अयि गिरिनन्दिनि अर्थसहित - महिषासुरमर्दिनी स्तोत्र अर्थ सहित


Durga Bhajan

अयि गिरिनन्दिनि अर्थसहित – महिषासुरमर्दिनी स्तोत्र अर्थ सहित

अयि गिरि-नन्दिनि नंदित-मेदिनि
विश्व-विनोदिनि नंदनुते
गिरिवर विंध्य शिरोधि-निवासिनि
विष्णु-विलासिनि जिष्णुनुते।

भगवति हे शितिकण्ठ-कुटुंबिनि
भूरि कुटुंबिनि भूरि कृते
जय जय हे महिषासुर-मर्दिनि
रम्य कपर्दिनि शैलसुते॥

अयि गिरिनन्दिनि – हे गिरिपुत्री,
नन्दितमेदिनि– पृथ्वी को आनंदित करने वाली,
विश्वविनोदिनि – संसार का मन मुदित रखने वाली,
नन्दिनुते – नंदी द्वारा नमस्कृत,

गिरिवरविन्ध्यशिरोsधिवासिनि – पर्वतप्रवर विंध्याचल के सबसे ऊंचे शिखर पर निवास करने वाली,
विष्णुविलासिनि – विष्णु को आनंद देने वाली,
जिष्णुनुते – इंद्रदेव द्वारा नमस्कृत

भगवति हे शितिकण्ठकुटुम्बिनि – नीलकंठ महादेव की गृहिणी,
भूरिकुटुम्बिनि – विशाल कुटुंब वाली,
भूरिकृते – विपुल मात्रा में निर्माण करने वाली देवी,

जय जय – तुम्हारी जय हो, जय हो।
हे महिषासुरमर्दिनि – हे महिषासुर का घात करने वाली,
रम्यकपर्दिनि शैलसुते – सुन्दर जटाधरी गिरिजा !


सुरवर-वर्षिणि दुर्धर-धर्षिणि
दुर्मुख-मर्षिणि हर्षरते
त्रिभुवन-पोषिणि शंकर-तोषिणि
किल्बिष-मोषिणि घोषरते।

दनुज निरोषिणि दितिसुत रोषिणि
दुर्मद शोषिणि सिन्धुसुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि
रम्य कपर्दिनि शैलसुते॥

सुरवरवर्षिणि – हे सुरों पर वरदानों का वर्षंण करने वाली,
दुर्धरधर्षिणि दुर्मुखमर्षिणि – दुर्मुख और दुर्धर नामक दैत्यों का संहार करने वाली,
हर्षरते – सदा हर्षित रहने वाली

त्रिभुवनपोषिणि – तीनों लोकों का पालन-पोषण करने वाली,
शंकरतोषिणि – शिवजी को प्रसन्न रखने वाली,
किल्बिषमोषिणि – कमियों को, दोषों को दूर करने वाली,
घोषरते – हे (नाना प्रकार के आयुधों के) घोष से प्रसन्न होने वालीं,

दनुजनिरोषिणि – दनुजों के रोष को निरोष करने वाली – निःशेष करने वाली, तात्पर्य यह कि दनुजों को ही समाप्त करके उनके रोष (क्रोध) को समाप्त करने वाली,
दितिसुतरोषिणि – दितिपुत्र अर्थात् दैत्यों (माता दिति के पुत्र होने से वे दैत्य कहलाये) पर रोष (क्रोध) करने वाली,
दुर्मदशोषिणि – दुर्मद दैत्यों को, यानि मदोन्मत्त दैत्यों को, भयभीत करके उन्हें सुखाने वाली,
सिन्धुसुते – हे सागर-पुत्री!

जय जय हे महिषासुरमर्दिनी – हे महिषासुर का घात करने वाली,
रम्यकपर्दिनि शैलसुते – सुन्दर जटाधरी गिरिजा! तुम्हारी जय हो, जय हो !


