शिव पुराण - रुद्र संहिता - पार्वती खण्ड - 11


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


तारकासुरके सताये हुए देवताओंका ब्रह्माजीको अपनी कष्ट कथा सुनाना, ब्रह्माजीका उन्हें पार्वतीके साथ शिवके विवाहके लिये उद्योग करनेका आदेश देना, ब्रह्माजीके समझानेसे तारकासुरका स्वर्गको छोड़ना और देवताओंका वहाँ रहकर लक्ष्यसिद्धिके लिये यत्नशील होना

सूतजी कहते हैं—तदनन्तर नारदजीके पूछनेपर पार्वतीके विवाहके विस्तृत प्रसंगको उपस्थित करते हुए ब्रह्माजीने तारकासुरकी उत्पत्ति, उसके उग्र तप, मनोवांछित वरप्राप्ति तथा देवता और असुर—सबको जीतकर स्वयं इन्द्रपदपर प्रतिष्ठित हो जानेकी कथा सुनायी।

तत्पश्चात् ब्रह्माजीने कहा—तारकासुर तीनों लोकोंको अपने वशमें करके जब स्वयं इन्द्र हो गया, तब उसके समान दूसरा कोई शासक नहीं रह गया।

वह जितेन्द्रिय असुर त्रिभुवनका एकमात्र स्वामी होकर अद्भुत ढंगसे राज्यका संचालन करने लगा।

उसने समस्त देवताओंको निकालकर उनकी जगह दैत्योंको स्थापित कर दिया और विद्याधर आदि देवयोनियोंको स्वयं अपने कर्ममें लगाया।

मुने! तदनन्तर तारकासुरके सताये हुए इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता अत्यन्त व्याकुल और अनाथ होकर मेरी शरणमें आये।

उन सबने मुझ प्रजापतिको प्रणाम करके बड़ी भक्तिसे मेरा स्तवन किया और अपने दारुण दुःखकी बातें बताकर कहा—‘प्रभो! आप ही हमारी गति हैं।

आप ही हमें कर्तव्यका उपदेश देनेवाले हैं और आप ही हमारे धाता एवं उद्धारक हैं।

हम सब देवता तारकासुर नामक अग्निमें जलकर अत्यन्त व्याकुल हो रहे हैं।

जैसे संनिपात रोगमें प्रबल औषधें भी निर्बल हो जाती हैं, उसी प्रकार उस असुरने हमारे सभी क्रूर उपायोंको बलहीन बना दिया है।

भगवान् विष्णुके सुदर्शन-चक्रपर ही हमारी विजयकी आशा अवलम्बित रहती है।

परंतु वह भी उसके कण्ठपर कुण्ठित हो गया।

उसके गलेमें पड़कर वह ऐसा प्रतीत होने लगा था, मानो उस असुरको फूलकी माला पहनायी गयी हो।

मुने! देवताओंका यह कथन सुनकर मैंने उन सबसे समयोचित बात कही—‘देवताओ! मेरे ही वरदानसे दैत्य तारकासुर इतना बढ़ गया है।

अतः मेरे हाथों ही उसका वध होना उचित नहीं।

जो जिससे पलकर बढ़ा हो, उसका उसीके द्वारा वध होना योग्य कार्य नहीं है।

विषके वृक्षको भी यदि स्वयं सींचकर बड़ा किया गया हो तो उसे स्वयं काटना अनुचित माना गया है।

तुमलोगोंका सारा कार्य करनेके योग्य भगवान् शंकर हैं।

किंतु वे तुम्हारे कहनेपर भी स्वयं उस असुरका सामना नहीं कर सकते।

तारक दैत्य स्वयं अपने पापसे नष्ट होगा।

मैं जैसा उपदेश करता हूँ, तुम वैसा कार्य करो।

मेरे वरके प्रभावसे न मैं तारकासुरका वध कर सकता हूँ, न भगवान् विष्णु कर सकते हैं और न भगवान् शंकर ही उसका वध कर सकते हैं।

दूसरा कोई वीर पुरुष अथवा सारे देवता मिलकर भी उसे नहीं मार सकते, यह मैं सत्य कहता हूँ।

देवताओ! यदि शिवजीके वीर्यसे कोई पुत्र उत्पन्न हो तो वही तारक दैत्यका वध कर सकता है, दूसरा नहीं।

