नवदुर्गा – माँ दुर्गा के नौ रुप


नवरात्रि में, दुर्गा पूजा के अवसर पर,माँ के नौ रूपों की,पूजा-उपासना की जाती है।

माँ दुर्गा के इन नौ रूपों को, एक साथ नवदुर्गा कहा जाता है


माँ दुर्गा के नौ रुप

शैलपुत्री (Shailputri)
ब्रह्मचारिणी (Brahmacharini)
चन्द्रघन्टा (Candraghanta)
कूष्माण्डा (Kusamanda)
स्कन्दमाता (Skandamata)
कात्यायनी (Katyayani)
कालरात्री (Kalaratri)
महागौरी (Mahagauri)
सिद्धिदात्री (Siddhidatri)


नवदुर्गा के नामों का श्लोक

निम्नांकित श्लोक में नवदुर्गा के नाम क्रमश: दिये गए हैं –

प्रथमं शैलपुत्री च
द्वितीयं ब्रह्मचारिणी।
तृतीयं चन्द्रघण्टेति
कूष्माण्डेति चतुर्थकम्॥

पंचमं स्कन्दमातेति
षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति
महागौरीति चाष्टमम्॥

नवमं सिद्धिदात्री च
नवदुर्गा: प्रकीर्तिता:।
उक्तान्येतानि नामानि
ब्रह्मणैव महात्मना:॥


देवी शैलपुत्री

देवी शैलपुत्री, नव दुर्गाओं में प्रथम दुर्गा हैं।

शैलपुत्री दुर्गा का महत्त्व और शक्तियाँ अनन्त हैं।

नवरात्र पूजन में प्रथम दिवस, माँ शैलपुत्री की पूजा और उपासना की जाती है।

पर्वतराज हिमालय के घर, पुत्री रूप में उत्पन्न होने के कारण, इनका नाम शैलपुत्री पड़ा।

नवरात्र की प्रथम दिन की उपासना में, साधक अपने मन को – मूलाधार चक्र – में स्थित करते हैं।

यहीं से उनकी योग साधना, आरम्भ होती है।

देवी शैलपुत्री की कथा, उपासना, महिमा और मंत्र पढ़ने के लिए क्लिक करे –

माँ शैलपुत्री


माँ ब्रह्मचारिणी

नवरात्र पर्व के दूसरे दिन, माँ ब्रह्मचारिणी की, पूजा-अर्चना की जाती है।

ब्रह्म का अर्थ है तपस्या और चारिणी यानी आचरण करने वाली।

इसलिए ब्रह्मचारिणी का अर्थ है, तप का आचरण करने वाली।

नवरात्री के दुसरे दिन, साधक का मन – स्वाधिष्ठान चक्र – में, स्थित होता है।

साधक इस दिन, अपने मन को, माँ के चरणों में लगाते हैं।

माँ ब्रह्मचारिणी की उपासना से, मनुष्य में तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार, संयम की वृद्धि होती है।

माँ दुर्गाजी का यह दूसरा स्वरूप, भक्तों को अनन्तफल देने वाला है।

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माँ ब्रह्मचारिणी


देवी चंद्रघंटा

नवरात्र-पूजन के तीसरे दिन, चंद्रघंटा देवी के स्वरूप की, उपासना की जाती है।

इनकी कृपासे साधक के, समस्त पाप और बाधाएँ, नष्ट हो जाती हैं।

इस दिन साधक का मन – मणिपूर चक्र – में, प्रविष्ट होता है।

माँ चंद्रघंटा की कृपा से, अलौकिक वस्तुओं के दर्शन होते हैं, दिव्य सुगंधियों का अनुभव होता है तथा विविध प्रकार की दिव्य ध्वनियाँ सुनाई देती हैं।

ये क्षण, साधक के लिए, अत्यंत सावधान रहने के होते हैं।

माँ चंद्रघंटा का स्वरूप, परम शान्तिदायक और कल्याणकारी है।

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देवी चंद्रघंटा


देवी कूष्माण्डा

नवरात्र-पूजन के चौथे दिन, कूष्माण्डा देवी के स्वरूप की, उपासना की जाती है।

कूष्माण्डा स्वरुप में माँ की आठ भुजाएँ हैं। इसलिए, ये अष्टभुजा देवी के नाम से भी जानी जाती हैं।

कूष्माण्डा देवी, सृष्टि की आदि-स्वरूपा और आदिशक्ति हैं।

इस दिन साधक का मन – अनाहत चक्र – में स्थित होता है।

देवी की उपासनासे, भक्तोंके समस्त रोग-शोक, नष्ट हो जाते हैं।

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देवी कूष्माण्डा


माँ स्कंदमाता

नवरात्रि का पाँचवाँ दिन, स्कंदमाता की उपासना का दिन होता है।

मोक्ष के द्वार खोलने वाली माता, परम सुखदायी हैं।

माँ अपने भक्तों की, समस्त इच्छाओं की पूर्ति करती हैं।

भगवान स्कंद कुमार, कार्तिकेय नाम से भी जाने जाते हैं।

इन्हीं भगवान स्कंद की माता होने के कारण, माँ दुर्गाजी के इस स्वरूप को, स्कंदमाता के नाम से जाना जाता है।

