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भागवत पुराण – भागवत माहात्म्य 2 – अध्याय 4


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श्रीमद्भागवतका स्वरूप, प्रमाण, श्रोता-वक्ताके लक्षण, श्रवणविधि और माहात्म्य

शौनकादि ऋषियोंने कहा – सूतजी! आपने हमलोगोंको बहुत अच्छी बात बतायी। आपकी आयु बढ़े, आप चिरजीवी हों और चिरकालतक हमें इसी प्रकार उपदेश करते रहें। आज हमलोगोंने आपके मुखसे श्रीमद्भागवतका अपूर्व माहात्म्य सुना है।।१।।

सूतजी! अब इस समय आप हमें यह बताइये कि श्रीमद्भागवतका स्वरूप क्या है? उसका प्रमाण – उसकी श्लोकसंख्या कितनी है? किस विधिसे उसका श्रवण करना चाहिये? तथा श्रीमद्भागवतके वक्ता और श्रोताके क्या लक्षण हैं? अभिप्राय यह कि उसके वक्ता और श्रोता कैसे होने चाहिये।।२।।

सूतजी कहते हैं – ऋषिगण! श्रीमद्भागवत और श्रीभगवान् का स्वरूप सदा एक ही है और वह है सच्चिदानन्दमय।।३।।

भगवान् श्रीकृष्णमें जिनकी लगन लगी है उन भावुक भक्तोंके हृदयमें जो भगवान् के माधुर्य भावको अभिव्यक्त करनेवाला, उनके दिव्य माधुर्यरसका आस्वादन करानेवाला सर्वोत्कृष्ट वचन है, उसे श्रीमद्भागवत समझो।।४।।

जो वाक्य ज्ञान, विज्ञान, भक्ति एवं इनके अंगभूत साधनचतुष्टयको प्रकाशित करनेवाला है तथा जो मायाका मर्दन करनेमें समर्थ है, उसे भी तुम श्रीमद्भागवत समझो।।५।।

श्रीमद्भागवत अनन्त, अक्षरस्वरूप है; इसका नियत प्रमाण भला कौन जान सकता है? पूर्वकालमें भगवान् विष्णुने ब्रह्माजीके प्रति चार श्लोकोंमें इसका दिग्दर्शनमात्र कराया था।।६।।

विप्रगण! इस भागवतकी अपार गहराईमें डुबकी लगाकर इसमेंसे अपनी अभीष्ट वस्तुको प्राप्त करनेमें केवल ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि ही समर्थ हैं; दूसरे नहीं।।७।।

परन्तु जिनकी बुद्धि आदि वृत्तियाँ परिमित हैं, ऐसे मनुष्योंका हितसाधन करनेके लिये श्रीव्यासजीने परीक्षित् और शुकदेवजीके संवादके रूपमें जिसका गान किया है, उसीका नाम श्रीमद्भागवत है। उस ग्रन्थकी श्लोक-संख्या अठारह हजार है। इस भवसागरमें जो प्राणी कलिरूपी ग्राहसे ग्रस्त हो रहे हैं, उनके लिये वह श्रीमद्भागवत ही सर्वोत्तम सहारा है।।८-९।।

अब भगवान् श्रीकृष्णकी कथाका आश्रय लेनेवाले श्रोताओंका वर्णन करते हैं। श्रोता दो प्रकारके माने गये हैं – प्रवर (उत्तम) तथा अवर (अधम)।।१०।।

प्रवर श्रोताओंके ‘चातक’, ‘हंस’, ‘शुक’ और ‘मीन’ आदि कई भेद हैं। अवरके भी ‘वृक’, ‘भूरुण्ड’, ‘वृष’ और ‘उष्ट्र’ आदि अनेकों भेद बतलाये गये हैं।।११।।

‘चातक’ कहते हैं पपीहेको। वह जैसे बादलसे बरसते हुए जलमें ही स्पृहा रखता है, दूसरे जलको छूता ही नहीं – उसी प्रकार जो श्रोता सब कुछ छोड़कर केवल श्रीकृष्णसम्बन्धी शास्त्रोंके श्रवणका व्रत ले लेता है, वह ‘चातक’ कहा गया है।।१२।।

जैसे हंस दूधके साथ मिलकर एक हुए जलसे निर्मल दूध ग्रहण कर लेता और पानीको छोड़ देता है, उसी प्रकार जो श्रोता अनेकों शास्त्रोंका श्रवण करके भी उसमेंसे सारभाग अलग करके ग्रहण करता है, उसे ‘हंस’ कहते हैं।।१३।।

