रामभक्त हनुमानजी के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी – भाग 2


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श्रीहनुमानजी के गुणों का वर्णन – भाग 1


कितना सुन्दर दैन्यभाव, अतुलित विश्वास और अनन्य भगवत्प्रेम है!

इसके बाद विभीषणसे सब समाचार पाकर
हनुमानजी अशोक-वाटिकामें जाकर श्रीसीताजीको देखते हैं और
मन-ही-मन उनको प्रणाम करते हैं।

अशोक-वाटिकामें जाकर श्रीसीताजीसे मिलनेके लिये
हनुमानजीने कितनी बुद्धिमानी और युक्तियोंसे काम लिया है,
इसका वाल्मीकीय रामायणमें बहुत विस्तृत वर्णन है।

वहाँ लिखा है कि बहुत तरहकी युक्तियाँ लगाकर
सीताजीसे मिलनेका उपाय सोचते-सोचते
अन्तमें हनुमानजी बड़ी सावधानीके साथ
एक सघन वृक्षके पत्तोंमें छिपकर बैठ जाते हैं।

वहींसे सब ओर दृष्टि घुमाकर देखते हैं।

देखते-देखते उनकी दृष्टि सीतापर पड़ती है।

उन्हें देखकर बहुत-से चिह्नोंद्वारा अनुमान लगाकर
यह निश्चय करते हैं कि ये ही जनकनन्दिनी सीता हैं।

वहाँ उन्होंने सीताके रहन-सहन और
स्वभावका बड़ा ही विचित्र चित्रण किया है।

वे सीताजीके गहनोंको देखकर
यह अनुमान लगाते हैं कि
भगवान् श्रीरामने सीताजीके अङ्गोमें
जिन-जिन आभूषणोंकी चर्चा की थी,
वे सभी इनके अङ्गोमें दिखायी देते हैं।

इनमें केवल वे ही नहीं दिखलायी दे रहे हैं,
जो इन्होंने ऋष्यमूक-पर्वतपर गिरा दिये थे।

इसी प्रकार उनके रूप और गुणोंको देखकर
बड़ी बुद्धिमानीसे उन्होंने यह निश्चय कर लिया कि
नि:संदेह ये ही सीताजी हैं।

यह निश्चय हो जानेपर
उनको श्रीसीताजीके दुःखसे बड़ा दुःख हुआ और
वे मन-ही-मन बहुत विलाप करने लगे।

इसके बाद सीतासे किस प्रकार बातचीत करनी चाहिये,
किस समय और कैसे मिलना चाहिये,
किस प्रकार उन्हें विश्वास दिलाना चाहिये कि
मैं श्रीरामचन्द्रजीका दास हूँ –
इस विषयपर भी हनुमानजीने
बड़ी विचारकुशलता प्रकट की है।

ठीक उसी समय
रावण बहुत-सी राक्षसियोंको साथ लेकर
वहाँ पहुँच जाता है।

वह सीताको अनेक प्रकारसे भय दिखलाकर
अपने अधीन करनेकी चेष्टा करता है,
पर वे किसी तरह भी अपने निश्चयसे विचलित नहीं होतीं।

अन्तमें रावण चला जाता है।

तब उसके आज्ञानुसार राक्षसियाँ
अनेक प्रकारसे सीताको भय दिखलाती हैं।

उसी समय त्रिजटा नामकी राक्षसी
अपने स्वप्नकी बात कहकर सीताको धैर्य देती है और
उसकी बातें सुनकर वे घोर राक्षसियाँ भी शान्त हो जाती हैं।

सीता विरहसे व्याकुल होकर विलाप करने लग जाती हैं।

तब हनुमानजी सीतासे मिलनेका उपयुक्त अवसर देखकर
अपने पूर्व निश्चित विचारके अनुसार
श्रीरामकी कथाका वर्णन करने लग जाते हैं।

श्रीरघुनाथजीका आद्योपान्त समस्त चरित्र सुनकर
सीताको बड़ा विस्मय हुआ।

अध्यात्मरामायणमें लिखा है कि
अन्तमें उन्होंने सोचा कि यह स्वप्न या भ्रम तो नहीं है।

ऐसा विचार करके वे कहने लगीं –

येन मे कर्णपीयूषं वचनं समुदीरितम्।
स दृश्यतां महाभाग: प्रियवादी ममाग्रत:॥
(५ । ३ । १८)

“जिन्होंने मेरे कानोंको
अमृतके समान प्रिय लगनेवाले वचन सुनाये,
वे प्रियभाषी महाभाग मेरे सामने प्रकट हों।”

