महर्षि भृगु और पिता वरुण की कथा – 5 ध्यान


महर्षि भृगु और ब्रह्मविद्या

यह कथा तैत्तिरीय उपनिषद के
भृगुवल्ली अध्याय में दी गयी है।

भृगु ऋषि को किस प्रकार अपने पिता वरूण से
ब्रह्मका रहस्य बतानेवाली विद्या,
यानि ब्रह्मविद्या प्राप्त हुई थी,
उसका इस अध्याय में वर्णन है,
इसलिए इस अध्याय का नाम भृगुवल्ली है।


ऋषि भृगु के मन में प्रश्न – ब्रह्म, परमात्मा क्या है?

भृगु नामसे प्रसिद्ध एक ऋषि थे,
जो वरुणके पुत्र थे।

उनके मनमें परमात्माको जानने और
प्राप्त करनेकी उत्कट अभिलाषा हुई,
तब वे अपने पिता वरुणके पास गये।


ऋषि भृगु, पिता वरुण के पास जाते है

उनके पिता वरुण
वेदको जाननेवाले, ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष थे;
अतः भृगुको किसी दूसरे आचार्यके पास जानेकी आवश्यकता नहीं हुई।

अपने पिताके पास जाकर भूगुने इस प्रकार प्रार्थना की –
भगवन्‌! मैं ब्रह्मको जानना चाहता हूँ,
अतः आप कृपा करके मुझे ब्रह्मका तत्त्व समझाइये।


वरुण भृगु को ब्रह्मका तत्व बताते है

तब वरुणने भृगुसे कहा –
“अन्न, प्राण, नेत्र, श्रोत्र, मन और वाणी –
ये सभी ब्रह्मकी उपलब्धिके द्वार हैं।
इन सबमें ब्रह्मकी सत्ता स्फुरित हो रही है।”

साथ ही यह भी कहा –
ये प्रत्यक्ष दिखायी देनेवाले सब प्राणी जिनसे उत्पन्न होते हैं,
उत्पन्न होकर जिनके सहयोगसे,
जिनका बल पाकर ये सब जीते हैं –
जीवनोपयोगी क्रिया करनेमें समर्थ होते हैं और
महाप्रलयके समय जिनमें विलीन हो जाते हैं,
उनको वास्तवमें जाननेकी (पानेकी) इच्छा कर।
वे ही ब्रह्म हैं।


ऋषि भृगु का पहला तप

इस प्रकार पिताका उपदेश पाकर
भृगु ऋषिने ब्रह्मचर्य और
शम-दम आदि नियमोंका पालन करते हुए
तथा समस्त भोगोंके त्यागपूर्वक संयमसे रहते हुए
पिताके उपदेशपर विचार किया।

यही उनका तप था।

अन्न ही ब्रह्म है


अन्न ही ब्रह्म है

भृगुने पिताके उपदेशानुसार यह निश्चय किया कि
अन्न ही ब्रह्म है;
क्योंकि पिताजीने ब्रह्मके जो लक्षण बताये थे,
वे सब आन्नमें पाये जाते हैं।

समस्त प्राणी अन्नसे-अन्नके परिणामभूत वीर्यसे उत्पन्न होते हैं,
अन्नसे ही उनका जीवन सुरक्षित रहता है और
मरनेके बाद अन्नस्वरूप इस पृथ्वीमें ही प्रविष्ट हो जाते हैं।

इस प्रकार निश्चय करके
वे पुनः अपने पिता वरुणके पास आये।

आकर अपने निश्चयके अनुसार
उन्होंने सब बातें कहीं।

पिताने कोई उत्तर नहीं दिया।


ब्रह्म अन्न नहीं, उससे सूक्ष्म है

उन्होंने सोचा –
“इसने अभी ब्रह्मके स्थूल रूपको ही समझा है,
वास्तविक रूप तक इसकी बुद्धि नहीं गयी;
अतः इसे तपस्या करके
अभी और विचार करनेकी आवश्यकता है।

पर जो कुछ इसने समझा है,
उसमें इसकी तुच्छ बुद्धि कराकर
अश्रद्धा उत्पन्न कर देनेमें भी इसका हित नहीं है,
अतः इसकी बातका उत्तर न देना ही ठीक है।”

पितासे अपनी बातका समर्थन न पाकर
भृगुने फिर प्रार्थना की –

“भगवन्‌! यदि मैंने ठीक नहीं समझा हो
तो आप मुझे ब्रह्मका तत्त्व समझाइये।”