जिस प्रकार भलीभाँति पढ़ाया हुआ तोता अपनी मधुर वाणीसे शिक्षकको तथा पास आनेवाले दूसरे लोगोंको भी प्रसन्न करता है, उसी प्रकार जो श्रोता कथावाचक व्यासके मुँहसे उपदेश सुनकर उसे सुन्दर और परिमित वाणीमें पुनः सुना देता और व्यास एवं अन्यान्य श्रोताओंको अत्यन्त आनन्दित करता है, वह ‘शुक’ कहलाता है।।१४।।

जैसे क्षीरसागरमें मछली मौन रहकर अपलक आँखोंसे देखती हुई सदा दुग्ध पान करती रहती है, उसी प्रकार जो कथा सुनते समय निर्निमेष नयनोंसे देखता हुआ मुँहसे कभी एक शब्द भी नहीं निकालता और निरन्तर कथारसका ही आस्वादन करता रहता है, वह प्रेमी श्रोता ‘मीन’ कहा गया है।।१५।।

(ये प्रवर अर्थात् उत्तम श्रोताओंके भेद बताये गये हैं, अब अवर यानी अधम श्रोता बताये जाते हैं।) ‘वृक’ कहते हैं भेड़ियेको। जैसे भेड़िया वनके भीतर वेणुकी मीठी आवाज सुननेमें लगे हुए मृगोंको डरानेवाली भयानक गर्जना करता है, वैसे ही जो मूर्ख कथाश्रवणके समय रसिक श्रोताओंको उद्विग्न करता हुआ बीच-बीचमें जोर-जोरसे बोल उठता है, वह ‘वृक’ कहलाता है।।१६।।

हिमालयके शिखरपर एक भूरुण्ड जातिका पक्षी होता है। वह किसीके शिक्षाप्रद वाक्य सुनकर वैसा ही बोला करता है, किन्तु स्वयं उससे लाभ नहीं उठाता। इसी प्रकार जो उपदेशकी बात सुनकर उसे दूसरोंको तो सिखाये पर स्वयं आचरणमें न लाये, ऐसे श्रोताको ‘भूरुण्ड’ कहते हैं।।१७।।

‘वृष’ कहते हैं बैलको। उसके सामने मीठे-मीठे अंगूर हो या कड़वी खली, दोनोंको वह एक-सा ही मानकर खाता है। उसी प्रकार जो सुनी हुई सभी बातें ग्रहण करता है, पर सार और असार वस्तुका विचार करनेमें उसकी बुद्धि अंधी – असमर्थ होती है, ऐसा श्रोता ‘वृष’ कहलाता है।।१८।।

जिस प्रकार ऊँट माधुर्यगुणसे युक्त आमको भी छोड़कर केवल नीमकी ही पत्ती चबाता है, उसी प्रकार जो भगवान् की मधुर कथाको छोड़कर उसके विपरित संसारी बातोंमें रमता रहता है, उसे ‘ऊँट’ कहते हैं।।१९।।

ये कुछ थोड़े-से भेद यहाँ बताये गये। इनके अतिरिक्त भी प्रवर-अवर दोनों प्रकारके श्रोताओंके ‘भ्रमर’ और ‘गदहा’ आदि बहुत-से भेद हैं,’ इन सब भेदोंको उन-उन श्रोताओंके स्वाभाविक आचार-व्यवहारोंसे परखना चाहिये।।२०।।

जो वक्ताके सामने उन्हें विधिवत् प्रणाम करके बैठे और अन्य संसारी बातोंको छोड़कर केवल श्रीभगवान् की लीला-कथाओंको ही सुननेकी इच्छा रखे, समझनेमें अत्यन्त कुशल हो, नम्र हो, हाथ जोड़े रहे, शिष्यभावसे उपदेश ग्रहण करे और भीतर श्रद्धा तथा विश्वास रखे; इसके सिवा, जो कुछ सुने उसका बराबर चिन्तन करता रहे, जो बात समझमें न आये, पूछे और पवित्र भावसे रहे तथा श्रीकृष्णके भक्तोंपर सदा ही प्रेम रखता हो – ऐसे ही श्रोताको वक्ता लोग उत्तम श्रोता कहते हैं।।२१।।