ये वचन सुनकर हनुमानजी माता सीताके सामने
बड़ी विनयके साथ खड़े हो जाते हैं और
हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम करते हैं।

अकस्मात् एक वानरको अपने सामने खड़ा देखकर
सीताके मनमें यह शङ्का होती है कि
कहीं रावण तो मुझे छलनेके लिये नहीं आ गया है।

यह सोचकर वे नीचेकी ओर
मुख किये हुए ही बैठी रहती हैं।

रामचरितमानसमें उस समय
श्रीहनुमानजीके वचन इस प्रकार हैं –

राम दूत मैं मातु जानकी।
सत्य सपथ करुनानिधान की॥

यह मुद्रिका मातु मैं आनी।
दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी॥
(५ । १३ । ५)

इसके बाद श्रीजानकीजीके पूछनेपर
उन्होंने जिस प्रकार वानरराज सुग्रीवके साथ भगवान् श्रीरामकी मित्रता हुई,
वह सारी कथा विस्तारपूर्वक सुना दी
तथा श्रीराम और लक्ष्मणके शारीरिक चिह्नोंका
एवं उनके गुण और स्वभावका भी वर्णन किया।

ये सब बातें सुनकर
जानकीजीको बड़ी प्रसन्नता हुई।

इस प्रसङ्गका वर्णन श्रीवाल्मीकीय रामायणमें
बड़ा विस्तृत और रोचक है।

रामचरितमानसमें श्रीतुलसीदासजीने
बहुत ही संक्षेपमें इस प्रकार कहा है –

कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास।
जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास॥

हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी।
सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी॥ (५ । १३, १४ । १)

इसके बाद महातेजस्वी पवनकुमार हनुमानजीने
सीताजीको भगवान् श्रीरामकी दी हुई अँगूठी दी,
जिसे लेकर वे इतनी प्रसन्न हुईं,
मानो स्वयं भगवान् श्रीराम ही मिल गये हों।

उस समय वे हनुमानजीसे कहती हैं –

बूड़त बिरह जलधि हनुमाना।
भयहु तात मो कहुँ जलजाना॥

अब कहु कुसल जाऊँ बलिहारी।
अनुज सहित सुख भवन खरारी॥

कोमलचित कृपाल रघुराई।
कपि केहि हेतु धरी निठुराई॥

सहज बानि सेवक सुख दायक।
कबहुँक सुरति करत रघुनायक॥

कबहुँ नयन मम सीतल ताता।
होइहहिं निरखि स्याम मृदु गाता॥

बचनु न आव नयन भरे बारी।
अहह नाथ हौं निपट बिसारी॥
(५ । १४ । १-४)

इस प्रकार सीताको विरह-व्याकुल देखकर
हनुमानजी कहते हैं –

मातु कुसल प्रभु अनुज समेता।
तव दुख दुखी सुकृपा निकेता॥

जनि जननी मानहु जियँ ऊना।
तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना॥

रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर।
अस कहि कपि गदगद भयउ भरे बिलोचन नीर॥
(५ । १४ । ४, १४)

इसके बाद बड़ी बुद्धिमानीके साथ
श्रीरामके प्रेम और विरह-व्याकुलताकी बात
श्रीहनुमानजीने माता सीताको सुनायी और
अन्तमें कहा कि श्रीरामचन्द्रजीने कहा है –

तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा।
जानत प्रिया एकु मनु मोरा॥

सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं।
जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं॥
(५ । १५ । ३-४)

इस प्रकार श्रीरामका प्रेमपूर्ण संदेश सुनकर
सीता प्रेममें मग्न हो गयीं।

उन्हें अपने शरीरका भी ज्ञान नहीं रहा।

तब हनुमानजी फिर कहते हैं –

उर आनहु रघुपति प्रभुताई।
सुनि मम बचन तजहु कदराई॥

निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु।
जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु॥
(५ । १५ । ५, १५)

ये सब बातें सुनकर जब जानकीजीने यह कहा कि

“सब वानर तो तुम्हारे ही-जैसे होंगे,
राक्षसगण बड़े भयानक और विकराल हैं।

इन सबको तुमलोग कैसे जीत सकोगे,
मेरे मनमें यह संदेह हो रहा है।”

यह सुनकर हनुमानजीने
अपना भयानक पर्वताकार रूप सीताको दिखलाकर
अपना छिपा हुआ प्रभाव प्रकट कर दिया।

