Sunderkand – 13


Sunderkand – 13

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रावण और मंदोदरी का संवाद

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

श्रवन सुनी सठ ता करि बानी।
बिहसा जगत बिदित अभिमानी॥
सभय सुभाउ नारि कर साचा।
मंगल महुँ भय मन अति काचा॥
कवि कहता है कि वो शठ मन्दोदरीकी यह वाणी सुनकर हँसा, क्योंकि उसके अभिमानकौ तमाम संसार जानता है॥
और बोला कि जगत्‌में जो यह बात कही जाती है कि स्त्रीका स्वभाव डरपोक होता है सो यह बात सच्ची है। और इसीसे तेरा मन मंगलकी बातमें अमंगल समझता है॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
जौं आवइ मर्कट कटकाई।
जिअहिं बिचारे निसिचर खाई॥
कंपहिं लोकप जाकीं त्रासा।
तासु नारि सभीत बड़ि हासा॥
रावण बोला, अब वानरोकी सेना यहां आवेगी तो क्या बिचारी वह जीती रह सकेगी, क्योंकि राक्षस उसको आते ही खा जायेंगे॥
जिसकी त्रासके मारे लोकपाल कांपते है उसकी स्त्रीका भय होना यह तो एक बड़ी हँसीकी बात है॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
अस कहि बिहसि ताहि उर लाई।
चलेउ सभाँ ममता अधिकाई॥
मंदोदरी हृदयँ कर चिंता।
भयउ कंत पर बिधि बिपरीता॥
वह दुष्ट मंदोदारीको ऐसे कह, उसको छातीमें लगाकर मनमें बड़ी ममता रखता हुआ सभामें गया॥
परन्नु मन्दोदरीने उस वक़्त समझ लिया कि अब इस कान्तपर दैव प्रतिकूल होगया है॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
बैठेउ सभाँ खबरि असि पाई।
सिंधु पार सेना सब आई॥
बूझेसि सचिव उचित मत कहहू।
ते सब हँसे मष्ट करि रहहू॥
रावण सभामे जाकर बैठा। वहां ऐसी खबर आयी कि सब सेना समुद्र के उस पार आ गयी है॥
तब रावणने सब मंत्रियोंसे पूँछा की तुम अपना अपना जो योग्य मत हो वह कहो। तब वे सब मंत्री हँसे और चुप लगा कर रह गए (इसमें सलाह की कौन-सी बात है?)॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
जितेहु सुरासुर तब श्रम नाहीं।
नर बानर केहि लेखे माहीं॥
फिर बोले की हे नाथ! जब आपने देवता और दैत्योंको जीता उसमें भी आपको श्रम नही हुआ तो मनुष्य और वानर तो कौन गिनती है॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास ॥37॥
जो मंत्री भय वा लोभसे राजाको सुहाती बात कहता है, तो उसके राजका तुरंत नाश हो जाता है, और जो वैद्य रोगीको सुहाती बात कहता है तो रोगीका वेगही नाश हो जाता है, तथा गुरु जो शिष्यके सुहाती बात कहता है, उसके धर्मका शीघ्रही नाश हो जाता है ॥37॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

विभीषण का रावण को समझाना

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

सोइ रावन कहुँ बनी सहाई।
अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई॥
अवसर जानि बिभीषनु आवा।
भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा॥
सो रावणके यहां वैसीही सहाय बन गयी अर्थात् सब मंत्री सुना सुना कर रावणकी स्तुति करने लगे॥
उस अवसरको जानकर विभीषण वहां आया और बड़े भाईके चरणों में उसने सिर नवाया॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
पुनि सिरु नाइ बैठ निज आसन।
बोला बचन पाइ अनुसासन॥
जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता।
मति अनुरूप कहउँ हित ताता॥
फिर प्रणाम करके वह अपने आसनपर जा बैठा॥
और रावणकी आज्ञा पाकर यह वचन बोला, हे कृपालु! आप मुझसे जो बात पूछते हो सो हे तात! मैं भी मेरी बुद्धिके अनुसार कहूंगा॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
जो आपन चाहै कल्याना।
सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना॥
सो परनारि लिलार गोसाईं।
तजउ चउथि के चंद कि नाईं॥
हे तात! जो आप अपना कल्याण, सुयश, सुमति, शुभ-गति, और नाना प्रकारका सुख चाहते हो॥
तब तो हे स्वामी! परस्त्रीके लिलारका (ललाट को) चौथके चांदकी नाई (तरह) त्याग दो (जैसे लोग चौथ के चंद्रमा को नहीं देखते, उसी प्रकार परस्त्री का मुख ही न देखे)॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
चौदह भुवन एक पति होई।
भूतद्रोह तिष्टइ नहिं सोई॥
गुन सागर नागर नर जोऊ।
अलप लोभ भल कहइ न कोऊ॥
चाहो कोई एकही आदमी चौदहा लोकोंका पति हो जावे परंतु जो प्राणीमात्रसे द्रोह रखता है वह स्थिर नहीं रहता अर्थात् तुरंत नष्ट हो जाता हैँ॥
जो आदमी गुणोंका सागर और चतुर है परंतु वह यदि थोड़ा भी लोभ कर जाय तो उसे कोई भी अच्छा नहीं कहता॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत ॥38॥
हे नाथ! ये सद्ग्रन्थ अर्थात् वेद आदि शास्त्र ऐसे कहते हैं कि काम, कोध, मद और लोभ ये सब नरक के मार्ग हैं, इस वास्ते इन्हें छोड़कर रामचन्द्रजीके चरणोंकी सेवा करो ॥38॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

रावण को विभीषण का समझाना

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

तात राम नहिं नर भूपाला।
भुवनेस्वर कालहु कर काला॥
ब्रह्म अनामय अज भगवंता।
ब्यापक अजित अनादि अनंता॥
हे तात! राम मनुष्य और राजा नहीं हैं, किंतु वे साक्षात त्रिलोकीनाथ और कालके भी काल है॥
जो साक्षात् परब्रह्म, निर्विकार, अजन्मा, सर्वव्यापक, अजेय, आदि और अनंत ब्रह्म है॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
गो द्विज धेनु देव हितकारी।
कृपा सिंधु मानुष तनुधारी॥
जन रंजन भंजन खल ब्राता।
बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता॥
वे कृपासिंधु गौ, ब्राह्मण, देवता और पृथ्वीका हित करनेके लिये, दुष्टोके दलका संहार करनेके लिये, वेद और धर्मकी रक्षा करनेके लिये प्रकट हुए हे॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
ताहि बयरु तजि नाइअ माथा।
प्रनतारति भंजन रघुनाथा॥
देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही।
भजहु राम बिनु हेतु सनेही॥
सो शरणगतोंके संकट मिटानेवाले उन रामचन्द्रजीको वैर छोड़कर प्रणाम करो॥
हे नाथ! रामचन्द्रजी को सीता दे दीजिए और कामना छोडकर स्नेह रखनेवाले रामका भजन करो॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा।
बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा॥
जासु नाम त्रय ताप नसावन।
सोइ प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन॥
हे नाथ! वे शरण जानेपर ऐसे अधर्मीको भी नहीं त्यागते कि जिसको विश्वद्रोह करनेका पाप लगा हो॥
हे रावण! आप अपने मनमें निश्चय समझो कि जिनका नाम लेनेसे तीनों प्रकारके ताप निवृत्त हो जाते हैं वेही प्रभु आज पृथ्वीपर प्रकट हुए हैं॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

बार बार पद लागउँ बिनय करउँ दससीस।
परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस ॥39(क)॥
हे रावण! मैं आपके वारंवार पावों में पड़कर विनती करता हूँ, सो मेरी विनती सुनकर आप मान, मोह, और मदको छोड़ श्री रामचन्द्रजी की सेवा करो ॥39(क)॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात।
तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरु तात ॥39(ख)॥
पुलस्त्यऋषीने अपने शिष्यको भेजकर यह बात कहला भेजी थी सो अवसर पाकर यह बात हे रावण! मैंने आपसे कही है ॥39(ख)॥

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विभीषण और माल्यावान का रावण को समझाना

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

माल्यवंत अति सचिव सयाना।
तासु बचन सुनि अति सुख माना॥
तात अनुज तव नीति बिभूषन।
सो उर धरहु जो कहत बिभीषन॥
वहां माल्यावान नाम एक सुबुद्धि मंत्री बैठा हुआ था. वह विभीषणके वचन सुनकर. अतिप्रसन्न हुआ ॥
और उसने रावणसे कहा कि तात ‘आपका छोटा भाई बड़ा नीति जाननेवाला हैँ इस वास्ते बिभीषण जो बात कहता है, उसी बातको आप अपने मनमें धारण करो॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ।
दूरि न करहु इहाँ हइ कोऊ॥
माल्यवंत गह गयउ बहोरी।
कहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी॥
माल्यवान्‌की यह बात सुनकर रावणने कहा कि हे राक्षसो! ये दोनों नीच शत्रुकी बड़ाई करते हैं, तुममेंसे कोई भी उनको यहां से निकाल नहीं देते, यह क्या बात है॥
तब माल्यवान् तो उठकर अपने घरको चला गया. और बिभीषणने हाथ जोड़कर फिर कहा॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
सुमति कुमति सब कें उर रहहीं।
नाथ पुरान निगम अस कहहीं॥
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना।
जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना॥
कि हे नाथ! वेद और पुरानोमें ऐसा कहा है कि सुबुद्धि और कुबुद्धि सबके मनमें रहती है। जहा सुमति है, वहा संपदा है. आर जहा कुबुद्धि है वहां विपत्ति॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
तव उर कुमति बसी बिपरीता।
हित अनहित मानहु रिपु प्रीता॥
कालराति निसिचर कुल केरी।
तेहि सीता पर प्रीति घनेरी॥
हे रावण! आपके हृदयमें कुबुद्धि आ बसी है, इसीसे आप हित और अनहितको. विपरीत मानते हो की जिससे शत्रुको प्रीति होती है॥
जो राक्षसोंके कुलकी कालरात्रि है, उस सीतापर आपकी बहुत प्रीति हैं यह कुबुद्धि नहीं तो और क्या हे॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार।
सीता देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हार ॥40॥
हे तात में चरण पकडकर आपसे प्रार्थना करता हूं सो मेरी प्रार्थना अंगीकार करो। आप सीता रामचंद्रजीको दे दो, जिससे आपका बहुत भला होगा ॥40॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