अब वक्ताके लक्षण बतलाते हैं। जिसका मन सदा भगवान् में लगा रहे, जिसे किसी भी वस्तुकी अपेक्षा न हो, जो सबका सुहृद् और दीनोंपर दया करनेवाला हो तथा अनेकों युक्तियोंसे तत्त्वका बोध करा देनेमें चतुर हो, उसी वक्ताका मुनिलोग भी सम्मान करते हैं।।२२।।

विप्रगण! अब मैं भारतवर्षकी भूमिपर श्रीमद्भागवत-कथाका सेवन करनेके लिये जो आवश्यक विधि है, उसे बतलाता हूँ; आप सुनें। इस विधिके पालनसे श्रोताकी सुख-परम्पराका विस्तार होता है।।२३।।

श्रीमद्भागवतका सेवन चार प्रकारका है – सात्त्विक, राजस, तामस और निर्गुण।।२४।।

जिसमें यज्ञकी भाँति तैयारी की गयी हो, बहुत-सी पूजा-सामग्रियोंके कारण जो अत्यन्त शोभासम्पन्न दिखायी दे रहा हो और बड़े ही परिश्रमसे बहुत उतावलीके साथ सात दिनोंमें ही जिसकी समाप्ति की जाय, वह प्रसन्नतापूर्वक किया हुआ श्रीमद्भागवतका सेवन ‘राजस’ है।।२५।।

एक या दो महीनेमें धीरे-धीरे कथाके रसका आस्वादन करते हुए बिना परिश्रमके जो श्रवण होता है, वह पूर्ण आनन्दको बढ़ानेवाला ‘सात्त्विक’ सेवन कहलाता है।।२६।।

तामस सेवन वह है जो कभी भूलसे छोड़ दिया जाय और याद आनेपर फिर आरम्भ कर दिया जाय, इस प्रकार एक वर्षतक आलस्य और अश्रद्धाके साथ चलाया जाय। यह ‘तामस’ सेवन भी न करनेकी अपेक्षा अच्छा और सुख ही देनेवाला है।।२७।।

जब वर्ष, महीना और दिनोंके नियमका आग्रह छोड़कर सदा ही प्रेम और भक्तिके साथ श्रवण किया जाय, तब वह सेवन ‘निर्गुण’ माना गया है।।२८।।

राजा परीक्षित् और शुकदेवके संवादमें भी जो भागवतका सेवन हुआ था, वह निर्गुण ही बताया गया है। उसमें जो सात दिनोंकी बात आती है, वह राजाकी आयुके बचे हुए दिनोंकी संख्याके अनुसार है, सप्ताह-कथाका नियम करनेके लिये नहीं।।२९।।

भारतवर्षके अतिरिक्त अन्य स्थानोंमें भी त्रिगुण (सात्त्विक, राजस और तामस) अथवा निर्गुण-सेवन अपनी रुचिके अनुसार करना चाहिये। तात्पर्य यह कि जिस किसी प्रकार भी हो सके श्रीमद्भागवतका सेवन, उसका श्रवण करना ही चाहिये।।३०।।

जो केवल श्रीकृष्णकी लीलाओंके ही श्रवण, कीर्तन एवं रसास्वादनके लिये लालायित रहते और मोक्षकी भी इच्छा नहीं रखते, उनका तो श्रीमद्भागवत ही धन है।।३१।।

तथा जो संसारके दुःखोंसे घबराकर अपनी मुक्ति चाहते हैं, उनके लिये भी यही इस भवरोगकी ओषधि है। अतः इस कलिकालमें इसका प्रयत्नपूर्वक सेवन करना चाहिये।।३२।।

इनके अतिरिक्त जो लोग विषयोंमें ही रमण करनेवाले हैं, सांसारिक सुखोंकी ही जिन्हें सदा चाह रहती है, उनके लिये भी अब इस कलियुगमें सामर्थ्य, धन और विधि-विधानका ज्ञान न होनेके कारण कर्ममार्ग (यज्ञादि) से मिलनेवाली सिद्धि अत्यन्त दुर्लभ हो गयी है। ऐसी दशामें उन्हें भी सब प्रकारसे अब इस भागवतकथाका ही सेवन करना चाहिये।।३३-३४।।

यह श्रीमद्भागवतकी कथा धन, पुत्र, स्त्री, हाथी-घोड़े आदि वाहन, यश, मकान और निष्कण्टक राज्य भी दे सकती है।।३५।।