उसे देखते ही
सीताके मनमें विश्वास हो गया।

सीताने प्रसन्न होकर
हनुमानजीको बहुत-से वरदान दिये।

साथ ही यह भी कहा कि
भगवान् श्रीराम तुमपर कृपा करेंगे।

यह बात सुनते ही हनुमानजी प्रेममें मग्न हो गये और
बार-बार चरणोंमें प्रणाम करके हाथ जोड़े हुए बोले –

अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता।
आसिष तव अमोघ बिख्याता॥ (५ । १७ । ३)

इससे यह प्रकट होता है कि
हनुमानजीका श्रीरघुनाथजीके चरणोंमें कितना गूढ़ प्रेम है।

अध्यात्मरामायणमें लिखा है कि
बातों-ही-बातोंमें सीताजीने जब यह पूछा कि

“वानर-सेनाके सहित श्रीराम
इस बड़े भारी समुद्रको
पार कर यहाँ कैसे आ सकेंगे?”

हनूमानाह मे स्कन्धावारुह्य पुरुषर्षभौ॥
आयास्यत: ससैन्यश्च सुग्रीवो वानरेश्वर:।
विहायसा क्षणेनैव तीर्त्वा वारिधिमाततम्॥ (५ । ३ । ४७-४८)

तब हनुमानजीने कहा –

“वे दोनों नरश्रेष्ठ मेरे कंधोंपर चढ़कर आ जायँगे और
समस्त सेनाके सहित वानरराज सुग्रीव भी
आकाशमार्गसे क्षणमात्रमें ही
इस महासमुद्रसे पार होकर आ जायँगे।”

इस प्रसङ्गसे भी हनुमानजीके
बल, वीर्य और साहसका परिचय मिलता है।

इसके बाद माता सीतासे आज्ञा लेकर
अशोक-वाटिकाके फल खाकर
श्रीहनुमानजीने अपने स्वामी श्रीरामका विशेष कार्य करनेकी इच्छासे
अशोक-वाटिकाके वृक्षोंको तहस-नहस करके
समस्त वाटिकाको विध्वंस कर दिया।

यह समाचार पाकर
रावणने अपनी बड़ी भारी सेनाके साथ
अक्षकुमारको भेजा।

उन सबके साथ
हनुमानजीका बड़ा भयंकर संग्राम हुआ।

बड़ी वीरता और युद्ध-कौशलसे उन्होंने
अनायास ही जम्बुमाली, मन्त्रीके सात पुत्रों,
पाँच सेनापतियों और अक्षकुमारको मार डाला।

इस युद्धके प्रसङ्गसे श्रीहनुमानजीका
अतुलित बल-पौरुष और युद्ध-कौशल स्पष्ट व्यक्त होता है।

श्रीवाल्मीकीय रामायणमें इसका बड़ा सुन्दर वर्णन है।

श्रीहनुमानजीके अतुलित पराक्रमका चित्र खींचते हुए वहाँ लिखा है –

तलेनाभिहनत् कांश्चित् पादै: कांश्चित् परंतप:।
मुष्टिभिश्चाहनत् कांश्चिन्नखैः कांश्चिद् व्यदारयत्॥

प्रममाथोरसा कांश्चिदूरूभ्यामपरानपि।
केचित्तस्यैव नादेन तत्रैव पतिता भुवि॥ (५ । ४५ । १२-१३)

“हनुमानजीने उन राक्षसोंमेंसे
किन्हींको थप्पड़से मारकर गिरा दिया,
कितनोंको पैरोंसे कुचल डाला,
कइयोंका मुक्कोंसे काम तमाम कर दिया और
बहुतोंको नखोंसे फाड़ डाला।

कुछको छातीसे रगड़कर उनका कचूमर निकाल दिया
तो किन्हीं-किन्हींको दोनों जाँघोंसे दबोचकार पीस डाला।

कितने ही राक्षस तो उनकी भयानक गर्जनासे ही
वहाँ पृथ्वीपर गिर पड़े” – इत्यादि।

जब बचे-खुचे राक्षसोंसे
रावणको यह समाचार मिला कि
मन्त्रीके सातों पुत्र और
प्रधान-प्रधान प्राय: सभी राक्षस मारे गये,
पाँचों सेनापति तथा
अक्षकुमार भी मारा गया,
तब उसने इन्द्रजितको
उत्साहित करके हनुमानजीको पकड़ लानेके लिये भेजा।

मेघनाद और हनुमानजीका बड़ा भयंकर युद्ध हुआ।

अन्तमें जब उसने श्रीहनुमानजीको बाँधनेके लिये ब्रह्मास्त्र छोड़ा,
तब ब्रह्माजीका सम्मान रखनेके लिये
वे उससे बँध गये।