विभीषण का अपमान

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

बुध पुरान श्रुति संमत बानी।
कही बिभीषन नीति बखानी॥
सुनत दसानन उठा रिसाई।
खल तोहि निकट मृत्यु अब आई॥
सयाने बिभीषणने नीतिको कहकर वेद और पुराणके संमत वाणी कही॥
जिसको सुनकर रावण गुस्सा होकर उठ खड़ा हुआ और बोला कि हे दुष्ट! तेरी मृत्यु निकट आ गयी दीखती है॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
जिअसि सदा सठ मोर जिआवा।
रिपु कर पच्छ मूढ़ तोहि भावा॥
कहसि न खल अस को जग माहीं।
भुज बल जाहि जिता मैं नाहीं॥
हे नीच! सदा तू जीविका तो मेरी पाता है और शत्रुका पक्ष सदा अच्छा लगता है॥
हे दुष्ट! तू यह नही कहता कि जिसको हमने अपने भुजबलसे नहीं जीता ऐसा जगत्‌में कौन है? ॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती।
सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती॥
अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा।
अनुज गहे पद बारहिं बारा॥
हे शठ मेरी नगरीमें रहकर जो तू तपस्वीसे प्रीति करता है तो हे नीच! उससे जा मिल और उसीसे नीतिका उपदेश कर॥
ऐसे कहकर रावणने लातका प्रहार किया, परंतु बिभीषणने तो इतने परभी वारंत्रार पैर ही पकड़े॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
उमा संत कइ इहइ बड़ाई।
मंद करत जो करइ भलाई॥
तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा।
रामु भजें हित नाथ तुम्हारा॥
शिवजी कहते हैं, है पार्वती! सत्पुरुषोंकी यही बड़ाई है कि बुरा करनेवालों की भलाई ही सोचते है और करते हैं॥
विभीषण ने कहा, हे रावण! आप मेरे पिताके बराबर हो इस वास्ते आपने जो मुझको मारा वह ठीक ही है, परंतु आपका भला तो रामचन्द्रजीके भजन से ही होगा॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
सचिव संग लै नभ पथ गयऊ।
सबहि सुनाइ कहत अस भयऊ॥
ऐसे कहकर बिभीषण अपने मंत्रियोंको संग लेकर आकाशमार्ग गया और जाते समय सबको सुनाकर ऐसे कहता गया॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

रामु सत्यसंकल्प प्रभु सभा कालबस तोरि।
मैं रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जनि खोरि ॥41॥
कि हे प्रभु! रामचन्द्रजी सत्यप्रतिज्ञ है और तेरी सभा कालके आधीन है। और में अब रामचन्द्रजीके शरण जाता हूँ सो मुझको अपराध मत लगाना ॥41॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

विभीषण का प्रभु श्रीरामकी शरण के लिए प्रस्थान

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

अस कहि चला बिभीषनु जबहीं।
आयूहीन भए सब तबहीं॥
साधु अवग्या तुरत भवानी।
कर कल्यान अखिल कै हानी॥
जिस वक़्त विभीषण ऐसे कहकर लंकासे चले उसी समय तमाम राक्षस आयुहीन हो गये॥
महादेवजीने कहा कि हे पार्वती! साधू पुरुषोकी अवज्ञा करनी ऐसी ही बुरी है कि वह तुरंत तमाम कल्याणको नाश कर देती है॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
रावन जबहिं बिभीषन त्यागा।
भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा॥
चलेउ हरषि रघुनायक पाहीं।
करत मनोरथ बहु मन माहीं॥
रावणने जिस समय बिभीषणका परित्याग किया उसी क्षण वह मंदभागी विभवहीन हो गया॥
बिभीषण मनमें अनेक प्रकारके मनोरथ करते हुए आनंदके साथ रामचन्द्रजीके पास चला॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
देखिहउँ जाइ चरन जलजाता।
अरुन मृदुल सेवक सुखदाता॥
जे पद परसि तरी रिषनारी।
दंडक कानन पावनकारी॥
विभीषण मनमें विचार करने लगा कि आज जाकर मैं रघुनाथजीके भक्तलोगोंके सुखदायी अरुण (लाल वर्ण के सुंदर चरण) और सुकोमल चरणकमलोंके दर्शन करूंगा॥
कैसे हे चरणकमल कि जिनको परस कर (स्पर्श पाकर) गौतम ऋषिकी स्त्री (अहल्या) ऋषिके शापसे पार उतरी, जिनसे दंडक वन पवित्र हुआ है॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
जे पद जनकसुताँ उर लाए।
कपट कुरंग संग धर धाए॥
हर उर सर सरोज पद जेई।
अहोभाग्य मैं देखिहउँ तेई॥
जिनको सीताजी अपने हृदयमें सदा लगाये रहतीं है. जो कपटी हरिण ( मारीच राक्षस) के पीछे दौड़े॥
रूप हृदयरूपी सरोवर भीतर कमलरूप हैं, उन चरणोको जाकर मैं देखूंगा। अहो! मेरा बड़ा भाग्य हे॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ।
ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ ॥42॥
जिन चरणोकी पादुकाओमें भरतजी रातदिन मन लगाये है, आज मैं जाकर इन्ही नेत्रोसे उन चरणोंको देखूंगा ॥42॥

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चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

ऐहि बिधि करत सप्रेम बिचारा।
आयउ सपदि सिंदु एहिं पारा॥
कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा।
जाना कोउ रिपु दूत बिसेषा॥
यिभीषण इस प्रकार प्रेमसहित अनेक प्रकारके विचार करते हुए तुरंत समुद्रके इस पार आए॥
वानरोंने बिभीषणको आते देखकर जाना कि यह कोई शत्रुका दूत है॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
ताहि राखि कपीस पहिं आए।
समाचार सब ताहि सुनाए॥
कह सुग्रीव सुनहु रघुराई।
आवा मिलन दसानन भाई॥
वानर उनको वही रखकर सुग्रीवके पास आये और जाकर उनके सब समाचार सुग्रीवको सुनाये॥
तब सुग्रीवने जाकर रामचन्द्रजीसे कहा कि हे प्रभु! रावणका भाई आपसे मिलनेको आया है॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
कह प्रभु सखा बूझिऐ काहा।
कहइ कपीस सुनहु नरनाहा॥
जानि न जाइ निसाचर माया।
कामरूप केहि कारन आया॥
तब रामचन्द्रजीने कहा कि हे सखा! तुम्हारी क्या राय है (तुम क्या समझते हो)? तब सुग्रीवने रामचन्द्रजीसे कहा कि हे नरनाथ! सुनो,॥
राक्षसोंकी माया जाननेमें नहीं आ सकती। इसी बास्ते यह नहीं कह सकते कि यह मनोवांछित रूप धरकर यहां क्यों आया है?॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
भेद हमार लेन सठ आवा।
राखिअ बाँधि मोहि अस भावा॥
सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी।
मम पन सरनागत भयहारी॥
मेरे मनमें तो यह जँचता है कि यह शठ हमारा भेद लेने को आया है। इस वास्ते इसको बांधकर रख देना चाहिये॥
तब रामचन्द्रजीने कहा कि हे सखा! तुमने यह नीति बहुत अच्छी बिचारी परंतु मेरा पण शरणागतोंका भय मिटानेका है॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना।
सरनागत बच्छल भगवाना॥
रामचन्द्रजीके वचन सुनकर हनुमानजीको बड़ा आनंद हुआ कि भगवान् सच्चे शरणागतवत्सल हैं (शरण में आए हुए पर पिता की भाँति प्रेम करनेवाले)॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि ॥43॥
कहा है कि जो आदमी अपने अहितको विचार कर शरणागतको त्याग देते हैं, उन मनुष्योको पामर (पागल) और पापरूप जानना चाहिये क्योंकि उनको देखनेहीसे हानि होती है ॥43॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

विभीषण को भगवान रामकी शरण प्राप्ति

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू।
आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू॥
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं।
जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥
प्रभुने कहा कि चाहे कोई महापापी होवे अर्थात् जिसको करोड़ ब्रह्महत्याका पाप लगा हुआ होवे और वह भी यदि मेरे शरण चला आवे तो मै उसको किसी कदर छोंड़ नहीं सकता॥
यह जीव जब मेरे सन्मुख हो जाता है तब मैं उसके करोड़ों जन्मोंके पापोको नाश कर देता हूं॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
पापवंत कर सहज सुभाऊ।
भजनु मोर तेहि भाव न काऊ॥
जौं पै दुष्ट हृदय सोइ होई।
मोरें सनमुख आव कि सोई॥
पापी पुरुषोंका यह सहज स्वभाव है कि उनको किसी प्रकारसे मेरा भजन अच्छा नहीं लगता॥
हे सुग्रीव! जो पुरुष (वह रावण का भाई) दुष्टहृदय होगा क्या वह मेरे सत्पर आ सकेगा? कदापि नहीं॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
निर्मल मन जन सो मोहि पावा।
मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥
भेद लेन पठवा दससीसा।
तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा॥
हे सुग्रीव! जो आदमी निर्मल अंतःकरणवाला होगा, वही मुझको पावेगा क्योंकि मुझको छल, छिद्र और कपट कुछ भी अच्छा नहीं लगता॥
कदाचित् रावणने इसको भेद लेनेके लिए भेजा होगा, फिर भी हे सुग्रीव! हमको उसका न तो कुछ भय है और न किसी प्रकारकी हानि है॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
जग महुँ सखा निसाचर जेते।
लछिमनु हनइ निमिष महुँ तेते॥
जौं सभीत आवा सरनाईं।
रखिहउँ ताहि प्रान की नाईं॥
क्योंकि जगत्‌में जितने राक्षस है, उन सबोंको लक्ष्मण एक क्षणभरमें मार डालेगा॥
और उनमेंसे भयभीत होकर जो मेरे शरण आजायगा उसको तो में अपने प्राणोंके बराबर रखूँगा॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत।
जय कृपाल कहि कपि चले अंगद हनू समेत ॥44॥
हँसकर कृपानिधान श्रीरामने कहा कि हे सुग्रीव! चाहो वह शुद्ध मनसे आया हो अथवा भेदबुद्धि विचारकर आया हो, दोनो ही तरहसे इसको यहां ले आओ। रामचन्द्रजीके ये वचन सुनकर अंगद और हनुमान् आदि सब बानर हे कृपालु! आपका. जय हो ऐसे कहकर चले ॥44॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