अयि जगदंब मदंब कदंब
वनप्रिय वासिनि हासरते
शिखरि शिरोमणि तुङ्ग हिमालय
श्रृंग निजालय मध्यगते।

मधु मधुरे मधु कैटभ गंजिनि
कैटभ भंजिनि रासरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि
रम्य कपर्दिनि शैलसुते॥

अयि जगदम्ब मदम्ब – हे जगन्माता, हे मेरी माता!
कदम्ब वनप्रियवासिनि – अपने प्रिय कदम्ब-वृक्ष के वनों में वास व विचरण करने वाली
हासरते – हे हासरते! हासरते अर्थात उल्लासमयी, हास-उल्लास में रत।

शिखरि शिरोमणि तुंगहिमालय श्रृंगनिजालय मध्यगते – ऊंचे हिमाद्रि के मुकुटमणि सदृश सर्वोच्च शिखर के बीचोबीच जिसका गृह (निवासस्थान) है, ऐसी हे शिखर-मंदिर में रहने वाली देवी !

मधुमधुरे – मधु के समान मधुर!
मधुकैटभगंजिनि – मधु-कैटभ को पराभूत करने वाली,
कैटभभंजिनि – कैटभ का संहार करने वाली,
रासरते – कोलाहल में रत रहने वाली,

जय जय हे महिषासुरमर्दिनी रम्यकपर्दिनि शैलसुते – हे महिषासुरमर्दिनि, हे सुकेशिनी, हे नगेश-नंदिनी ! तुम्हारी जय हो, जय हो !


अयि शतखण्ड विखण्डित रुण्ड
वितुण्डित शुण्ड गजाधिपते
रिपु गज गण्ड विदारण चण्ड
पराक्रम शुण्ड मृगाधिपते।

निज भुज दण्ड निपातित
खण्ड विपातित मुण्ड भटाधिपते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि
रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥

अयि शतखणड विखण्डित रुण्ड वितुण्डित शुण्ड गजाधिपते –
शत्रु सैन्य के उत्तम हाथियों की सूंड काट कर उनके खंड-खंड हुए धड़ों के सौ सौ टुकड़े कर डालने वाली

रिपुगजगण्ड विदारणचण्ड पराक्रमशुण्ड मृगाधिपते –
जिनका सिंह शत्रुओं के हाथियों के मुंह नोच कर चीर डालता है,

निजभुजदण्ड निपातितखण्ड विपातितमुण्ड भटाधिपते –
अपनी भुजा में उठाये हुए दण्ड से शत्रुपक्ष के योद्धाओं के मुंड (सिर) काट फेंकने वाली,

जय जय हे महिषासुरमर्दिनी रम्यकपर्दिनि शैलसुते –
हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !


अयि रण दुर्मद शत्रु वधोदित
दुर्धर निर्जर शक्तिभृते
चतुर विचार धुरीण महाशिव
दूतकृत प्रमथाधिपते।

दुरित दुरीह दुराशय दुर्मति
दानव दूत कृतांतमते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि
रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥

अयि रण दुर्मद शत्रु वधोदित दुर्धर निर्जर शक्तिभृते –
हे युद्ध में उन्मत्त हो जाने वाली, शत्रुओं का वध करने के लिए आविर्भूत होने वाली, शक्ति को धारण करने वाली या शक्ति से सज्जित,

चतुर विचार धुरीण महाशिव दूतकृत प्रमथाधिपते –
बुद्धिमानों में अग्रणी भगवान शिव को, भूतनाथ को, दूत बना कर भेजने वाली तथा

दुरित दुरीह दुराशय दुर्मति दानव दूत कृतान्तमते –
अधम वासना व कुत्सित उद्देश्य से दैत्यराज शुम्भ द्वारा भेजें गये दानव-दूतों का अंत करने वाली,

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते –
हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा! तुम्हारी जय हो, जय हो !


