Sunderkand – 03


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हनुमानजी और विभीषण का संवाद

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

सुनहु पवनसुत रहनि हमारी।
जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी॥
तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा।
करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा॥

विभीषण कहते है की हे हनुमानजी! हमारी रहनी हम कहते है सो सुनो। जैसे दांतों के बिचमें बिचारी जीभ रहती है, ऐसे हम इन राक्षसोंके बिच में रहते है॥

हे प्यारे! वे सूर्यकुल के नाथ (रघुनाथ) मुझको अनाथ जानकर कभी कृपा करेंगे?

श्री राम, जय राम, जय जय राम
तामस तनु कछु साधन नाहीं।
प्रीत न पद सरोज मन माहीं॥
अब मोहि भा भरोस हनुमंता।
बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता॥

जिससे प्रभु कृपा करे ऐसा साधन तो मेरे है नहीं। क्योंकि मेरा शरीर तो तमोगुणी राक्षस है, और न कोई प्रभुके चरणकमलों में मेरे मनकी प्रीति है॥

परन्तु हे हनुमानजी, अब मुझको इस बातका पक्का भरोसा हो गया है कि भगवान मुझपर अवश्य कृपा करेंगे। क्योंकि भगवानकी कृपा बिना सत्पुरुषोंका मिलाप नहीं होता॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
जौं रघुबीर अनुग्रह कीन्हा।
तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा॥
सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती।
करहिं सदा सेवक पर प्रीति॥

रामचन्द्रजी ने मुझपर कृपा की है। इसीसे आपने आकर मुझको दर्शन दिए है॥

विभीषणके यह वचन सुनकर हनुमानजीने कहा कि हे विभीषण! सुनो, प्रभुकी यह रीतीही है की वे सेवकपर सदा परमप्रीति किया करते है॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
कहहु कवन मैं परम कुलीना।
कपि चंचल सबहीं बिधि हीना॥
प्रात लेइ जो नाम हमारा।
तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा॥

हनुमानजी कहते है की कहो मै कौनसा कुलीन पुरुष हूँ। हमारी जाति देखो (चंचल वानर की), जो महाचंचल और सब प्रकारसे हीन गिनी जाती है॥ जो कोई पुरुष प्रातःकाल हमारा (बंदरों का) नाम ले लेवे तो उसे उसदिन खानेको भोजन नहीं मिलता॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर।
कीन्हीं कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर ॥7॥

हे सखा, सुनो मै ऐसा अधम नीच हूँ। तिस पर भी रघुवीरने कृपा कर दी, तो आप तो सब प्रकारसे उत्तम हो॥

आप पर कृपा करे इस में क्या बड़ी बात है। ऐसे प्रभु श्री रामचन्द्रजी के गुणोंका स्मरण करनेसे दोनों के नेत्रोमें आंसू भर आये॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजी और विभीषण का संवाद

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

जानतहूँ अस स्वामि बिसारी।
फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी॥
एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा।
पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा॥

जो मनुष्य जानते बुझते है ऐसे स्वामीको छोड़ बैठते है। वे दूखी क्यों न होंगे?

इस तरह रामचन्द्रजीके परम पवित्र व कानोंको सुख देने वाले गुणग्रामको (गुणसमूहोंको) विभीषणके कहते कहते हनुमानजी ने विश्राम पाया॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
पुनि सब कथा बिभीषन कही।
जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही॥
तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता।
देखी चहउँ जानकी माता॥

फिर विभीषण ने हनुमानजी से वह सब कथा कही, कि सीताजी जिस जगह, जिस तरह रहती थी। तब हनुमानजी ने विभीषण से कहा हे भाई सुनो, मैं सीता माताको देखना चाहता हूँ॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
जुगुति बिभीषन सकल सुनाई।
चलेउ पवनसुत बिदा कराई॥
करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ।
बन असोक सीता रह जहवाँ॥

सो मुझे उपाय बताओ। हनुमानजी के यह वचन सुनकर विभीषण ने वहांकी सब तदबिज सुनाई। तब हनुमानजी भी विभीषणसे विदा लेकर वहांसे चले॥

फिर वैसाही छोटासा स्वरुप धर कर हनुमानजी वहा गए कि जहा अशोकवनमें सीताजी रहा करती थी॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजी ने अशोकवन में सीताजी को देखा

देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रनामा।
बैठेहिं बीति जात निसि जामा॥
कृस तनु सीस जटा एक बेनी।
जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी॥

हनुमानजी ने सीताजी का दर्शन करके उनको मनही मनमें प्रणाम किया और बैठे। इतने में एक प्रहर रात्रि बीत गयी॥

हनुमानजी सीताजी को देखते है, सो उनका शरीर तो बहुत दुबला हो रहा है। सरपर लटोकी एक वेणी बंधी हुई है। और अपने मनमें श्री राम के गुणों का जप कर रही है॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन।
परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन ॥8॥

और अपने पैरो में दृष्टि लगा रखी है। मन रामचन्द्रजी के चरणों में लीन हो रहा है।
सीताजीकी यह दीन दशा देखकर हनुमानजीको बड़ा दुःख हुआ॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

अशोक वाटिका में रावण और सीताजी का संवाद

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

तरु पल्लव महँ रहा लुकाई।
करइ बिचार करौं का भाई॥
तेहि अवसर रावनु तहँ आवा।
संग नारि बहु किएँ बनावा॥
बहु बिधि खल सीतहि समुझावा।
साम दान भय भेद देखावा॥
कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी।
मंदोदरी आदि सब रानी॥

हनुमानजी वृक्षों के पत्तो की ओटमें छिपे हुए मनमें विचार करने लगे कि हे भाई अब मै क्या करू? ॥

उस अवसरमें बहुतसी स्त्रियोंको संग लिए रावण वहा आया। जो स्त्रिया रावणके संग थी, वे बहुत प्रकार के गहनों से बनी ठनी थी॥बहु बिधि खल सीतहि समुझावा।

साम दान भय भेद देखावा॥
कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी।
मंदोदरी आदि सब रानी॥

उस दुष्टने सीताजी को अनेक प्रकार से समझाया। साम, दाम, भय और भेद अनेक प्रकारसे दिखाया॥
रावणने सीतासे कहा कि हे सुमुखी! जो तू एकबार भी मेरी तरफ देख ले तो हे सयानी॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
तव अनुचरीं करउँ पन मोरा।
एक बार बिलोकु मम ओरा॥
तृन धरि ओट कहति बैदेही।
सुमिरि अवधपति परम सनेही॥

जो ये मेरी मंदोदरी आदी रानियाँ है इन सबको तेरी दासियाँ बना दूं यह मेरा प्रण जान॥

रावण का वचन सुन बीचमें तृण रखकर (तिनके का आड़ – परदा रखकर), परम प्यारे रामचन्द्रजीका स्मरण करके सीताजीने रावण से कहा॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा।
कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा॥
अस मन समुझु कहति जानकी।
खल सुधि नहिं रघुबीर बान की॥

की हे रावण! सुन, खद्योत अर्थात जुगनू के प्रकाश से कमलिनी कदापी प्रफुल्लित नहीं होती। किंतु कमलिनी सूर्यके प्रकाशसेही प्रफुल्लित होती है। अर्थात तू खद्योतके (जुगनूके) समान है और रामचन्द्रजी सूर्यके सामान है॥

सीताजीने अपने मन में ऐसे समझकर रावणसे कहा कि रे दुष्ट! रामचन्द्रजीके बाणको अभी भूल गया क्या? वह रामचन्द्रजी का बाण याद नहीं है॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
सठ सूनें हरि आनेहि मोही।
अधम निलज्ज लाज नहिं तोही॥

अरे निर्लज्ज! अरे अधम! रामचन्द्रजी के सूने तू मुझको ले आया। तुझे शर्म नहीं आती॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

आपुहि सुनि खद्योत सम रामहि भानु समान।
परुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन ॥9॥

सीता के मुख से कठोर वचन अर्थात अपनेको खद्योतके (जुगनूके) तुल्य और रामचन्द्रजीको सुर्यके समान सुनकर रावण को बड़ा क्रोध हुआ। जिससे उसने तलवार निकाल कर ये वचन कहे ॥9॥


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Sunderkand – 04


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रावण और सीताजी का संवाद

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

सीता तैं मम कृत अपमाना।
कटिहउँ तव सिर कठिन कृपाना॥
नाहिं त सपदि मानु मम बानी।
सुमुखि होति न त जीवन हानी॥

हे सीता! तूने मेरा मान भंग कर दिया है। इस वास्ते इस कठोर खडग (कृपान) से मैं तेरा सिर उड़ा दूंगा॥
हे सुमुखी, या तो तू जल्दी मेरा कहना मान ले, नहीं तो तेरा जी जाता है॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
स्याम सरोज दाम सम सुंदर।
प्रभु भुज करि कर सम दसकंधर॥
सो भुज कंठ कि तव असि घोरा।
सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा॥

रावण के ये वचन सुनकर सीताजी ने कहा, हे शठ रावण, सुन, मेरा भी तो ऐसा पक्का प्रण है की या तो इस कंठपर श्याम कमलोकी मालाके समान सुन्दर और हाथिओ के सुन्ड के समान सुढार रामचन्द्रजी की भुजा रहेगी या तेरा यह महाघोर खडंग रहेगा। अर्थात रामचन्द्रजी के बिना मुझे मरना मंजूर है पर अन्यका स्पर्श नहीं करूंगी॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
चंद्रहास हरु मम परितापं।
रघुपति बिरह अनल संजातं॥
सीतल निसित बहसि बर धारा।
कह सीता हरु मम दुख भारा॥

सीता उस तलवार से प्रार्थना करती है कि हे तलवार! तू मेरा सिर उडाकर मेरे संताप को दूर कर क्योंकि मै रामचन्द्रजीकी विरहरूप अग्निसे संतप्त हो रही हूँ॥

सीताजी कहती है, हे असिवर! तेरी धाररूप शीतल रात्रिसे मेरे भारी दुख़को दूर कर॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
सुनत बचन पुनि मारन धावा।
मयतनयाँ कहि नीति बुझावा॥
कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई।
सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई॥

सीताजीके ये वचन सुनकर, रावण फिर सीताजी को मारने को दौड़ा। तब मय दैत्यकी कन्या मंदोदरी ने नितिके वचन कह कर उसको समझाया॥

फिर रावणने सीताजीकी रखवारी सब राक्षसियोंको बुलाकर कहा कि तुम जाकर सीता को अनेक प्रकार से त्रास दिखाओ॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
मास दिवस महुँ कहा न माना।
तौ मैं मारबि काढ़ि कृपाना॥

यदि वह एक महीने के भीतर मेरा कहना नहीं मानेगी तो मैं तलवार निकाल कर उसे मार डालूँगा॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

भवन गयउ दसकंधर इहाँ पिसाचिनि बृंद।
सीतहि त्रास देखावहिं धरहिं रूप बहु मंद ॥10॥

उधर तो रावण अपने भवनके भीतर गया। इधर वे नीच राक्षसियोंके झुंडके झुंड अनेक प्रकारके रूप धारण कर के सीताजी को भय दिखाने लगे॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