तब वरुणने कहा –
“तू तपके द्वारा ब्रह्मके तत्वको समझनेकी
कोशिश कर।

यह तप ब्रह्मका ही स्वरूप है,
अतः यह उनका बोध करानेमें सर्वथा समर्थ है।”


भृगु ऋषि का दुसरा तप

इस प्रकार पिताकी आज्ञा पाकर
भृगु ऋषि पुनः पहलेकी भाँति
तपोमय जीवन बिताते हुए
पितासे पहले सुने हुए उपदेशके अनुसार
ब्रह्मका स्वरूप निश्चय करनेके लिये विचार करते रहे।

भृगुने पिताके उपदेशानुसार
तपके द्वारा यह निश्चय किया कि
प्राण ही ब्रह्म है;

प्राण ही ब्रह्म है


प्राण ही ब्रह्म है

उन्होंने सोचा,
पिताजीद्वारा बताये हुए ब्रह्मके लक्षण
प्राणमें पूर्णतया पाये जाते हैं।

समस्त प्राणी प्राणसे उत्पन्न होते हैं,
अर्थात्‌ एक जीवित प्राणीसे
उसीके सदृश दूसरा प्राणी उत्पन्न होता हुआ
प्रत्यक्ष देखा जाता है;
तथा सभी प्राणसे ही जीते हैं।

यदि श्वासका आना-जाना बन्द हो जाय,
यदि प्राणद्वारा अन्न ग्रहण न किया जाय
तथा अन्नका रस समस्त शरीरमें न पहुँचाया जाय
तो कोई भी प्राणी जीवित नहीं रह सकता और
मरनेके बाद सब प्राणमें ही प्रविष्ट हो जाते हैं।

यह प्रत्यक्ष देखा जाता है कि
मृत शरीरमें प्राण नहीं रहते;
अतः निःसन्देह प्राण ही ब्रह्म है,
यह निश्चय करके वे पुनः अपने पिता वरुणके पास गये।

पहलेकी भाँति अपने निश्चयके अनुसार
उन्होंने पुनः पितासे अपना अनुभव निवेदन किया।

पिताने फिर भी कोई उत्तर नहीं दिया।


ब्रह्म प्राण नहीं, उससे सूक्ष्म है

उन्होंने सोचा कि
यह पहलेकी अपेक्षा तो कुछ सूक्ष्मतामें पहुँचा है;
परंतु अभी बहुत कुछ समझना शेष है;

अतः उत्तर न देनेसे
अपने-आप इसकी जिज्ञासामें बल आयेगा;

अतः उत्तर न देना ही ठीक है।

पिताजीसे अपनी बातका समर्थन न पाकर
भृगुने फिर उनसे प्रार्थना की –
“भगवन्‌! यदि अब भी मैंने ठीक न समझा हो
तो आप ही कृपा करके मुझे ब्रह्मका तत्त्व समझाइये।”


महर्षि भृगु का तीसरा तप

तब वरुणने पुनः वही बात कही –
“तू तपके द्वारा ब्रह्मको जाननेको चेष्टा कर;
यह तप ही ब्रह्म है,
अर्थात्‌ ब्रह्मके तत्त्वको जाननेका प्रधान साधन है।”

इस प्रकार पिताजीकी आज्ञा पाकर
भृगु ऋषि फिर उसी प्रकार तपस्या करते हुए
पिताके उपदेशपर विचार करते रहे।

मन ही ब्रह्म है


मन ही ब्रह्म है

इस बार भूगुने पिताके उपदेशानुसार
यह निश्चय किया कि
मन ही ब्रह्म है;

उन्होंने सोचा,
पिताजीके बताये हुए ब्रह्मके सारे लक्षण
मनमें पाये जाते हैं।

मनसे सब प्राणी उत्पन्न होते हैं –
स्त्री और पुरुषके मानसिक प्रेमपूर्ण सम्बन्धसे ही प्राणी
बीजरूपसे माताके गर्भमें आकर उत्पन्न होते हैं,
उत्पन्न होकर मनसे ही इन्द्रियोंद्वारा
समस्त जीवनोपयोगी वस्तुओंका उपभोग करके जीवित रहते हैं और
मरनेके बाद मनमें ही प्रविष्ट हो जाते हैं –
मरनेके बाद इस शरीरमें
प्राण और इन्द्रियाँ नहीं रहतीं,
इसलिये मन ही ब्रह्म है।