उन्होंने सोचा कि राक्षसोंद्वारा पकड़े जानेमें भी मेरा लाभ ही है;
क्योंकि इससे मुझे राक्षसराज रावणके साथ
बातचीत करनेका अवसर मिलेगा।

यह सोचकर वे निश्चेष्ट हो गये।

तब राक्षसोंने नाना प्रकारके रस्सोंसे
हनुमानजीको अच्छी प्रकार बाँध लिया।

ऐसा करनेसे ब्रह्मास्त्रका प्रभाव नहीं रहा।

इस प्रकार ब्रह्मास्त्रसे मुक्त हो जानेपर भी
परम चतुर हनुमानजीने ऐसा बर्ताव किया
मानो इस बातको वे जानते ही न हों।

अध्यात्मरामायणमें लिखा है कि
इसके बाद हनुमानजी रावणकी सभामें लाये गये।

वहाँ पहुँचकर उन्होंने समस्त सभाके बीचमें
बड़ी सज-धजके साथ राजसिंहासनपर बैठे हुए रावणको देखा।

हनुमानजीको देखकर रावणको मन-ही-मन बड़ी चिन्ता हुई।

वह सोचने लगा कि
यह भयंकर वानर कौन है?

क्या साक्षात् शिवजीके गण
भगवान् नन्दीश्वर ही तो वानरका रूप धारण कर नहीं आ गये हैं?

इस प्रकार बहुत-सा तर्क-वितर्क करनेके बाद
रावणने प्रहस्तसे कहा –

प्रहस्त पूच्छैनमसौ किमागत: किमत्र कार्यं कुत एव वानर:।
वनं किमर्थं सकलं विनाशितं हता: किमर्थं मम राक्षसा बलात्॥ (५ | ४ | ५)

“प्रहस्त! इस वानरसे पूछो,
यह यहाँ क्यों आया है?
इसका क्या काम है?
यह आया कहाँसे है?

तथा इसने मेरा समस्त बगीचा क्यों नष्ट कर डाला?
और मेरे राक्षस वीरोंको बलात् क्यों मार डाला?”

प्रहस्तने श्रीहनुमानजीसे सारी बातें सत्य-सत्य कहनेके लिये अनुरोध किया,
तब हनुमानजीने राजनीतिके अनुसार उत्तर दिया।

मनमें भगवान्का स्मरण करके वे कहने लगे-

शृणु स्फुटं देवगणाद्यमित्र हे रामस्य दूतोऽहमशेषहृत्स्थिते:।
यस्याखिलेशस्य हृताधुना त्वया भार्या स्वनाशाय शुनेव सद्धवि:॥ (५ । ४ । ८)

“देवादिकोंके शत्रु रावण!
तुम स्पष्टरूपसे सुन लो –
कुत्ता जिस प्रकार विशुद्ध हविको चुरा ले जाता है,
उसी प्रकार तुमने अपना नाश करानेके लिये
जिन अखिलेश्वरकी साध्वी भार्याको हर लिया है,
मैं उन्हीं सर्वान्तर्यामी भगवान् श्रीरामका दूत हूँ।”

वाल्मीकीय रामायणमें इस प्रसङ्गका विस्तृत वर्णन है।

वहाँ हनुमानजी कहते हैं –

अब्रवीन्नास्मि शक्रस्य यमस्य वरुणस्य च।
धनदेन न मे सख्यं॥

जातिरेव मम त्वेषा वानरोऽहमिहागत:।
दर्शने राक्षसेन्द्रस्य तदिदं दुर्लभं मया॥

वनं राक्षसराजस्य दर्शनार्थं विनाशितम्।
ततस्ते राक्षसा: प्राप्ता बलिनो युद्धकाङ्क्षिण:॥

रक्षणार्थं च देहस्य प्रतियुद्धा मया रणे।
अस्त्रपाशैर्न शक्योऽहं बद्धुं देवासुरैरपि॥

राजानं द्रष्टुकामेन मयास्त्रमनुवर्तितम्॥ (५ । ५० । १३-१७)

“मैं इन्द्र, यम,
वरुण आदि अन्य किसी देवताका भेजा हुआ नहीं हूँ,
न मेरी कुबेरके साथ मित्रता है।

मेरी तो यह जाति ही है
अर्थात्! मैं जन्मसे ही वानर हूँ,
राक्षसराज रावणको देखनेके लिये ही मैं यहाँ आया हूँ
तथा रावणसे मिलनेके उद्देश्यसे ही
मैंने ऐसा यह दुर्लभ बगीचा उजाड़ा है।