नवरात्री पूजा में पांचवें दिन, साधक अपने मन को, – विशुद्ध चक्र – में स्थित करते हैं।

इस चक्र में स्थित मन वाले साधक की, समस्त बाह्य क्रियाओं एवं चित्तवृत्तियों का लोप हो जाता है।

साधक का मन, भौतिक विकारों से, काम, क्रोध, मोह आदि विकारों से, मुक्त हो जाता है।

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माँ स्कंदमाता


कात्यायिनी देवी

माँ दुर्गा के छठे स्वरूप का नाम, कात्यायनी देवी है।

माँ कात्यायनी, अमोघ अर्थात, जो निष्फल, निरर्थक या व्यर्थ न हो, फलदायिनी हैं।

दुर्गा पूजा के छठे दिन, साधक का मन, – आज्ञा चक्र – में स्थित होता है।

कात्यायिनी देवी के पूजन से, अद्भुत शक्ति का संचार होता है और दुश्मनों का संहार करने में ये सक्षम बनाती हैं।

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कात्यायिनी देवी


कालरात्रि देवी

माँ दुर्गाजी की सातवीं शक्ति, कालरात्रि देवी के नाम से जानी जाती हैं।

दुर्गापूजा के सातवें दिन, माँ कालरात्रि की उपासना का विधान है।

माँ की यह शक्ति, सदैव शुभ फल ही देने वाली हैं, इसलिए देविका एक नाम शुभंकारी भी है।

नवरात्रा में सातवे दिन, साधक का मन, – सहस्रार चक्र – में स्थित रहता है।

भक्त के लिए ब्रह्मांड की, समस्त सिद्धियों का द्वार खुलने लगता है।

माँ कालरात्रि दुष्टों का विनाश करने वाली हैं और देवीकी कृपा से साधक, सर्वथा भय-मुक्त हो जाता है।

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कालरात्रि देवी


महागौरी

माँ दुर्गाजी की, आठवीं शक्ति का नाम, महागौरी है।

दुर्गापूजा के आठवें दिन, महागौरी की उपासना का विधान है।

इनकी शक्ति अमोघ और सदा फलदायिनी है।

महागौरी देवी की उपासना से, भक्तों को सभी कल्मष धुल जाते हैं, और पूर्वसंचित पाप भी नष्ट हो जाते हैं।

भविष्य में पाप-संताप, दैन्य-दुःख, भक्त के पास कभी नहीं जाते।

वह सभी प्रकार से पवित्र और अक्षय पुण्यों का अधिकारी हो जाता है।

नवदुर्गा – माँ शैलपुत्री – कथा, मंत्र, स्तुति


माता शैलपुत्री – माँ दुर्गा का पहला स्वरूप

वन्दे वाञ्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
वृषारूढां शूलधरां शैलपुत्री यशस्विनीम्॥

माँ दुर्गा अपने पहले स्वरूप में शैलपुत्री के नाम से जानी जाती हैं। पर्वतराज हिमालय के घर पुत्री के रूप में जन्म लेने के कारण उनका नाम शैलपुत्री पड़ा था।

शैल का अर्थ होता है – पहाड़, पर्वत।
शैलपुत्री – पर्वतराज हिमालय की पुत्री

यही नव दुर्गाओं में प्रथम दुर्गा हैं। शैलपुत्री दुर्गा का महत्त्व और शक्तियाँ अनन्त हैं। नवरात्र-पूजन में प्रथम दिवस इन्हीं की पूजा और उपासना की जाती है।


माता शैलपुत्री की कथा

देवी शैलपुत्री पूर्वजन्म में प्रजापति दक्षकी कन्या सती
देवी शैलपुत्री सती के नाम से भी जानी जाती हैं। अपने पूर्वजन्म मे ये प्रजापति दक्षकी कन्या के रूप में उत्पन्न हुई थीं। तब इनका नाम सती था। इनका विवाह भगवान शंकरजी से हुआ था।

एक बार प्रजापति दक्षने एक बहुत बड़ा यज्ञ किया। यज्ञमें उन्होंने सारे देवताओं को निमंत्रित किया। किन्तु शंकरजी को उन्होंने इस यज्ञमें निमंत्रित नहीं किया।

सती ने जब सुना कि उनके पिता एक विशाल यज्ञ कर रहे हैं, तब वहाँ जाने के लिए उनका मन विकल हो उठा।

अपनी यह इच्छा उन्होंने शंकर जी को बतायी।

सारी बातों पर विचार करने के बाद शंकरजी ने कहा कि – सारे देवताओं को निमंत्रित किया गया है, उन्हें नहीं। ऐसे में वहां जाना उचित नहीं है।

