शिव पुराण - रुद्र संहिता - पार्वती खण्ड - 12


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


इन्द्रद्वारा कामका स्मरण, उसके साथ उनकी बातचीत तथा उनके कहनेसे कामका शिवको मोहनेके लिये प्रस्थान

ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! देवताओंके चले जानेपर दुरात्मा तारक दैत्यसे पीड़ित हुए इन्द्रने कामदेवका स्मरण किया।

कामदेव तत्काल वहाँ आ पहुँचा।

तब इन्द्रने मित्रताका धर्म बतलाते हुए कामसे कहा—‘मित्र! कालवशात् मुझपर असाध्य दुःख आ पड़ा है।

उसे तुम्हारे बिना कोई भी दूर नहीं कर सकता।

दाताकी परीक्षा दुर्भिक्षमें, शूरवीरकी परीक्षा रणभूमिमें, मित्रकी परीक्षा आपत्तिकालमें तथा स्त्रियोंके कुलकी परीक्षा पतिके असमर्थ हो जानेपर होती है।

तात! संकट पड़नेपर विनयकी परीक्षा होती है और परोक्षमें सत्य एवं उत्तम स्नेहकी, अन्यथा नहीं।

यह मैंने सच्ची बात कही है।* मित्रवर! इस समय मुझपर जो विपत्ति आयी है, उसका निवारण दूसरे किसीसे नहीं हो सकता।

अतः आज तुम्हारी परीक्षा हो जायगी।

यह कार्य केवल मेरा ही है और मुझे ही सुख देनेवाला है, ऐसी बात नहीं।

अपितु यह समस्त देवता आदिका कार्य है, इसमें संशय नहीं है।’ इन्द्रकी यह बात सुनकर कामदेव मुसकराया और प्रेमपूर्ण गम्भीर वाणीमें बोला।

कामने कहा—देवराज! आप ऐसी बात क्यों कहते हैं? मैं आपको उत्तर नहीं दे रहा हूँ (आवश्यक निवेदनमात्र कर रहा हूँ)।

लोकमें कौन उपकारी मित्र है और कौन बनावटी—यह स्वयं देखनेकी वस्तु है, कहनेकी नहीं।

जो संकटके समय बहुत बातें करता है, वह काम क्या करेगा? तथापि महाराज! प्रभो! मैं कुछ कहता हूँ, उसे सुनिये।

मित्र! जो आपके इन्द्रपदको छीननेके लिये दारुण तपस्या कर रहा है, आपके उस शत्रुको मैं सर्वथा तपस्यासे भ्रष्ट कर दूँगा।

जो काम जिससे पूरा हो सके, बुद्धिमान् पुरुष उसे उसी काममें लगाये।

मेरे योग्य जो कार्य हो, वह सब आप मेरे जिम्मे कीजिये।

ब्रह्माजी कहते हैं—कामदेवका यह कथन सुनकर इन्द्र बड़े प्रसन्न हुए।

वे कामिनियोंको सुख देनेवाले कामको प्रणाम करके उससे इस प्रकार बोले।

इन्द्रने कहा—तात! मनोभव! मैंने अपने मनमें जिस कार्यको पूर्ण करनेका उद्देश्य रखा है, उसे सिद्ध करनेमें केवल तुम्हीं समर्थ हो।

दूसरे किसीसे उस कार्यका होना सम्भव नहीं है।

मित्रवर! मनोभव काम! जिसके लिये आज तुम्हारे सहयोगकी अपेक्षा हुई है, उसे ठीक-ठीक बता रहा हूँ; सुनो।

तारक नामसे प्रसिद्ध जो महान् दैत्य है, वह ब्रह्माजीका अद्भुत वर पाकर अजेय हो गया है और सभीको दुःख दे रहा है।

वह सारे संसारको पीड़ा दे रहा है।

उसके द्वारा बारंबार धर्मका नाश हुआ है।

उससे सब देवता और समस्त ऋषि दुःखी हुए हैं।

सम्पूर्ण देवताओंने पहले उसके साथ अपनी पूरी शक्ति लगाकर युद्ध किया था; परंतु उसके ऊपर सबके अस्त्र-शस्त्र निष्फल हो गये।

जलके स्वामी वरुणका पाश टूट गया।

श्रीहरिका सुदर्शनचक्र भी वहाँ सफल नहीं हुआ।

श्रीविष्णुने उसके कण्ठपर चक्र चलाया, किंतु वह वहाँ कुण्ठित हो गया।

ब्रह्माजीने महायोगीश्वर भगवान् शम्भुके वीर्यसे उत्पन्न हुए बालकके हाथसे इस दुरात्मा दैत्यकी मृत्यु बतायी है।

यह कार्य तुम्हें अच्छी तरह और प्रयत्नपूर्वक करना है।

मित्रवर! उसके हो जानेसे हम देवताओंको बड़ा सुख मिलेगा।

भगवान् शम्भु गिरिराज हिमालयपर उत्तम तपस्यामें लगे हैं।

वे हमारे भी प्रभु हैं, कामनाके वशमें नहीं हैं, स्वतन्त्र परमेश्वर हैं।

मैंने सुना है कि गिरिराजनन्दिनी पार्वती पिताकी आज्ञा पाकर अपनी दो सखियोंके साथ उनके समीप रहकर उनकी सेवामें रहती हैं।

उनका यह प्रयत्न महादेवजीको पतिरूपमें प्राप्त करनेके लिये ही है।

परंतु भगवान् शिव अपने मनको संयम-नियमसे वशमें रखते हैं।

मार! जिस तरह भी उनकी पार्वतीमें अत्यन्त रुचि हो जाय, तुम्हें वैसा ही प्रयत्न करना चाहिये।

यही कार्य करके तुम कृतार्थ हो जाओगे और हमारा सारा दुःख नष्ट हो जायगा।

इतना ही नहीं, लोकमें तुम्हारा स्थायी प्रताप फैल जायगा।

ब्रह्माजी कहते हैं—नारद! इन्द्रके ऐसा कहनेपर कामदेवका मुखारविन्द प्रसन्नतासे खिल उठा।

उसने देवराजसे प्रेमपूर्वक कहा—‘मैं इस कार्यको करूँगा।

इसमें संशय नहीं है।’ ऐसा कहकर शिवकी मायासे मोहित हुए कामने उस कार्यके लिये स्वीकृति दे दी और शीघ्र ही उसका भार ले लिया।

वह अपनी पत्नी रति और वसन्तको साथ ले बड़ी प्रसन्नताके साथ उस स्थानपर गया, जहाँ साक्षात् योगीश्वर शिव उत्तम तपस्या कर रहे थे।

(अध्याय १७) * दातुः परीक्षा दुर्भिक्षे रणे शूरस्य जायते।

आपत्काले तु मित्रस्याशक्तौ स्त्रीणां कुलस्य हि।।

विनतेः संकटे प्राप्तेऽवितथस्य परोक्षतः।

सुस्नेहस्य तथा तात नान्यथा सत्यमीरितम्।।

(शि० पु० रु० सं० पा० खं० १७।१२-१३)


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