त्रिजटा का स्वप्न

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

त्रिजटा नाम राच्छसी एका।
राम चरन रति निपुन बिबेका॥
सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना।
सीतहि सेइ करहु हित अपना॥

उनमें एक त्रिजटा नाम की राक्षसी थी। वह रामचन्द्रजीके चरनोंकी परमभक्त और बड़ी निपुण और विवेकवती थी॥

उसने सब राक्षसियों को अपने पास बुलाकर, जो उसको सपना आया था, वह सबको सुनाया और उनसे कहा की हम सबको सीताजी की सेवा करके अपना हित कर लेना चाहिए॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
सपनें बानर लंका जारी।
जातुधान सेना सब मारी॥
खर आरूढ़ नगन दससीसा।
मुंडित सिर खंडित भुज बीसा॥

क्योकि मैंने सपने में ऐसा देखा है कि एक वानरने लंकापुरीको जलाकर राक्षसों की सारी सेनाको मार डाला॥

और रावण गधेपर सवार होकर दक्षिण दिशामें जाता हुआ मैंने सपने में देखा है। वह भी कैसा की नग्नशरीर, सिर मुंडा हुआ और बीस भुजायें टूटी हुई॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई।
लंका मनहुँ बिभीषन पाई॥
नगर फिरी रघुबीर दोहाई।
तब प्रभु सीता बोलि पठाई॥

और मैंने यह भी देखा है कि मानो लंकाका राज विभिषणको मिल गया है॥

और नगरिके अन्दर रामचन्द्रजी की दुहाई फिर गयी है। तब रामचन्द्रजीने सीताको बुलाने के लिए बुलावा भेजा है॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
यह सपना मैं कहउँ पुकारी।
होइहि सत्य गएँ दिन चारी॥
तासु बचन सुनि ते सब डरीं।
जनकसुता के चरनन्हि परीं॥

त्रिजटा कहती है की मै आपसे यह बात खूब सोच कर कहती हूँ की, यह स्वप्न चार दिन बितने के बाद सत्य हो जाएगा॥

त्रिजटाके ये वचन सुनकर सब राक्षसियाँ डर गई। और डरके मारे सब सीताजीके चरणों में गिर पड़ी॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

जहँ तहँ गईं सकल तब सीता कर मन सोच।
मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच ॥11॥

फिर सब राक्षसियाँ मिलकर जहां तहां चली गयी। तब सीताजी अपने मनमें सोच करने लगी की एक महिना बितनेके बाद यह नीच राक्षस (रावण) मुझे मार डालेगा ॥11॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

सीताजी और त्रिजटा का संवाद

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

त्रिजटा सन बोलीं कर जोरी।
मातु बिपति संगिनि तैं मोरी॥
तजौं देह करु बेगि उपाई।
दुसह बिरहु अब नहिं सहि जाई॥

फिर त्रिजटाके पास हाथ जोड़कर सीताजी ने कहा की हे माता! तू मेरी सच्ची विपत्तिकी साथिन है॥

सीताजी कहती है की जल्दी उपाय कर नहीं तो मै अपना देह तजती हूँ। क्योंकि अब मुझसे अति दुखद विरहका दुःख सहा नहीं जाता॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
आनि काठ रचु चिता बनाई।
मातु अनल पुनि देहि लगाई॥
सत्य करहि मम प्रीति सयानी।
सुनै को श्रवन सूल सम बानी॥

हे माता! अब तू जल्दी काठ ला और चिता बना कर मुझको जलानेके वास्ते जल्दी उसमे आग लगा दे॥

हे सयानी! तू मेरी प्रीति सत्य कर। सीताजीके ऐसे शूलके सामान महाभयानाक वचन सुनकर॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

त्रिजटा ने सीताजी को सान्तवना दी

सुनत बचन पद गहि समुझाएसि।
प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि॥
निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी।
अस कहि सो निज भवन सिधारी॥

त्रिजटा ने तुरंत सीताजी के चरणकमल गहे और सिताजीको समझाया और प्रभु रामचन्द्रजी का प्रताप, बल और उनका सुयश सुनाया॥

और सिताजीसे कहा की हे राजपुत्री! अभी रात्री है, इसलिए अभी अग्नि नहीं मिल सकती। ऐसा कहा कर वहा अपने घरको चली गयी॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
कह सीता बिधि भा प्रतिकूला।
हिमिलि न पावक मिटिहि न सूला॥
देखिअत प्रगट गगन अंगारा।
अवनि न आवत एकउ तारा॥

तब अकेली बैठी बैठी सीताजी कहने लगी की क्या करू दैवही प्रतिकूल हो गया। अब न तो अग्नि मिले और न मेरा दुःख कोई तरहसे मिट सके॥

ऐसे कह तारोको देख कर सीताजी कहती है की ये आकाशके भीतर तो बहुतसे अंगारे प्रकट दीखते है परंतु पृथ्वीपर पर इनमेसे एकभी तारा नहीं आता॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
पावकमय ससि स्रवत न आगी।
मानहुँ मोहि जानि हतभागी॥
सुनहि बिनय मम बिटप असोका।
सत्य नाम करु हरु मम सोका॥

सीताजी चन्द्रमा को देखकर कहती है कि यह चन्द्रमा का स्वरुप साक्षात अग्निमय दिख पड़ता है पर यहभी मानो मुझको मंदभागिन जानकार आगको नहीं बरसाता॥

अशोकके वृक्ष को देखकर उससे प्रार्थना करती है कि हे अशोक वृक्ष! मेरी विनती सुनकर तू अपना नाम सत्य कर। अर्थात मुझे अशोक अर्थात शोकरहित कर। मेरे शोकको दूर कर॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
नूतन किसलय अनल समाना।
देहि अगिनि जनि करहि निदाना॥
देखि परम बिरहाकुल सीता।
सो छन कपिहि कलप सम बीता॥

हे अग्निके समान रक्तवर्ण नविन कोंपलें (नए कोमल पत्ते)! तुम मुझको अग्नि देकर मुझको शांत करो॥

इस प्रकार सीताजीको विरह से अत्यन्त व्याकुल देखकर हनुमानजीका वह एक क्षण कल्पके समान बीतता गया॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारि तब।
जनु असोक अंगार दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ ॥12॥

उस समय हनुमानजीने अपने मनमे विचार करके अपने हाथमेंसे मुद्रिका (अँगूठी) डाल दी। सो सीताजी को वह मुद्रिका उससमय कैसी दिख पड़ी की मानो अशोकके अंगारने प्रगट हो कर हमको आनंद दिया है (मानो अशोक ने अंगारा दे दिया।)। सो सिताजीने तुरंत उठकर वह मुद्रिका अपने हाथमें ले ली ॥12॥


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Sunderkand – 05


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हनुमान सीताजी से मिले

Sunderkand - Hanuman Meets Sitaji


चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

तब देखी मुद्रिका मनोहर।
राम नाम अंकित अति सुंदर॥
चकित चितव मुदरी पहिचानी।
हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी॥

फिर सीताजीने उस मुद्रिकाको देखा तो वह सुन्दर मुद्रिका रामचन्द्रजीके मनोहर नामसे अंकित हो रही थी अर्थात उसपर श्री राम का नाम खुदा हुआ था॥
उस मुद्रिकाको देखतेही सीताजी चकित होकर देखने लगी। आखिर उस मुद्रिकाको पहचान कर हृदय में अत्यंत हर्ष और विषादको प्राप्त हुई और बहुत अकुलाई॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

जीति को सकइ अजय रघुराई।
माया तें असि रचि नहिं जाई॥
सीता मन बिचार कर नाना।
मधुर बचन बोलेउ हनुमाना॥

यह क्या हुआ? यह रामचन्द्रजीकी नामांकित मुद्रिका यहाँ कैसे आयी? या तो उन्हें जितनेसे यह मुद्रिका यहाँ आ सकती है, किंतु उन अजेय रामचन्द्रजीको जीत सके ऐसा तो जगतमे कौन है? अर्थात उनको जीतनेवाला जगतमे है ही नहीं। और जो कहे की यह राक्षसोने मायासे बनाई है सो यह भी नहीं हो सकता। क्योंकि मायासे ऐसी बन नहीं सकती॥
इस प्रकार सीताजी अपने मनमे अनेक प्रकार से विचार कर रही थी। इतनेमें ऊपरसे हनुमानजी ने मधुर वचन कहे॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

रामचंद्र गुन बरनैं लागा।
सुनतहिं सीता कर दुख भागा॥
लागीं सुनैं श्रवन मन लाई।
आदिहु तें सब कथा सुनाई॥

हनुमानजी रामचन्द्रजीके गुनोका वर्णन करने लगे। उनको सुनतेही सीताजीका सब दुःख दूर हो गया॥
और वह मन और कान लगा कर सुनने लगी। हनुमानजीने भी आरंभसे लेकर सब कथा सीताजी को सुनाई॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई।
कही सो प्रगट होति किन भाई॥
तब हनुमंत निकट चलि गयऊ।
फिरि बैठीं मन बिसमय भयऊ॥

हनुमानजीके मुखसे रामचन्द्रजीका चरितामृत सुनकर सीताजीने कहा कि जिसने मुझको यह कानोंको अमृतसी मधुर लगनेवाली कथा सुनाई है वह मेरे सामने आकर प्रकट क्यों नहीं होता?
सीताजीके ये वचन सुनकर हनुमानजी चलकर उनके समीप गए तो हनुमानजी का वानर रूप देखकर सीताजीके मनमे बड़ा विस्मय हुआ की यह क्या! सो कपट समझकर हनुमानजी को पीठ देकर बैठ गयी॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

राम दूत मैं मातु जानकी।
सत्य सपथ करुनानिधान की॥
यह मुद्रिका मातु मैं आनी।
दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी॥

तब हनुमानजीने सीताजीसे कहा की हे माता! मै रामचन्द्रजीका दूत हूं। मै रामचन्द्रजीकी शपथ खाकर कहता हूँ की इसमें फर्क नहीं है॥
और रामचन्द्रजीने आपके लिए जो निशानी दी थी, वह यह मुद्रिका (अँगूठी) मैंने लाकर आपको दी है॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

नर बानरहि संग कहु कैसें।
कही कथा भइ संगति जैसें॥

तब सिताजी ने कहा की हे हनुमान! नर और वानरोंके बीच आपसमें प्रीति कैसे हुई वह मुझे कह। तब उनके परस्परमे जैसे प्रीति हुई थी वे सब समाचार हनुमानजी ने सिताजीसे कहे॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास
जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास ॥13॥

हनुमानजीके प्रेमसहित वचन सुनकर सीताजीके मनमे पक्का भरोसा आ गया और उन्होंने जान लिया की यह मन, वचन और कायासे कृपासिंधु श्रीरामजी के दास है॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमान ने सीताजी को आश्वासन दिया

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी।
सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी॥
बूड़त बिरह जलधि हनुमाना।
भयहु तात मो कहुँ जलजाना॥

हनुमानजी को हरिभक्त जानकर सीताजीके मन में अत्यंत प्रीति बढ़ी, शरीर अत्यंत पुलकित हो गया और नेत्रोमे जल भर आया॥
सीताजीने हनुमान से कहा की हे हनुमान! मै विरहरूप समुद्रमें डूब रही थी, सो हे तात! मुझको तिरानेके लिए तुम नौका हुए हो॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी।
अनुज सहित सुख भवन खरारी॥
कोमलचित कृपाल रघुराई।
कपि केहि हेतु धरी निठुराई॥

