शिव पुराण - रुद्र संहिता - सती खण्ड - 24


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


दक्षके यज्ञकी रक्षाके लिये भगवान् विष्णुसे प्रार्थना, भगवान् का शिवद्रोहजनित संकटको टालनेमें अपनी असमर्थता बताते हुए दक्षको समझाना तथा सेनासहित वीरभद्रका आगमन

दक्ष बोले – देवदेव! हरे! विष्णो! दीनबन्धो! कृपानिधे! आपको मेरी और मेरे यज्ञकी रक्षा करनी चाहिये।

प्रभो! आप ही यज्ञके रक्षक हैं, यज्ञ ही आपका कर्म है और आप यज्ञस्वरूप हैं।

आपको ऐसी कृपा करनी चाहिये, जिससे यज्ञका विनाश न हो।

ब्रह्माजी कहते हैं – मुनीश्वर! इस तरह अनेक प्रकारसे सादर प्रार्थना करके दक्ष भगवान् श्रीहरिके चरणोंमें गिर पड़े।

उनका चित्त भयसे व्याकुल हो रहा था।

तब जिनके मनमें घबराहट आ गयी थी, उन प्रजापति दक्षको उठाकर और उनकी पूर्वोक्त बात सुनकर भगवान् विष्णुने देवाधिदेव शिवका स्मरण किया।

अपने प्रभु एवं महान् ऐश्वर्यसे युक्त परमेश्वर शिवका स्मरण करके शिवतत्त्वके ज्ञाता श्रीहरि दक्षको समझाते हुए बोले।

श्रीहरिने कहा – दक्ष! मैं तुमसे तत्त्वकी बात बता रहा हूँ।

तुम मेरी बात ध्यान देकर सुनो।

मेरा यह वचन तुम्हारे लिये सर्वथा हितकर तथा महामन्त्रके समान सुखदायक होगा।

दक्ष! तुम्हें तत्त्वका ज्ञान नहीं है।

इसलिये तुमने सबके अधिपति परमात्मा शंकरकी अवहेलना की है।

ईश्वरकी अवहेलनासे सारा कार्य सर्वथा निष्फल हो जाता है।

केवल इतना ही नहीं, पग-पगपर विपत्ति भी आती है।

जहाँ अपूज्य पुरुषोंकी पूजा होती है और पूजनीय पुरुषकी पूजा नहीं की जाती, वहाँ दरिद्रता, मृत्यु तथा भय – ये तीन संकट अवश्य प्राप्त होंगे।* इसलिये सम्पूर्ण प्रयत्नसे तुम्हें भगवान् वृषभध्वजका सम्मान करना चाहिये।

महेश्वरका अपमान करनेसे ही तुम्हारे ऊपर महान् भय उपस्थित हुआ है।

हम सब लोग प्रभु होते हुए भी आज तुम्हारी दुर्नीतिके कारण जो संकट आया है, उसे टालनेमें समर्थ नहीं हैं।

यह मैं तुमसे सच्ची बात कहता हूँ।

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! भगवान् विष्णुका यह वचन सुनकर दक्ष चिन्तामें डूब गये।

उनके चेहरेका रंग उड़ गया और वे चुपचाप पृथ्वीपर खड़े रह गये।

इसी समय भगवान् रुद्रके भेजे हुए गणनायक वीरभद्र अपनी सेनाके साथ यज्ञस्थलमें जा पहुँचे।

वे सब-के-सब बड़े शूरवीर, निर्भय तथा रुद्रके समान ही पराक्रमी थे।

भगवान् शंकरकी आज्ञासे आये हुए उन गणोंकी गणना असम्भव थी।

वे वीरशिरोमणि रुद्रसैनिक जोर-जोरसे सिंहनाद करने लगे।

उनके उस महानादसे तीनों लोक गूँज उठे।

आकाश धूलसे ढक गया और दिशाएँ अन्धकारसे आवृत हो गयीं।

सातों द्वीपोंसे युक्त पृथ्वी अत्यन्त भयसे व्याकुल हो पर्वत, वन और काननोंसहित काँपने लगी तथा सम्पूर्ण समुद्रोंमें ज्वार आ गया।

इस प्रकार समस्त लोकोंका विनाश करनेमें समर्थ उस विशाल सेनाको देखकर समस्त देवता आदि चकित हो गये।

सेनाके उद्योगको देख दक्षके मुँहसे खून निकल आया।

वे अपनी स्त्रीको साथ ले भगवान् विष्णुके चरणोंमें दण्डकी भाँति गिर पड़े और इस प्रकार बोले।