तुम्हारे बली राक्षस मुझसे लड़नेके लिये गये;
तब अपने शरीरकी रक्षाके लिये मैंने उनका सामना किया।

देवता या असुर-कोई भी किसी प्रकार
मुझे अस्त्रोंद्वारा बाँध नहीं सकता।

राक्षसराजको देखनेके लिये ही
मैंने यह बन्धन स्वीकार किया है।”

इसके बाद हनुमानजीने
संक्षेपमें श्रीरामकी समस्त कथाका वर्णन करते हुए
उनकी सुग्रीवके साथ मित्रता होने और
वालीके मारे जानेकी सब बातें कहकर यह बतलाया कि

“मैं सीताकी खोज करनेके लिये यहाँ आया हूँ।”

इसके बाद हनुमानजीने बड़ी युक्तियोंसे
रावणको भगवान् श्रीरामके बल, पराक्रम, प्रभाव और
ऐश्वर्यकी बातें सुनाकर बहुत कुछ समझानेकी चेष्टा की।

रामचरितमानसमें श्रीहनुमानजी कहते हैं –

बिनती करउँ जोरि कर रावन।
सुनहु मान तजि मोर सिखावन॥

जाकें डर अति काल डेराई।
जो सुर असुर चराचर खाई॥

तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै।
मोरे कहें जानकी दीजै॥

प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि।
गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि॥

राम चरन पंकज उर धरहू।
लंका अचल राजु तुम्ह करहू॥

सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी।
बिमुख राम त्राता नहिं कोपी॥

मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान॥ (५ । २२ । ४-२३)

भगवान् श्रीरामका प्रभाव दिखाकर
बहुत कुछ समझानेके बाद
अध्यात्मरामायणमें भी यही कहा है –

विसृज्य मौर्ख्यं हृदि शत्रुभावनां भजस्व रामं शरणागतप्रियम्।
सीतां पुरस्कृत्य सपुत्रबान्धवो रामं नमस्कृत्य विमुच्यसे भयात्॥ (५ । ४ । २३)

रावण! तुम हृदयमें स्थित
शत्रुभावनारूप मूर्खताका त्याग करके
शरणागतप्रिय श्रीरामका भजन करो।

श्रीसीताजीको आगे करके
अपने पुत्र और बन्धु-बान्धवोंसहित,
भगवान् श्रीरामकी शरणमें जा पड़ो और
उन्हें नमस्कार करो।

ऐसा करके तुम भयसे मुक्त हो जाओगे।”

इस प्रकार श्रीहनुमानजीने रावणको
उसके हितकी बहुत-सी बातें कहीं;
परंतु उसे वे बहुत ही बुरी लगीं।

वह हनुमानजीपर क्रोध करके कहने लगा –

“अरे बंदर!
तुम निर्भयकी भाँति कैसे मेरे सामने बक रहे हो!
तुम बंदरोंमें नीच हो।
मैं अभी तुम्हें मार डालूँगा।”

इस प्रकार उसने श्रीहनुमानजीको
बहुत-सी खोटी-खरी बातें कहकर
राक्षसोंको आदेश दिया कि
“इसे मार डालो।”
यह सुनते ही बहुत-से राक्षस
श्रीहनुमानजीको मारनेके लिये उद्यत हुए।

उस समय विभीषणने रावणको समझाया।

रामचरितमानसमें इसका यों वर्णन आता है –

नाइ सीस करि बिनय बहूता।
नीति बिरोध न मारिअ दूता॥

आन दंड कछु करिअ गोसाँई।
सबहीं कहा मंत्र भल भाई॥ (५ । २४ । ४)

यह सुनकर रावणने कहा –

कपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ।
तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाइ॥

पूँछहीन बानर तहँ जाइहि।
तब सठ निज नाथहि लइ आइहि॥

जिन्ह कै कीन्हिसि बहुत बड़ाई।
देखउँ मैं तिन्ह कै प्रभुताई॥ (५ । २४, २५ । १)

अध्यात्मरामायणमें लिखा है –

यह सुनकर श्रीहनुमानजीने
मन-ही-मन सोचा कि अब काम बन गया।

उधर राक्षसोंने रावणकी आज्ञा पाकर
तुरंत ही हनुमानजीकी पूँछपर
बहुत-से वस्त्र घी और तेलमें भिगो-भिगोकर बाँध दिये।