अब तुम मुझको बताओ कि सुखधाम श्रीराम लक्ष्मणसहित कुशल तो है॥
हे हनुमान! रामचन्द्रजी तो बड़े दयालु और बड़े कोमलचित्त है। फिर यह कठोरता आपने क्यों धारण कि है? ॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

सहज बानि सेवक सुखदायक।
कबहुँक सुरति करत रघुनायक॥
कबहुँ नयन मम सीतल ताता।
होइहहिं निरखि स्याम मृदु गाता॥

यह तो उनका सहज स्वभावही है कि जो उनकी सेवा करता है उनको वे सदा सुख देते रहते है॥ सो हे हनुमान! वे रामचन्द्रजी कभी मुझको भी याद करते है? ॥
कभी मेरे भी नेत्र रामचन्द्रजीके कोमल श्याम शरिरको देखकर शीतल होंगे॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

बचनु न आव नयन भरे बारी।
अहह नाथ हौं निपट बिसारी॥
देखि परम बिरहाकुल सीता।
बोला कपि मृदु बचन बिनीता॥

सीताजीकी उस समय यह दशा हो गयी कि मुखसे वचन निकलना बंद हो गया और नेत्रोमें जल भर आया। इस दशा में सीताजीने प्रार्थना की, कि हे नाथ! मुझको आप बिल्कुल ही भूल गए॥
सीताजीको विरह्से अत्यंत व्याकुल देखकर हनुमानजी बड़े विनयके साथ कोमल वचन बोले॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

मातु कुसल प्रभु अनुज समेता।
तव दुख दुखी सुकृपा निकेता॥
जनि जननी मानह जियँ ऊना।
तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना॥

हे माता! लक्ष्मणसहित रामचन्द्रजी सब प्रकार से प्रसन्न है, केवल एक आपके दुःख से तो वे कृपानिधान अवश्य दुखी है। बाकी उनको कुछ भी दुःख नहीं है॥
हे माता! आप अपने मनको उन मत मानो (अर्थात रंज मत करो, मन छोटा करके दुःख मत कीजिए), क्योंकि रामचन्द्रजीका प्यार आपकी और आपसे भी दुगुना है॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर।
अस कहि कपि गदगद भयउ भरे बिलोचन नीर ॥14॥

हे माता! अब मै आपको जो रामचन्द्रजीका संदेशा सुनाता हूं सो आप धीरज धारण करके उसे सुनो ऐसे कह्तेही हनुमानजी प्रेम से गदगद हो गए और नेत्रोमे जल भर आया ॥14॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमान ने सीताजीको रामचन्द्रजीका सन्देश दिया

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

कहेउ राम बियोग तव सीता।
मो कहुँ सकल भए बिपरीता॥
नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू।
कालनिसा सम निसि ससि भानू॥

हनुमानजी ने सीताजी से कहा कि हे माता! रामचन्द्रजी ने जो सन्देश भेजा है वह सुनो। रामचन्द्रजी ने कहा है कि तुम्हारे वियोगमें मेरे लिए सभी बाते विपरीत हो गयी है॥
नविन कोपलें तो मानो अग्निरूप हो गए है। रात्रि मानो कालरात्रि बन गयी है। चन्द्रमा सूरजके समान दिख पड़ता है॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा।
बारिद तपत तेल जनु बरिसा॥
जे हित रहे करत तेइ पीरा।
उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा॥

कमलोका वन मानो भालोके समूहके समान हो गया है। मेघकी वृष्टि मानो तापे हुए तेलके समान लगती है॥
मै जिस वृक्षके तले बैठता हूं, वही वृक्ष मुझको पीड़ा देता है और शीतल, सुगंध, मंद पवन मुझको साँपके श्वासके समान प्रतीत होता है॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

कहेहू तें कछु दुख घटि होई।
काहि कहौं यह जान न कोई॥
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा।
जानत प्रिया एकु मनु मोरा॥

और अधिक क्या कहूं? क्योंकि कहनेसे कोई दुःख घट थोडाही जाता है? परन्तु यह बात किसको कहूं! कोई नहीं जानता॥
मेरे और आपके प्रेमके तत्वको कौन जानता है! कोई नहीं जानता। केवल एक मेरा मन तो उसको भलेही पहचानता है॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं।
जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं॥
प्रभु संदेसु सुनत बैदेही।
मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही॥

पर वह मन सदा आपके पास रहता है। इतने ही में जान लेना कि राम किस कदर प्रेमके वश है॥
रामचन्द्रजीके सन्देश सुनतेही सीताजी ऐसी प्रेममे मग्न हो गयी कि उन्हें अपने शरीरकी भी सुध न रही॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

कह कपि हृदयँ धीर धरु माता।
सुमिरु राम सेवक सुखदाता॥
उर आनहु ताई।रघुपति प्रभु
सुनि मम बचन तजहु कदराई॥

उस समय हनुमानजीने सीताजीसे कहा कि हे माता! आप सेवकजनोंके सुख देनेवाले श्रीराम को याद करके मनमे धीरज धरो॥
श्रीरामचन्द्रजीकी प्रभुताको हृदयमें मानकर मेरे वचनोको सुनकर विकलताको तज दो (छोड़ दो)॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु।
जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु ॥15॥

हे माता! रामचन्द्रजीके बानरूप अग्निके आगे इस राक्षस समूहको आप पतंगके समान जानो और इन सब राक्षसोको जले हुए जानकर मनमे धीरज धरो ॥15॥


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Sunderkand – 06


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सीताजीके मन में संदेह

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

जौं रघुबीर होति सुधि पाई।
करते नहिं बिलंबु रघुराई॥
राम बान रबि उएँ जानकी।
तम बरुथ कहँ जातुधान की॥

हे माता! जो रामचन्द्रजीको आपकी खबर मिल जाती तो प्रभु कदापि विलम्ब नहीं करते॥

क्योंकि रामचन्द्रजी के बानरूप सूर्यके उदय होनेपर राक्षस समूहरूप अन्धकार पटलका पता कहाँ है? ॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
अबहिं मातु मैं जाउँ लवाई।
प्रभु आयुस नहिं राम दोहाई॥
कछुक दिवस जननी धरु धीरा।
कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा॥

हनुमानजी कहते है की हे माता! मै आपको अभी ले जाऊं, परंतु करूं क्या? रामचन्द्रजीकी आपको ले आनेकी आज्ञा नहीं है। इसलिए मै कुछ कर नहीं सकता। यह बात मै रामचन्द्रजीकी शपथ खाकर कहता हूँ॥

इसलिए हे माता! आप कुछ दिन धीरज धरो। रामचन्द्रजी वानरोंकें साथ यहाँ आयेंगे॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं।
तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं॥
हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना।
जातुधान अति भट बलवाना॥

और राक्षसोंको मारकर आपको ले जाएँगे। तब रामचन्द्रजीका यह सुयश तीनो लोकोमें नारदादि मुनि गाएँगे॥

हनुमानजी की यह बात सुनकर सीताजी ने कहा की हे पुत्र! सभी वानर तो तुम्हारे सामान है और राक्षस बड़े योद्धा और बलवान है। फिर यह बात कैसे बनेगी? ॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
मोरें हृदय परम संदेहा।
सुनि कपि प्रगट कीन्हि निज देहा॥
कनक भूधराकार सरीरा।
समर भयंकर अतिबल बीरा॥

इसका मेरे मनमे बड़ा संदेह है। सीताजीका यह वचन सुनकर हनुमानजीने अपना शरीर प्रकट किया॥

की जो शरीर सुवर्ण के पर्वत के समान विशाल, युद्धके बिच बड़ा विकराल और रणके बीच बड़ा धीरजवाला था॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
सीता मन भरोस तब भयऊ।
पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ॥

हनुमानजीके उस शरीरको देखकर सीताजीके मनमें पक्का भरोसा आ गया। तब हनुमानजी ने अपना छोटा स्वरूप धर लिया॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल।
प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल ॥16॥

हनुमानजीने कहा कि हे माता! सुनो, वानरोंमे कोई विशाल बुद्धि का बल नहीं है। परंतु प्रभुका प्रताप ऐसा है की उसके बलसे छोटासा सांप गरूडको खा जाता है ॥16॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

सिताजीने हनुमानको आशीर्वाद दिया

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

मन संतोष सुनत कपि बानी।
भगति प्रताप तेज बल सानी॥
आसिष दीन्हि रामप्रिय जाना।
होहु तात बल सील निधाना॥

भक्ति, प्रताप, तेज और बलसे मिलीहुई हनुमानजी की वाणी सुनकर सीताजीके मनमें बड़ा संतोष हुआ॥

फिर सीताजीने हनुमान को श्री राम का प्रिय जानकर आशीर्वाद दिया कि हे तात! तुम बल और शील के निधान होओ॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
अजर अमर गुननिधि सुत होहू।
करहुँ बहुत रघुनायक छोहू॥
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना।
निर्भर प्रेम मगन हनुमाना॥

हे पुत्र! तुम अजर (जरारहित – बुढ़ापे से रहित), अमर (मरणरहित) और गुणोंका भण्डार हो और रामचन्द्रजी तुमपर सदा कृपा करें॥

‘प्रभु रामचन्द्रजी कृपा करेंगे’ ऐसे वचन सुनकर हनुमानजी प्रेमानन्दमें अत्यंत मग्न हुए॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
बार बार नाएसि पद सीसा।
बोला बचन जोरि कर कीसा॥
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता।
आसिष तव अमोघ बिख्याता॥

और हनुमानजी ने वारंवार सीताजीके चरणोंमें शीश नवाकर, हाथ जोड़कर, यह वचन बोले॥
हे माता! अब मै कृतार्थ हुआ हूँ, क्योंकि आपका आशीर्वाद सफल ही होता है, यह बात जगत् प्रसिद्ध है॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजीने अशोकवनमें फल खाने की आज्ञा मांगी

सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा।
लागि देखि सुंदर फल रूखा॥
सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी।
परम सुभट रजनीचर भारी॥

हे माता! सुनो, वृक्षोंके सुन्दर फल लगे देखकर मुझे अत्यंत भूख लग गयी है, सो मुझे आज्ञा दो॥
तब सीताजीने कहा कि हे पुत्र! सुनो, इस वनकी बड़े बड़े भारी योद्धा राक्षस रक्षा करते है॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं।
जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं॥

तब हनुमानजी ने कहा कि हे माता! जो आप मनमे सुख माने (प्रसन्न होकर आज्ञा दें), तो मुझको उनका कुछ भय नहीं है॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु।
रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु ॥17॥

तुलसीदासजी कहते है कि हनुमानजीका विलक्षण बुद्धिबल देखकर सीताजीने कहा कि हे पुत्र! जाओ, रामचन्द्रजी के चरणों को हृदयमे रख कर मधुर मधुर फल खाओ ॥17॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

अशोक वाटिका विध्वंस और अक्षय कुमार का वध

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा।
फल खाएसि तरु तोरैं लागा॥
रहे तहाँ बहु भट रखवारे।
कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे॥

