शिव पुराण - रुद्र संहिता - सती खण्ड - 23


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प्रमथगणोंसहित वीरभद्र और महाकालीका दक्षयज्ञ-विध्वंसके लिये प्रस्थान, दक्ष तथा देवताओंको अपशकुन एवं उत्पातसूचक लक्षणोंका दर्शन एवं भय होना

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! महेश्वरके इस वचनको आदरपूर्वक सुनकर वीरभद्र बहुत संतुष्ट हुए।

उन्होंने महेश्वरको प्रणाम किया।

तत्पश्चात् उन देवाधिदेव शूलीकी उपर्युक्त आज्ञाको शिरोधार्य करके वीरभद्र वहाँसे शीघ्र ही दक्षके यज्ञमण्डपकी ओर चले।

भगवान् शिवने केवल शोभाके लिये उनके साथ करोड़ों महावीर गणोंको भेज दिया, जो प्रलयाग्निके समान तेजस्वी थे।

वे कौतूहलकारी प्रबल वीर प्रमथगण वीरभद्रके आगे और पीछे भी चल रहे थे।

कालके भी काल भगवान् रुद्रके वीरभद्र-सहित जो लाखों पार्षदगण थे, उन सबका स्वरूप रुद्रके ही समान था।

उन गणोंके साथ महात्मा वीरभद्र भगवान् शिवके समान ही वेश-भूषा धारण किये रथपर बैठकर यात्रा कर रहे थे।

उनके एक सहस्र भुजाएँ थीं।

शरीरमें नागराज लिपटे हुए थे।

वीरभद्र बड़े प्रबल और भयंकर दिखायी देते थे।

उनका रथ बहुत ही विशाल था।

उसमें दस हजार सिंह जोते जाते थे, जो प्रयत्नपूर्वक उस रथको खींचते थे।

उसी प्रकार बहुत-से प्रबल सिंह, शार्दूल, मगर, मत्स्य और सहस्रों हाथी उस रथके पार्श्वभागकी रक्षा करते थे।

काली, कात्यायनी, ईशानी, चामुण्डा, मुण्डमर्दिनी, भद्रकाली, भद्रा, त्वरिता तथा वैष्णवी – इन नव दुर्गाओंके साथ तथा समस्त भूतगणोंके साथ महाकाली दक्षका विनाश करनेके लिये चलीं।

डाकिनी, शाकिनी, भूत, प्रमथ, गुह्यक, कूष्माण्ड, पर्पट, चटक, ब्रह्मराक्षस, भैरव तथा क्षेत्रपाल आदि – ये सभी वीर भगवान् शिवकी आज्ञाका पालन एवं दक्षके यज्ञका विनाश करनेके लिये तुरंत चल दिये।

इनके सिवा चौंसठ गणोंके साथ योगिनियोंका मण्डल भी सहसा कुपित हो दक्षयज्ञका विनाश करनेके लिये वहाँसे प्रस्थित हुआ।

इस प्रकार कोटि-कोटि गण एवं विभिन्न प्रकारके गणाधीश वीरभद्रके साथ चले।

उस समय भेरियोंकी गम्भीर ध्वनि होने लगी।

नाना प्रकारके शब्द करनेवाले शंख बज उठे।

भिन्न-भिन्न प्रकारकी सींगें बजने लगीं।

महामुने! सेनासहित वीरभद्रकी यात्राके समय वहाँ बहुत-से सुखद शकुन होने लगे।

इस प्रकार जब प्रमथगणोंसहित वीरभद्रने प्रस्थान किया, तब उधर दक्ष तथा देवताओंको बहुत-से अशुभ लक्षण दिखायी देने लगे।

देवर्षे यज्ञ-विध्वंसकी सूचना देनेवाले त्रिविध उत्पात प्रकट होने लगे।

दक्षकी बायीं आँख, बायीं भुजा और बायीं जाँघ फड़कने लगी।

तात! वाम अंगोंका वह फड़कना सर्वथा अशुभसूचक था और नाना प्रकारके कष्ट मिलनेकी सूचना दे रहा था।

उस समय दक्षकी यज्ञशालामें धरती डोलने लगी।

दक्षको दोपहरके समय दिनमें ही अद्भुत तारे दीखने लगे।

दिशाएँ मलिन हो गयीं।

सूर्यमण्डल चितकबरा दीखने लगा।

उसपर हजारों घेरे पड़ गये, जिससे वह भयंकर जान पड़ता था।

बिजली और अग्निके समान दीप्तिमान् तारे टूट-टूटकर गिरने लगे तथा और भी बहुत-से भयानक अपशकुन होने लगे।

इसी बीचमें वहाँ आकाशवाणी प्रकट हुई जो सम्पूर्ण देवताओं और विशेषतः दक्षको अपनी बात सुनाने लगी।

आकाशवाणी बोली – ओ दक्ष! आज तेरे जन्मको धिक्कार है! तू महामूढ़ और पापात्मा है।

भगवान् हरकी ओरसे आज तुझे महान् दुःख प्राप्त होगा, जो किसी तरह टल नहीं सकता।

अब यहाँ तेरा हाहाकार भी नहीं सुनायी देगा।

जो मूढ़ देवता आदि तेरे यज्ञमें स्थित हैं, उनको भी महान् दुःख होगा – इसमें संशय नहीं है।

ब्रह्माजी कहते हैं – मुने! आकाशवाणीकी यह बात सुनकर और पूर्वोक्त अशुभसूचक लक्षणोंको देखकर दक्ष तथा दूसरे देवता आदिको भी अत्यन्त भय प्राप्त हुआ।

उस समय दक्ष मन-ही-मन अत्यन्त व्याकुल हो काँपने लगे और अपने प्रभु लक्ष्मीपति भगवान् विष्णुकी शरणमें गये।

वे भयसे अधीर हो बेसुध हो रहे थे।

उन्होंने स्वजनवत्सल देवाधिदेव भगवान् विष्णुको प्रणाम किया और उनकी स्तुति करके कहा।

(अध्याय ३३-३४)


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