किन्तु सती का प्रबल आग्रह देखकर शंकरजी ने उन्हें यज्ञ में जाने की अनुमति दे दी।

सती ने पिताके घर पहुँचकर देखा कि कोई भी उनसे आदर और प्रेम के साथ बात नहीं कर रहा है। केवल उनकी माता ने ही स्नेह से उन्हें गले लगाया। बहनों की बातों में व्यंग्य और उपहास के भाव भरे हुए थे।

उन्होंने यह भी देखा कि वहाँ भगवान शंकर के प्रति तिरस्कार का भाव भरा हुआ है। दक्ष ने उनके प्रति कुछ अपमान जनक वचन भी कहे। परिजनों के इस व्यवहार से उनके मन को बहुत क्लेश पहुँचा। उनका हृदय क्षोभ, ग्लानि और क्रोध से सन्तप्त हो उठा।

उन्होंने सोचा भगवान् शंकरजी की बात न मानकर, यहाँ आकर उन्होंने बहुत बड़ी गलती की है। वह अपने पति भगवान् शंकर के इस अपमान को सह न सकीं। उन्होंने अपने उस रूप को वहीं योगाग्नि द्वारा जलाकर भस्म कर दिया।

इस दारुण दुःखद घटना को सुनकर शंकर जी ने क्रुद्ध हो अपने गणोंको भेजकर दक्षके उस यज्ञका पूर्णतः विध्वंस करा दिया।

सतीने योगाग्नि द्वारा अपने शरीर को भस्मकर अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया। इस बार वह शैलपुत्री नाम से विख्यात हुईं।

देवी शैलपुत्री

सती अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्मीं और शैलपुत्री कहलाईं। शैलपुत्री देवी का विवाह भी शंकर जी से ही हुआ। पूर्वजन्म की भाँति इस जन्म में भी वह शिवजी की अर्धांगिनी बनीं। पार्वती, हैमवती भी उन्हीं के नाम हैं।

उपनिषद की एक कथा के अनुसार इन्हीं हैमवती स्वरूप से देवताओं का गर्व-भंजन किया था।


माँ शैलपुत्री का स्वरुप

देवी शैलपुत्री के दाहिने हाथ में त्रिशूल और बायें हाथ में कमल सुशोभित है।

इनका वाहन वृषभ है, इसलिए यह देवी वृषारूढ़ा के नाम से भी जानी जाती हैं।


माँ शैलपुत्री की उपासना

नवरात्र पूजनमें प्रथम दिवस इन्हीं की पूजा और उपासना की जाती है। इस प्रथम दिन की उपासना में योगी अपने मन को मूलाधार चक्र में स्थिर करते हैं। यहीं से उनकी योगसाधना का प्रारम्भ होता है।

नव दुर्गाओं में प्रथम शैलपुत्री दुर्गा का महत्त्व और उनकी शक्तियाँ अनन्त हैं।


माँ शैलपुत्री का मंत्र

(Shailputri Devi Mantra)

वन्दे वाञ्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
वृषारूढां शूलधरां शैलपुत्री यशस्विनीम्॥


माता शैलपुत्री की स्तुति

जय माँ शैलपुत्री प्रथम,
दक्ष की हो संतान।
नवरात्री के पहले दिन,
करे आपका ध्यान॥

अग्नि कुण्ड में जा कूदी,
पति का हुआ अपमान।
अगले जनम में पा लिया,
शिव के पास स्थान॥

जय माँ शैलपुत्री,
जय माँ शैलपुत्री॥

राजा हिमाचल से मिला,
पुत्री बन सम्मान।
उमा नाम से पा लिया,
देवों का वरदान॥

सजा है दाये हाथ में,
संहारक त्रिशूल।
बाए हाथ में ले लिया,
खिला कमल का फूल॥

जय माँ शैलपुत्री,
जय माँ शैलपुत्री॥

बैल है वाहन आपका,
जपती हो शिव नाम।
दर्शन से आनंद मिले,
अम्बे तुम्हे प्रणाम॥

नवरात्रों की माँ,
कृपा कर दो माँ।
जय माँ शैलपुत्री,
जय माँ शैलपुत्री॥

जय माँ शैलपुत्री प्रथम,
दक्ष की हो संतान।
नवरात्री के पहले दिन,
करे आपका ध्यान॥

नवदुर्गा – माँ ब्रह्मचारिणी – कथा, मंत्र, स्तुति


माँ ब्रह्मचारिणी – माँ दुर्गा का दूसरा स्वरूप

दधाना करपदमाभ्याम्-अक्षमालाकमण्डलू।
देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा॥

माँ दुर्गा की नवशक्तियों का दूसरा स्वरूप ब्रह्मचारिणी का है।

ब्रह्म का अर्थ है तपस्या और
चारिणी यानी आचरण करने वाली।

इस प्रकार ब्रह्मचारिणी (तप की चारिणी) का अर्थ है, तप का आचरण करने वाली। नवरात्र पर्व के दूसरे दिन माँ ब्रह्मचारिणी की पूजा-अर्चना की जाती है।