इस प्रकार निश्चय करके
वे पुनः पहलेकी भाँति
अपने पिता वरुणके पास गये और
उन्होंने अपने अनुभवकी बात
पिताजीको सुनायी।

इस बार भी पितासे
कोई उत्तर नहीं मिला।


ब्रह्म मन नहीं, उससे सूक्ष्म है

पिताने सोचा कि
यह पहलेकी अपेक्षा तो गहराईमें उतरा है,
परंतु अभी इसे और भी तपस्या करनी चाहिये;
अतः उत्तर न देना ही ठीक है।

पितासे अपनी बातका उत्तर न पाकर
भृगुने पुनः पहलेकी भाँति प्रार्थना की –
“भगवन्‌! यदि मैंने ठीक न समझा हो
तो कृपया आप ही मुझे ब्रह्मका तत्त्व समझाइये।”


भृगु ऋषि का चौथा तप

तब वरुणने पुनः वही उत्तर दिया –
“तू तपके द्वारा
ब्रह्मके तत्त्वको जाननेको इच्छा कर।

अर्थात्‌ तपस्या करते हुए
मेरे उपदेशपर पुनः विचार कर।

यह तपरूप साधन ही ब्रह्म है।

ब्रह्मको जाननेका इससे बढ़कर
दूसरा कोई उपाय नहीं है।”

इस प्रकार पिताकी आज्ञा पाकर
भृगुने पुनः पहलेकी भाँति संयमपूर्वक रहकर
पिताके उपदेशपर विचार किया।

विज्ञानस्वरूप चेतना ही ब्रह्म है


विज्ञानस्वरूप चेतना ही ब्रह्म है

इस बार भृगुने पिताके उपदेशानुसार
यह निश्चय किया कि
यह विज्ञानस्वरूप चेतन जीवात्मा ही ब्रह्म है;

उन्होंने सोचा –
पिताजीने जो ब्रह्मके लक्षण बताये थे,
वे सब-के-सब पूर्णतया इसमें पाये जाते हैं।

ये समस्त प्राणी जीवात्मासे ही उत्पन्न होते हैं,
सजीव चेतन प्राणियोंसे ही
प्राणियोंकी उत्पत्ति प्रत्यक्ष देखी जाती है।

उत्पन्न होकर
इस विज्ञानस्वरूप जीवात्मासे ही जीते हैं;

यदि जीवात्मा न रहे
तो ये मन, इन्द्रियाँ, प्राण आदि कोई भी नहीं रह सकते और
कोई भी अपना काम नहीं कर सकते
तथा मरनेके बाद
ये मन आदि सब जीवात्मामें ही प्रविष्ट हो जाते हैं –

जीवके निकल जानेपर
मृत शरीरमें ये सब देखनेमें नहीं आते।

अतः विज्ञानस्वरूप जीवात्मा ही ब्रह्म है।

यह निश्चय करके
वे पहलेकी भाँति अपने पिता वरुणके पास आये।

आकर उन्होंने अपने निश्चित अनुभवकी बात
पिताजीको सुनायी।

इस बार भी पिताजीने कोई उत्तर नहीं दिया।


ब्रह्म विज्ञानस्वरूप चेतना नहीं, उससे सूक्ष्म है

पिताने सोचा –
“इस बार यह बहुत कुछ ब्रह्मके निकट आ गया है,
इसका विचार स्थूल और सूक्ष्म दोनों प्रकारके जडतत्त्वोंसे ऊपर उठकर
चेतन जीवात्मातक तो पहुँच गया है।

परंतु ब्रह्मका स्वरूप तो इससे भी विलक्षण है,
वे तो नित्य आनन्दस्वरूप एक अद्वितीय परमात्मा हैं;

इसे अभी और तपस्या करनेकी आवश्यकता है,
अतः उत्तर न देना ही ठीक है।”


भृगु ऋषि का पांचवा तप

इस प्रकार बार- बार पिताजीसे कोई उत्तर न मिलनेपर भी
भृगु हतोत्साह या निराश नहीं हुए।

उन्होंने पहलेकी भाँति
पुनः पिताजीसे वही प्रार्थना की –
“भगवन्‌! यदि मैंने ठीक न समझा हो
तो आप मुझे ब्रह्मका रहस्य बतलाइये।”

तब वरुणने पुनः वही
उत्तर दिया –
“तू तपके द्वारा ही
ब्रह्मके तत्त्वको जाननेको इच्छा कर।

अर्थात्‌ तपस्यापूर्वक
उसका पूर्वकथनानुसार विचार कर।
तप ही ब्रह्म है।”