अयि शरणागत वैरि वधूवर
वीर वराभय दायकरे
त्रिभुवन मस्तक शूल विरोधि
शिरोधि कृतामल शूलकरे।

दुमिदुमि तामर दुंदुभिनाद
महो मुखरीकृत तिग्मकरे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि
रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥

अयि शरणागत वैरिवधुवर वीरवराभय दायकरे –
शरणापन्न शत्रुपत्नियों के योद्धा-पतियों को अभय प्रदान करने वाली,

त्रिभुवनमस्तक शूलविरोधि शिरोऽधिकृतामल शूलकरे –
अपने त्रिशूल-विरोधी को, चाहे हे वह त्रिभुवन का स्वामी हो, अपने त्रिशूल से नतमस्तक करने वाली,

दुमिदुमितामर दुन्दुभिनादमहोमुखरीकृत दिङ्मकरे –
दुन्दुभि से उठते दुमि-दुमि के ताल के लगातार बहते ध्वनि-प्रवाह से दिशाओं को महान रव से भरने वाली,

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते –
हे महिषासुर का घात करने वाली, हे सुन्दर जटाधरी गिरिनन्दिनि तुम्हारी जय हो, जय हो !


अयि निज हुँकृति मात्र निराकृत
धूम्र विलोचन धूम्र शते
समर विशोषित शोणित बीज
समुद्भव शोणित बीज लते।

शिव शिव शुंभ निशुंभ
महाहव तर्पित भूत पिशाचरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि
रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥

अयि निजहुङ्कृति मात्रनिराकृत धूम्रविलोचन धूम्रशते –
अपनी केवल हुंकार मात्र से धूम्रविलोचन (एक दैत्य का नाम) को आकारहीन करके सौ सौ धुंए के कणों में बदल कर रख देने वाली,

समरविशोषित शोणितबीज समुद्भवशोणित बीजलते –
युद्ध में रक्तबीज (एक दैत्य का नाम) और उसके रक्त की बूँद-बूँद से पैदा होते हुए और बीजों की बेल सदृश दिखने वाले अन्य अनेक रक्तबीजों का संहार करने वाली,

शिवशिवशुम्भ निशुम्भमहाहव तर्पितभूत पिशाचरते –
शुम्भ-निशुम्भ दैत्यों की शुभ आहुति देकर महाहवन करते हुए भूत-पिशाच आदि को तृप्त करने वाली देवी,

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते –
हे महिषासुर का घात करने वाली, हे सुन्दर जटाधरी गिरिजा, तुम्हारी जय हो, जय हो !


धनुरनु संग रणक्षणसंग
परिस्फुर दंग नटत्कटके
कनक पिशंग पृषत्क निषंग
रसद्भट शृंग हतावटुके।

कृत चतुरंग बलक्षिति रंग
घटब्दहुरंग रटब्दटुके
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि
रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥

धनुरनुषङ्ग रणक्षणसङ्ग परिस्फुरदङ्ग नटत्कटके –
रणभूमि में, युद्ध के क्षणों में, धनुष थामे हुए जिनके घूमते हुए हाथों की गति-दिशा के अनुरूप जिनके कंकण हाथ में नर्तन करने लगते हैं, ऐसी हे देवी!

कनकपिशंग पृषत्कनिषंग रसद्भटश्रृंग हताबटुके –
रण में गर्जना करते शत्रु योद्धाओं की देहों के साथ मिलाप होने से और उन हतबुद्धि (मूर्खों) को मार देने पर, जिनके स्वर्णिम बाण (दैत्यों के लहू से) लाल हो उठते हैं, ऐसी हे देवी तथा

कृतचतुरंग बलक्षितिरंग घटद्बहुरंग रटद्बटुके –
स्वयं को घेरे खड़ी, बहुरंगी शिरों वाली और गरजते हुए शत्रुओं की चतुरंगिणी सेना को नष्ट कर जिन्होंने विनाश-लीला मचा दी,

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते –
ऐसी हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !


