शिव पुराण - रुद्र संहिता - सती खण्ड - 17


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


दक्षके द्वारा महान् यज्ञका आयोजन, उसमें ब्रह्मा, विष्णु, देवताओं और ऋषियोंका आगमन, दक्षद्वारा सबका सत्कार, यज्ञका आरम्भ, दधीचिद्वारा भगवान् शिवको बुलानेका अनुरोध और दक्षके विरोध करनेपर शिव-भक्तोंका वहाँसे निकल जाना

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! एक समय दक्षने एक बहुत बड़े यज्ञका आरम्भ किया।

उस यज्ञकी दीक्षा लेकर उन्होंने उस समय समस्त देवर्षियों, महर्षियों तथा देवताओंको बुलाया।

वे सभी उस यज्ञमें पधारे।

अगस्त्य, कश्यप, अत्रि, वामदेव, भृगु, दधीचि, भगवान् व्यास, भारद्वाज, गौतम, पैल, पराशर, गर्ग, भार्गव, ककुष, सित, सुमन्तु, त्रिक, कंक और वैशम्पायन – ये तथा दूसरे बहुसंख्यक मुनि अपने स्त्री-पुत्रोंको साथ ले मेरे पुत्र दक्षके यज्ञमें हर्षपूर्वक सम्मिलित हुए थे।

इनके सिवा समस्त देवगण, महान् अभ्युदयशाली लोकपालगण और सभी उपदेवता अपनी उपकारक सैन्यशक्तिके साथ वहाँ पधारे थे।

दक्षने प्रार्थना करके सदल-बल मुझ विश्वस्रष्टा ब्रह्माको भी सत्यलोकसे बुलवाया था।

इसी तरह भाँति-भाँतिसे सादर प्रार्थना करके वैकुण्ठलोकसे भगवान् विष्णु भी उस यज्ञमें बुलाये गये थे।

शिवद्रोही दुरात्मा दक्षने उन सबका बड़ा सत्कार किया।

विश्वकर्माने अत्यन्त दीप्तिमान्, विशाल और बहुमूल्य दिव्य भवन बनाये थे।

दक्षने वे ही भवन समागत अतिथियोंको ठहरनेके लिये दिये।

सभी लोग सम्मानित हो उन सम्पूर्ण भवनोंमें यथायोग्य स्थान पाकर ठहरे हुए थे।

दक्षका वह महायज्ञ उस समय कनखल नामक तीर्थमें हो रहा था।

उसमें दक्षने भृगु आदि तपोधनोंको ऋत्विज् बनाया।

सम्पूर्ण मरुद् गणोंके साथ स्वयं भगवान् विष्णु उसके अधिष्ठाता थे।

मैं वेदत्रयीकी विधिको दिखाने या बतानेवाला ब्रह्मा बना था।

इसी तरह सम्पूर्ण दिक्पाल अपने आयुधों और परिवारोंके साथ द्वारपाल एवं रक्षक बने थे और सदा कौतूहल पैदा करते थे।

स्वयं यज्ञ सुन्दर रूप धारण करके दक्षके उस यज्ञमण्डलमें उपस्थित था।

महामुनियोंमें श्रेष्ठ सभी महर्षि स्वयं वेदोंके धारण करनेवाले हुए थे।

अग्निने भी उस यज्ञमहोत्सवमें शीघ्र ही हविष्य ग्रहण करनेके लिये अपने सहस्रों रूप प्रकट किये थे।

वहाँ अट्ठासी हजार ऋत्विज् एक साथ हवन करते थे।

चौंसठ हजार देवर्षि उद् गाता थे।

अध्वर्यु एवं होता भी उतने ही थे।

नारद आदि देवर्षि और सप्तर्षि पृथक्-पृथक् गाथा-गान कर रहे थे।

दक्षने अपने उस महायज्ञमें गन्धर्वों, विद्याधरों, सिद्धों, बारह आदित्यों, उनके गणों, यज्ञों तथा नागलोकमें विचरनेवाले समस्त नागोंका भी बहुत बड़ी संख्यामें वरण किया था।

ब्रह्मर्षि, राजर्षि और देवर्षियोंके समुदाय तथा बहुसंख्यक नरेश भी उसमें आमन्त्रित थे, जो अपने मित्रों, मन्त्रियों तथा सेनाओंके साथ आये थे।