विभीषण को भगवान रामकी शरण प्राप्ति

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

सादर तेहि आगें करि बानर।
चले जहाँ रघुपति करुनाकर॥
दूरिहि ते देखे द्वौ भ्राता।
नयनानंद दान के दाता॥
वे वानर आदरसहित विभीषणको अपने आगे लेकर उस स्थानको चले कि जहां करुणानिधान श्री रघुनाथजी विराजमान थे॥
विभीषणने नेत्रोंको आनन्द देनेवाले उन दोनों भाइयोंको दूर ही से देखा॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
बहुरि राम छबिधाम बिलोकी।
रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी॥
भुज प्रलंब कंजारुन लोचन।
स्यामल गात प्रनत भय मोचन॥
फिर वह छविके धाम श्रीरामचन्द्रजीको देखकर पलकोको रोककर एकटक देखते खड़े रहे॥
श्रीरघुनाथजीका स्वरूप कैसा है जिसमें लंबी भुजा है, कमलसे लालनेत्र हैं। मेघसा सधन श्याम शरीर है, जो शरणागतोंके भयको मिटानेवाला है॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
सघ कंध आयत उर सोहा।
आनन अमित मदन मन मोहा॥
नयन नीर पुलकित अति गाता।
मन धरि धीर कही मृदु बाता॥
जिसके सिंहकेसे कंधे है, विशाल वक्षःस्थल शोभायमान है, मुख ऐसा है कि जिसकी छविको देखकर असंख्य कामदेव मोहित हो जाते हैं॥
उस स्वरूपका दर्शन होतेही विभीषणको नेत्रोंमें जल आ गया। शरीर अत्यंत पुलकित हो गया, तथापि उसने मनमें धीरज धरकर ये सुकोमल वचन कहे॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
नाथ दसानन कर मैं भ्राता।
निसिचर बंस जनम सुरत्राता॥
सहज पापप्रिय तामस देहा।
जथा उलूकहि तम पर नेहा॥
कि हे देवताओंके पालक! मेरा राक्षसोंके वंशमें तो जन्म है और हे नाथ! मैं रावणका भाई॥
स्वभावसेही पाप मुझको प्रिय लगता है, और यह मेरा तामस शरीर है सो यह बात ऐसी है कि जैसे उल्लूका अंधकारपर सदा स्नेह रहता है। ऐसे मेरे पाप पर प्यार है॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भंजन भव भीर।
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर ॥45॥
तथापि हे प्रभु! हे भय और संकट मिटानेवाले! मै कानोंसे आपका सुयश सुनकर आपके शरण आया हूँ। सो हे आर्ति (दुःख) हरण हारे! हे शरणागतोंको सुख देनेवाले प्रभु! मेरी रक्षा करो, रक्षा करो ॥45॥

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विभीषण को भगवान रामकी शरण प्राप्ति

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

अस कहि करत दंडवत देखा।
तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा॥
दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा।
भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा॥
ऐसे कहते हुए बिभीषणको दंडवत करते देखकर प्रभु बड़े अल्हादके साथ तुरंत उठ खड़े हए॥
और बिभीषणके दीन वचन सुनकर प्रभुके मनमें वे बहुत भाए आर उसीसे प्रभुने अपनी विशाल भुजासे उनको उठाकर अपनी छातीसे लगाया॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी।
बोले बचन भगत भयहारी॥
कहु लंकेस सहित परिवारा।
कुसल कुठाहर बास तुम्हारा॥
लक्ष्मण सहित प्रभुने उससे मिलकर उसको अपने पास बिठाया. फिर भक्तोंके हित करनेवाले प्रभुने ये वचन कहे॥
कि हे लंकेश विभीषण! आपके परिवारसहित कुशल तो है? क्योंकि आपका रहना कुमार्गियोंके बीचमें है॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
खल मंडली बसहु दिनु राती।
सखा धरम निबहइ केहि भाँती॥
मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती।
अति नय निपुन न भाव अनीती॥
रात दिन तुम दुष्टोंकी मंडलीके बीच रहते हो इससे, हे सखा! आपका धर्म कैसे निभता होगा॥
मैने तुम्हारी सब गति जानली है। तुम बडे नीतिनिपुण हो और तुम्हारा अभिप्राय अन्यायपर नहीं है (तुम्हें अनीति नहीं सुहाती)॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
बरु भल बास नरक कर ताता।
दुष्ट संग जनि देइ बिधाता॥
अब पद देखि कुसल रघुराया।
जौं तुम्ह कीन्हि जानि जन दाया॥
रामचन्द्रजीके ये वचन सुनकर विभीषणने कहा कि हे प्रभु! चाहे नरकमें रहना अच्छा है परंतु दुष्टकी संगति अच्छी नहीं. इसलिये हे विधाता! कभी दुष्टकी संगति मत देना॥
हे रघुनाथजी! आपने अपना जन जानकर जो मुझपर दया की, उससे आपके दर्शन हुए। हे प्रभु! अब में आपके चरणोके दर्शन करनेसे कुशल हूँ॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम।
जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धाम तजि काम ॥46॥
है प्रभु! यह मनुष्य जब तक शोकके धामरूप काम अर्थात् लालसाको छोंड कर श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंकी सेवा नहीं करता तब तक इस जीवको स्वप्रमें भी न तो कुशल है और न कहीं मनको विश्राम (शांति) है ॥46॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

भगवान् श्री राम की महिमा

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

तब लगि हृदयँ बसत खल नाना।
लोभ मोह मच्छर मद माना॥
जब लगि उर न बसत रघुनाथा।
धरें चाप सायक कटि भाथा॥
जब तक धनुप बाण धारण किये और कमरमें तरकस कसे हुए श्रीरामचन्द्रजी हृदयमें आकर नहीं बिराजते तब तक लोभ, मोह, मत्सर, मद और मान ये अनेक दुष्ट हृदयके भीतर निवास कर सकते हैं और जब आप आकर हृदयमें विराजते हो तब ये सब भाग जाते हैं॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
ममता तरुन तमी अँधिआरी।
राग द्वेष उलूक सुखकारी॥
तब लगि बसति जीव मन माहीं।
जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं॥
जब तक जीवके हृदयमें प्रभुका प्रतापरूप सूर्य उदय नहीं होता तबतक रागद्वेषरूप उल्लुओं को सुख देनेवाली ममतारूप सघन अंधकारमय अंधियारी रात्रि रहा करती है॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
अब मैं कुसल मिटे भय भारे।
देखि राम पद कमल तुम्हारे॥
तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला।
ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला॥
हे राम! अब मैंने आपके चरणकमलोंका दर्शन कर लिया है इससे अब मैं कुशल हूं और मेरा विकट भय भी निवृत्त हो गया है॥
हे प्रभु! हे दयालु! आप जिसपर अनुकूल रहते हो उसको तीन प्रकारके भय और दुःख (आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक ताप) कभी नहीं व्यापते॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ।
सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ॥
जासु रूप मुनि ध्यान न आवा।
तेहिं प्रभु हरषि हृदयँ मोहि लावा॥
हे प्रभु! मैं जातिका राक्षस हूं। मेरा स्वभाव अति अधम है। मैंने कोईभी शुभ आचरन नहीं किया है॥
तिसपरभी प्रभुने कृपा करके आनंदसे मुझको छातीसे लगाया कि जिस प्रभुके स्वरूपको ध्यान पाना मुनिलोगोंको कठिन है॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुंज।
देखेउँ नयन बिरंचि सिव सेब्य जुगल पद कंज ॥47॥
सुखकी राशि रामचन्द्रजीकी कृपासे अहो! आज मेरा भाग्य बड़ा अमित और अपार हैं क्योकि ब्रह्माजी और महादेवजी जिन चरणारविन्द-युगलकी (युगल चरण कमलों कि) सेवा करते हैं, उन चरणकमलोंका मैंने अपने नेत्रोंसे दर्शन किया ॥47॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