पूँछके अग्रभागमें थोड़ी आग लगा दी और
शहरमें फिराकर एवं डोंडी पिटवाकर
लोगोंको सुनाने लगे कि
“यह चोर है,
इसलिये इसे यह दण्ड दिया गया है।”

कुछ दूर जानेपर हनुमानजीने
अपने शरीरको संकुचित कर
तुरंत ही समस्त बन्धनोंसे मुक्त होकर
पर्वताकार रूप धारण कर लिया और
समस्त लंका जला डाली।

उत्प्लुत्योत्प्लुत्य संदीप्तपुच्छेन महता कपि:।
ददाह लङ्कामखिलां साट्टप्रासादतोरणाम्॥
हा तात पुत्र नाथेति क्रन्दमाना: समन्तत:।

व्याप्ता: प्रासादशिखरेऽप्यारूढा दैत्ययोषित:॥ (५ । ४ । ४२-४३)

“एक घरसे दूसरे घरपर छलाँग मारते हुए
श्रीहनुमानजीने अपनी जलती हुई बड़ी पूँछसे
अटारी, महल और तोरणोंसहित समस्त लंकाको जला दिया।

उस समय

“हा तात!”, “हा पुत्र!”, “हा नाथ!” –
इस प्रकार चिल्लाती हुई दैत्योंकी स्त्रियाँ
चारों ओर फैल गयीं और
महलोंके शिखरोंपर भी चढ़ गयीं।”

रामचरितमानसमें लिखा है –

निबुकि चढ़ेउ कपि कनक अटारीं।
भईं सभीत निसाचर नारीं॥

जारा नगरु निमिष एक माहीं।
एक बिभीषन कर गृह नाहीं॥

उलटि पलटि लंका सब जारी।
कूदि परा पुनि सिंधु मझारी॥

पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि।
जनकसुता कें आगे ठाढ़ भयउ कर जोरि॥ (५ । २५ । ५, २६ । ३-४, २६)

इस प्रकार श्रीजानकीजीके पास पहुँचकर
श्रीहनुमानजीने उन्हें प्रणाम किया और
लौटकर श्रीरामके पास जानेके लिये आज्ञा माँगी।

तब माता सीताने कहा कि

“हनुमान! तुम्हें देखकर
मैं अपने दुःखको कुछ भूल गयी थी;
अब तुम भी जा रहे हो तो बताओ,
अब मैं भगवान् श्रीरामकी कथा सुने बिना कैसे रह सकूँगी?”

अध्यात्मरामायणमें उस समय श्रीहनुमानजीके वचन इस प्रकार हैं –

यद्येवं देवि मे स्कन्धमारोह क्षणमात्रत:।
रामेण योजयिष्यामि मन्यसे यदि जानकि॥ (५ । ५ । ६)

“देवी जानकी! यदि ऐसी बात है और
आप स्वीकार करें
तो मेरे कंधेपर चढ़ जाइये;
मैं एक क्षणमें ही आपको श्रीरामसे मिला दूँगा।”

वाल्मीकीय रामायणमें और भी विस्तृत वर्णन है।

वहाँ हनुमानजीके इस प्रस्तावपर
श्रीजनकनन्दिनी कहती हैं –
“हनुमान! मैं स्वेच्छासे किसी पुरुषको
कैसे स्पर्श कर सकती हूँ।

श्रीरामजी वानरोंके साथ यहाँ आकर
रावणको युद्धमें मारकर
मुझे ले जायँ, इसीमें उनकी शोभा है।

इसलिये तुम जाओ,
मैं किसी तरह कुछ दिन और प्राण धारण करूँगी।”

इसके बाद रामचरितमानसमें
हनुमानजीके वचन इस प्रकार हैं –

मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा।
जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा॥ (५ । २७ । १)

तब सीताने
अपनी चूडामणि हनुमानको दी।

उसे पाकर हनुमानजी बड़े प्रसन्न हुए।

उसके बाद सीताजीने वह सब प्रसङ्ग भी हनुमानजीको सुनाया,
जिस प्रकार जयन्तने कौएका रूप धारण करके
चोंच मारी थी और
भगवान् श्रीरामने उसपर क्रोध किया था।

इस प्रकार श्रीहनुमानजी सीताका संदेश लेकर,
उनको प्रणाम करके वहाँसे लौटे।

उनके मनमें
श्रीरामचन्द्रजीके दर्शनोंकी बड़ी उतावली हो रही थी।

इसलिये वे बड़े वेगसे
पहाड़पर चढ़ रहे थे।

उस समय उनके पैरोंकी धमकसे
पर्वतकी शिलाएँ चूर-चूर होती जा रही थीं।

सबसे ऊँचे शिखरपर चढ़कर
श्रीहनुमानजीने अपना शरीर बढ़ाया और
समुद्रसे पार होकर
उत्तरी किनारेपर जानेका विचार किया।