दक्षने कहा – विष्णो! महाप्रभो! आपके बलसे ही मैंने इस महान् यज्ञका आरम्भ किया है।

सत्कर्मकी सिद्धिके लिये आप ही प्रमाण माने गये हैं।

विष्णो! आप कर्मोंके साक्षी तथा यज्ञोंके प्रतिपालक हैं।

महाप्रभो! आप वेदोक्त धर्म तथा ब्रह्माजीके रक्षक हैं।

अतः प्रभो! आपको मेरे इस यज्ञकी रक्षा करनी चाहिये; क्योंकि आप सबके प्रभु हैं।

ब्रह्माजी कहते हैं – दक्षकी अत्यन्त दीनतापूर्ण बात सुनकर भगवान् विष्णु उस समय शिवतत्त्वसे विमुख हुए दक्षको समझानेके लिये इस प्रकार बोले।

श्रीविष्णुने कहा – दक्ष! इसमें संदेह नहीं कि मुझे तुम्हारे यज्ञकी रक्षा करनी चाहिये; क्योंकि धर्म-परिपालनविषयक जो मेरी सत्य प्रतिज्ञा है, वह सर्वत्र विख्यात है।

परंतु दक्ष! मैं जो कुछ कहता हूँ, उसे तुम सुनो।

इस समय अपनी क्रूरतापूर्ण बुद्धिको त्याग दो।

देवताओंके क्षेत्र नैमिषारण्यमें जो अद्भुत घटना घटित हुई थी, उसका तुम्हें स्मरण नहीं हो रहा है।

क्या तुम अपनी कुबुद्धिके कारण उसे भूल गये? यहाँ कौन भगवान् रुद्रके कोपसे तुम्हारी रक्षा करनेमें समर्थ है।

दक्ष! तुम्हारी रक्षा किसको अभिमत नहीं है? परंतु जो तुम्हारी रक्षा करनेको उद्यत होता है, वह अपनी दुर्बुद्धिका ही परिचय देता है।

दुर्मते! क्या कर्म है और क्या अकर्म, इसे तुम नहीं समझ पा रहे हो।

केवल कर्म ही कभी कुछ करनेमें समर्थ नहीं हो सकता।

जिसके सहयोगसे कर्ममें कुछ करनेकी सामर्थ्य आती है, उसीको तुम स्वकर्म समझो।

भगवान् शिवके बिना दूसरा कोई कर्ममें कल्याण करनेकी शक्ति देनेवाला नहीं है।

जो शान्त हो ईश्वरमें मन लगाकर उनकी भक्तिपूर्वक कार्य करता है, उसीको भगवान् शिव तत्काल उस कर्मका फल देते हैं।

जो मनुष्य केवल ज्ञानका सहारा ले अनीश्वरवादी हो जाते या ईश्वरको नहीं मानते हैं, वे शतकोटि कल्पोंतक नरकमें ही पड़े रहते हैं।* फिर वे कर्मपाशमें बँधे हुए जीव प्रत्येक जन्ममें नरकोंकी यातना भोगते हैं; क्योंकि वे केवल सकाम कर्मके ही स्वरूपका आश्रय लेनेवाले होते हैं।

ये शत्रुमर्दन वीरभद्र, जो यज्ञशालाके आँगनमें आ पहुँचे हैं, भगवान् रुद्रकी क्रोधाग्निसे प्रकट हुए हैं।

इस समय समस्त रुद्रगणोंके नायक ये ही हैं।

ये हमलोगोंके विनाशके लिये आये हैं, इसमें संशय नहीं है।

कोई भी कार्य क्यों न हो; वस्तुतः इनके लिये कुछ भी अशक्य है ही नहीं।

ये महान् सामर्थ्यशाली वीरभद्र सब देवताओंको अवश्य जलाकर ही शान्त होंगे – इसमें संशय नहीं जान पड़ता।

मैं भ्रमसे महादेवजी-की शपथका उल्लंघन करके जो यहाँ ठहरा रहा, उसके कारण तुम्हारे साथ मुझे भी इस कष्टका सामना करना ही पड़ेगा।

भगवान् विष्णु इस प्रकार कह ही रहे थे कि वीरभद्रके साथ शिवगणोंकी सेनाका समुद्र उमड़ आया।

समस्त देवता आदिने उसे देखा।

(अध्याय ३५) * ईश्वरावज्ञया सर्वं कार्यं भवति सर्वथा।

विफलं केवलं नैव विपत्तिश्च पदे पदे।।

अपूज्या यत्र पूज्यन्ते पूजनीयो न पूज्यते।

त्रीणि तत्र भविष्यन्ति दारिद्र्यं मरणं भयम्।।

(शि० पु० रु० सं० स० खं० ३५।८-९) * केवलं ज्ञानमाश्रित्य निरीश्वरपरा नराः।

निरयं ते च गच्छन्ति कल्पकोटिशतानि च।।

(शि० पु० रु० सं० स० खं० ३५।३१)


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