प्रभु श्री रामचंद्रजी की महिमा

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ।
जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ॥
जौं नर होइ चराचर द्रोही।
आवै सभय सरन तकि मोही॥
बिभीषणकी भक्ति देखकर रामचन्द्रजीने कहा कि हे सखा! मैं अपना स्वभाव कहता हूं, सो तू सुन, मेरे स्वभावको या तो काकभुशुंडि जानते हैं या महादेव जानते है, या पार्वती जानती है। इनके सिवा दूसरा कोई नहीं जानता॥
प्रभु कहते हैं कि जो मनुष्य चराचरसे (जड़-चेतन) द्रोह रखता हो, और वह भयभीत होंके मेरे शरण आ जाए तो॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
तजि मद मोह कपट छल नाना।
करउँ सद्य तेहि साधु समाना॥
जननी जनक बंधु सुत दारा।
तनु धनु भवन सुहृद परिवारा॥
मद, मोह, कपट और नानाप्रकारके छलको छोड़कर हे सखा! मैं उसको साधु पुरुषके समान कर लेता हूँ॥
देखो, माता, पिता, बंधू, पुत्र, श्री, सन, धन, घर, सुहृद और कुटुम्ब
श्री राम, जय राम, जय जय राम
सब कै ममता ताग बटोरी।
मम पद मनहि बाँध बरि डोरी॥
समदरसी इच्छा कछु नाहीं।
हरष सोक भय नहिं मन माहीं॥
इन सबके ममतारूप तागोंको इकट्ठा करके एक सुन्दर डोरी बट (डोरी बनाकर) और उससे अपने मनको मेरे चरणोंमें बांध दे। अर्थात् सबमेंसे ममता छोड़कर केवल मुझमें ममता रखें, जैसे ”त्वमेव माता पिता त्वमेव त्वमेव बंधूश्चा सखा त्वमेव। त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव त्वमेव सर्व मम देवदेव”॥
जो भक्त समदर्शी है और जिसके किसी प्रकारकी इच्छा नहीं हे तथा जिसके मनमें हर्ष, शोक, और भय नहीं है॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
अस सज्जन मम उर बस कैसें।
लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें॥
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें।
धरउँ देह नहिं आन निहोरें॥
ऐसे सत्पुरुष मेरे हृदयमें कैसे रहते है, कि जैसे लोभी आदमीके मन में धन सदा बसा रहता है ॥
हे बिभीषण! तुम्हारे जैसे जो प्यारे सन्त भक्त हैं उन्हीके लिए मैं देह धारण करता हूं, और दूसरा मेरा कुछ भी प्रयोजन नहीं है॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम।
ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम ॥48॥
जो लोग सगुण उपासना करते हैं, बड़े हितकारी हैं, नीतिमें निरत है, नियममें दृढ़ है और जिनकी ब्राह्मणोंके चरणकमलों में प्रीति है वे मनुष्य मुझको प्राणों के समान प्यारे लगते हें ॥48॥

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विभीषण की भगवान् श्रो रामसे प्रार्थना

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

सुनु लंकेस सकल गुन तोरें।
तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें॥
राम बचन सुनि बानर जूथा।
सकल कहहिं जय कृपा बरूथा॥
हे लंकेश (लंकापति)! सुनो, आपमें सब गुण है और इसीसे आप मुझको अतिशय प्यारें लगते हो॥
रामचन्द्रजीके ये वचन सुनकर तमाम वानरोंके झुंड कहने लगे कि हे कृपाके पुंज! आपकी जय हो॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी।
नहिं अघात श्रवनामृत जानी॥
पद अंबुज गहि बारहिं बारा।
हृदयँ समात न प्रेमु अपारा॥
ओर विभीषणभी प्रभुकी बाणीको सुनता हुआ उसको कर्णामृतरूप जानकर तृप्त नहीं होता था॥
और वारंवार रामचन्द्वजीके चरणकमल धरकर ऐसा आल्हादित हुआ कि वह अपार प्रेम हृदयके अंदर नहीं समाया॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
सुनहु देव सचराचर स्वामी।
प्रनतपाल उर अंतरजामी॥
उर कछु प्रथम बासना रही।
प्रभु पद प्रीति सरित सो बही॥
इस दशाको पहुँच कर बिभीषणने कहा कि हे देव! चराचरसहित संसारके (चराचर जगतके) स्वामी! हे शरणागतोंके पालक! हे हृदयके अंतर्यामी! सुनिए॥
पहले मेरे जो कुछ वासना थी वह भी आपके चरणकमलकी प्रीतिरूप नदीसे बह गई॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
अब कृपाल निज भगति पावनी।
देहु सदा सिव मन भावनी॥
एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा।
मागा तुरत सिंधु कर नीरा॥
हे कृपालू! अब आप दया करके मुझको आपकी वह पावन करनहारी भक्ति दीजिए कि जिसको महादेवजी सदा धारण करते हैं॥
रणधीर रामचन्द्रजीने एवमस्तु ऐसे कहकर तुरत समुद्रका जल मँगवाया॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
जदपि सखा तव इच्छा नहीं।
मोर दरसु अमोघ जग माहीं॥
अस कहि राम तिलक तेहि सारा।
सुमन बृष्टि नभ भई अपारा॥
और कहा कि हे सखा! यद्यपि तेरे किसी बातकी इच्छा नहीं है तथापि जगत्‌में मेरा दर्शन अमोघ है अर्थात् निष्फल नही है॥ ऐसे कहकर प्रभुने बिभीषणके राजतिलक कर दिया. उस समय आकाशमेंसे अपार पुष्पोंकी वर्षा हुई॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड।
जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेउ राजु अखंड ॥49(क)॥
रावणका क्रोध तो अग्निके समान है और उसका श्वास प्रचंड पवनके तुल्य है। उससे जलते हुए विभीषणको बचाकर प्रभुने उसको अखंड राज दिया ॥49(क)॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ।
सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ ॥49(ख)॥
महादेवने दश माथे देनेपर रावणको जो संपदा दी थी वह संपदा कम समझकर रामचन्द्रजीने बिभीषणको सकुचते हुए दी ॥49(ख)॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

समुद्र पार करने के लिए विचार

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

अस प्रभु छाड़ि भजहिं जे आना।
ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाना॥
निज जन जानि ताहि अपनावा।
प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा॥
ऐसे प्रभुको छोड़कर जो आदमी दूसरेको भजते हैं वे मनुष्य बिना सींग पूंछके पशु हैं॥
प्रभुने बिभीषणको अपना भक्त जानकर जो अपनाया, यह प्रभुका स्वभाव सब वानरोंको अच्छा लगा॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
पुनि सर्बग्य सर्ब उर बासी।
सर्बरूप सब रहित उदासी॥
बोले बचन नीति प्रतिपालक।
कारन मनुज दनुज कुल घालक॥
प्रभु तो सदा सर्वत्र, सबके घटमें रहनेवाले (सबके हृदय में बसनेवाले), सर्वरूप (सब रूपों में प्रकट), सर्वरहित और सदा उदासीन ही हैं॥
राक्षसकुलके संहार करनेवाले, नीतिको पालनेवाले, मायासे मनुष्यमूर्ति (कारण से भक्तों पर कृपा करने के लिए मनुष्य बने हुए), श्रीरामचन्द्रजीने सब मंत्रियोंसे कहा॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
सुनु कपीस लंकापति बीरा।
केहि बिधि तरिअ जलधि गंभीरा॥
संकुल मकर उरग झष जाती।
अति अगाध दुस्तर सब भाँति॥
कि हे लंकेश (लंकापति विभीषण)! हे वानरराज! हे वीर पुरुषो सुनो, अब इस गंभीर समुद्रको पार कैसे उतरें? वह युक्ति निकालो॥
क्योंकि यह समुद्र सर्प, मगर और अनेक जातिकी मछलियोंसे व्याप्त हो रहा है, बड़ा अथाह है, इसीसे सब प्रकारसे मुझको तो दुस्तर (कठिन) मालूम होता है॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
कह लंकेस सुनहु रघुनायक।
कोटि सिंधु सोषक तव सायक॥
जद्यपि तदपि नीति असि गाई।
बिनय करिअ सागर सन जाई॥
उसवक्त लंकेश अर्थात् विभीषणने कहा कि हे रघुनाथ! सुनो, आपके बाण ऐसे हैं कि जिनसे करोडो समुद्र सूख जाए, तब इस समुद्रका क्या भार है॥
तथापि नीतिमें ऐसा कहा है कि पहले साम वचनोंसे काम लेना चाहिये, इसवास्ते समुद्रके पास पधार कर आप विनती करो॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि॥
बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि ॥50॥
बिभीषण कहता है कि हे प्रभु! यह समुद्र आपका कुलगुरु है। सो विचार कर अवश्य उपाय कहेगा और उपायको धरकर ये वानर और रीछ बिना परिश्रम समुद्रके पार हो जाएँगे ॥50॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

समुद्र पार करने के लिए विचार

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

सखा कही तुम्ह नीति उपाई।
करिअ दैव जौं होइ सहाई॥
मंत्र न यह लछिमन मन भावा।
राम बचन सुनि अति दुख पावा॥
बिभीषणकी यह बात सुनकर रामचन्द्रजीने कहा कि हे सखा! तुमने यह उपाय तो बहुत अच्छा बतलाया और हम इस उपायको करेंगे भी, परंतु यदि दैव सहाय होगा तो सफल होगा॥
यह सलाह लक्ष्मणके मनमें अच्छी नही लगी अतएव रामचन्द्रजीके वचन सुनकर लक्ष्मणने बड़ा दुख पाया॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
नाथ दैव कर कवन भरोसा।
सोषिअ सिंधु करिअ मन रोसा॥
कादर मन कहुँ एक अधारा।
दैव दैव आलसी पुकारा॥
और लक्ष्मणने कहा कि हे नाथ! दैवका क्या भरोसा है? आप तो मनमें क्रोध लाकर समुद्रको सुखा दीजिये॥
दैवपर भरोसा रखना यह तो कायर पुरुषोंके मनका एक आधार है; क्योंकि वेही आलसी लोग दैव करेगा सो होगा ऐसा विचार कर दैव दैव करके पुकारते रहते हैं॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
सुनत बिहसि बोले रघुबीरा।
ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा॥
अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई।
सिंधु समीप गए रघुराई॥
लक्ष्मणके ये वचन सुनकर प्रभुने हँसकर कहा कि हे भाई! मैं ऐसेही करूंगा पर तू मनमे कुछ धीरज धर॥
प्रभु लक्ष्मणको ऐसे कह समझाय बुझाय समुद्रके निकट पधारे॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
प्रथम प्रनाम कीन्ह सिरु नाई।
बैठे पुनि तट दर्भ डसाई॥
जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं आए।
पाछें रावन दूत पठाए॥
और प्रथमही प्रभुने जाकर समुद्रको प्रणाम किया और फिर कुश बिछा कर उसके तटपर विराजे॥
जब बिभीषण रामचन्द्रजीके पास चला आया तब पीछेसे रावणने अपना दूत भेजा॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह।
प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह ॥51॥
उस दूतने कपटसे वानरका रूप धरकर वहांका तमाम हाल देखा. तहां प्रभुका शरणागतोंपर अतिशय स्नेह देखकर उसने अपने मनमें प्रभुके गुणोंकी बड़ी सराहना की ॥51॥