सीताजी के वचन सुनकर उनको प्रणाम करके हनुमानजी बाग के अन्दर घुस गए। फल फल तो सब खा गए और वृक्षोंको तोड़ मरोड़ दिया॥

जो वहां रक्षाके के लिए राक्षस रहते थे उनमेसे से कुछ मारे गए और कुछ रावणसे पुकारे (रावण के पास गए और कहा)॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
नाथ एक आवा कपि भारी।
तेहिं असोक बाटिका उजारी॥
खाएसि फल अरु बिटप उपारे।
रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे॥

कि हे नाथ! एक बड़ा भारी वानर आया है। उसने तमाम अशोकवनका सत्यानाश कर दिया है॥

उसने फल फल तो सारे खा लिए है, और वृक्षोंको उखड दिया है। और रखवारे राक्षसोंको पटक पटक कर मार गिराया है॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
सुनि रावन पठए भट नाना।
तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना॥
सब रजनीचर कपि संघारे।
गए पुकारत कछु अधमारे॥

यह बात सुनकर रावण ने बहुत सुभट पठाये (राक्षस योद्धा भेजे)। उनको देखकर युद्धके उत्साहसे हनुमानजीने भारी गर्जना की॥

हनुमानजीने उसी समय तमाम राक्षसोंको मार डाला। जो कुछ अधमरे रह गए थे वे वहा से पुकारते हुए भागकर गए॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा।
चला संग लै सुभट अपारा॥
आवत देखि बिटप गहि तर्जा।
ताहि निपाति महाधुनि गर्जा॥

फिर रावण ने मंदोदरिके पुत्र अक्षय कुमार को भेजा। वह भी असंख्य योद्धाओं को संग लेकर गया।

उसे आते देखतेही हनुमानजीने हाथमें वृक्ष लेकर उसपर प्रहार किया और उसे मारकर फिर बड़े भारी शब्दसे (जोर से) गर्जना की॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि।
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि ॥18॥

हनुमानजीने कुछ राक्षसोंको मारा और कुछ को कुचल डाला और कुछ को धूल में मिला दिया। और जो बच गए थे वे जाकर रावण के आगे पुकारे कि हे नाथ! वानर बड़ा बलवान है। उसने अक्षयकुमारको मारकर सारे राक्षसोंका संहार कर डाला॥


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Sunderkand – 07


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हनुमानजी का मेघनाद से युद्ध

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

सुनि सुत बध लंकेस रिसाना।
पठएसि मेघनाद बलवाना॥
मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही।
देखिअ कपिहि कहाँ कर आही॥

रावण राक्षसोंके मुखसे अपने पुत्रका वध सुनकर बड़ा गुस्सा हुआ और महाबली मेघनादको भेजा॥

और मेघनादसे कहा कि हे पुत्र! उसे मारना मत किंतु बांधकर पकड़ लें आना, क्योंकि मैं भी उसे देखूं तो सही बह वानर कहाँ का है॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
चला इंद्रजित अतुलित जोधा।
बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा॥
कपि देखा दारुन भट आवा।
कटकटाइ गर्जा अरु धावा॥

इन्द्रजीत (इंद्र को जीतनेवाला) असंख्य योद्धाओ को संग लेकर चला। भाई के वध का समाचार सुनकर उसे बड़ा गुस्सा आया॥

हनुमानजी ने उसे देखकर यह कोई दारुण भट (भयानक योद्धा) आता है ऐसे जानकार कटकटाके महाघोर गर्जना की और दौड़े॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
अति बिसाल तरु एक उपारा।
बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा॥
रहे महाभट ताके संगा।
गहि गहि कपि मर्दई निज अंगा॥

एक बड़ा भारी वृक्ष उखाड़ कर उससे मेघनादको विरथ अर्थात रथहीन कर दिया॥

उसके साथ जो बड़े बड़े महाबली योद्धा थे, उन सबको पकड़ पकड़कर हनुमानजी अपने शरीर से मसल डाला॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा।
भिरे जुगल मानहुँ गजराजा॥
मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई।
ताहि एक छन मुरुछा आई॥

ऐसे उन राक्षसोंको मारकर हनुमानजी मेघनादके पास पहुँचे। फिर वे दोनों ऐसे भिड़े कि मानो दो गजराज आपस में भीड़ रहे है॥

हनुमान मेघनादको एक घूँसा मारकर वृक्ष पर जा चढ़े और मेघनादको उस प्रहार से एक क्षणभर के लिए मूर्च्छा आ गयी।

श्री राम, जय राम, जय जय राम
उठि बहोरि कीन्हिसि बहु माया।
जीति न जाइ प्रभंजन जाया॥

फिर मेघनादने सचेत होकर अनेक मायाये फैलायी पर हनुमानजी किसी प्रकार जीते नहीं गए॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

मेघनादने ब्रम्हास्त्र चलाया

दोहा (Doha – Sunderkand)

ब्रह्म अस्त्र तेहि साँधा कपि मन कीन्ह बिचार।
जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार ॥19॥

मेघनाद अनेक अस्त्र चलाकर थक गया, तब उसने ब्रम्हास्त्र चलाया। उसे देखकर हनुमानजी ने मनमे विचार किया कि इससे बंध जाना ही ठीक है।

क्योंकि जो मै इस ब्रम्हास्त्रको नहीं मानूंगा तो इस अस्त्रकी अद्भुत महिमा घट जायेगी ॥19॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

मेघनाद हनुमानजी को बंदी बनाकर रावणकी सभा में ले गया

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहिं मारा।
परतिहुँ बार कटकु संघारा॥
तेहिं देखा कपि मुरुछित भयऊ।
नागपास बाँधेसि लै गयऊ॥

मेघनादने हनुमानजीपर ब्रम्हास्त्र चलाया, उस ब्रम्हास्त्रसे हनुमानजी गिरने लगे तो गिरते समय भी उन्होंने अपने शरीरसे बहुतसे राक्षसोंका संहार कर डाला॥

जब मेघनादने जान लिया कि हनुमानजी अचेत हो गए है, तब वह उन्हें नागपाशसे बांधकर लंकामे ले गया॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
जासु नाम जपि सुनहु भवानी।
भव बंधन काटहिं नर ग्यानी॥
तासु दूत कि बंध तरु आवा।
प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा॥

महादेवजी कहते है कि हे पार्वती! सुनो, जिनके नामका जप करनेसे ज्ञानी लोग भवबंधन को काट देते है॥

उस प्रभुका दूत (हनुमानजी) भला बंधन में कैसे आ सकता है? परंतु अपने प्रभुके कार्यके लिए हनुमानने अपनेको बंधा दिया॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
कपि बंधन सुनि निसिचर धाए।
कौतुक लागि सभाँ सब आए॥
दसमुख सभा दीखि कपि जाई।
कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई॥

हनुमानजी को बंधा हुआ सुनकर सब राक्षस देखनेको दौड़े और कौतुकके लिए उसे सभामे ले आये॥

हनुमानजी ने जाकर रावण की सभा देखी, तो उसकी प्रभुता और ऐश्वर्य किसी कदर कही जाय ऐसी नहीं थी॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
कर जोरें सुर दिसिप बिनीता।
भृकुटि बिलोकत सकल सभीता॥
देखि प्रताप न कपि मन संका।
जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका॥

कारण यह है की, तमाम देवता बड़े विनय के साथ हाथ जोड़े सामने खड़े उसकी भ्रूकुटीकी ओर भयसहित देख रहे है॥

यद्यपि हनुमानजी ने उसका ऐसा प्रताप देखा, परंतु उनके मन में ज़रा भी डर नहीं था। हनुमानजी उस सभामें राक्षसोंके बीच ऐसे निडर खड़े थे कि जैसे गरुड़ सर्पोके बीच निडर रहा करता है॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद।
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिसाद ॥20॥

रावण हनुमानजी की और देखकर हँसा और कुछ दुर्वचन भी कहे, परंतु फिर उसे पुत्रका मरण याद आजानेसे उसके हृदयमे बड़ा संताप पैदा हुआ॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजी और रावण का संवाद

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

कह लंकेस कवन तैं कीसा।
केहि कें बल घालेहि बन खीसा॥
की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही।
देखउँ अति असंक सठ तोही॥

रावण ने हनुमानजी से कहा कि हे वानर! तू कहांसे आया है? और तूने किसके बल से मेरे वनका विध्वंस कर दिया है॥

मैं तुझे अत्यंत निडर देख रहा हूँ सो क्या तूने कभी मेरा नाम अपने कानों से नहीं सुना है?॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
मारे निसिचर केहिं अपराधा।
कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा॥
सुनु रावन ब्रह्मांड निकाया।
पाइ जासु बल बिरचति माया॥

तुझको हम जीसे नहीं मारेंगे, परन्तु सच कह दे कि तूने हमारे राक्षसोंको किस अपराध के लिए मारा है?

रावणके ये वचन सुनकर हनुमानजीने रावण से कहा कि हे रावण! सुन, यह माया (प्रकृति) जिस परमात्माके बल (चैतन्यशक्ति) को पाकर अनेक ब्रम्हांडसमूह रचती है॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
जाकें बल बिरंचि हरि ईसा।
पालत सृजत हरत दससीसा॥
जा बल सीस धरत सहसानन।
अंडकोस समेत गिरि कानन॥

हे रावण! जिसके बलसे ब्रह्मा, विष्णु और महेश ये तीनो देव जगतको रचते है, पालते है और संहार करते है॥

और जिनकी सामर्थ्यसे शेषजी अपने शिरसे वन और पर्वतोंसहित इस सारे ब्रम्हांडको धारण करते है॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता।
तुम्ह से सठन्ह सिखावनु दाता॥
हर कोदंड कठिन जेहिं भंजा।
तेहि समेत नृप दल मद गंजा॥

और जो देवताओके रक्षा के लिए और तुम्हारे जैसे दुष्टोको दंड देनेके लिए अनेक शरीर (अवतार) धारण करते है॥

जिसने महादेवजीके अति कठिन धनुषको तोड़कर तेरे साथ तमाम राजसमूहोके मदको भंजन किया (गर्व चूर्ण कर दिया) है॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली।
बधे सकल अतुलित बलसाली॥

और जिसने खर, दूषण, त्रिशिरा और बालि ऐसे बड़े बलवाले योद्धओको मारा है॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि।
तास दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि ॥21॥

और हे रावण! सुन, जिसके बलके लवलेश अर्थात किन्चित्मात्र अंश से तूने तमाम चराचर जगत को जीता है, उस परमात्मा का मै दूत हूँ। जिसकी प्यारी सीता को तू हर ले आया है ॥21॥


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Sunderkand – 08


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हनुमानजी और रावण का संवाद

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

जानउँ मैं तुम्हारि प्रभुताई।
सहसबाहु सन परी लराई॥
समर बालि सन करि जसु पावा।
सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा॥

हे रावण! आपकी प्रभुता तो मैंने तभी से जान ली है कि जब आपको सहस्रबाहुके साथ युद्ध करनेका काम पड़ा था॥