यजमान दक्षने उस यज्ञमें वसु आदि समस्त गणदेवताओंका भी वरण किया था।

कौतुक और मंगलाचार करके जब दक्षने यज्ञकी दीक्षा ली तथा जब उनके लिये बारंबार स्वस्तिवाचन किया जाने लगा, तब वे अपनी पत्नीके साथ बड़ी शोभा पाने लगे।

इतना सब करनेपर भी दुरात्मा दक्षने उस यज्ञमें भगवान् शम्भुको नहीं आमन्त्रित किया।

उनकी दृष्टिमें कपालधारी होनेके कारण वे निश्चय ही यज्ञमें भाग पानेयोग्य नहीं थे।

सती प्रजापति दक्षकी प्रिय पुत्री थीं तो भी कपालीकी पत्नी होनेके कारण दोषदर्शी दक्षने उन्हें अपने यज्ञमें नहीं बुलाया।

इस प्रकार जब दक्षका वह यज्ञ-महोत्सव आरम्भ हुआ और यज्ञ-मण्डपमें आये हुए सब ऋत्विज् अपने-अपने कार्यमें संलग्न हो गये, उस समय वहाँ भगवान् शंकरको उपस्थित न देख शिवभक्त दधीचिका चित्त अत्यन्त उद्विग्न हो उठा और वे यों बोले।

दधीचिने कहा – मुख्य-मुख्य देवताओ तथा महर्षियो! आप सब लोग प्रशंसा-पूर्वक मेरी बात सुनें।

इस यज्ञ-महोत्सवमें भगवान् शंकर नहीं आये हैं, इसका क्या कारण है? यद्यपि ये देवेश्वर, बड़े-बड़े मुनि और लोकपाल यहाँ पधारे हैं, तथापि उन महात्मा पिनाकपाणि शंकरके बिना यह यज्ञ अधिक शोभा नहीं पा रहा है।

बड़े-बड़े विद्वान् कहते हैं कि मंगलमय भगवान् शिवकी कृपादृष्टिसे ही समस्त मंगल-कार्य सम्पन्न होते हैं।

जिनका ऐसा प्रभाव है, वे पुराण-पुरुष, वृषभध्वज, परमेश्वर श्रीनीलकण्ठ यहाँ क्यों नहीं दिखायी दे रहे हैं? दक्ष! जिनके सम्पर्कमें आनेपर अथवा जिनके स्वीकार कर लेनेपर अमंगल भी मंगल हो जाते हैं तथा जिनके पंद्रह नेत्रोंसे देखे जानेपर बड़े-बड़े-नगर तत्काल मंगलमय हो जाते हैं, उनका इस यज्ञमें पदार्पण होना अत्यन्त आवश्यक है।

इसलिये तुम्हें स्वयं ही परमेश्वर शिवको यहाँ शीघ्र बुलाना चाहिये अथवा ब्रह्मा, प्रभावशाली भगवान् विष्णु, देवराज इन्द्र, लोकपालगणों, ब्राह्मणों और सिद्धोंकी सहायतासे सर्वथा प्रयत्न करके इस समय यज्ञकी पूर्तिके लिये तुम्हें भगवान् शंकरको यहाँ ले आना चाहिये।

आप सब लोग उस स्थानपर जायँ, जहाँ महेश्वरदेव विराजमान हैं।

वहाँसे दक्षनन्दिनी सतीके साथ भगवान् शम्भुको यहाँ तुरंत ले आयें।

देवेश्वरो! जगदम्बासहित वे परमात्मा शिव यदि यहाँ आ गये तो उनसे सब कुछ पवित्र हो जायगा; उनके स्मरणसे, उनके नाम लेनेसे सारा कार्य पुण्यमय बन जाता है।

अतः पूर्ण प्रयत्न करके भगवान् वृषभध्वजको यहाँ ले आना चाहिये।

भगवान् शंकरके यहाँ पदार्पण करते ही यह यज्ञ पवित्र हो जायगा; अन्यथा यह पूरा नहीं हो सकेगा – यह मैं सत्य कहता हूँ।

दधीचिका यह वचन सुनकर दुष्ट बुद्धिवाले मूढ़ दक्षने हँसते हुए-से रोष-पूर्वक कहा – ‘भगवान् विष्णु सम्पूर्ण देवताओंके मूल हैं, जिनमें सनातन धर्म प्रतिष्ठित है।