माँ ब्रह्मचारिणी कथा

अपने पूर्व जन्म में जब ये हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न हुई थीं, तब नारद के उपदेश से इन्होंने भगवान शंकर जी को प्राप्त करने के लिए कठिन तपस्या की थी। इसी दुष्कर तपस्या के कारण इन्हें तपश्चारिणी अर्थात ब्रह्मचारिणी नाम से अभिहित किया गया।

इन्होंने एक हज़ार वर्ष तक केवल फल खाकर व्यतीत किए और सौ वर्ष तक केवल शाक पर निर्भर रहीं। उपवास के समय खुले आकाश के नीचे वर्षा और धूप के विकट कष्ट सहे, इसके बाद में केवल ज़मीन पर टूट कर गिरे बेलपत्रों को खाकर तीन हज़ार वर्ष तक भगवान शंकर की आराधना करती रहीं।

कई हज़ार वर्षों तक वह निर्जल और निराहार रह कर व्रत करती रहीं। पत्तों को भी छोड़ देने के कारण उनका नाम अपर्णा भी पड़ा। इस कठिन तपस्या के कारण ब्रह्मचारिणी देवी का पूर्वजन्म का शरीर एकदम क्षीण हो गया था।

उनकी यह दशा देखकर उनकी माता मैना देवी अत्यन्त दुखी हो गयीं। उन्होंने उस कठिन तपस्या विरत करने के लिए उन्हें आवाज़ दी “उमा, अरे नहीं”। तब से देवी ब्रह्मचारिणी का पूर्वजन्म का एक नाम उमा पड़ गया था।

उनकी इस तपस्या से तीनों लोकों में हाहाकार मच गया था। देवता, ॠषि, सिद्धगण, मुनि सभी ब्रह्मचारिणी देवी की इस तपस्या को अभूतपूर्व पुण्यकृत्य बताते हुए उनकी सराहना करने लगे।

अन्त में पितामह ब्रह्मा जी ने आकाशवाणी के द्वारा उन्हें सम्बोधित करते हुए प्रसन्न स्वरों में कहा – हे देवी । आज तक किसी ने इस प्रकार की ऐसी कठोर तपस्या नहीं की थी। तुम्हारी मनोकामना पूर्ण होगी। भगवान शिव जी तुम्हें पति रूप में प्राप्त होंगे। अब तुम तपस्या से विरत होकर घर लौट जाओ।


माँ ब्रह्मचारिणी का स्वरुप

माँ ब्रह्मचारिणी का स्वरूप पूर्ण ज्योतिर्मय एवं अत्यंत भव्य है। इनके दाहिने हाथ में जप की माला एवं बाएँ हाथ में कमण्डल रहता है।


माँ ब्रह्मचारिणी की उपासना

दुर्गा पूजा के दूसरे दिन इन्हीं के स्वरूप की उपासना की जाती है। इस दिन साधक का मन स्वाधिष्ठान चक्र में होता है। इस चक्र में अवस्थित मन वाला योगी उनकी कृपा और भक्ति प्राप्त करता है। माँ ब्रह्मचारिणी देवी की कृपा से उसे सर्वत्र सिद्धि और विजय प्राप्त होती है।


माँ ब्रह्मचारिणी की महिमा

माँ दुर्गा का यह दूसरा स्वरूप भक्तों को अनन्त फल देने वाला है। इनकी उपासना से मनुष्य में तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार व संयम की वृद्धि होती है। सर्वत्र सिद्धि और विजय प्राप्त होती है। जीवन के कठिन संघर्षों में भी उसका मन कर्त्तव्य-पथ से विचलित नहीं होता।


माँ ब्रह्मचारिणी का मंत्र:

या देवी सर्वभू‍तेषु
माँ ब्रह्मचारिणी रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै
नमस्तस्यै नमो नम:॥

अर्थ : हे माँ! सर्वत्र विराजमान और ब्रह्मचारिणी के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है (मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ)।

दधाना करपदमाभ्याम्-अक्षमालाकमण्डलू।
देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा॥


ब्रह्मचारिणी स्तुति

जय माँ ब्रह्मचारिणी,
ब्रह्मा को दिया ग्यान।
नवरात्री के दुसरे दिन
सारे करते ध्यान॥

शिव को पाने के लिए
किया है तप भारी।
ॐ नम: शिवाय जाप कर,
शिव की बनी वो प्यारी॥

भक्ति में था कर लिया
कांटे जैसा शरीर।
फलाहार ही ग्रहण कर
सदा रही गंभीर॥

बेलपत्र भी चबाये थे
मन में अटल विश्वास।
जल से भरा कमंडल ही
रखा था अपने पास॥

रूद्राक्ष की माला से
करूँ आपका जाप।
माया विषय में फंस रहा,
सारे काटो पाप॥

नवरात्रों की माँ,
कृपा करदो माँ।
नवरात्रों की माँ,
कृपा करदो माँ।

जय ब्रह्मचारिणी माँ,
जय ब्रह्मचारिणी माँ॥
जय ब्रह्मचारिणी माँ,
जय ब्रह्मचारिणी माँ॥