और मुझको यह बातभी याद है कि आप बालिसे लड़ कर जो यश पाये थे। हनुमानजी के ये वचन सुनकर रावण ने हँसी में ही उड़ा दिए॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
खायउँ फल प्रभु लागी भूँखा।
कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा॥
सब कें देह परम प्रिय स्वामी।
मारहिं मोहि कुमारग गामी॥

तब फिर हनुमानजी ने कहा कि हे रावण! मुझको भूख लग गयी थी इसलिए तो मैंने आपके बाग़ के फल खाए है और जो वृक्षोको तोडा है सो तो केवल मैंने अपने वानर स्वाभावकी चपलतासे तोड़ डाले है॥

और जो मैंने आपके राक्षसोंको मारा उसका कारण तो यह है की हे रावण! अपना देह तो सबको बहुत प्यारा लगता है, सो वे खोटे रास्ते चलने वाले राक्षस मुझको मारने लगे॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे।
तेहि पर बाँधेउँ तनयँ तुम्हारे॥
मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा।
कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा॥

तब मैंने अपने प्यारे शरीरकी रक्षा करनेके लिए जिन्होंने मुझको मारा था उनको मैंने भी मारा। इसपर आपके पुत्र ने मुझको बाँध लिया है॥

हनुमानजी कहते है कि मुझको बंध जाने से कुछ भी शर्म नहीं आती क्योंकि मै अपने स्वामीका कार्य करना चाहता हूँ॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
बिनती करउँ जोरि कर रावन।
सुनहु मान तजि मोर सिखावन॥
देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी।
भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी॥

हे रावण! मै हाथ जोड़कर आपसे प्रार्थना करता हूँ। सो अभिमान छोड़कर मेरी शिक्षा सुनो। और अपने मनमे विचार करके तुम अपने आप खूब अच्छी तरह देख लो और सोचनेके बाद भ्रम छोड़कर भक्तजनोंके भय मिटानेवाले प्रभुकी सेवा करो॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
जाकें डर अति काल डेराई।
जो सुर असुर चराचर खाई॥
तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै।
मोरे कहें जानकी दीजै॥

हे रावण! काल, (जो देवता, दैत्य और सारे चराचरको खा जाता है) भी जिसके सामने अत्यंत भयभीत रहता है॥

उस परमात्मासे कभी बैर नहीं करना चाहिये। इसलिए जो तू मेरा कहना माने तो सीताजीको रामचन्द्रजीको दे दो॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि।
गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि ॥22॥

हे रावण! खरके मारनेवाले रघुवंशमणि रामचन्द्रजी भक्तपालक और करुणाके सागर है। इसलिए यदि तू उनकी शरण चला जाएगा तो वे प्रभु तेरे अपराधको माफ़ करके तेरी रक्षा करेंगे ॥22॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजी का रावण को समझाना

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

राम चरन पंकज उर धरहू।
लंका अचल राजु तुम्ह करहू॥
रिषि पुलस्ति जसु बिमल मयंका।
तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका॥

इसलिए तू रामचन्द्रजीके चरणकमलोंको हृदयमें धारण कर और उनकी कृपासे लंकामें अविचल राज कर॥

महामुनि पुलस्त्यजीका यश निर्मल चन्द्रमाके समान परम उज्वल है इसलिए तू उस कुलके बीचमें कलंक के समान मत हो॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
राम नाम बिनु गिरा न सोहा।
देखु बिचारि त्यागि मद मोहा॥
बसन हीन नहिं सोह सुरारी।
सब भूषन भूषित बर नारी॥

हे रावण! तू अपने मनमें विचार करके मद और मोहको त्यागकर अच्छी तरह जांचले कि रामके नाम बिना वाणी कभी शोभा नहीं देती॥

हे रावण! चाहे स्त्री सब अलंकारोसे अलंकृत और सुन्दर क्यों न होवे परंतु वस्त्रके बिना वह कभी शोभायमान नहीं होती। ऐसेही रामनाम बिना वाणी शोभायमान नहीं होती॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
राम बिमुख संपति प्रभुताई।
जाइ रही पाई बिनु पाई॥
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं।
बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीं॥

हे रावण! जो पुरुष रामचन्द्रजीसे विमुख है उसकी संपदा और प्रभुता पानेपर भी न पानेके बराबर है। क्योंकि वह स्थिर नहीं रहती किन्तु तुरंत चली जाती है॥

देखो, जिन नदियों के मूल में कोई जलस्रोत नहीं है, वहां बरसात हो जाने के बाद फिर सब जल सुख ही जाता है, कही नहीं रहता॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी।
बिमुख राम त्राता नहिं कोपी॥
संकर सहस बिष्नु अज तोही।
सकहिं न राखि राम कर द्रोही॥

हे रावण! सुन, मै प्रतिज्ञा कर कहता हूँ कि रामचन्द्रजीसे विमुख पुरुषका रखवारा कोई नहीं है॥
हे रावण! रामचन्द्रजीसे द्रोह करनेवाले तुझको ब्रह्मा, विष्णु और महादेव भी बचा नहीं सकते॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान ॥23॥

हे रावण! मोह्का मूल कारण और अत्यंत दुःख देनेवाली अभिमानकी बुद्धिको छोड़कर कृपाके सागर भगवान् श्री रघुवीरकुलनायक रामचन्द्रजीकी सेवा कर ॥23॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

रावण ने हनुमानजी की पूँछ जलाने का हुक्म दिया

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

जदपि कही कपि अति हित बानी।
भगति बिबेक बिरति नय सानी॥
बोला बिहसि महा अभिमानी।
मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी॥

यद्यपि हनुमानजी रावणको अति हितकारी और भक्ति, ज्ञान, धर्म और नीतिसे भरी वाणी कही, परंतु उस अभिमानी अधमके उसके कुछ भी असर नहीं हुआ॥

इससे हँसकर बोला कि हे वानर! आज तो हमको तु बडा ज्ञानी गुरु मिला॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
मृत्यु निकट आई खल तोही।
लागेसि अधम सिखावन मोही॥
उलटा होइहि कह हनुमाना।
मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना॥

हे नीच! तू मुझको शिक्षा देने लगा है. सो हे दुष्ट! कहीं तेरी मौत तो निकट नहीं आ गयी है?॥
रावणके ये वचन सुन पीछे फिरकर हनुमान्‌ने कहा कि हे रावण! अब मैंने तेरा बुद्धिभ्रम स्पष्ट रीतिसे जान लिया है॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना।
बेगि न हरहु मूढ़ कर प्राना॥
सुनत निसाचर मारन धाए।
सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए॥

हनुमान्‌के वचन सुनकर रावणको बड़ा कोध आया, जिससे रावणने राक्षसोंको कहा कि हे राक्षसो! इस मूर्खके प्राण जल्दी लेलो अर्थात इसे तुरंत मार डालो॥

इस प्रकार रावण के वचन सुनतेही राक्षस मारनेको दौड़ें तब अपने मंत्रियोंके साथ विभीषण वहां आ पहुँचे॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
नाइ सीस करि बिनय बहूता।
नीति बिरोध न मारिअ दूता॥
आन दंड कछु करिअ गोसाँई।
सबहीं कहा मंत्र भल भाई॥

बड़े विनयके साथ रावणको प्रणाम करके बिभीषणने कहा कि यह दूत है। इसलिए इसे मारना नही चाहिये; क्योंकि यह बात नीतिसे विरुद्ध है॥

हे स्वामी! इसे आप और एक दंड दे दीजिये पर मारें मत। बिभीषणकी यह बात सुनकर सब राक्षसोंने कहा कि हे भाइयो! यह सलाह तो अच्छी है॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम
सुनत बिहसि बोला दसकंधर।
अंग भंग करि पठइअ बंदर॥

रावण इस बातको सुनकर बोला कि जो इसको मारना ठीक नहीं है तो इस बंदरका कोई अंग भंग करके इसे भेज दो॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

कपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ।
तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाइ ॥24॥

सब लोगोने समझा कर रावणसे कहा कि वानरका ममत्व पूंछ पर बहुत होता है। इसलिए इसकी पूंछमें तेलसे भीगेहुए कपडे लपेटकर आग लगा दो ॥24॥


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Sunderkand – 09


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राक्षसोंने हनुमानजी की पूँछ में आग लगा दी

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

पूँछहीन बानर तहँ जाइहि।
तब सठ निज नाथहि लइ आइहि॥
जिन्ह कै कीन्हिसि बहुत बड़ाई।
देखउ मैं तिन्ह कै प्रभुताई॥
जब यह वानर पूंछहीन होकर अपने मालिकके पास जायेगा, तब अपने स्वामीको यह ले आएगा॥ इस वानरने जिसकी अतुलित बढाई की है भला उसकी प्रभुताको मैं देखूं तो सही कि वह कैसा है?॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

बचन सुनत कपि मन मुसुकाना।
भइ सहाय सारद मैं जाना॥
जातुधान सुनि रावन बचना।
लागे रचैं मूढ़ सोइ रचना॥
रावनके ये वचन सुनकर हनुमानजी मनमें मुस्कुराए और मनमें सोचने लगे कि मैंने जान लिया है कि इस समय सरस्वती सहाय हुई है। क्योंकि इसके मुंहसे रामचन्द्रजीके आनेका समाचार स्वयं निकल गया॥
तुलसीदासजी कहते है कि वे राक्षसलोग रावणके वचन सुनकर वही रचना करने लगे अर्थात तेलसे भिगो भिगोकर कपडे उनकी पूंछमें लपेटने लगे॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

रहा न नगर बसन घृत तेला।
बाढ़ी पूँछ कीन्ह कपि खेला॥
कौतुक कहँ आए पुरबासी।
मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी॥
उस समय हनुमानजीने ऐसा खेल किया कि अपनी पूंछ इतनी लंबी बढ़ा दी जिसको लपेटने के लिये नगरीमें कपडा, घी व तेल कुछ भी बाकी न रहा॥
नगरके जो लोग तमाशा देखनेको वहां आये थे वे सब लातें मार मारकर बहुत हँसते हैं॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

बाजहिं ढोल देहिं सब तारी।
नगर फेरि पुनि पूँछ प्रजारी॥
पावक जरत देखि हनुमंता।
भयउ परम लघुरूप तुरंता॥
अनेक ढोल बज रहे हे, सबलोग ताली दे रहे हैं, इस तरह हनुमानजीको नगरीमें सर्वत्र फिराकर फिर उनकी पूंछमें आग लगा दी॥
हनुमानजीने जब पूंछमें आग जलती देखी तब उन्होने तुरंत बहुत छोटा स्वरूप धारण कर लिया॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

निबुकि चढ़ेउ कप कनक अटारीं।
भईं सभीत निसाचर नारीं॥
और बंधन से निकलकर पीछे सुवर्णकी अटारियोंपर चढ़ गए, जिसको देखतेही तमाम राक्षसोंकी स्त्रीयां भयभीत हो गयी॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास।
अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास ॥25॥
उस समय भगवानकी प्रेरणासे उनचासो पवन बहने लगे और हनुमानजीने अपना स्वरूप ऐसा बढ़ाया कि वह आकाशमें जा लगा फिर अट्टहास करके बड़े जोरसे गरजे ॥25॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजी ने लंका जलाई