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रावणदूत शुक का आना

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ।
अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ॥
रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने।
सकल बाँधि कपीस पहिं आने॥
और देखते देखते प्रेम ऐसा बढ़ गया कि वह (रावणदूत शुक) छिपाना भूल कर रामचन्द्रजीके स्वभावकी प्रकटमें प्रशंसा करने लगा॥
जब वानरोने जाना कि यह शत्रुका दूत है तब उसे बांधकर सुग्रीवके पास लाये
श्री राम, जय राम, जय जय राम
कह सुग्रीव सुनहु सब बानर।
अंग भंग करि पठवहु निसिचर॥
सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए।
बाँधि कटक चहु पास फिराए॥
सुग्रीवने देखकर कहा कि हे वानरो सुनो, इस राक्षस दुष्टको अंग-भंग करके भेज दो॥
सुग्रीवके ये वचन सुनकर सब वानर दौड़े, फिर उसको बांध कर कटक (सेना) में चारों ओर फिराया॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
बहु प्रकार मारन कपि लागे।
दीन पुकारत तदपि न त्यागे॥
जो हमार हर नासा काना।
तेहि कोसलाधीस कै आना॥
वानर उसको अनेक प्रकारसे मारने लगे और वह अनेक प्रकारसे दीनकी भांति पुकारने लगा फिर भी वानरोंने उसको नहीं छोड़ा॥
तब उसने पुकार कर कहा कि जो हमारी नाक कान काटते है उनको श्रीरामचन्द्रजीकी शपथ है॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
सुनि लछिमन सब निकट बोलाए।
दया लागि हँसि तुरत छोड़ाए॥
रावन कर दीजहु यह पाती।
लछिमन बचन बाचु कुलघाती॥
सेनामें खरभर सुनकर लक्ष्मणने उसको अपने पास बुलाया और दया आ जानेसे हँसकर लक्ष्मणने उसको छुड़ा दिया॥
एक पत्री लिख कर लक्ष्मणने उसको दी और कहा कि यह पत्री रावणको देना और उस कुलघातीकों कहना कि ये लक्ष्मणके हित वचन (संदेसे को) बाँचो॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

कहेहु मुखागर मूढ़ सन मम संदेसु उदार।
सीता देइ मिलहु न त आवा कालु तुम्हार ॥52॥
और उस मूर्खसे मेरा बड़ा अपार सन्देशा मुहँसेंभी कह देना कि या तो तू सीताजीको देदे और हमारे शरण आजा, नही तो तेरा काल आया समझ ॥52॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

लक्ष्मणजी के पत्र को लेकर रावणदूत का लौटना

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

तुरत नाइ लछिमन पद माथा।
चले दूत बरनत गुन गाथा॥
कहत राम जसु लंकाँ आए।
रावन चरन सीस तिन्ह नाए॥
लक्ष्मणके ये वचन सुन तुरंत लक्ष्मणके चरणोंमें शिर झुका कर रामचन्द्रजीके गुणोंकी प्रशंसा करता हुआ वह वहांसे चला॥
रामचन्द्रजीके यशकों गाता हुआ लंकामें आया. रावणके पास जाकर उसने रावणके चरणोंमें प्रणाम किया॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
बिहसि दसानन पूँछी बाता।
कहसि न सुक आपनि कुसलाता॥
पुन कहु खबरि बिभीषन केरी।
जाहि मृत्यु आई अति नेरी॥
उस समय रावणने हँसकर उससे पूंछा कि हे शुक! अपनी कुशलताकी बात कहो॥
और फिर विभीषणकी कुशल कहो, कि जिसकी मौत बहुत निकट आगयी है॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
करत राज लंका सठ त्यागी।
होइहि जव कर कीट अभागी॥
पुनि कहु भालु कीस कटकाई।
कठिन काल प्रेरित चलि आई॥
उस शठने लंकाको राज करते करते छोड़ दिया सो अब उस अभागेकी जवके (जौके) घुनके (कीड़ा) समान दशा होगी अर्थात् जैसे जव पीसनेके साथ उसमेंका घुनभी पीस जाता है, ऐसे रामके साथ वह भी मारा जाएगा॥
फिर कहो कि रीछ और वानरोंकी सेना कैसी और कितनी है कि जो कठिन कालकी प्रेरणासे इधरको चली आती है॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
जिन्ह के जीवन कर रखवारा।
भयउ मृदुल चित सिंधु बिचारा॥
कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी।
जिन्ह के हृदयँ त्रास अति मोरी॥
हे शुक! अभी उनके जीवकी रक्षा करनेवाला बिचारा कोमलहृदय समुद्र हुआ है (उनके और राक्षसों के बीच में यदि समुद्र न होता तो अब तक राक्षस उन्हें मारकर खा गए होते)। सो रहे, इससे कितने दिन बचेंगे॥
और फिर उन तपस्वियोकी बात कहो जिनके ह्रदयमें मेरी बड़ी त्रास बैठ रही है (मेरा बड़ा डर है)॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

की भइ भेंट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर।
कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर ॥53॥
हे शुक! क्या तेरी उनसे भेंट हुई? क्या वे मेरी सुख्याति (सुयश) कानोंसे सुनकर पीछे लौट गए। हे शुक! शत्रुके दलका तेज आर बल क्यों नहीं कहता? तेरा चित्त चकित-सा (भौंचक्का-सा) कैसे हो रहा है? ॥53॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

दूत का रावण को समझाना

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसें।
मानहु कहा क्रोध तजि तैसें॥
मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा।
जातहिं राम तिलक तेहि सारा॥
रावणके ये वचन सुनकर शुकने कहा कि हे नाथ! जैसे आप कृपा करके पूंछते हो ऐसेही क्रोधको त्यागकर जो वचन में कहूं उसको मानो॥
हे नाथ! जिस समय आपका भाई रामसे जाकर मिला उसी क्षण रामने उसके राजतिलक कर दिया है॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
रावन दूत हमहि सुनि काना।
कपिन्ह बाँधि दीन्हें दुख नाना॥
श्रवन नासिका काटैं लागे।
राम सपथ दीन्हें हम त्यागे॥
मै वानरका रूप धरकर सेनाके भीतर घुसा, सो फिरते फिरते वानरोंने जब मुझको आपका दूत जान लिया तब उन्होंने मुझको बांधकर अनेक प्रकारका दुःख दिया॥
और मेरी नाक कान काटने लगे, तब मैंने उनको रामकी शपथ दी तब उन्होंने मुझको छोड़ दिया॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
पूँछिहु नाथ राम कटकाई।
बदन कोटि सत बरनि न जाई॥
नाना बरन भालु कपि धारी।
बिकटानन बिसाल भयकारी॥
हे नाथ! आप मुझको वानरोंकी सेनाके समाचार पूँछते हो सो वे सौ करोड़ मुखोंसे तो कही नहीं जा सकती॥
हे रावण! रीछ और वानर अनेक रंग धारण किये बड़े डरावने दीखते हैं, बड़े विकट उनके मुख हैं और बड़े विशाल उनके शरीर हैं॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
जेहिं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा।
सकल कपिन्ह महँ तेहि बलु थोरा॥
अमित नाम भट कठिन कराला।
अमित नाग बल बिपुल बिसाला॥
हे रावण! जिसने इस लंकाको जलाया था और आपके पुत्र अक्षयकुमारको मारा था, उस वानरका बल तो सब वानरों में थोड़ा है॥
उनके बीच कई नामी भट पड़े हे, कि जो बड़े भयानक और बड़े कठोर हैं. जिनके नाना वर्णवाले और विशाल व तेजस्वी शरीर हैं॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि।
दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि ॥54॥
उनमें जो बड़े बड़े योद्धा हैं उनमेंसे कुछ नाम कहता हूँ सो सुनो – द्विविद, मयन्द, नील, नल, अंगद वगैरे, विकटास्य, दधिरख, केसरी, कुमुद, गव और बलका पुंज जाम्बवान ॥54॥

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Sunderkand – 19


Sunderkand – 19

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रावणदूत शुक का रावण को समझाना

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

ए कपि सब सुग्रीव समाना।
इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना॥
राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं।
तृन समान त्रैलोकहि गनहीं॥
ये सब वानर सुग्रीवके समान बलवान हैं। इनके बराबर दूसरे करोड़ों वानर हैं, कौन गिन सकता है? ॥
रामचन्द्रजीकी कृपासे उनके बलकी कुछ तुलना नहीं है। वे उनके प्रभावसे त्रिलोकीको तृन (घास) के समान समझते हैं
श्री राम, जय राम, जय जय राम
अस मैं सुना श्रवन दसकंधर।
पदुम अठारह जूथप बंदर॥
नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं।
जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं॥
हे रावण! वहां मैं गिन तो नहीं सका परंनु कानोंसे ऐसा सुना था कि अठारह पद्म तो अकेले वानरों के सेनापति हैं॥
हे नाथ! उस कटकमें (सेना) ऐसा वानर एकभी नहीं है कि जो रणमें आपको जीत न सके॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
परम क्रोध मीजहिं सब हाथा।
आयसु पै न देहिं रघुनाथा॥
सोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला।
पूरहिं न त भरि कुधर बिसाला॥
सब वानर बड़ा कोध करके हाथ मीजते हैं; परंतु बिचारे करें क्या? रामचन्द्रजी उनको आज्ञा नहीं देते॥
वे ऐसे बली है कि मछलियां और सर्पोंके साथ समुद्रको सुखा सकते हैं और नखोंसे विशाल पर्वतको चीर सकते है॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा।
ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा॥
गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका।
मानहुँ ग्रसन चहत हहिं लंका॥
और सब वानर ऐसे वचन कहते हैं कि हम जाकर रावणको मार कर उसी क्षण धूल में मिला देंगे॥
वे स्वभावसेही निशंक है, सो बेधड़क गरजते है और तर्जते है. मानों वे अभी लंकाको ग्रसना (निगलना) चाहते है॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम।
रावन काल कोटि कहुँ जीति सकहिं संग्राम ॥55॥
हे रावण! वे रीछ और वानर अव्वल तो स्वभावहीसे शूर-बीर हैं और तिसपर फिर श्रीरामचन्द्रजी सिर पर है। इसलिए हे रावण! वे करोड़ों कालों को भी संग्राममें जीत सकते हैं ॥55॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