जय जय जप्य जयेजय शब्द
परस्तुति तत्पर विश्वनुते
झण झण झिञ्जिमि झिंगकृत नूपुर
सिंजित मोहित भूतपते।

नटित नटार्ध नटी नट नायक
नाटित नाट्य सुगानरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि
रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥

जय जय जप्य जयेजयशब्द परस्तुति तत्परविश्वनुते –
जय जय की हर्षध्वनि और जयघोष से देवी की स्तुति करने में तत्पर है रहने वाले अखिल विश्व द्वारा वन्दिता,

झणझणझिंझिमि झिंकृत नूपुरशिंजितमोहित भूतपते –
झन-झन झनकते नूपुरों की ध्वनि से (रुनझुन से) भूतनाथ महेश्वर को मुग्ध कर देने वाली देवी, और

नटित नटार्ध नटी नट नायक नाटितनाट्य सुगानरते –
जहाँ नट-नटी दोनों प्रमुख होते हैं, ऐसी नृत्यनाटिका में नटेश्वर (शिव) के अर्धभाग के रूप में नृत्य करने वाली एवं सुमधुर गान में रत,

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते –
हे महिषासुर का घात करने वाली देवी, हे सुन्दर जटाधरी गिरिजा, तुम्हारी जय हो, जय हो !


अयि सुमनः सुमनः सुमनः
सुमनः सुमनोहर कांतियुते
श्रितरजनी रजनी-रजनी
रजनी-रजनी कर वक्त्रवृते।

सुनयन विभ्रमर भ्रमर
भ्रमर-भ्रमर भ्रमराधिपते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि
रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥

अयि सुमनःसुमनःसुमनः सुमनःसुमनोहरकान्तियुते –
सुन्दर मनोहर कांतिमय रूप के साथ साथ सुन्दर मन से संयुत और

श्रितरजनी रजनीरजनी रजनीरजनी करवक्त्रवृते –
रात्रि के आश्रय अर्थात् चन्द्रमा जैसी उज्जवल मुख-मंडल की आभा से युक्त हे देवी,

सुनयनविभ्रमर भ्रमरभ्रमर भ्रमरभ्रमराधिपते –
काले, मतवाले भंवरों के सदृश, अपितु उनसे भी अधिक गहरे काले और मतवाले-मनोरम तथा चंचल नेत्रों वाली,

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते –
हे महिषासुर का घात करने वाली देवी, हे सुन्दर जटाधरी गिरिजा, तुम्हारी जय हो, जय हो।


सहित महाहव मल्लम तल्लिक
मल्लित रल्लक मल्लरते
विरचित वल्लिक पल्लिक मल्लिक
भिल्लिक भिल्लिक वर्ग वृते।

सितकृत पुल्लिसमुल्ल सितारुण
तल्लज पल्लव सल्ललिते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि
रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥

सहितमहाहव मल्लमतल्लिक मल्लितरल्लक मल्लरते –
एक विशाल रूप से आयोजित महासत्र (महायज्ञ) की भांति ही रहे घोर युद्ध में, फूल-सी कोमल किन्तु रण-कुशल साहसी स्त्री-योद्धाओं सहित जो संग्राम में रत हैं और

विरचितवल्लिक पल्लिकमल्लिक झिल्लिकभिल्लिक वर्गवृते –
भील स्त्रियों ने झींगुरों के झुण्ड की भांति जिन्हें घेर रखा है, जो उत्साह और उल्लास से भरी हुई हैं और

शितकृतफुल्ल समुल्लसितारुण तल्लजपल्लव सल्ललिते –
जिनके उल्लास की लालिमा से (प्रभातकालीन अरुणिमा की भांति) अतीव सुन्दर-सुकोमल कलियां पूरी तरह खिल खिल उठती हैं, ऐसी हे लावण्यमयी देवी,

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते –
हे महिषासुर का घात करने वाली, हे सुन्दर जटाधरी गिरिजा, तुम्हारी जय हो, जय हो !