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

देह बिसाल परम हरुआई।
मंदिर तें मंदिर चढ़ धाई॥
जरइ नगर भा लोग बिहाला।
झपट लपट बहु कोटि कराला॥
यद्यपि हनुमानजीका शरीर बहुत बड़ा था परंतु शरीरमें बड़ी फुर्ती थी जिससे वह एक घरसे दूसरे घरपर चढ़ते चले जाते थे॥
जिससे तमाम नगर जल गया। लोग सब बेहाल हो गये और झपट कर बहुतसे विकराल कोटपर चढ़ गये॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

तात मातु हा सुनिअ पुकारा।
एहिं अवसर को हमहि उबारा॥
हम जो कहा यह कपि नहिं होई।
बानर रूप धरें सुर कोई॥
और सबलोग पुकारने लगे कि हे तात! हे माता! अब इस समयमें हमें कौन बचाएगा॥
हमने जो कहा था कि यह वानर नहीं है, कोई देव वानरका रूप धरकर आया है। सो देख लीजिये यह बात ऐसी ही है॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

साधु अवग्या कर फलु ऐसा।
जरइ नगर अनाथ कर जैसा॥
जारा नगरु निमिष एक माहीं।
एक बिभीषन कर गृह नाहीं॥
और यह नगर जो अनाथके नगरके समान जला है सो तो साधुपुरुषोंका अपमान करनेंका फल ऐसाही हुआ करता है॥
तुलसीदासजी कहते हैं कि हनुमानजीने एक क्षणभरमें तमाम नगरको जला दिया. केवल एक बिभीषणके घरको नहीं जलाया॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

ता कर दूत अनल जेहिं सिरिजा।
जरा न सो तेहि कारन गिरिजा॥
उलटि पलटि लंका सब जारी।
कूदि परा पुनि सिंधु मझारी॥
महादेवजी कहते है कि हे पार्वती! जिसने इस अग्रिको पैदा किया है उस परमेश्वरका बिभीषण भक्त था इस कारण से उसका घर नहीं जला॥ हनुमानजी ने उलट पलट कर (एक ओर से दूसरी ओर तक) तमाम लंकाको जला कर फिर समुद्रके अंदर कूद पडे॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि।
जनकसुता कें आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि ॥26॥
अपनी पूछको बुझाकर, श्रमको मिटाकर (थकावट दूर करके), फिरसे छोटा स्वरूप धारण करके हनुमानजी हाथ जोड़कर सीताजीके आगे आ खडे हुए ॥26॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजी लंकासे लौटने से पहले सीताजी से मिले

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा।
जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा॥
चूड़ामनि उतारि तब दयऊ।
हरष समेत पवनसुत लयऊ॥
और बोले कि हे माता! जैसे रामचन्द्रजीने मुझको पहचानके लिये मुद्रिकाका निशान दिया था, वैसे ही आपभी मुझको कुछ चिन्ह दो॥
तब सीताजीने अपने सिरसे उतार कर चूडामणि दिया। हनुमानजीने बड़े आनंदके साथ वह ले लिया॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

कहेहु तात अस मोर प्रनामा।
सब प्रकार प्रभु पूरनकामा॥
दीन दयाल बिरिदु संभारी।
हरहु नाथ सम संकट भारी॥
सीताजीने हनुमानजीसे कहा कि हे पुत्र! मेरा प्रणाम कह कर प्रभुसे ऐसे कहना कि हे प्रभु! यद्यपि आप सर्व प्रकारसे पूर्णकाम हो (आपको किसी प्रकार की कामना नहीं है)॥
हे नाथ! आप दीनदयाल हो, इसलिये अपने विरदको सँभाल कर (दीन दुःखियों पर दया करना आपका विरद है, सो उस विरद को याद करके) मेरे इस महासंकटको दूर करो॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

तात सक्रसुत कथा सनाएहु।
बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु॥
मास दिवस महुँ नाथु न आवा।
तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा॥
हे पुत्र । फिर इन्द्रके पुत्र जयंतकी कथा सुनाकर प्रभुकों बाणोंका प्रताप समझाकर याद दिलाना॥
और कहना कि हे नाथ! जो आप एक महीनेके अन्दर नहीं पधारोगे तो फिर आप मुझको जीती नहीं पाएँगे॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

कहु कपि केहि बिधि राखौं प्राना।
तुम्हहू तात कहत अब जाना॥
तोहि देखि सीतलि भइ छाती।
पुनि मो कहुँ सोइ दिनु सो राती॥
हे तात! कहना, अब मैं अपने प्राणोंको किस प्रकार रखूँ? क्योंकि तुमभी अब जाने को कह रहे हो॥
तुमको देखकर मेरी छाती ठंढी हुई थी परंतु अब तो फिर मेरेलिए वही दिन हैं और वही रातें हैं॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह।
चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह ॥27॥
हनुमानजीने सीताजीको (जानकी को) अनेक प्रकारसे समझाकर कई तरहसे धीरज दिया और फिर उनके चरणकमलोंमें सिर नमाकर वहांसे रामचन्द्रजीके पास रवाना हुए ॥27॥

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Sunderkand – 10


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हनुमानजीका लंका से वापिस लौटना

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

चलत महाधुनि गर्जेसि भारी।
गर्भ स्रवहिं सुनि निसिचर नारी॥
नाघि सिंधु एहि पारहि आवा।
सबद किलिकिला कपिन्ह सुनावा॥
जाते समय हनुमानजीने ऐसी भारी गर्जना की, कि जिसको सुनकर राक्षसियोंके गर्भ गिर गये॥
सपुद्रको लांघकर हनुमानजी समुद्रके इस पार आए। और उस समय उन्होंने किलकिला शब्द (हर्षध्वनि) सब बन्दरोंको सुनाया॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

(राका दिन पहूँचेउ हनुमन्ता। धाय धाय कापी मिले तुरन्ता॥
हनुमानजीने लंकासे लौटकर कार्तिककी पूर्णिमाके दिन वहां पहुंचे। उस समय दौड़ दौड़ कर वानर बडी त्वराके साथ हनुमानजीसे मिले॥)

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हरषे सब बिलोकि हनुमाना।
नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना॥
मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा।
कीन्हेसि रामचंद्र कर काजा॥
हनुमानजीको देखकर सब वानर बहुत प्रसन्न हुए और उस समय वानरोंने अपना नया जन्म समझा॥
हुनमानजीका मुख अति प्रसन्न और शरीर तेजसे अत्यंत दैदीप्यमान देखकर वानरोंने जान लिया कि हनुमानजी रामचन्द्रजीका कार्य करके आए है॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

मिले सकल अति भए सुखारी।
तलफत मीन पाव जिमि बारी॥
चले हरषि रघुनायक पासा।
पूँछत कहत नवल इतिहासा॥
और इसीसे सब वानर परम प्रेमके साथ हनुमानजीसे मिले और अत्यन्त प्रसन्न हुए। वे कैसे प्रसन्न हुए सो कहते हैं कि मानो तड़पती हुई मछलीको पानी मिल गया॥
फिर वे सब सुन्दर इतिहास पूंछते हुए आर कहते हुए आनंदके साथ रामचन्द्रजीके पास चले॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

तब मधुबन भीतर सब आए।
अंगद संमत मधु फल खाए॥
रखवारे जब बरजन लागे।
मुष्टि प्रहार हनत सब भागे॥
फिर उन सबोंने मधुवनके अन्दर आकर युवराज अंगदके साथ वहां मीठे फल खाये॥
जब वहांके पहरेदार बरजने लगे तब उनको मुक्कोसे ऐसा मारा कि वे सब वहांसे भाग गये॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज।
सुनि सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज ॥28॥
वहांसे जो वानर भाग कर बचे थे उन सबोंने जाकर राजा सुग्रीवसे कहा कि हे राजा! युवराज अंगदने वनका सत्यानाश कर दिया है। यह समाचार सुनकर सुग्रीवको बड़ा आनंद आया कि वे लोग प्रभुका काम करके आए हैं ॥28॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजी सुग्रीव से मिले

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

जौं न होति सीता सुधि पाई।
मधुबन के फल सकहिं कि खाई॥
एहि बिधि मन बिचार कर राजा।
आइ गए कपि सहित समाजा॥
सुग्रीवको आनंद क्यों हुआ? उसका कारण कहते हैं। सुग्रीवने मनमें विचार किया कि जो उनको सीताजीकी खबर नहीं मिली होती तो वे लोग मधुवनके फल कदापि नहीं खाते॥
राजा सुग्रीव इस तरह मनमें विचार कर रहे थे। इतनेमें समाजके साथ वे तमाम वानर बहां चले आये॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

आइ सबन्हि नावा पद सीसा।
मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा॥
पूँछी कुसल कुसल पद देखी।
राम कृपाँ भा काजु बिसेषी॥
सबने आकर सुग्रीव के चरणों में सिर नवाया।
और आकर उन सभीने नमस्कार किया तब बड़े प्यारके साथ सुग्रीव उन सबसे मिले॥
सुग्रीवने सभीसे कुशल पूंछा तब उन्होंने कहा कि नाथ! आपके चरण कुशल देखकर हम कुशल हैं और जो यह काम बना है सो केवल रामचन्द्रजीकी कृपासे बना है॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना।
राखे सकल कपिन्ह के प्राना॥
सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ।
कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ॥
हे नाथ! यह काम हनुमानजीने किया है। यह काम क्या किया है मानो सब वानरोंके इसने प्राण बचा लिये हैं॥
यह बात सुनकर सुग्रीव उठकर फिर हनुमानजीसे मिले और वानरोंके साथ रामचन्द्रजीके पास आए॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

राम कपिन्ह जब आवत देखा।
किएँ काजु मन हरष बिसेषा॥
फटिक सिला बैठे द्वौ भाई।
परे सकल कपि चरनन्हि जाई॥
वानरोंको आते देखकर रामचन्द्रजीके मनमें बड़ा आनन्द हुआ कि ये लोग काम सिद्ध करके आ गये हैं॥ राम और लक्ष्मण ये दोनों भाई स्फटिकमणिकी शिलापर बैठे हुए थे। वहां जाकर सब वानर दोनों भाइयोंके चरणोंमें गिरे॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

प्रीति सहित सब भेंटे रघुपति करुना पुंज॥
पूछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज ॥29॥
करुणानिधान श्रीरामचन्द्रजी प्रीतिपूर्वक सब वानरोंसे मिले और उनसे कुशल पूँछा. तब उन्होंने कहा कि हे नाथ! आपके चरणकमलोंको कुशल देखकर (चरणकमलोंके दर्शन पाने से) अब हम कुशल हें ॥29॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

हनुमानजी और सुग्रीव रामचन्द्रजी से मिले

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

जामवंत कह सुनु रघुराया।
जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया॥
ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर।
सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर॥
उस समय जाम्बवान ने रामचन्द्रजीसे कहा कि हे नाथ! सुनो, आप जिसपर दया करते हो॥
उसके सदा सर्वदा शुभ और कुशल निरंतर रहते हें। तथा देवता मनुष्य और मुनि सभी उसपर सदा प्रसन्न रहते हैं॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