जब इनको मैंने सादर बुला लिया है तब इस यज्ञकर्ममें क्या कमी हो सकती है? जिनमें वेद, यज्ञ और नाना प्रकारके समस्त कर्म प्रतिष्ठित हैं, वे भगवान् विष्णु तो यहाँ आ ही गये हैं।

इनके सिवा सत्यलोकसे लोकपितामह ब्रह्मा वेदों, उपनिषदों और विविध आगमोंके साथ यहाँ पधारे हैं।

देवगणोंके साथ स्वयं देवराज इन्द्रका भी शुभागमन हुआ है तथा आप-जैसे निष्पाप महर्षि भी यहाँ आ गये हैं।

जो-जो महर्षि यज्ञमें सम्मिलित होनेके योग्य, शान्त और सुपात्र हैं, वेद और वेदार्थके तत्त्वको जाननेवाले हैं और दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करते हैं, वे सब और स्वयं आप भी जब यहाँ पदार्पण कर चुके हैं, तब हमें यहाँ रुद्रसे क्या प्रयोजन है? विप्रवर! मैंने ब्रह्माजीके कहनेसे ही अपनी कन्या रुद्रको ब्याह दी थी।

वैसे मैं जानता हूँ, हर कुलीन नहीं हैं।

उनके न माता हैं न पिता।

वे भूतों, प्रेतों और पिशाचोंके स्वामी हैं।

अकेले रहते हैं।

उनका अतिक्रमण करना दूसरोंके लिये अत्यन्त कठिन है।

वे आत्मप्रशंसक, मूढ़, जड, मौनी और ईर्ष्यालु हैं।

इस यज्ञकर्ममें बुलाये जानेयोग्य नहीं हैं।

इसलिये मैंने उनको यहाँ नहीं बुलाया है।

अतः दधीचिजी! आपको फिर कभी ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये।

मेरी प्रार्थना है कि आप सब लोग मिलकर मेरे इस महान् यज्ञको सफल बनावें।’ दक्षकी यह बात सुनकर दधीचिने समस्त देवताओं और मुनियोंके सुनते हुए यह सारगर्भित बात कही।

दधीचि बोले – दक्ष! उन भगवान् शिवके बिना यह महान् यज्ञ अयज्ञ हो गया – अब यह यज्ञ कहलानेयोग्य ही नहीं रह गया।

विशेषतः इस यज्ञमें तुम्हारा विनाश हो जायगा।

ऐसा कहकर दधीचि दक्षकी यज्ञशालासे अकेले ही निकल पड़े और तुरंत अपने आश्रमको चल दिये।

तदनन्तर जो मुख्य-मुख्य शिवभक्त तथा शिवके मतका अनुसरण करनेवाले थे, वे भी दक्षको वैसा ही शाप देकर तुरंत वहाँसे निकले और अपने आश्रमोंको चले गये।

मुनिवर दधीचि तथा दूसरे ऋषियोंके उस यज्ञमण्डपसे निकल जानेपर दुष्टबुद्धि शिवद्रोही दक्षने उन मुनियोंका उपहास करते हुए कहा।

दक्ष बोले – जिन्हें शिव ही प्रिय हैं, वे नाममात्रके ब्राह्मण दधीचि चले गये।

उन्हींके समान जो दूसरे थे, वे भी मेरी यज्ञशालासे निकल गये।

यह बड़ी शुभ बात हुई।

मुझे सदा यही अभीष्ट है।

देवेश! देवताओ और मुनियो! मैं सत्य कहता हूँ – जिनके चित्तकी विचारशक्ति नष्ट हो गयी है, जो मन्दबुद्धि हैं और मिथ्यावादमें लगे हुए हैं, ऐसे वेद-बहिष्कृत दुराचारी लोगोंको यज्ञकर्ममें त्याग ही देना चाहिये।

विष्णु आदि आप सब देवता और ब्राह्मण वेदवादी हैं।

अतः मेरे इस यज्ञको शीघ्र ही सफल बनावें।

ब्रह्माजी कहते हैं – दक्षकी यह बात सुनकर शिवकी मायासे मोहित हुए समस्त देवर्षि उस यज्ञमें देवताओंका पूजन और हवन करने लगे।

मुनीश्वर नारद! इस प्रकार उस यज्ञको जो शाप मिला, उसका वर्णन किया गया।

अब यज्ञके विध्वंसकी घटनाको बताया जाता है, आदरपूर्वक सुनो।

(अध्याय २७)


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