पर्वतसे उछलकर
वे वायुकी भाँति आकाशमें जा पहुँचे।

वह पर्वत हनुमानजीके पैरोंसे दबाये जानेके कारण बड़ी आवाज करता हुआ
अपने ऊपर रहनेवाले वृक्षों और प्राणियोंसहित जमीनमें धँस गया।

श्रीहनुमानजी आकाशमार्गसे आगे बढ़ते हुए
बड़े जोरसे गरजे, जिससे समस्त दिशाएँ गूँज उठीं।

उसे सुनकर हनुमानजीसे मिलनेके लिये
समस्त वानर उत्साहित हो उठे।

जाम्बवान्के हृदयमें बड़ी प्रसन्नता हुई।

वे सबसे कहने लगे –

“हनुमानजी सब प्रकारसे
अपना कार्य सिद्ध करके आ रहे हैं।

अन्यथा इनकी ऐसी गर्जना नहीं हो सकती।”

इतनेमें ही अत्यन्त वेगशाली पर्वताकार
श्रीहनुमानजी महेन्द्र पर्वतके शिखरपर कूद पड़े।

उस समय सभी वानर बड़े प्रसन्न हुए और
महात्मा हनुमानजीको चारों ओरसे घेरकर खड़े हो गये।

हनुमानजीने जाम्बवान् आदि बड़ोंको प्रणाम किया
तथा अन्य वानरोंसे प्रेमपूर्वक मिले।

संक्षेपमें ही सीताजीसे मिलने और
लंका जला डालनेका सारा प्रसङ्ग उन लोगोंसे कह सुनाया।

वाल्मीकीय रामायणमें इस प्रसङ्गका भी
बड़े विस्तारसे वर्णन हुआ है।

समस्त वानरोंसहित श्रीहनुमानजी
वहाँसे चलकर किष्किन्धा पहुँचे।

वहाँ सब वानरोंने
अङ्गदकी आज्ञा लेकर
सुग्रीवके मधुवनमें आनन्दपूर्वक मधुपान किया।

रक्षकोंने आकर वानरराज सुग्रीवके पास इसकी शिकायत की,
उस समय लक्ष्मणके पूछनेपर सुग्रीवने कहा –

“भाई लक्ष्मण! इन सब बातोंसे
मुझे तनिक भी संदेह नहीं रहा कि
हनुमानने ही भगवती सीताका दर्शन किया है।

वानरश्रेष्ठ हनुमानमें कार्य सिद्ध करनेकी शक्ति,
बुद्धि, उद्योग, पराक्रम और
शास्त्रीय ज्ञान-सभी कुछ हैं।”

इसके अतिरिक्त उन्होंने और भी बहुत-सी ऐसी बातें कहीं,
जिनसे श्रीहनुमानजीका प्रभाव स्पष्ट व्यक्त होता है।

फिर सुग्रीवने तुरंत ही सब वानरोंके साथ
हनुमानजीको अपने पास बुला लिया
और वे उनका कुशल-समाचार जानकर बड़े प्रसन्न हुए।

सब मिलकर श्रीरामजीके पास आये।

उस समय श्रीरामचरितमानसमें
हनुमानजीके महत्त्वका वर्णन करते हुए
जाम्बवान्ने कहा है –

नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी।
सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी॥ (५ । ३० । ३)

इसके बाद श्रीहनुमानजीने
भगवानके चरणोंमें प्रणाम किया और
श्रीरामने हनुमानको हृदयसे लगाया।

तब हनुमानजीने कहा –

“देवी सीता
पातिव्रत्यके कठोर नियमोंका पालन करती हुई
शरीरसे कुशल हैं,
मैं उनके दर्शन कर आया हूँ।”

हनुमानजीके ये अमृतके समान वचन सुनकर
श्रीराम और लक्ष्मणको बड़ा हर्ष हुआ।

भगवानके मनका भाव जानकर
हनुमानजीने उन्हें जिस प्रकार श्रीजानकीजीके दर्शन हुए थे,
वह समस्त प्रसङ्ग सुनाकर
उनकी दी हुई चूडामणि भगवानको अर्पण कर दी।

उस मणिको लेकर
भगवान् श्रीरामने हृदयसे लगा लिया और
उसे देख-देखकर विरहमें व्याकुल होने लगे।