सोइ बिजई बिनई गुन सागर।
तासु सुजसु त्रैलोक उजागर॥
प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू।
जन्म हमार सुफल भा आजू॥
और वही विजयी (विजय करनेवाला), विनयी (विनयवाला) और गुणोंका समुद्र होता है और उसकी सुख्याति तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध रहती है॥
यह सब काम आपकी कृपासे सिद्ध हुआ हैं। और हमारा जन्म भी आजही सफल हुआ है॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी।
सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी॥
(जो मुख लाखहु जाइ न बरणी॥)
पवनतनय के चरित सुहाए।
जामवंत रघुपतिहि सुनाए॥
हे नाथ! पवनपुत्र हनुमानजीने जो काम किया है उसका हजार मुखों से भी वर्णन नहीं किया जा सकता
(वह कोई आदमी जो लाख मुखोंसे कहना चाहे तो भी वह कहा नहीं जा सकता)॥
हनुमानजीकी प्रशंसाके वचन और कार्य जाम्बवानने रामचन्द्रजीको सुनाये॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

सुनत कृपानिधि मन अति भाए।
पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए॥
कहहु तात केहि भाँति जानकी।
रहति करति रच्छा स्वप्रान की॥
उन वचनोंको सुनकर दयालु श्रीरामचन्द्वजीने उठकर हनुमानजीको अपनी छातीसे लगाया॥
और श्रीरामने हनुमानजीसे पूछा कि हे तात! कहो, सीता किस तरह रहती है? और अपने प्राणोंकी रक्षा वह किस तरह करती है?॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट ॥30॥
हनुमानजीने कहा कि हे नाथ । यद्यपि सीताजीको कष्ट तो इतना है कि उनके प्राण एक क्षणभर न रहे। परंतु सीताजीने आपके दर्शनके लिए प्राणोंका ऐसा बंदोबस्त करके रखा है कि रात दिन अखंड पहरा देनेके वास्ते आपके नामको तो उसने सिपाही बना रखा है (आपका नाम रात-दिन पहरा देनेवाला है)। और आपके ध्यानको कपाट बनाया है (आपका ध्यान ही किवाड़ है)। और अपने नीचे किये हुए नेत्रोंसे जो अपने चरणकी ओर निहारती है वह यंत्रिका अर्थात् ताला है. अब उसके प्राण किस रास्ते बाहर निकलें ॥30॥

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Sunderkand – 11


Sunderkand – 11

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हनुमानजी ने श्रीराम को सीताजी का सन्देश दिया

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

चलत मोहि चूड़ामनि दीन्ही।
रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही॥
नाथ जुगल लोचन भरि बारी।
बचन कहे कछु जनककुमारी॥
और चलते समय मुझको यह चूड़ामणि दिया हे. ऐसे कह कर हनुमानजीने वह चूड़ामणि रामचन्द्रजीको दे दिया। तब रामचन्द्रजीने उस रत्नको लेकर अपनी छातीसे लगाया॥
तब हनुमानजीने कहा कि हे नाथ! दोनो हाथ जोड़कर नेत्रोंमें जल लाकर सीताजीने कुछ वचनभी कहे है सो सुनिये॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना।
दीन बंधु प्रनतारति हरना॥
मन क्रम बचन चरन अनुरागी।
केहिं अपराध नाथ हौं त्यागी॥
सीताजीने कहा है कि लक्ष्मणजीके साथ प्रभुके चरण धरकर मेरी ओरसे ऐसी प्रार्थना करना कि हे नाथ! आप तो दीनबंधु और शरणागतोके संकटको मिटानेवाले हो॥
फिर मन, वचन और कर्मसे चरणोमें प्रीति रखनेवाली मुझ दासीको आपने किस अपराधसे त्याग दिया है॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

अवगुन एक मोर मैं माना।
बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना॥
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा।
निसरत प्रान करहिं हठि बाधा॥
हाँ, मेरा एक अपराध पक्का (अवश्य) हैं और वह मैंने जान भी लिया है कि आपसे बिछुरतेही (वियोग होते ही) मेरे प्राण नही निकल गये॥
परंतु हें नाथ! वह अपराध मेरा नहीं है किन्तु नेत्रोका है; क्योंकि जिस समय प्राण निकलने लगते है उस समय ये नेत्र हठ कर उसमें बाधा कर देते हैं (अर्थात् केवल आपके दर्शनके लोभसे मेरे प्राण बने रहे हैं)॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

बिरह अगिनि तनु तूल समीरा।
स्वास जरइ छन माहिं सरीरा॥
नयन स्रवहिं जलु निज हित लागी।
जरैं न पाव देह बिरहागी॥
हे प्रभु! आपका विरह तो अग्नि है, मेरा शरीर तूल (रुई) है। श्वास प्रबल वायु है। अब इस सामग्रीके रहते शरीर क्षणभरमें जल जाय इसमें कोई आश्चर्य नहीं॥
परंतु नेत्र अपने हितके लिए अर्थात् दर्शनके वास्ते जल बहा बहा कर उस विरह की आग को शांत करते हैं, इससे विरह की आग भी मेरे शरीरको जला नहीं पाती॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

सीता कै अति बिपति बिसाला।
बिनहिं कहें भलि दीनदयाला॥
हनुमानजी ने कहा कि हे दीनदयाल! सीताकी विपत्ति ऐसी भारी है कि उसको न कहना ही अच्छा है॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति।
बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति ॥31॥
हे करुणानिधान! हे प्रभु! सीताजीके एक एक क्षण, सौ सौ कल्पके समान व्यतीत होते हैं। इसलिए जल्दी चलकर और अपने बाहुबलसे दुष्टोंके दलको जीतकर उनको जल्दी ले आइए ॥31॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

रामचन्द्रजी और हनुमान का संवाद

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना।
भरि आए जल राजिव नयना॥
बचन कायँ मन मम गति जाही।
सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही॥
सुखके धाम श्रीरामचन्द्रजी सीताजीके दुःखके समाचार सुन अति खिन्न हुए और उनके कमलसे दोनों नेत्रोंमें जल भर आया॥ रामचन्द्रजीने कहा कि जिसने मन, वचन व कर्मसे मेरा शरण लिया है क्या स्वप्नमें भी उसको विपत्ति होनी चाहिये? कदापि नहीं॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई।
जब तव सुमिरन भजन न होई॥
केतिक बात प्रभु जातुधान की।
रिपुहि जीति आनिबी जानकी॥
हनुमानजीने कहा कि हे प्रभु! मनुष्यकी यह विपत्ति तो वही (तभी) है जब यह मनुष्य आपका भजन स्मरण नही करता॥ हे प्रभु इस राक्षसकी कितनीसी बात है। आप शत्रुको जीतकर सीताजीको ले आइये॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

सुनु कपि तोहि समान उपकारी।
नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी॥
प्रति उपकार करौं का तोरा।
सनमुख होइ न सकत मन मोरा॥
रामचन्द्रजीने कहा कि हे हनुमान! सुन, तेरे बराबर मेरे उपकार करनेवाला देवता, मनुष्य और मुनि कोइ भी देहधारी नहीं है॥
हे हनुमान! में तेरा क्या प्रत्युपकार (बदले में उपकार) करूं; क्योंकि मेरा मन बदला देनेके वास्ते सन्मुखही (मेरा मन भी तेरे सामने) नहीं हो सकता॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं।
देखेउँ करि बिचार मन माहीं॥
पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता।
लोचन नीर पुलक अति गाता॥
हे हतुमान! सुन, मेंने अपने मनमें विचार करके देख लिया है कि मैं तुमसे उऋण नहीं हो सकता॥
रामचन्द्रजी ज्यों ज्यों वारंवार हनुमानजीकी ओर देखते है; त्यों त्यों उनके नेत्रोंमें जल भर आता है और शरीर पुलकित हो जाता है॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत।
चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत ॥32॥
हनुमानजी प्रभुके वचन सुनकर और प्रभुके मुखकी ओर देखकर मनमें परम हर्षित हो गए॥
और बहुत व्याकुल होकर कहा ‘हे भगवान्! रक्षा करो’ ऐसे कहता हुए चरणोंमे गिर पड़े ॥32॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

श्री राम हनुमान संवाद

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

बार बार प्रभु चहइ उठावा।
प्रेम मगन तेहि उठब न भावा॥
प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा।
सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा॥
यद्यपि प्रभु उनको चरणोंमेंसे बार-बार उठाना चाहते हैं, परंतु हनुमान् प्रेममें ऐसे मग्न हो गए थे कि वह उठना नहीं चाहते थे॥
कवि कहते है कि रामचन्द्रजीके चरणकमलोंके बीच हनुमानजी सिर धरे है इस बातको स्मरण करके महादेवकी भी वही दशा होगयी और प्रेममें मग्न हो गये; क्योंकि हनुमान् रुद्रका अंशावतार है॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

सावधान मन करि पुनि संकर।
लागे कहन कथा अति सुंदर॥
कपि उठाई प्रभु हृदयँ लगावा।
कर गहि परम निकट बैठावा॥
फिर महादेव अपने मनको सावधान करके अति मनोहर कथा कहने लगे॥
महादेवजी कहते है कि हे पार्वती! प्रभुने हनमान्‌कों उठाकर छातीसे लगाया और हाथ पकड कर अपने बहुत नजदीक बिठाया॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

कहु कपि रावन पालित लंका।
केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका॥
प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना।
बोला बचन बिगत अभिमाना॥
और हनुमानसे कहा कि हे हनुमान! कहो, वह रावणकी पाली हुई लंकापुरी, कि जो बड़ा बंका किला है, उसको तुमने कैसे जलाया?॥
रामचन्द्रजीकी यह बात सुन उनको प्रसन्न जानकर हनुमानजीने अभिमानरहित होकर यह वचन कहे कि॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

साखामग कै बड़ि मनुसाई।
साखा तें साखा पर जाई॥
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा।
निसिचर गन बधि बिपिन उजारा॥
हे प्रभु! बानरका तो अत्यंत पराक्रम यही है कि वृक्षकी एक डालसे दूसरी डालपर कूद जाय॥
परंतु जो मै समुद्रको लांघकर लंका में चला गया और वहा जाकर मैंने लंका को जला दिया और बहुतसे राक्षसोंको मारकर अशोक वनको उजाड़ दिया॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

सो सब तव प्रताप रघुराई।
नाथ न कछू मोरि प्रभुताई॥
हे प्रभु! यह सब आपका प्रताप है। हे नाथ! इसमें मेरी प्रभुता कुछ नहीं है॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल।
तव प्रभावँ बड़वानलहि जारि सकइ खलु तूल ॥33॥
हे प्रभु! आप जिस पर प्रसन्न हों, उसके लिए कुछ भी असाध्य (कठिन) नहीं है।
आपके प्रतापसे निश्चय रूई बड़वानलको जला सकती है (असंभव भी संभव हो सकता है) ॥33॥

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Sunderkand – 12


Sunderkand – 12

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श्री राम और हनुमानजी का संवाद