नवदुर्गा – माँ चन्द्रघण्टा – कथा, मंत्र, स्तुति


माँ चन्द्रघण्टा – माँ दुर्गा का तीसरा रूप

पिण्डजप्रवरारूढा चण्डकोपास्त्रकैर्युता।
प्रसादं तनुते मह्यं चन्द्रघण्टेति विश्रुत॥

माँ दुर्गाजी की तीसरी शक्ति का नाम चन्द्रघण्टा है। नवरात्रि में तीसरे दिन देवी के इस रूप का पूजन किया जाता है।

माँ चन्द्रघण्टा की आराधना सदा फलदायी है। इनकी कृपासे साधक के समस्त पाप और बाधाएँ नष्ट हो जाती हैं।


माँ चन्द्रघण्टा का स्वरुप

माँ चंद्रघंटा का स्वरूप परम शान्तिदायक और कल्याणकारी है। इनके मस्तक में घण्टेके आकार का अर्धचन्द्र है, इसलिए इन्हें चन्द्रघण्टा देवी कहा जाता है।

इनके शरीर का रंग स्वर्ण के समान चमकीला है। इनके दस हाथ हैं और दसों हाथों में खड्ग, बाण आदि शस्त्र विभूषित हैं। इनका वाहन सिंह है। इनकी मुद्रा युद्ध के लिये उद्यत रहने की होती है। इनके घण्टे की सी भयानक चण्डध्वनि से अत्याचारी दानव, दैत्य, और राक्षस सदैव डरते रहते हैं।


माँ चन्द्रघण्टा की उपासना

नवरात्रकी दुर्गा उपासना में तीसरे दिन की पूजा का अत्यधिक महत्त्व है। इस दिन साधकका मन मणिपुर चक्र में प्रविष्ठ होता है।

माँ चन्द्रघन्टा की कृपा से उसे अलौकिक दर्शन होते हैं। विविध प्रकार की दिव्य ध्वनियाँ सुनायी देती हैं और दिव्य सुगन्धियों का अनुभव होता है। ये क्षण साधकके लिये अत्यन्त सावधान रहने के होते हैं।


माँ चन्द्रघण्टा की महिमा

माँ चन्द्रघण्टा की कृपासे साधक के समस्त पाप और बाधाएँ नष्ट हो जाती हैं। इनकी आराधना सदा फलदायी है।

चंद्रघंटा देवी की मुद्रा सदैव युद्ध के लिये अभिमुख रहने की होती है, अतः भक्तों के कष्ट का निवारण ये अत्यन्त शीघ्र कर देती हैं। इनका वाहन सिंह है अतः इनका उपासक सिंहकी तरह पराक्रमी और निर्भय हो जाता है।

इनके घण्टे की ध्वनि सदा अपने भक्तों की प्रेत-बाधादि से रक्षा करती रहती है। इनका ध्यान करते ही शरणागत की रक्षा के लिये इस घण्टे की ध्वनि निनादित हो उठती है।

दुष्टों का दमन और विनाश करने में सदैव तत्पर रहने के बाद भी माँ का स्वरूप दर्शक और आराधक के लिये अत्यन्त सौम्यता एवं शान्ति से परिपूर्ण होता है।

इनकी आराधाना से प्राप्त होनेवाला एक बहुत बड़ा सद्गुण यह भी है कि साधक में वीरता-निर्भयता के साथ ही सौम्यता एवं विनम्रता का भी विकास होता है।

उसके मुख, नेत्र तथा सम्पूर्ण काया में कान्ति-गुण की वृद्धि होती है। स्वर में दिव्य, अलौकिक माधुर्य का समावेश हो जाता है। माँ चन्द्रघण्टा के भक्त और उपासक जहाँ भी जाते हैं लोग उन्हें देखकर शान्ति और सुखका अनुभव करते हैं।


माँ चन्द्रघण्टा का मंत्र:

या देवी सर्वभू‍तेषु
माँ चंद्रघंटा रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै
नमस्तस्यै नमो नम:॥

अर्थ : हे माँ, सर्वत्र विराजमान और चंद्रघंटा के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है (मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ) हे माँ, मुझे सब पापों से मुक्ति प्रदान करें।

पिण्डजप्रवरारूढा चण्डकोपास्त्रकैर्युता।
प्रसादं तनुते मह्यं चन्द्रघण्टेति विश्रुत॥

साधक को चाहिये कि अपने मन, वचन, कर्म, एवं काया को विहित विधान के अनुसार पूर्णतः परिशुद्ध एवं पवित्र करके माँ चन्द्रघण्टा की उपासना-अराधना में तत्पर रहे। उनकी उपासना से हम समस्त सांसारिक कष्टों से मुक्त होकर सहज ही परमपद के अधिकारी बन सकते हैं।

उनका ध्यान हमारे इहलोक और परलोक दोनों के लिये परमकल्याणकारी और सद्गति को देनेवाला है।