सकाम भावसे भागवतका सहारा लेनेवाले मनुष्य इस संसारमें मनोवांछित उत्तम भोगोंको भोगकर अन्तमें श्रीमद्भागवतके ही संगसे श्रीहरिके परमधामको प्राप्त हो जाते हैं।।३६।।

जिनके यहाँ श्रीमद्भागवतकी कथा-वार्ता होती हो तथा जो लोग उस कथाके श्रवणमें लगे रहते हों, उनकी सेवा और सहायता अपने शरीर और धनसे करनी चाहिये।।३७।।

उन्हींके अनुग्रहसे सहायता करनेवाले पुरुषको भी भागवत-सेवनका पुण्य प्राप्त होता है। कामना दो वस्तुओंकी होती है – श्रीकृष्णकी और धनकी। श्रीकृष्णके सिवा जो कुछ भी चाहा जाय, यह सब धनके अन्तर्गत है; उसकी ‘धन’ संज्ञा है।।३८।।

श्रोता और वक्ता भी दो प्रकारके माने गये हैं, एक श्रीकृष्णको चाहनेवाले और दूसरे धनको। जैसा वक्ता, वैसा ही श्रोता भी हो तो वहाँ कथामें रस मिलता है, अतः सुखकी वृद्धि होती है।।३९।।

यदि दोनों विपरीत विचारके हों तो रसाभास हो जाता है, अतः फलकी हानि होती है। किन्तु जो श्रीकृष्णको चाहनेवाले वक्ता और श्रोता हैं, उन्हें विलम्ब होनेपर भी सिद्धि अवश्य मिलती है।।४०।।

पर धनार्थीको तो तभी सिद्धि मिलती है, जब उनके अनुष्ठानका विधि-विधान पूरा उतर जाय। श्रीकृष्णकी चाह रखनेवाला सर्वथा गुणहीन हो और उसकी विधिमें कुछ कमी रह जाय तो भी, यदि उसके हृदयमें प्रेम है तो, वही उसके लिये सर्वोत्तम विधि है।।४१।।

सकाम पुरुषको कथाकी समाप्तिके दिनतक स्वयं सावधानीके साथ सभी विधियोंका पालन करना चाहिये। (भागवत-कथाके श्रोता और वक्ता दोनोंके ही पालन करनेयोग्य विधि यह है – ) प्रतिदिन प्रातःकाल स्नान करके अपना नित्यकर्म पूरा कर ले। फिर भगवान् का चरणामृत पीकर पूजाके सामानसे श्रीमद्भागवतकी पुस्तक और गुरुदेव (व्यास) का पूजन करे। इसके पश्चात् अत्यन्त प्रसन्नता-पूर्वक श्रीमद्भागवतकी कथा स्वयं कहे अथवा सुने।।४२-४३।।

दूध या खीरका मौन भोजन करे। नित्य ब्रह्मचर्यका पालन और भूमिपर शयन करे, क्रोध और लोभ आदिको त्याग दे।।४४।।

प्रतिदिन कथाके अन्तमें कीर्तन करे और कथासमाप्तिके दिन रात्रिमें जागरण करे। समाप्ति होनेपर ब्राह्मणोंको भोजन कराकर उन्हें दक्षिणासे सन्तुष्ट करे।।४५।।

कथावाचक गुरुको वस्त्र, आभूषण आदि देकर गौ भी अर्पण करे। इस प्रकार विधि-विधान पूर्ण करनेपर मनुष्यको स्त्री, घर, पुत्र, राज्य और धन आदि जो-जो उसे अभीष्ट होता है, वह सब मनोवांछित फल प्राप्त होता है। परन्तु सकामभाव बहुत बड़ी विडम्बना है, वह श्रीमद्भागवतकी कथामें शोभा नहीं देता।।४६-४७।।

श्रीशुकदेवजीके मुखसे कहा हुआ यह श्रीमद्भागवतशास्त्र तो कलियुगमें साक्षात् श्रीकृष्णकी प्राप्ति करानेवाला और नित्य प्रेमानन्दरूप फल प्रदान करनेवाला है।।४८।।

इति श्रीस्कान्दे महापुराण एकाशीतिसाहस्र यां संहितायां द्वितीये वैष्णवखण्डे श्रीमद्भागवतमाहात्म्ये भागवतश्रोतृवक्तृलक्षणश्रवणविधि-निरूपणं नाम चतुर्थोऽध्यायः।।४।।

।।समाप्तमिदं श्रीमद्भागवतमाहात्म्यम् ।।

।।हरिः ॐ तत्सत् ।।