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

नाथ भगति अति सुखदायनी।
देहु कृपा करि अनपायनी॥
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी।
एवमस्तु तब कहेउ भवानी॥
रामचन्द्रजीके ये वचन सुनकर हनुमानजीने कहा कि हे नाथ! मुझे तो कृपा करके आपकी अनपायिनी (जिसमें कभी विच्छेद नहीं पडे ऐसी, निश्चल) कल्याणकारी और सुखदायी भक्ति दो॥
महादेवजीने कहा कि हे पार्वती! हनुमानकी ऐसी परम सरल वाणी सुनकर प्रभुने कहा कि हे हनुमान्! ‘एवमस्तु’ (ऐसाही हो) अर्थात् तुमको हमारी भक्ति प्राप्त हो॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

उमा राम सुभाउ जेहिं जाना।
ताहि भजनु तजि भाव न आना॥
यह संबाद जासु उर आवा।
रघुपति चरन भगति सोइ पावा॥
हे पार्वती! जिन्होंने रामचन्द्रजीके परम दयालु स्वभावको जान लिया है, उनको रामचन्द्रजीकी भक्तिको छोंड़कर दूसरा कुछ भी अच्छा नहीं लगता॥
यह हनुमान् और रामचन्द्रजीका संवाद जिसके हृदयमें दृढ़ रीतिसे आ जाता है, वह श्री रामचन्द्रजीकी भक्तिको अवश्य पा लेता है॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

सुनि प्रभु बचन कहहिं कपिबृंदा।
जय जय जय कृपाल सुखकंदा॥
तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा।
कहा चलैं कर करहु बनावा॥
प्रभुके ऐसे वचन सुनकर तमाम वानरवृन्दने पुकार कर कहा कि हे दयालू! हे सुखके मूलकारण प्रभु! आपकी जय हो, जय हो, जय हो॥
उस समय प्रभुने सुग्रीवको बुलाकर कहा कि हे सुग्रीव! अब चलनेकी तैयारी करो॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

अब बिलंबु केह कारन कीजे।
तुरंत कपिन्ह कहँ आयसु दीजे॥
कौतुक देखि सुमन बहु बरषी।
नभ तें भवन चले सुर हरषी॥
अब विलम्ब क्यों किया जाता है। अब तुम वानरोंको तुरंत आज्ञा क्यो नहीं देते हो॥
इस कौतुकको देखकर (भगवान की यह लीला) देवताओंने आकाशसे बहुतसे फूल बरसाये और फिर वे आनंदित होकर अपने अपने लोक को चल दिये॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ।
नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ ॥34॥
रामचन्द्रजीकी आज्ञा होते ही सुग्रीवने वानरोंके सेनापतियोंको बुलाया और सुग्रीवकी आज्ञाके साथही वानर और रीछोके झुंड कि जिनके अनके प्रकारके वर्ण हैं और अतूलित बल हैं वे वहां आये॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

श्री रामजी का वानरों की सेना के साथ समुद्र तट पर जाना

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

प्रभु पद पंकज नावहिं सीसा।
गर्जहिं भालु महाबल कीसा॥
देखी राम सकल कपि सेना।
चितइ कृपा करि राजिव नैना॥
महाबली वानर और रीछ वहां आकर गर्जना करते हैं और रामचन्द्रजीके चरणकमलोंमें सिर झुँकाकर प्रणाम करते हैं॥
तमाम वानरॉकी सेनाको देखकर कमलनयन प्रभुने कृपा दृष्टिसे उनकी ओर देखा॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

राम कृपा बल पाइ कपिंदा।
भए पच्छजुत मनहुँ गिरिंदा॥
हरषि राम तब कीन्ह पयाना।
सगुन भए सुंदर सुभ नाना॥
प्रभुकी कृपादृष्टि पड़तेही तमाम वानर रघुनाथजीके कृपाबलको पाकर ऐसे बली और बड़े होगये कि मानों पक्षसहित पहाड़ ही (पंखवाले बड़े पर्वत) तो नहीं है? ॥
उस समय रामचन्द्रजीने आनंदित होकर प्रयाण किया. तब नाना प्रकारके अच्छे और सुन्दर शगुनभी होने लगे॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

जासु सकल मंगलमय कीती।
तासु पयान सगुन यह नीती॥
प्रभु पयान जाना बैदेहीं।
फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं॥
यह दस्तूर है कि जिसके सब मंगलमय होना होता है (जिनकी कीर्ति सब मंगलों से पूर्ण है) उसके प्रयाणके समय शगुनभी अच्छे होते है॥
प्रभुने प्रयाण किया उसकी खबर सीताजीको भी हो गई; क्योंकि जिस समय प्रभुने प्रयाण किया उस वक्त सीताजीके शुभसूचक बाएं अंग फड़कने लगे (मानो कह रह है की श्री राम आ रहे हैं)॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई।
असगुन भयउ रावनहिं सोई॥
चला कटकु को बरनैं पारा।
गर्जहिं बानर भालु अपारा॥
ओर जो जो शगुन सीताजीके अच्छे हुए वे सब रावणके बुरे शगुन हुए॥
इस प्रकार रामचन्द्रजीकी सेना रवाना हुई, कि जिसके अन्दर असंख्यात वानर और रीछ गरज रहे है. उस सेनाका वर्णन करके कौन आदमी पार पा सकता है (कौन कर सकता है?)॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

नख आयुध गिरि पादपधारी।
चले गगन महि इच्छाचारी॥
केहरिनाद भालु कपि करहीं।
डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं॥
जिनके नखही तो शस्त्र हैं। पर्वत व वृक्ष हाथोंमें है वे इच्छाचारी वानर (इच्छानुसार सर्वत्र बेरोक-टोक चलनेवाले) और रीछ आकाशमें कूदते हुए, आकाशमार्ग होकर सेनाके बीच जा रहे है॥
वानर व रीछ मार्गमें जाते हुए सिंहनाद कर रहे है. जिससे दिग्गज हाथी डगमगाते हैं और चीत्कार करते हैं॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

छंद – Sunderkand

चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे।
मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि नाग किंनर दुख टरे॥
कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं।
जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं॥
जब रामचन्द्रजीने प्रयाण किया तब दिग्गज चिंघाड़ने लगे, पृथ्वी डगमगाने लगी, पर्वत कांपने लगे, समुद्र खड़भड़ा गये, सूर्य आनंदित हुआ कि हमारे वंशमें दुष्टोंको दंड देनेवाला पैदा हुआ। देवता, मुनि, नाग व् किन्नर ये सब मन में हर्षित हुए कि अब हमारे दुःख टल गए। वानर विकट रीतिसे कटकटा रहे है, कोटयानकोट बहुतसे भट इधर उधर दौड़ रहे हैं और रामचन्द्रजीके गुणगणोंको गा रहे हैं कि हे प्रबलप्रतापवाले राम! आपकी जय हो॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

छंद – Sunderkand

सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई।
गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ठ कठोर सो किमि सोहई॥
रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी।
जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी॥
उस सेनाके अपार भारको शेषजी (सर्पराज शेष) स्वयं सह नहीं सकते जिससे वारंवार मोहित होते
हें और अपने दाँतोंसे बार-बार कमठकी (कच्छप की) कठोर पीठको पकडे रहते है। सो वह शोभा कैसी मालूम होती है कि मानो रामचन्द्रजीके सुन्दर प्रयाणकी प्रस्थिति (प्रस्थान यात्रा) को परमरम्य जानकर शेषजी कमठकी पीठरूप खप्परपर अपने दांतोसे लिख रहे हैं, कि जिससे वह प्रस्थानका पवित्र संवत् च मिती सदा स्थिर बनी रहे, जैसे कुएं बावली मंदिर आदि बनानेवाले उसपर पत्थरमें प्रशस्ति खुदवाकर लगा देते है ऐसे शेषजी मानो कमठकी पीठपर प्रशस्तिही खोद रहे थे॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर।
जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर ॥35॥
कृपाके भ्रंडार श्रीरामचन्द्रजी इस तरह जाकर समुद्रके तीरपर उतरे, तब वीर रीछ और वानर जहां तहां वहुतसे फल खाने लगे ॥35॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

मंदोदरी और रावण का संवाद

चौपाई (Chaupai – Sunderkand)

उहाँ निसाचर रहहिं ससंका।
जब तें जारि गयउ कपि लंका॥
निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा।
नहिं निसिचर कुल केर उवारा॥
जबसे हनुमान् लंकाको जलाकर चले गए तबसे वहां राक्षसलोग शंकासहित (भयभीत) रहने लगे॥
और अपने अपने घरमें सब विचार करने लगे कि अब राक्षसकुल बचनेका नहीं है (राक्षस कुल की रक्षा का कोई उपाय नहीं है)॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

जासु दूत बल बरनि न जाई।
तेहि आएँ पुर कवन भलाई॥
दूतिन्ह सन सुनि पुरजन बानी।
मंदोदरी अधिक अकुलानी॥
हम लोग जिसके दूतके बलको भी कह नहीं सकते उसके आनेपर फिर पुरका भला कैसे हो सकेगा (बुरी दशा होगी)॥
नगरके लोगोंकी ऐसी अति भयसहित वाणी सुनकर मन्दोंदरी अपने मनमें बहुत घबरायी॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

रहसि जोरि कर पति पग लागी।
बोली बचन नीति रस पागी॥
कंत करष हरि सन परिहरहू।
मोर कहा अति हित हियँ धरहू॥
और एकान्तमें आकर हाथ जोड़कर पातिके चरणोंमे गिरकर नितिके रससे भरे हुए ये वचन बोली॥
हे कान्त! हरि भगवानसे जो आपके वैरभाव हैं उसे छोड़ दीजिए। मै जो आपसे कहती हूँ वह आपको अत्यंत हितकारी है सो इसको अपने चित्तमें धारण कीजिए॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

समुझत जासु दूत कइ करनी।
स्रवहिं गर्भ रजनीचर घरनी॥
तासु नारि निज सचिव बोलाई।
पठवहु कंत जो चहहु भलाई॥
भला अब उसके दूतके कामको तो देखो कि जिसको नाम लेनेसे राक्षसियोंके गर्भ गिर जाते हैं ॥
इसलिए हे कान्त! मेरा कहना तो यह है कि जो आप अपना भला चाहो तो, अपने मंत्रियोंको बुलाकर उसके साथ उनकी स्त्री को भेज दीजिए॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

तव कुल कमल बिपिन दुखदाई।
सीता सीत निसा सम आई॥
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें।
हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें॥
जैसे शीतऋतु अर्थात् शिशिर रीतुकी रात्रि (जाड़ेकी रात्रि) आनेसे कमलोंके बनका नाश हो जाता हे ऐसे तुम्हारे कुलरूप कमलबनका संहार करनेके लिये यह सीता शिशिर रितुकी रात्रिके समान आयी है॥
हे नाथ! सुनो, सीताको बिना देनेके तो चाहे महादेव ओर ब्रह्माजी भले कुछ उपाय क्यों न करे पर उससे आपका हित नहीं होगा॥

श्री राम, जय राम, जय जय राम

दोहा (Doha – Sunderkand)

राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक।
जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक ॥36॥
हे नाथ रामचन्द्रजीके बाण तो सर्पोके गणके (समूह) समान है और राक्षससमूह मेंडकके झुंडके समान हैं। सो वे इनका संहार नहीं करते इससे पहले पहले आप यत्न करो और जिस बातका हठ पकड़ रक्खा है उसको छोड़कर उपाय कर लीजिए॥

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