूमते हैं।

धूर्त नारदने अपनी मायासे तुम्हारे सारे विज्ञानको नष्ट कर दिया, युक्तिसे तुम्हें मोह लिया और तुमसे तप करवाया।

देवेश्वरि! गिरिराजनन्दिनि! तुम्हीं विचार करो कि ऐसे वरको पाकर तुम्हें क्या सुख मिलेगा।

पहले रुद्रने बुद्धिसे खूब सोच-विचारकर साध्वी सतीसे विवाह किया।

परंतु वे ऐसे मूढ़ हैं कि कुछ दिन भी उनके साथ निबाह न सके।

उस बेचारीको वैसे ही दोष देकर उन्होंने त्याग दिया और स्वयं स्वतन्त्र हो अपने निष्कल और शोकरहित स्वरूपका ध्यान करते हुए उसीमें सुखपूर्वक रम गये।

देवि! जो सदा अकेले रहनेवाले, शान्त, संगरहित और अद्वितीय हैं, उनके साथ किसी स्त्रीका निर्वाह कैसे होगा? आज भी कुछ नहीं बिगड़ा है।

तुम हमारी आज्ञा मानकर घर लौट चलो और इस दुर्बुद्धिको त्याग दो।

महाभागे! इससे तुम्हारा भला होगा।

तुम्हारे योग्य वर हैं भगवान् विष्णु, जो समस्त सद् गुणोंसे युक्त हैं।

वे वैकुण्ठमें रहते हैं, लक्ष्मीके स्वामी हैं और नाना प्रकारकी क्रीडाएँ करनेमें कुशल हैं।

उनके साथ हम तुम्हारा विवाह करा देंगे और वह विवाह तुम्हारे लिये समस्त सुखोंको देनेवाला होगा।

पार्वती! तुम्हारा जो रुद्रके साथ विवाह करनेका हठ है, ऐसे हठको छोड़ दो और सुखी हो जाओ।

ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! उनकी ऐसी बात सुनकर जगदम्बिका पार्वती हँस पड़ीं और पुनः उन ज्ञानविशारद मुनियोंसे बोलीं।

पार्वतीने कहा—मुनीश्वरो! आपने अपनी समझसे ठीक ही कहा है।

परंतु द्विजो! मेरा हठ भी छूटनेवाला नहीं है।

मेरा शरीर पर्वतसे उत्पन्न होनेके कारण मुझमें स्वाभाविक कठोरता विद्यमान है।

अपनी बुद्धिसे ऐसा विचारकर आपलोग मुझे तपस्यासे रोकनेका कष्ट न करें।

देवर्षिका उपदेश-वाक्य मेरे लिये परम हितकारक है।

इसलिये मैं उसे कभी नहीं छोड़ूँगी।

वेदवेत्ता भी यह मानते हैं कि गुरुजनोंका वचन हितकारक होता है।

‘गुरुओंका वचन सत्य होता है’, ऐसा जिनका दृढ़ विचार है, उन्हें इहलोक और परलोकमें परम सुखकी प्राप्ति होती है और दुःख कभी नहीं होता।

‘गुरुओंका वचन सत्य होता है’ यह विचार जिनके हृदयमें नहीं है, उन्हें इहलोक और परलोकमें भी दुःख ही प्राप्त होता है, सुख कभी नहीं मिलता।

अतः द्विजो! गुरुओंके वचनका कभी किसी तरह भी त्याग नहीं करना चाहिये।

मेरा घर बसे या उजड़ जाय, मुझे तो यह हठ ही सदा सुख देनेवाला है।

मुनिवरो! आपने जो बातें कही हैं, मैं उनका आपके कहे हुए तात्पर्यसे भिन्न अर्थ समझती हूँ और उनका यहाँ संक्षेपसे विवेचन प्रस्तुत करती हूँ।

आपने यह ठीक कहा कि भगवान् विष्णु सद् गुणोंके धाम तथा लीलाविहारी हैं।

साथ ही आपने सदाशिवको निर्गुण कहा है।

इसमें जो कारण है, वह बताया जाता है।

भगवान् शिव साक्षात् परब्रह्म हैं, अतएव निर्विकार हैं।

वे केवल भक्तोंके लिये शरीर धारण करते हैं, फिर भी लौकिकी प्रभुताको दिखाना नहीं चाहते।

अतः परमहंसोंकी जो प्रिय गति है, उसीको वे धारण करते हैं; क्योंकि वे भगवान् शम्भु परमानन्दमय हैं, इसलिये अवधूतरूपसे रहते हैं।

मायालिप्त जीवोंको ही भूषण आदिकी रुचि होती है, ब्रह्मको नहीं।

वे प्रभु गुणातीत, अजन्मा, मायारहित, अलक्ष्यगति और विराट् हैं।

द्विजो! भगवान् शम्भु किसी विशेष धर्म या जाति आदिके कारण किसीपर अनुग्रह नहीं करते।

मैं गुरुकी कृपासे ही शिवको यथार्थरूपसे जानती हूँ।

ब्रह्मर्षियो! यदि शिव मेरे साथ विवाह नहीं करेंगे तो मैं सदा कुमारी ही रह जाऊँगी, परंतु दूसरेके साथ विवाह नहीं करूँगी।

यह मैं सत्य-सत्य कहती हूँ।

यदि सूर्य पश्चिमदिशामें उगने लगें, मेरुपर्वत अपने स्थानसे विचलित हो जाय, अग्नि शीतलताको अपना ले तथा कमल पर्वतशिखरकी शिलाके ऊपर खिलने लगे, तो भी मेरा हठ छूट नहीं सकता।

यह मैं सच्ची बात कहती हूँ।

ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! ऐसा कह उन मुनियोंको प्रणाम करके गिरिराज-कुमारी पार्वती निर्विकार चित्तसे शिवका स्मरण करती हुई चुप हो गयीं।

इस प्रकार गिरिजाके उस उत्तम निश्चयको जानकर वे सप्तर्षि भी उनकी जय-जयकार करने लगे और उन्होंने पार्वतीको उत्तम आशीर्वाद दिया।

मुने! गिरिजादेवीकी परीक्षा करनेवाले वे सातों ऋषि उनको प्रणाम करके प्रसन्नचित्त हो शीघ्र ही भगवान् शिवके स्थानको चले गये।

वहाँ पहुँचकर शिवको मस्तक नवा, उनसे सारा वृत्तान्त निवेदन करके, उनकी आज्ञा ले वे पुनः सादर स्वर्गलोकको चले गये।

(अध्याय २५)


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