अविरल गण्ड गलन्मद
मेदुर मत्त मतङ्गज राजपते
त्रिभुवन भूषण भूत कलानिधि
रूप पयोनिधि राजसुते।

अयि सुद तीजन लालसमानस
मोहन मन्मथ राजसुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि
रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥

अविरलगण्ड गलन्मदमेदुर मत्तमतङ्ग जराजपते –
कर्ण-प्रदेश या कनपटी से सतत झरते हुए गाढ़े मद की मादकता से मदोन्मत्त हुए हाथी-सी (उत्तेजित), हे गजेश्वरी,

त्रिभुवनभुषण भूतकलानिधि रूपपयोनिधि राजसुते –
हे त्रिलोक की भूषण यानि शोभा, सभी भूत यानि प्राणियों, चाहे वे दिव्य हों या मानव या दानव, की कला का आशय, रूप-सौंदर्य का सागर, हे (पर्वत) राजपुत्री,

अयि सुदतीजन लालसमानस मोहन मन्मथराजसुते –
हे सुन्दर दन्तपंक्ति वाली, सुंदरियों को पाने के लिए मन में लालसा और अभिलाषा उपजाने वाली तथा कामना जगाने वाली, मन को मथने वाले हे कामदेव की पुत्री (के समान),

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते –
हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा! तुम्हारी जय हो, जय हो !


कमल दलामल कोमल कांति
कलाकलितामल भाललते
सकल विलास कलानिलयक्रम
केलि चलत्कल हंस कुले।

अलिकुल सङ्कुल कुवलय मण्डल
मौलिमिलद्भकुलालि कुले
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि
रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥

कमलदलामल कोमलकान्ति कलाकलितामल भाललते –
कमल के फूल की निर्मल पंखुड़ी की सुकुमार, उज्जवल आभा से सुशोभित (कान्तिमती) है भाल-लता जिनकी, ऐसी हे देवी,

सकलविलास कलानिलयक्रम केलिचलत्कल हंसकुले –
जिनकी ललित चेष्टाओं में, पग-संचरण, में कला-विन्यास है, जो कला का आवास है, जिनकी चाल-ढाल में राजहंसों की सी सौम्य गरिमा है,

अलिकुलसंकुल कुवलयमण्डल मौलिमिलद्बकुलालिकुले –
जिनकी वेणी में, भ्रमरावली से आवृत कुमुदिनी के फूल और बकुल के भंवरों से घिरे फूल एक साथ गुम्फित हैं,

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते –
ऐसी हे महिषासुर का घात करने वाली, सुन्दर जटाधरी, हे गिरिराज पुत्री, तुम्हारी जय हो, जय हो !


कर मुरली रव वीजित कूजित
लज्जित कोकिल मंजुमते
मिलित पुलिन्द मनोहर गुंजित
रंजितशैल निकुंज गते।

निजगुण भूत महाशबरीगण
सदगुण संभृत केलितले
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि
रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥

करमुरलीरव वीजितकूजित लज्जितकोकिल मञ्जुमते –
जिनकी करगत मुरली से निकल कर बहते स्वर से कोकिल-कूजन लज्जित हो जाता है, ऐसी हे माधुर्यमयी तथा

मिलितपुलिन्द मनोहरगुंजित रंजितशैल निकुंजगते –
जो पर्वतीय जनों द्वारा मिल कर गाये जाने वाले, मिठास भरे, गीतों से गुंजित रंगीन पहाड़ी निकुंजों में विचरण करती हैं, वे और

निजगणभूत महाशबरीगण सद्गुणसम्भृत केलितले –
अपने सद्गुणसम्पन्न गणों व वन्य प्रदेश में रहने वाले, शबरी आदि जाति के लोगों के साथ जो पहाड़ी वनों में क्रीड़ा (आमोद-प्रमोद) करती हैं,

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते –
ऐसी हे महिषासुर का घात करने वाली, सुंदर जटाधरी गिरिजा, तुम्हारी जय हो, जय हो !