रावणदूत शुक का रावण को समझाना

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

राम तेज बल बुधि बिपुलाई।
सेष सहस सत सकहिं न गाई॥
सक सर एक सोषि सत सागर।
तव भ्रातहि पूँछेउ नय नागर॥
रामचन्द्रजीके तेज, बल, और बुद्धिकी बढ़ाईको करोड़ों शेषजी भी गा नहीं सकते तब औरकी तो बातही कौन?॥
यद्यपि वे एक बाणसे सौ समुद्रकों सुखा सकते है परंतु आपका भाई बिभीषण नीतिमें परम निपुण है इसलिए श्री राम ने समुद्रका पार उतरनेके लिये आपके भाई विभीषणसे पूछा॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
तासु बचन सुनि सागर पाहीं।
मागत पंथ कृपा मन माहीं॥
सुनत बचन बिहसा दससीसा।
जौं असि मति सहाय कृत कीसा॥
तब उसने सलाह दी कि पहले तो नरमीसे काम निकालना चाहिये और जो नरमीसे काम नहीं निकले तो पीछे तेजी करनी चाहिये॥ बिभीपणके ये वचन सुनकर श्री राम मनमें दया रखकर समुद्रके पास मार्ग मांगते है॥
दूतके ये वचन सुनकर रावण हँसा और बोला कि जिसकी ऐसी बुद्धि है, तभी तो वानरोंको तो सहाय बनाया है॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई।
सागर सन ठानी मचलाई॥
मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई।
रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई॥
और स्वभावसे डरपोंकके (विभीषण के) वचनोंपर दृढ़ता बांधी है तथा समुद्रसे अबोध बालककी तरह मचलना (बालहठ) ठाना है॥
हे मूर्ख! उसकी झूठी बड़ाई तू क्यों करता है? मैंने शत्रुके बल और बुद्धिकी थाह पा ली है॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
सचिव सभीत बिभीषन जाकें।
बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें॥
सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी।
समय बिचारि पत्रिका काढ़ी॥
जिसके डरपोंक बिभीषणसे मंत्री हैं उसके विजय और विभूति कहाँ? ॥
खल रावनके ये वचन सुनकर दूतको बड़ा क्रोध आया। इससे उसने अवसर जानकर लक्ष्मणके हाथकी पत्री निकाली॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
रामानुज दीन्हीं यह पाती।
नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती॥
बिहसि बाम कर लीन्हीं रावन।
सचिव बोलि सठ लाग बचावन॥
और कहा कि यह पत्रिका रामके छोटे भाई लक्ष्मणने दी है। सो हे नाथ! इसको पढ़कर अपनी छातीको शीतल करो॥
रावणने हँसकर वह पत्रिका बाएं हाथमें ली और यह शठ (मूर्ख) अपने मंत्रियोंको बुलाकर पढाने लगा॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस।
राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस ॥56(क)॥
(पत्रिका में लिखा था -) हे शट (अरे मूर्ख)! तू बातोंसे मनको भले रिझा ले, हे कुलांतक! अपने कुलका नाश मत कर, रामचन्द्रजीसे विरोध करके विष्णु, ब्रह्मा और महेशके शरण जाने पर भी तू बच नही सकेगा॥56(क)॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग।
होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग ॥56(ख)॥
तू अभिमान छोड़कर अपने छोटे भाईके जैसे प्रभुके चरणकमलोंका भ्रमर होजा। अर्थात् रामचन्द्रजीके चरणोंका चेरा होजा। अरे खल! रामचन्द्रजीके बाणरूप आगमें तू कुलसहित पतंग मत हो, जैसे पतंग आगमें पड़कर जल जाता है ऐसे तू रामचन्द्रजीके बाणसे मृत्यु को मत प्राप्त हो ॥56(ख)॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

सुनत सभय मन मुख मुसुकाई।
कहत दसानन सबहि सुनाई॥
भूमि परा कर गहत अकासा।
लघु तापस कर बाग बिलासा॥
ये अक्षर सुनकर रावण मनमें तो कुछ डरा, परंतु ऊपरसे हँसकर सबको सुनाके रावणने कहा॥
कि इस छोटे तपस्वीकी वाणीका विलास तो ऐसा है कि मानों पृथ्वीपर पड़ा हुआ आकाशको हाथसे पकड़े लेता है॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
कह सुक नाथ सत्य सब बानी।
समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी॥
सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा।
नाथ राम सन तजहु बिरोधा॥
उस समय शुकने (दूत) कहा कि हे नाथ! यह वाणी सब सत्य है, सो आप स्वाभाविक अभिमानको छोड़कर समझ लों॥
हे नाथ! आप क्रोध तजकर मेरे वचन सुनो, और राम से जो विरोध बांध रक्खा है उसे छोड़ दो॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
अति कोमल रघुबीर सुभाऊ।
जद्यपि अखिल लोक कर राऊ॥
मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही।
उर अपराध न एकउ धरिही॥
यद्यपि वे राम सब लोकोंके स्वामी हैं तोभी उनका स्वभाव बड़ा ही कोमल है॥
आप जाकर उनसे मिलोगे तो मिलते ही वे आप पर कृपा करेंगे, आपके एकभी अपराधको वे दिलमें नही रक्खेंगे॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
जनकसुता रघुनाथहि दीजे।
एतना कहा मोर प्रभु कीजे॥
जब तेहिं कहा देन बैदेही।
चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही॥
हे प्रभु । एक इतना कहना तो मेरा भी मानो कि सीताको आप रामचन्द्रजीको दे दो॥
(शुकने कई बातें कहीं परंतु रावण कुछ नहीं बोला परंतु) जिस समय सीताको देनेकी बात कही उसी क्षण उस दुष्टने शुकको (दूतको) लात मारी॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ।
कृपासिंधु रघुनायक जहाँ॥
करि प्रनामु निज कथा सुनाई।
राम कृपाँ आपनि गति पाई॥
तब वह भी (विभीषण की भाँति) रावणके चरणोंमें शिर नमाकर वहां को चला कि जहां कृपाके सिंधु श्री रामचन्द्रजी विराजे थे॥
रामचन्द्रजी को प्रणाम करके उसने वहां की सब बात कही। तदनंतर वह राक्षस रामचन्द्रजीकी कृपासे अपनी गति अर्थात् मुनिशरीरको प्राप्त हुआ॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
रिषि अगस्ति कीं साप भवानी।
राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी॥
बंदि राम पद बारहिं बारा।
मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा॥
महादेवजी कहते हैं कि हे पार्वती! यह पूर्वजन्ममें बड़ा ज्ञानी मुनि था, सो अगस्त्य ऋषिके शापसे राक्षस हुआ था॥
यहां रामचन्द्रजीके चरणोको वारंवार नमस्कार करके फिर अपने आश्रमको गया॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

समुद्र पर श्री रामजी का क्रोध

दोहा (Doha – Sunderkand)

बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति ॥57॥
जब जड़ समुद्रने विनयसे नहीं माना अर्थात् रामचन्द्रजीको दर्भासनपर बैठे तीन दिन बीत गये तब रामचन्द्रजीने क्रोध करके कहा कि भय बिना प्रीति नहीं होती ॥57॥


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Sunderkand – 20


Sunderkand – 20

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समुद्र पर श्री रामजी का क्रोध

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

लछिमन बान सरासन आनू।
सोषौं बारिधि बिसिख कृसानु॥
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीति।
सहज कृपन सन सुंदर नीति॥
हे लक्ष्मण! धनुष बाण लाओ। क्योंकि अब इस समुद्रको बाणकी आगसे सुखाना होगा॥
देखो, इतनी बातें सब निष्फल जाती हैं। शठके पास विनय करना, कुटिल आदमीसे प्रीति रखना, स्वाभाविक कंजूस आदमीके पास सुन्दर नीतिका कहना॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
ममता रत सन ग्यान कहानी।
अति लोभी सन बिरति बखानी॥
क्रोधिहि सम कामिहि हरिकथा।
ऊसर बीज बएँ फल जथा॥
ममतासे भरे हुए जनके पास ज्ञानकी बात कहना, अतिलोभीके पास वैराग्यका प्रसंग चलाना॥
क्रोधीके पास समताका उपदेश करना, कामी (लंपट) के पास भगवानकी कथाका प्रसंग चलाना और ऊसर भूमिमें बीज बोना ये सब बराबर है॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा।
यह मत लछिमन के मन भावा॥
संधानेउ प्रभु बिसिख कराला।
उठी उदधि उर अंतर ज्वाला॥
ऐसे कहकर रामचन्द्रजीने अपना धनुष चढ़ाया। यह रामचन्द्रजीका मत लक्ष्मणके मनको बहुत अच्छा लगा॥
प्रभुने इधर तो धनुषमें विकराल बाणका सन्धान किया और उधर समुद्रके हृदयके बीच संतापकी ज्वाला उठी॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
मकर उरग झष गन अकुलाने।
जरत जंतु जलनिधि जब जाने॥
कनक थार भरि मनि गन नाना।
बिप्र रूप आयउ तजि माना॥
मगर, सांप, और मछलियां घबरायीं और समुद्रने जाना कि अब तो जलजन्तु जलने है॥
तब वह मानको तज, ब्राह्मणका स्वरूप धर, हाथमें अनेक मणियोंसे भरा हुआ कंचनका थार ले बाहर आया॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच ॥58॥
काकभुशुंडिने कहा कि हे गरुड़! देखा, केला काटनेसेही फलता है। चाहो दूसरे करोडों उपाय करलो और ख़ूब सींच लो, परंतु बिना काटे नहीं फलता। ऐसेही नीच आदमी विनय करनेसे नहीं मानता किंतु डाटने से ही नमता है ॥58॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