माँ चन्द्रघण्टा की स्तुति

नवरात्रि के तीसरे दिन,
चंद्रघंटा का ध्यान।
मस्तक पर है अर्ध चन्द्र,
मंद मंद मुस्कान॥

दस हाथों में अस्त्र शस्त्र
रखे खडग संग बाण।
घंटे के शब्द से
हरती दुष्ट के प्राण॥

सिंह वाहिनी दुर्गा का
चमके स्वर्ण शरीर।
करती विपदा शान्ति
हरे भक्त की पीर॥

मधुर वाणी को बोल कर
सब को देती ग्यान।
जितने देवी देवता
सभी करें सम्मान॥

अपने शांत स्वभाव से
सबका करती ध्यान।
भव सागर में फंसा हूँ मैं,
करो मेरा कल्याण॥

नवरात्रों की माँ,
कृपा कर दो माँ।
नवरात्रों की माँ,
कृपा कर दो माँ।

जय माँ चंद्रघंटा,
जय माँ चंद्रघंटा॥

नवरात्रि के तीसरे दिन,
चंद्रघंटा का ध्यान।
मस्तक पर है अर्ध चन्द्र,
मंद मंद मुस्कान॥

नवदुर्गा – माँ कूष्माण्डा – कथा, मंत्र, स्तुति


माँ कूष्माण्डा – माँ दुर्गा का चौथा रूप

सुरासम्पूर्णकलशं रुधिरास्मृतमेव च।
दधानां हस्तपद्‌माभ्यां कूष्माण्डा शुभदास्तु में॥

माँ दुर्गाजीके चौथे स्वरूपका नाम कूष्माण्डा है। नवरात्र के चौथे दिन माँ दुर्गा के चौथे स्वरूप ‘कूष्माण्डा’ की पूजा होती है।

जब सृष्टिका अस्तित्व नहीं था, चारों ओर अंधकार ही अंधकार था, तब देवी कूष्माण्डाने ब्रह्माण्डकी रचना की थी। अत: यही सृष्टिकी आदि-स्वरूपा और आदि शक्ति हैं। इनके पूर्व बह्माण्डका अस्तित्व था ही नहीं।

अपनी मन्द, हलकी हँसीद्वारा ब्रह्माण्डको उत्पन्न करनेके कारण इन्हें कूष्माण्डा देवीके नामसे जाना जाता है।

देवी कूष्माण्डाका निवास सूर्यमण्डलके भीतरके लोकमें है। सूर्यलोकमें निवास कर सकनेकी क्षमता और शक्ति केवल इन्हींमें है।

इनके शरीर की कांति और प्रभा भी सूर्य के समान ही दैदीप्यमान हैं। कोई भी देवी-देवता इनके तेज और प्रभावकी समता नहीं कर सकते। इनके तेजकी तुलना इन्हींसे की जा सकती है।

देवी के तेज और प्रकाशसे दसों दिशाएँ प्रकाशित हो रही हैं। ब्रह्माण्डकी सभी वस्तुओं और प्राणियोंमें अवस्थित तेज इन्हींकी छाया है।


माँ कूष्माण्डा का स्वरुप

माँ कूष्माण्डा की आठ भुजाएँ हैं। अत: ये अष्टभुजा देवीके नामसे भी जानी जाती हैं।

इनके सात हाथोंमें क्रमश: कमण्डलु, धनुष, बाण, कमल-पुष्प, अमृतपूर्ण कलश, चक्र तथा गदा है। आठवें हाथमें सभी सिद्धियों और निधियोंको देनेवाली जपमाला है। इनका वाहन सिंह है।


माँ कूष्माण्डा की उपासना

नवरात्र-पूजनके चौथे दिन कूष्माण्डा देवीके स्वरूपकी ही उपासना की जाती है। इस दिन साधकका मन अनाहत चक्रमें स्थित होता है।

अत: नवरात्रा के चौथे दिन साधक को अत्यन्त पवित्र मनसे कूष्माण्डा देवीके स्वरूपको ध्यानमें रखकर पूजा-उपासनाके कार्यमें लगना चाहिये।


माँ कूष्माण्डा की महिमा

माँ कूष्माण्डाकी उपासनासे भक्तोंके समस्त रोग-शोक नष्ट हो जाते हैं। इनकी भक्तिसे यश, बल और आरोग्यकी वृद्धि होती है।

यदि मनुष्य सच्चे हृदयसे देवी की शरणागत जाए तो उसे अत्यन्त सुगमतासे (सहज ही) परम पदकी प्राप्ति हो सकती है। माँ कूष्माण्डा थोड़ी सी सेवा और भक्तिसे भी प्रसन्न हो जाती हैं।

हमें चाहिये कि हम शास्त्रों-पुराणोंमें बत्ताए विधानके अनुसार माँ दुर्गाकी उपासना और भक्तिके मार्गपर अग्रसर हों।