इस प्रकार पिताजीकी आज्ञा पाकर
भृगुने पुनः पहलेकी भाँति संयमपूर्वक रहते हुए
पिताके उपदेशपर विचार किया।

आनन्द ही ब्रह्म है – ब्रह्मविद्या


आनन्द ही ब्रह्म है – आनन्दस्वरूप परब्रह्म परमात्मा

इस बार भृगुने पिताके उपदेशपर
गहरा विचार करके यह निश्चय किया कि
आनन्द ही ब्रह्म है।

ये आनन्दमय परमात्मा ही
अन्नमय आदि सबके अन्तरात्मा हैं।

वे सब भी इन्हींके स्थूलरूप हैं।

इसी कारण उनमें ब्रह्मबुद्धि होती है और
ब्रह्मके आंशिक लक्षण पाये जाते हैं।

परंतु सर्वांशसे ब्रह्मके लक्षण आनन्दमें ही घटते हैं;
क्योंकि ये समस्त प्राणी
उन आनन्दस्वरूप परब्रह्म परमात्मासे ही
सृष्टिके आदिमें उत्पन्न होते हैं –
इन सबके आदि कारण तो वे ही हैं
तथा इन आनन्दमयके आनन्दका लेश पाकर ही
ये सब प्राणी जी रहे हैं –
कोई भी दुःखके साथ जीवित रहना नहीं चाहता।

इतना ही नहीं,
उन आनन्दमय सर्वान्तर्यामी परमात्माको
अचिन्त्यशक्तिको प्रेरणासे ही
इस जगत्‌के समस्त प्राणियोंकी सारी चेष्टाएँ हो रही हैं।

उनके शासनमें रहनेवाले सूर्य आदि
यदि अपना-अपना काम न करें
तो एक क्षण भी कोई प्राणी जीवित नहीं रह सकता।

सबके जीवनाधार
सचमुच वे आनन्दस्वरूप परमात्मा ही हैं
तथा प्रलयकालमें
समस्त प्राणियोंसे भरा हुआ यह ब्रह्माण्ड
उन्हींमें प्रविष्ट होता है –
उन्हींमें विलीन होता है,
वे ही सब प्रकारसे सदा-सर्वदा सबके आधार हैं।


ऋषि भृगु को परब्रह्मका यथार्थ ज्ञान

इस प्रकार अनुभव होते ही
भृगुको परब्रह्मका यथार्थ ज्ञान हो गया।

फिर उन्हें किसी प्रकारकी जिज्ञासा नहीं रही।

श्रुति स्वयं उस विद्याकी महिमा बतलानेके लिये कहती है –
वही यह वरुणद्वारा बतायी हुई और
भृगुको प्राप्त हुई ब्रह्मविद्या (ब्रह्मका रहस्य बतानेवाली विद्या) है।

यह विद्या
विशुद्ध आकाशस्वरूप
परब्रह्म परमात्मामें स्थित है।

वे ही इस विद्याके भी आधार हैं।

जो कोई मनुष्य भृगुकी भाँति
तपस्यापूर्वक इसपर विचार करके
परमानन्दस्वरूप परब्रह्म परमात्माको जान लेता है,
वह भी उन विशुद्ध परमानन्दस्वरूप
परमात्मामें स्थित हो जाता है।

इस प्रकार इस विद्याका वास्तविक फल बताकर
मनुष्योंको उस साधनकी ओर लगानेके लिये उपर्युक्त प्रकारसे
अन्न, प्राण आदि समस्त तत्त्वोंके रहस्य
विज्ञानपूर्वक ब्रह्मको जाननेवाले ज्ञानीके शरीर और
अन्तःकरणमें जो स्वाभाविक विलक्षण शक्तियाँ उत्पन्न हो जाती हैं,
उनको भी श्रुति बतलाती है।

वह अन्नवान्‌ अर्थात्‌ नाना प्रकारके जीवन-यात्रोपयोगी भोगोंसे सम्पन्न हो जाता है और
उन सबको सेवन करनेकी सामर्थ्य भी उसमें आ जाती है।

अर्थात्‌ उसके मन, इन्द्रियाँ और शरीर सर्वथा निर्विकार और नीरोग हो जाते हैं।

इतना ही नहीं, वह संतानसे, पशुओंसे,
ब्रह्मतेजसे और बड़ी भारी कीर्तिसे समृद्ध होकर
जगतमें सर्वश्रेष्ठ समझा जाता है।