समुद्र की श्री राम से विनती

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे।
छमहु नाथ सब अवगुन मेरे॥
गगन समीर अनल जल धरनी।
इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी॥
समुद्रने भयभीत होकर प्रभुके चरण पकड़े और प्रभुसे प्रार्थना की कि हे प्रभु मेरे सब अपराध क्षमा करो॥
हे नाथ! आकाश, पवन, अग्रि, जल, और पृथ्वी इनकी करणी स्वभावहीसे जड़ है॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
तव प्रेरित मायाँ उपजाए।
सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए॥
प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई।
सो तेहि भाँति रहें सुख लहई॥
और सृष्टिके निमित्त आपकीही प्रेरणासे मायासे ये प्रकट हुए है, सो यह बात सब ग्रंथोंमें प्रसिद्ध हे॥
हे प्रभु! जिसको स्वामीकी जैसी आज्ञा होती है वह उसी तरह रहता है तो सुख पाता है॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही।
मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही॥
ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी।
सकल ताड़ना के अधिकारी॥
हे प्रभु! आपने जो मुझको शिक्षा दी, यह बहुत अच्छा किया; परंतु मर्यादा तो सब आपकी ही बांधी हुई है॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई।
उतरिहि कटकु न मोरि बड़ाई॥
प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई।
करौं सो बेगि जो तुम्हहि सोहाई॥
हे प्रभु! मैं आपके प्रतापसे सूख जाऊंगा और उससे कटक भी पार उतर जाएगा। परंतु इसमें मेरी महिमा घट जायगी॥
और प्रभुकी आज्ञा अपेल (अर्थात अनुल्लंघनीय – आज्ञा का उल्लंघन नहीं हो सकता) है। सो यह बात वेदमें गायी है। अब जो आपको जचे वही आज्ञा देवें सो मै उसके अनुसार शीघ्र करूं॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ।
जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ ॥59॥
समुद्रके ऐसे अतिविनीत वचन सुनकर, मुस्कुरा कर, प्रभुने कहा कि हे तात! जैसे यह हमारा वानरका कटक पार उतर जाय वैसा उपाय करो ॥59॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

नाथ नील नल कपि द्वौ भाई।
लरिकाईं रिषि आसिष पाई॥
तिन्ह कें परस किएँ गिरि भारे।
तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे॥
रामचन्द्रजीके ये वचन सुनकर समुद्रने कहा कि हे नाथ! नील और नल ये दोनों भाई है। नलको बचपनमें ऋषियोंसे आशीर्वाद मिला हुआ है॥
इस कारण हे प्रभु! नलका छुआ हुआ भारी पर्वत भी आपके प्रतापसे समुद्रपर तैर जाएगा॥
(नील और नल दोनो बचपनमें खेला करते थे। सो ऋषियोंके आश्रमोंमें जाकर जिस समय मुनिलोग शालग्रामजीकी पूजा कर आख मूंद ध्यानमें बैठते थे, तब ये शालग्रामजीको लेकर समुद्रमें फेंक देते थे। इससे ऋषियोंने शाप दिया कि नलका डाला हूआ पत्थर नहीं डुबेंगा। सो वही शाप इसके वास्ते आशीर्वादात्मक हुआ।)
श्री राम, जय राम, जय जय राम
मैं पुनि उर धरि प्रभु प्रभुताई।
करिहउँ बल अनुमान सहाई॥
एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइअ।
जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ॥
हे प्रभु! मुझसे जो कुछ बन सकेगा वह अपने बलके अनुसार आपकी प्रभुताकों हदयमें रखकर मै भी सहाय करूंगा॥
हे नाथ! इस तरह आप समुद्रमें सेतु बांध दीजिये कि जिसको विद्यमान देखकर त्रिलोकीमें लोग आपके सुयशको गाते रहेंगे॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
एहि सर मम उत्तर तट बासी।
हतहु नाथ खल नर अघ रासी॥
सुनि कृपाल सागर मन पीरा।
तुरतहिं हरी राम रनधीरा॥
हे नाथ! इसी बाणसे आप मेरे उत्तर तटपर रहनेवाले पापके पुंज दुष्टोंका संहार करो॥
ऐसे दयालु रणधीर श्रीरामचन्द्रजीने सागरके मनकी पीड़ा को जानकर उसको तुरंत हर लिया॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
देखि राम बल पौरुष भारी।
हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी॥
सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा।
चरन बंदि पाथोधि सिधावा॥
समुद्र रामचन्द्रजीके अपरिमित (अपार) बलको देखकर आनंदपूर्वक सुखी हुआ॥
समुद्रने सारा हाल रामचन्द्रजीको कह सुनाया, फिर चरणोंको प्रणाम कर अपने धामको सिधारा॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

छं० – निज भवन गवनेउ सिंधु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ।
यह चरित कलि मलहर जथामति दास तुलसी गायऊ॥
सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना।
तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना॥
समुद्र तो ऐसे प्रार्थना करके अपने घरको गया। रामचन्द्रजीके भी मनमें यह समुद्रकी सलाह भा गयी।
तुलसीदासजी कहते हैं कि कलियुग के पापों को हरनेवाला यह रामचन्द्रजीका चरित मेरी जैसी बुद्धि है वैसा मैंने गाया है; क्योंकि रामचन्द्रजीके गुणगाण (गुणसमूह) ऐसे हैं कि वे सुखके तो धाम हैं, संशयके मिटानेवाले है और विषाद (रंज) को शांत करनेवाले है सो जिनका मन पवित्र है और जो सज्जन पुरुष है, वे उन चरित्रोंको सब आशा और सब भरोसोंको छोड़ कर गाते हैं और सुनते हैं॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान।
सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान ॥60॥
सर्व प्रकारके सुमंगल देनेवाले रामचन्द्रजीके गुणोंका जो मनुष्य गान करते है और आदरसहित सुनते हैं वे लोग संसारसमुद्रको बिना नाव पार उतर जाते हें ॥60॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने पंचमः सोपानः समाप्तः।
कलियुग के समस्त पापों का नाश करनेवाले श्री रामचरितमानस का यह पाँचवाँ सोपान समाप्त हुआ।
श्री राम, जय राम, जय जय राम
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Sunderkand in Hindi – Index


Important Links

Sunderkand Hindi (Index)

  • सुंदरकाण्ड – 01
    • हनुमानजी का सीता शोध के लिए लंका प्रस्थान
    • सुरसा से भेंट
    • हनुमानजी की छाया पकड़ने वाले राक्षस से भेंट

  • सुंदरकाण्ड – 02
    • लंकिनी से भेंट
    • लंका में सीताजी की खोज
    • हनुमानजी की विभीषण से भेंट

  • सुंदरकाण्ड – 03
    • हनुमानजी और विभीषण का संवाद – श्रीराम की महिमा
    • हनुमानजी और विभीषण का संवाद
    • अशोक वाटिका में रावण

  • सुंदरकाण्ड – 04
    • रावण और सीताजी का संवाद
    • त्रिजटा का स्वप्न
    • सीताजी और त्रिजटा का संवाद
    • त्रिजटा ने सीताजी को सान्तवना दी

  • सुंदरकाण्ड – 05
    • हनुमान सीताजी से मिले
    • हनुमान ने सीताजी को आश्वासन दिया
    • हनुमान ने सीताजीको रामचन्द्रजीका सन्देश दिया

  • सुंदरकाण्ड – 06
    • सीताजीके मन में संदेह
    • सिताजीने हनुमानको आशीर्वाद दिया
    • हनुमानजीने अशोकवनमें फल खाने की आज्ञा मांगी
    • अशोक वाटिका विध्वंस और अक्षय कुमार का वध

  • सुंदरकाण्ड – 07
    • हनुमानजी का मेघनाद से युद्ध
    • मेघनादने ब्रम्हास्त्र चलाया
    • मेघनाद हनुमानजी को बंदी बनाकर रावणकी सभा में ले गया
    • हनुमानजी और रावण का संवाद

  • सुंदरकाण्ड – 08
    • हनुमानजी और रावण का संवाद
    • हनुमानजी का रावण को समझाना
    • रावण ने हनुमानजी की पूँछ जलाने का हुक्म दिया

  • सुंदरकाण्ड – 09
    • राक्षसोंने हनुमानजी की पूँछ में आग लगा दी
    • लंका दहन – हनुमानजी ने लंका जलाई
    • हनुमानजी लंकासे लौटने से पहले सीताजी से मिले

  • सुंदरकाण्ड – 10
    • हनुमानजीका लंका से वापिस लौटना
    • हनुमानजी सुग्रीव से मिले

  • सुंदरकाण्ड – 11
    • हनुमानजी ने श्रीराम को सीताजी का सन्देश दिया
    • रामचन्द्रजी और हनुमान का संवाद

  • सुंदरकाण्ड – 12
    • श्री राम और हनुमानजी का संवाद
    • श्री राम का वानरों की सेना के साथ समुद्र तट पर जाना
    • मंदोदरी और रावण का संवाद


  • सुंदरकाण्ड – 14
    • विभीषण और माल्यावान का रावण को समझाना
    • विभीषण का अपमान
    • विभीषण का प्रभु श्रीरामकी शरण के लिए प्रस्थान

  • सुंदरकाण्ड – 15
    • विभीषण का प्रभु श्रीरामकी शरण के लिए प्रस्थान
    • विभीषण को भगवान रामकी शरण प्राप्ति


  • सुंदरकाण्ड – 17
    • विभीषण की भगवान् श्रो रामसे प्रार्थना
    • समुद्र पार करने के लिए विचार

  • सुंदरकाण्ड – 18
    • रावणदूत शुक का आना
    • लक्ष्मणजी के पत्र को लेकर रावणदूत का लौटना
    • दूत का रावण को समझाना

  • सुंदरकाण्ड – 19
    • रावणदूत शुक का रावण को समझाना
    • समुद्र पर श्री रामजी का क्रोध

  • सुंदरकाण्ड – 20
    • समुद्र पर श्री रामजी का क्रोध
    • समुद्र की श्री राम से विनती
  • मंगलाचरण – सुंदरकाण्ड
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Sunderkand is the fifth book in the Hindu epic, Ramayana and Ramcharitmanas. It depicts the adventures of Hanuman. This is the only chapter of the Ramayana in which the hero is not Rama, but rather Hanuman. Hanumanji’s strength and devotion to Shree Rama are emphasized in Sunderkand.