रामचरितमानसमें सीताका संदेश देते हुए
हनुमानजीने श्रीसीताजीके प्रेमकी बात इस प्रकार कही है –

नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट॥ (५ । ३०)

अन्तमें यहाँतक कह दिया –

सीता कै अति बिपति बिसाला।
बिनहिं कहें भलि दीनदयाला॥ (५ । ३१ । ५)

अध्यात्मरामायणमें इसका वर्णन इस प्रकार है।

सीताके समाचार सुनाते हुए हनुमानजी कहते हैं –

अभिज्ञां! देहि मे देवि यथा मां विश्वसेद्विभु:॥

इत्युक्ता सा शिरोरत्नं चूडापाशे स्थितं प्रियम्।
दत्त्वा काकेन यद् वृत्तं चित्रकूटगिरौ पुरा॥

तदप्याहाश्रुपूर्णाक्षी कुशलं ब्रूहि राघवम्।
लक्ष्मणं ब्रूहि मे किंचिद् दुरुक्तं भाषितं पुरा॥

तत्क्षमस्वाज्ञभावेन भाषितं कुलनन्दन।
तारयेन्मां यथा रामस्तथा कुरु कृपान्वित:॥

तत: प्रस्थापितो राम त्वत्समीपमिहागत:।
तदागमनवेलायामशोकवनिकां प्रियाम्॥

उत्पाट्य राक्षसांस्तत्र बहून् हत्वा क्षणादहम्।
रावणस्य सुतं हत्वा रावणेनाभिभाष्य च॥

लङ्कामशेषतो दग्ध्वा पुनरप्यागमं क्षणात्। (५ । ५ । ५२-५९)

“आते समय मैंने सीतासे कहा कि

“देवि! मुझे कोई ऐसी निशानी दीजिये,
जिससे श्रीरघुनाथजी मेरा विश्वास कर लें।”

मेरे इस प्रकार कहनेपर
उन्होंने अपने केशपाशमें स्थित
अपनी प्रिय चूडामणि मुझे दी।

पहले चित्रकूटपर काकके साथ जो घटना हुई थी,
वह सब सुनायी तथा नेत्रोंमें जल भरकर कहा कि
श्रीरघुनाथजीसे मेरी कुशल कहना और
लक्ष्मणसे कहना –

“कुलनन्दन! मैंने पहले तुमसे जो कुछ कठोर वचन कहे थे,
उन अज्ञानवश कहे हुए वचनोंके लिये मुझे क्षमा करना
तथा जिस प्रकार श्रीरघुनाथजी कृपा करके मेरा उद्धार करें,
वैसी चेष्टा करना।”

उनका यह सँदेसा लेकर
उनका भेजा हुआ मैं आपके पास चला आया।

आते समय मैंने रावणकी प्यारी अशोक-वाटिका उजाड़ दी
तथा एक क्षणमें ही बहुत-से राक्षस मार डाले।

रावणके पुत्र अक्षकुमारको भी मारा और
रावणसे वार्तालापकर लंकाको सब ओरसे जलाकर फिर तुरंत ही यहाँ चला आया।”

श्रीहनुमानजीसे सीताके सब समाचार सुनकर
श्रीराम बड़े प्रसन्न हुए और कहने लगे –

हनूमंस्ते कृत कार्यं देवैरपि सुदुष्करम्।
उपकारं न पश्यामि तव प्रत्युपकारिण:॥

इदानीं ते प्रयच्छामि सर्वस्वं मम मारुते।
इत्यालिङ्ग्य समाकृष्य गाढं वानरपुंगवम्॥

सार्द्रनेत्रो रघुश्रेष्ठ: परां प्रीतिमवाप स:। (५ । ५ । ६०-६२)

“वायुनन्दन हनुमान!
तुमने जो कार्य किया है,
वह देवताओंसे भी होना कठिन है।

मैं इसके बदलेमें तुम्हारा क्या उपकार करूँ,
यह नहीं जानता।

मैं अभी तुम्हें अपना सर्वस्व देता हूँ।”

यह कहकर रघुश्रेष्ठ श्रीरामने वानरश्रेष्ठ हनुमानको
खींचकर गाढ़ आलिङ्गन किया।

उनके नेत्रोंमें प्रेमाश्रु भर आये और
वे प्रेममें मग्न हो गये।”

श्रीहनुमानजीके बल, पराक्रम,
कार्यकौशल, साहस और
पवित्र प्रेमका इस प्रकरणमें
सभी रामायणोंमें बड़ा ही सुन्दर वर्णन मिलता है।