कटितट पीत दुकूल विचित्र
मयूखतिरस्कृत चंद्र रुचे
प्रणत सुरासुर मौलिमणिस्फुर
दंशुल सन्नख चंद्र रुचे।

जित कनकाचल मौलिपदोर्जित
निर्भर कुंजर कुंभकुचे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि
रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥

कटितटपीत दुकूलविचित्र मयूखतिरस्कृत चन्द्ररुचे –
जिन रेशमी वस्त्रों से फूटती किरणों के आगे चन्द्रमा की ज्योति कुछ भी नहीं है, ऐसे दुकूल (रेशमी परिधान) से जिनका कटि-प्रदेश आवृत है और

प्रणतसुरासुर मौलिमणिस्फुर दंशुलसन्नख चन्द्ररुचे –
जिनके पद-नख चन्द्र-से चमक रहे हैं उस प्रकाश से, जो देवताओं तथा असुरों के मुकुटमणियों से निकलता है, जब वे देवी-चरणों में नमन करने के लिए शीश झुकाते हैं

जितकनकाचल मौलिमदोर्जित निर्भरकुञ्जर कुम्भकुचे –
साथ ही जैसे कोई गज (हाथी) सुमेरु पर्वत पर विजय पा कर उत्कट मद (घमंड) से अपना सिर ऊंचा उठाये हो, ऐसे देवी के कुम्भ-से (कलश-से) उन्नत उरोज प्रतीत होते हैं,

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते –
ऐसी हे देवी, हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो!


विजित सहस्रकरैक सहस्रकरैक
सहस्रकरैकनुते
कृत सुरतारक संगरतारक
संगरतारक सूनुसुते।

सुरथ समाधि समान समाधि
समाधि समाधि सुजातरते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि
रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥

विजितसहस्रकरैक सहस्रकरैक सहस्रकरैकनुते –
अपने सहस्र हाथो से देवी ने जिन सहस्र हाथों को अर्थात् सहसों दानवों को विजित किया उनके द्वारा और (देवताओं के) सहस्र हाथों द्वारा वन्दित,

कृतसुरतारक संगतारक संगतारक सूनुसुते –
अपने पुत्र को सुरगणों का तारक (बचाने वाला) बनानेवाली, तारकासुर के साथ युद्ध में,(देवताओं के पक्ष में) युद्ध बचाने वाले पुत्र से पुत्रवती अथवा ऐसे पुत्र की माता एवं

सुरथसमाधि समानसमाधि समाधिसमाधि सुजातरते –
उच्चकुलोत्पन्न सुरथ और समाधि द्वारा समान रूप से की हुई तपस्या से प्रसन्न होने वाली देवी,

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते –
हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !


पदकमलं करुणानिलये वरिवस्यति
योऽनुदिनं स शिवे
अयि कमले कमलानिलये
कमलानिलयः स कथं न भवेत्।

तव पदमेव परंपदमित्यनुशीलयतो
मम किं न शिवे
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि
रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥

पदकमलं करुणानिलये वरिवस्यति योऽनुदिनं सुशिवे –
हे सुमंगला, तुम्हारे करुणा के धाम सदृश (के जैसे) चरण-कमल की पूजा जो प्रतिदिन करता है,

अयि कमले कमलानिलये कमलानिलयः स कथं न भवेत् –
हे कमलवासिनी, वह कमलानिवास (श्रीमंत) कैसे न बने? अर्थात कमलवासिनी की पूजा करने वाला स्वयं कमलानिवास अर्थात धनाढ्य बन जाता है।

तव पदमेव परम्पदमित्यनुशीलयतो मम किं न शिवे –
तुम्हारे पद ही (केवल) परमपद हैं, ऐसी धारणा के साथ उनका ध्यान करते हुए हे शिवे ! मैं परम पद कैसे न पाउँगा ?