Sunderkand – Audio + Chaupai – 02


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Sunderkand Audio – 2

<<<< Continued from Sunderkand Chaupai – 1

Listen to Sunderkand Chaupai of this page

Shri Ashvinkumar Pathak (Guruji)
श्री अश्विन कुमार पाठक (गुरूजी)
(Jay Shree Ram Sundarkand Parivar)

श्री राम, जय राम, जय जय राम

मंगल भवन अमंगल हारी,
द्रवहु सुदसरथ अचर बिहारी॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजी लंकासे लौटने से पहले सीताजी से मिले

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा।
जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा॥
चूड़ामनि उतारि तब दयऊ।
हरष समेत पवनसुत लयऊ॥


कहेहु तात अस मोर प्रनामा।
सब प्रकार प्रभु पूरनकामा॥
दीन दयाल बिरिदु संभारी।
हरहु नाथ सम संकट भारी॥


तात सक्रसुत कथा सनाएहु।
बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु॥
मास दिवस महुँ नाथु न आवा।
तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा॥


कहु कपि केहि बिधि राखौं प्राना।
तुम्हहू तात कहत अब जाना॥
तोहि देखि सीतलि भइ छाती।
पुनि मो कहुँ सोइ दिनु सो राती॥


दोहा (Doha – Sunderkand)

जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह।
चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह ॥27॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजीका लंका से वापिस लौटना

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

चलत महाधुनि गर्जेसि भारी।
गर्भ स्रवहिं सुनि निसिचर नारी॥
नाघि सिंधु एहि पारहि आवा।
सबद किलिकिला कपिन्ह सुनावा॥


(राका दिन पहूँचेउ हनुमन्ता। धाय धाय कापी मिले तुरन्ता।।
हनुमानजीने लंकासे लौटकर कार्तिककी पूर्णिमाके दिन वहां पहुंचे। उस समय दौड़ दौड़ कर वानर बडी त्वराके साथ हनुमानजीसे मिले।।)


हरषे सब बिलोकि हनुमाना।
नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना॥
मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा।
कीन्हेसि रामचंद्र कर काजा॥


मिले सकल अति भए सुखारी।
तलफत मीन पाव जिमि बारी॥
चले हरषि रघुनायक पासा।
पूँछत कहत नवल इतिहासा॥


तब मधुबन भीतर सब आए।
अंगद संमत मधु फल खाए॥
रखवारे जब बरजन लागे।
मुष्टि प्रहार हनत सब भागे॥


दोहा (Doha – Sunderkand)

जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज।
सुनि सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज ॥28॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजी सुग्रीव से मिले

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

जौं न होति सीता सुधि पाई।
मधुबन के फल सकहिं कि खाई॥
एहि बिधि मन बिचार कर राजा।
आइ गए कपि सहित समाजा॥


आइ सबन्हि नावा पद सीसा।
मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा॥
पूँछी कुसल कुसल पद देखी।
राम कृपाँ भा काजु बिसेषी॥


नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना।
राखे सकल कपिन्ह के प्राना॥
सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ।
कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ॥


राम कपिन्ह जब आवत देखा।
किएँ काजु मन हरष बिसेषा॥
फटिक सिला बैठे द्वौ भाई।
परे सकल कपि चरनन्हि जाई॥


दोहा (Doha – Sunderkand)

प्रीति सहित सब भेंटे रघुपति करुना पुंज॥
पूछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज ॥29॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजी और सुग्रीव रामचन्द्रजी से मिले

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

जामवंत कह सुनु रघुराया।
जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया॥
ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर।
सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर॥


सोइ बिजई बिनई गुन सागर।
तासु सुजसु त्रैलोक उजागर॥
प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू।
जन्म हमार सुफल भा आजू॥


नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी।
सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी॥
(जो मुख लाखहु जाइ न बरणी।।)
पवनतनय के चरित सुहाए।
जामवंत रघुपतिहि सुनाए॥


सुनत कृपानिधि मन अति भाए।
पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए॥
कहहु तात केहि भाँति जानकी।
रहति करति रच्छा स्वप्रान की॥


दोहा (Doha – Sunderkand)

नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट ॥30॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमान ने रामचन्द्रजी को सीताजी का सन्देश दिया

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

चलत मोहि चूड़ामनि दीन्ही।
रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही॥
नाथ जुगल लोचन भरि बारी।
बचन कहे कछु जनककुमारी॥


अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना।
दीन बंधु प्रनतारति हरना॥
मन क्रम बचन चरन अनुरागी।
केहिं अपराध नाथ हौं त्यागी॥


अवगुन एक मोर मैं माना।
बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना॥
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा।
निसरत प्रान करहिं हठि बाधा॥


बिरह अगिनि तनु तूल समीरा।
स्वास जरइ छन माहिं सरीरा॥
नयन स्रवहिं जलु निज हित लागी।
जरैं न पाव देह बिरहागी॥


सीता कै अति बिपति बिसाला।
बिनहिं कहें भलि दीनदयाला॥


दोहा (Doha – Sunderkand)

निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति।
बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति ॥31॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

रामचन्द्रजी और हनुमान का संवाद

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना।
भरि आए जल राजिव नयना॥
बचन कायँ मन मम गति जाही।
सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही॥


कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई।
जब तव सुमिरन भजन न होई॥
केतिक बात प्रभु जातुधान की।
रिपुहि जीति आनिबी जानकी॥


सुनु कपि तोहि समान उपकारी।
नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी॥
प्रति उपकार करौं का तोरा।
सनमुख होइ न सकत मन मोरा॥


सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं।
देखेउँ करि बिचार मन माहीं॥
पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता।
लोचन नीर पुलक अति गाता॥


दोहा (Doha – Sunderkand)

सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत।
चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत ॥32॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

श्री राम और हनुमानजी का संवाद

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

बार बार प्रभु चहइ उठावा।
प्रेम मगन तेहि उठब न भावा॥
प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा।
सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा॥


सावधान मन करि पुनि संकर।
लागे कहन कथा अति सुंदर॥
कपि उठाई प्रभु हृदयँ लगावा।
कर गहि परम निकट बैठावा॥


कहु कपि रावन पालित लंका।
केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका॥
प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना।
बोला बचन बिगत अभिमाना॥


साखामग कै बड़ि मनुसाई।
साखा तें साखा पर जाई॥
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा।
निसिचर गन बधि बिपिन उजारा॥


सो सब तव प्रताप रघुराई।
नाथ न कछू मोरि प्रभुताई॥


दोहा (Doha – Sunderkand)

ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल।
तव प्रभावँ बड़वानलहि जारि सकइ खलु तूल ॥33॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

श्री राम और हनुमानजी का संवाद

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

नाथ भगति अति सुखदायनी।
देहु कृपा करि अनपायनी॥
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी।
एवमस्तु तब कहेउ भवानी॥


उमा राम सुभाउ जेहिं जाना।
ताहि भजनु तजि भाव न आना॥
यह संबाद जासु उर आवा।
रघुपति चरन भगति सोइ पावा॥


सुनि प्रभु बचन कहहिं कपिबृंदा।
जय जय जय कृपाल सुखकंदा॥
तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा।
कहा चलैं कर करहु बनावा॥


अब बिलंबु केह कारन कीजे।
तुरंत कपिन्ह कहँ आयसु दीजे॥
कौतुक देखि सुमन बहु बरषी।
नभ तें भवन चले सुर हरषी॥


दोहा (Doha – Sunderkand)

कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ।
नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ ॥34॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

श्री राम का वानरों की सेना के साथ समुद्र तट पर जाना

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा।
गर्जहिं भालु महाबल कीसा॥
देखी राम सकल कपि सेना।
चितइ कृपा करि राजिव नैना॥


राम कृपा बल पाइ कपिंदा।
भए पच्छजुत मनहुँ गिरिंदा॥
हरषि राम तब कीन्ह पयाना।
सगुन भए सुंदर सुभ नाना॥


जासु सकल मंगलमय कीती।
तासु पयान सगुन यह नीती॥
प्रभु पयान जाना बैदेहीं।
फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं॥


जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई।
असगुन भयउ रावनहिं सोई॥
चला कटकु को बरनैं पारा।
गर्जहिं बानर भालु अपारा॥


नख आयुध गिरि पादपधारी।
चले गगन महि इच्छाचारी॥
केहरिनाद भालु कपि करहीं।
डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं॥


छंद – Sunderkand

चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे।
मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि नाग किंनर दुख टरे॥
कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं।
जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं॥


छंद – Sunderkand

सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई।
गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ठ कठोर सो किमि सोहई॥
रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी।
जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी॥


दोहा (Doha – Sunderkand)

एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर।
जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर ॥35॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

मंदोदरी और रावण का संवाद

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

उहाँ निसाचर रहहिं ससंका।
जब तें जारि गयउ कपि लंका॥
निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा।
नहिं निसिचर कुल केर उवारा॥


जासु दूत बल बरनि न जाई।
तेहि आएँ पुर कवन भलाई॥
दूतिन्ह सन सुनि पुरजन बानी।
मंदोदरी अधिक अकुलानी॥


रहसि जोरि कर पति पग लागी।
बोली बचन नीति रस पागी॥
कंत करष हरि सन परिहरहू।
मोर कहा अति हित हियँ धरहू॥


समुझत जासु दूत कइ करनी।
स्रवहिं गर्भ रजनीचर घरनी॥
तासु नारि निज सचिव बोलाई।
पठवहु कंत जो चहहु भलाई॥


तव कुल कमल बिपिन दुखदाई।
सीता सीत निसा सम आई॥
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें।
हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें॥


दोहा (Doha – Sunderkand)

राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक।
जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक ॥36॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

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