साधकको भक्ति-मार्गपर कुछ ही कदम आगे बढ़नेपर माँ की कृपाका सूक्ष्म अनुभव होने लगता है। यह दुःख-स्वरूप संसार उसके लिये अत्यन्त सुखद और सुगम बन जाता है।

मनुष्यको भवसागरसे पार उतारनेके लिये माँकी उपासना सर्वाधिक सुगम और श्रेयस्कर मार्ग है। माँ कूष्माण्डाकी उपासना मनुष्यको सभी दु:खोसे मुक्त कर उसे सुख, समृद्धि और उन्नतिकी ओर ले जानेवाली है।

अत: अपनी लौकिक और पारलौकिक उन्नति चाहनेवालों को देवी कूष्माण्डाकी उपासनामें सदैव तत्पर रहना चाहिये।


माँ कूष्माण्डा का मंत्र:

या देवी सर्वभू‍तेषु माँ कूष्माण्डा रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

अर्थ: हे माँ, सर्वत्र विराजमान और कूष्माण्डा के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है (मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ)। हे माँ, मुझे सब पापों से मुक्ति प्रदान करें।

सुरासम्पूर्णकलशं रुधिरास्मृतमेव च।
दधाना हस्तपद्‌माभ्यां कूष्माण्डा शुभदास्तु में॥


माँ कूष्माण्डा स्तुति

चौथा जब नवरात्र हो,
कुष्मांडा को ध्याते।
जिसने रचा ब्रह्माण्ड यह,
पूजन है करवाते॥

आद्यशक्ति कहते जिन्हें,
अष्टभुजी है रूप।
इस शक्ति के तेज से
कहीं छाव कही धुप॥

कुम्हड़े की बलि करती है
तांत्रिक से स्वीकार।
पेठे से भी रीझती
सात्विक करे विचार॥

क्रोधित जब हो जाए यह
उल्टा करे व्यवहार।
उसको रखती दूर माँ,
पीड़ा देती अपार॥

सूर्य चन्द्र की रौशनी
यह जग में फैलाए।
शरणागती मैं आया
तू ही राह दिखाए॥

नवरात्रों की माँ
कृपा करदो माँ।
नवरात्रों की माँ
कृपा करदो माँ॥

जय माँ कुष्मांडा मैया।
जय माँ कुष्मांडा मैया॥

चौथा जब नवरात्र हो,
कुष्मांडा को ध्याते।
जिसने रचा ब्रह्माण्ड यह,
पूजन है करवाते॥

नवदुर्गा – माँ स्कंदमाता – कथा, मंत्र, स्तुति


माँ स्कंदमाता – माँ दुर्गा का पांचवां रूप

सिंहासनगता नित्यं पद्‌माश्रितकरद्वया।
शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी॥

दुर्गाजीके पाँचवें स्वरूपको स्कंदमाताके नामसे जाना जाता। मोक्ष के द्वार खोलने वाली माता परम सुखदायी हैं। भगवती दुर्गा जी का ममता स्वरूप हैं माँ स्कंदमाता।

नवरात्रि का पाँचवाँ दिन स्कंदमाता की उपासना का दिन होता है। माँ अपने भक्त के सारे दोष और पाप दूर कर देती है और समस्त इच्छाओं की पूर्ति करती हैं।

भगवान स्कंद अर्थात कार्तिकेय की माता होने के कारण इन्हें स्कन्दमाता कहते है।

भगवान स्कंद ‘कुमार कार्तिकेय’ नाम से भी जाने जाते हैं। ये प्रसिद्ध देवासुर संग्राम में देवताओं के सेनापति बने थे। पुराणों में इन्हें कुमार और शक्ति कहकर इनकी महिमा का वर्णन किया गया है। इन्हीं भगवान स्कंद की माता होने के कारण माँ दुर्गाजी के इस इस पाँचवें स्वरूपको स्कंदमाता के नाम से जाना जाता है।


देवी स्कंदमाता का स्वरूप

स्कंदमाता की चार भुजाएँ हैं। ये दाहिनी तरफकी ऊपरवाली भुजासे भगवान स्कन्दको (कुमार कार्तिकेय को) गोदमें पकड़े हुए हैं। तथा दाहिनी तरफ की नीचे वाली भुजामें कमल पुष्प है।

बाईं तरफ की ऊपर वाली भुजा वरमुद्रा में (भक्तों को आशीर्वाद देते हुए है) तथा नीचे वाली भुजामें भी कमल पुष्प हैं।

इनका वर्ण पूर्णतः शुभ्र है। ये कमल के आसन पर विराजमान रहती हैं। इसी कारण इन्हें पद्मासना देवी भी कहा जाता है। इनका वाहन सिंह है।


माँ स्कंदमाता की उपासना

पांचवें दिन की नवरात्री पूजा में साधक अपने मन को विशुद्ध चक्र में स्थित करते हैं।

इस चक्र में स्थित मन वाले साधक की समस्त बाह्य क्रियाओं एवं चित्तवृत्तियों का लोप हो जाता है। वह विशुद्ध चैतन्य स्वरूप की ओर अग्रसर होता है। साधकका मन भौतिक विकारों से (काम, क्रोध, मोह आदि विकारों से) मुक्त हो जाता है।