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते –
हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !


कनकल सत्कल सिन्धु जलैरनु
सिंचिनुते गुण रंगभुवम
भजति स किं न शचीकुच कुंभ
तटी परिरंभ सुखानुभवम्।

तव चरणं शरणं करवाणि
नतामरवाणि निवासि शिवं
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि
रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥

कनकल सत्कल सिन्धु जलैरनु सिंचिनुते गुण रंगभुवम –
स्वर्ण-से चमकते व नदी के बहते मीठे जल से जो तुम्हारे कला और रंग-भवन रुपी मंदिर मे छिड़काव करता है

भजति स किं न शचीकुच कुंभ तटी परिरंभ सुखानुभवम् –
वह क्यों न शची (इन्द्राणी) के कुम्भ-से उन्नत वक्षस्थल से आलिंगित होने वाले (देवराज इंद्र) की सी सुखानुभूति पायेगा?

तव चरणं शरणं करवाणि नतामरवाणि निवासि शिवम –
हे वागीश्वरी, तुम्हारे चरण-कमलों की शरण ग्रहण करता हूँ, देवताओं द्वारा वन्दित हे महासरस्वती, तुममें मांगल्य का निवास है।

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते –
ऐसी हे देवी, हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !


तव विमलेन्दुकुलं वदनेन्दुमलं
सकलं ननु कूलयते
किमु पुरुहूत पुरीन्दुमुखी
सुमुखीभिरसौ विमुखीक्रियते।

मम तु मतं शिवनामधने
भवती कृपया किमुत क्रियते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि
रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥

तव विमलेन्दुकुलं वदनेन्दुमलं सकलं ननु कूलयते –
तुम्हारा मुख-चन्द्र, जो निर्मल चंदमा का सदन है, सचमुच ही सभी मल-कल्मष को किनारे पर कर देता है अर्थात् दूर कर देता करता है।

किमु पुरुहूतपुरीन्दु मुखी सुमुखीभिरसौ विमुखीक्रियते –
इन्द्रपुरी की चंद्रमुखी हो या सुन्दर आनन वाली रूपसी, वह (तुम्हारा मुख-चन्द्र) उससे (अवश्य) विमुख कर देता है।

मम तु मतं शिवनामधने भवती कृपया किमुत क्रियते –
हे शिवनाम के धन से धनाढ्या देवी, मेरा तो मत यह है कि आपकी कृपा से क्या कुछ संपन्न नहीं हो सकता।

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते –
हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !


अयि मयि दीनदयालुतया
कृपयैव त्वया भवितव्यमुमे
अयि जगतो जननी कृपयासि
यथासि तथानुमितासिरते।

यदुचितमत्र भवत्युररि
कुरुतादुरुतापमपा कुरुते
जय जय हे महिषासुरमर्दिनि
रम्यकपर्दिनि शैलसुते॥

अयि मयि दीन दयालुतया कृपयैव त्वया भवितव्यमुमे –
दीनों पर सदैव दयालु रहने वाली हे उमा, अब मुझ पर भी कृपा कर ही दो, (मुझ पर भी तुम्हें कृपा करनी ही होगी)।

अयि जगतो जननी कृपयासि यथासि तथानुमितासिरते –
हे जगत की जननी जैसे तुम कृपा से युक्त हो वैसे ही धनुष-बाण से भी युत हो, अर्थात् स्नेह व संहार दोनों करती हो।

यदुचितमत्र भवत्युररीकुरुतादुरुतापमपाकुरुते –
जो कुछ भी उचित हो यहाँ, वही आप कीजिए, हमारे ताप (और पाप) दूर कीजिए, अर्थात् नष्ट कीजिए।

जय जय हे महिषासुरमर्दिनि रम्यकपर्दिनि शैलसुते –
हे महिषासुर का घात करने वाली सुन्दर जटाधरी गिरिजा ! तुम्हारी जय हो, जय हो !

Durga Bhajans

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