सुरश्रेष्ठगण! इसके लिये जो उपाय मैं बताता हूँ, उसे करो।

महादेवजीकी कृपासे वह उपाय अवश्य सिद्ध होगा।

पूर्वकालमें जिस दक्षकन्या सतीने दक्षके यज्ञमें अपने शरीरको त्याग दिया था, वही इस समय हिमालय-पत्नी मेनकाके गर्भसे उत्पन्न हुई है।

यह बात तुम्हें भी विदित ही है।

महादेवजी उस कन्याका पाणिग्रहण अवश्य करेंगे, तथापि देवताओ! तुम स्वयं भी इसके लिये प्रयत्न करो।

तुम अपने यत्नसे ऐसा उद्योग करो, जिससे मेनकाकुमारी पार्वतीमें भगवान् शंकर अपने वीर्यका आधान कर सकें।

भगवान् शंकर ऊर्ध्वरेता हैं (उनका वीर्य ऊपरकी ओर उठा हुआ है), उनके वीर्यको प्रस्खलित करनेमें केवल पार्वती ही समर्थ हैं।

दूसरी कोई अबला अपनी शक्तिसे ऐसा नहीं कर सकती।

गिरिराजकी पुत्री वे पार्वती इस समय युवावस्थामें प्रवेश कर चुकी हैं और हिमालयपर तपस्यामें लगे हुए महादेवजीकी प्रतिदिन सेवा करती हैं।

अपने पिता हिमवान् के कहनेसे काली शिवा अपनी दो सखियोंके साथ ध्यानपरायण परमेश्वर शिवकी साग्रह सेवा करती हैं।

तीनों लोकोंमें सबसे अधिक सुन्दरी पार्वती शिवके सामने रहकर प्रतिदिन उनकी पूजा करती हैं, तथापि वे ध्यानमग्न महेश्वर मनसे भी ध्यानहीन स्थितिमें नहीं आते।

अर्थात् ध्यान भंग करके पार्वतीकी ओर देखनेका विचार भी मनमें नहीं लाते।

देवताओ! चन्द्रशेखर शिव जिस प्रकार कालीको अपनी भार्या बनानेकी इच्छा करें, वैसी चेष्टा तुमलोग शीघ्र ही प्रयत्नपूर्वक करो।

मैं उस दैत्यके स्थानपर जाकर तारकासुर-को बुरे हठसे हटानेकी चेष्टा करूँगा।

अतः अब तुमलोग अपने स्थानको जाओ।’ नारद! देवताओंसे ऐसा कहकर मैं शीघ्र ही तारकासुरसे मिला और बड़े प्रेमसे बुलाकर मैंने उससे इस प्रकार कहा— ‘तारक! यह स्वर्ग हमारे तेजका सारतत्त्व है।

परंतु तुम यहाँके राज्यका पालन कर रहे हो।

जिसके लिये तुमने उत्तम तपस्या की थी, उससे अधिक चाहने लगे हो।

मैंने तुम्हें इससे छोटा ही वर दिया था।

स्वर्गका राज्य कदापि नहीं दिया था।

इसलिये तुम स्वर्गको छोड़कर पृथ्वीपर राज्य करो।

असुरश्रेष्ठ! देवताओंके योग्य जितने भी कार्य हैं, वे सब तुम्हें वहीं सुलभ होंगे।

इसमें अन्यथा विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है।’ ऐसा कहकर उस असुरको समझानेके बाद मैं शिवा और शिवका स्मरण करके वहाँसे अदृश्य हो गया।

तारकासुर भी स्वर्गको छोड़कर पृथ्वीपर आ गया और शोणितपुरमें रहकर वह राज्य करने लगा।

फिर सब देवता भी मेरी बात सुनकर मुझे प्रणाम करके इन्द्रके साथ प्रसन्नतापूर्वक बड़ी सावधानीके साथ इन्द्रलोकमें गये।

वहाँ जाकर परस्पर मिलकर आपसमें सलाह करके वे सब देवता इन्द्रसे प्रेम-पूर्वक बोले—‘भगवन्! शिवकी शिवामें जैसे भी काममूलक रुचि हो, वैसा ब्रह्माजीका बताया हुआ सारा प्रयत्न आपको करना चाहिये।’ इस प्रकार देवराज इन्द्रसे सम्पूर्ण वृत्तान्त निवेदन करके वे देवता प्रसन्नतापूर्वक सब ओर अपने-अपने स्थानपर चले गये।

(अध्याय १४—१६)


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