साधक का मन समस्त लौकिक और सांसारिक बंधनों से विमुक्त होकर माँ स्कंदमाता के स्वरूप में पूर्णतः तल्लीन हो जाता है।

इस समय साधक को पूर्ण सावधानी के साथ उपासना की ओर अग्रसर होना चाहिए। उसे अपनी समस्त ध्यान-वृत्तियों को एकाग्र रखते हुए साधना के पथ पर आगे बढ़ना चाहिए।


माँ स्कंदमाता की महिमा

माँ स्कंदमाता की उपासना से भक्त की समस्त इच्छाएँ पूर्ण हो जाती हैं। इस मृत्युलोक में ही उसे परम शांति और सुख का अनुभव होने लगता है। उसके लिए मोक्ष का द्वार सुलभ हो जाता है।

स्कंदमाता की उपासना से स्कंद भगवान (कार्तिकेय भगवान) की उपासना भी हो जाती है। यह विशेषता केवल स्कंदमाता को प्राप्त है, इसलिए साधक को स्कंदमाता की उपासना की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए।

सूर्यमंडल की देवी होने के कारण इनका उपासक अलौकिक तेज एवं कांति से संपन्न हो जाता है। एक अलौकिक प्रभामंडल अदृश्य भाव से सदैव साधकके चतुर्दिक् (चारो ओर) परिव्याप्त रहता है।

हमें एकाग्रभाव से मन को पवित्र रखकर माँ की शरण में आने का प्रयत्न करना चाहिए। इस घोर भवसागर के दुःखों से मुक्ति पाकर मोक्ष का मार्ग सुलभ बनाने का इससे उत्तम उपाय दूसरा नहीं है।


माँ स्कंदमाता का मंत्र (Maa Skandmata Mantra)

या देवी सर्वभू‍तेषु माँ स्कंदमाता रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।

अर्थ : हे माँ, सर्वत्र विराजमान और स्कंदमाता के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है (मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ)। हे माँ, मुझे सब पापों से मुक्ति प्रदान करें।

सिंहासनगता नित्यं पद्‌माश्रितकरद्वया।
शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी॥


माँ स्कंदमाता की स्तुति

नवरात्रि की पांचवी
स्कन्दमाता महारानी।
इसका ममता रूप है
ध्याए ग्यानी ध्यानी॥

कार्तिक्ये को गोद ले
करती अनोखा प्यार।
अपनी शक्ति दी उसे
करे रक्त संचार॥

भूरे सिंह पे बैठ कर,
मंद मंद मुस्काए।
कमल का आसन साथ में,
उसपर लिया सजाए॥

आशीर्वाद दे हाथ से,
मन में भरे उमंग।
कीर्तन करता आपका,
चढ़े नाम का रंग॥

जैसे रूठे बालक की,
सुनती आप पुकार।
मुझको भी वो प्यार दो,
मत करना इनकार॥

नवरात्रों की माँ
कृपा कर दो माँ।
नवरात्रों की माँ
कृपा कर दो माँ॥

जय माँ स्कन्द माता।
जय माँ स्कन्द माता॥

नवरात्रि की पांचवी
स्कन्दमाता महारानी।
इसका ममता रूप है
ध्याए ग्यानी ध्यानी॥

नवदुर्गा – कात्यायनी देवी – कथा, मंत्र, स्तुति


कात्यायनी देवी – माँ दुर्गा का छठवां रूप

चन्द्रहासोज्ज्वलकरा शार्दूलवरवाहना।
कात्यायनी शुभं दद्याद्देवी दानवघातिनी॥

माँ दुर्गा के छठवें स्वरूप का नाम कात्यायनी है। दुर्गापूजाके छठवें दिन इनके स्वरूपकी उपासना की जाती है।


कात्यायनी देवी की कथा

कत नामक एक प्रसिद्ध महर्षि थे। उनके पुत्र ऋषि कात्य हुए। इन्हीं कात्य के गोत्र में विश्वप्रसिद्ध महर्षि कात्यायन उत्पन्न हुए थे।

इन्होंने भगवती की उपासना करते हुए बहुत वर्षों तक बड़ी कठिन तपस्या की थी। उनकी इच्छा थी माँ भगवती उनके घर पुत्री के रूप में जन्म लें। माँ भगवती ने उनकी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली।

कुछ समय पश्चात जब महिषासुर दानवका अत्याचार पृथ्वी पर बढ़ गया तब भगवान ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों ने अपने-अपने तेज का अंश देकर महिषासुर के विनाश के लिए एक देवी को उत्पन्न किया।

महर्षि कात्यायन ने सर्वप्रथम इनकी पूजा की। इसी कारण से यह कात्यायनी देवी कहलाईं।

माँ का नाम कात्यायनी कैसे पड़ा इसकी ऐसी भी एक कथा मिलती है। देवी महर्षि कात्यायन के वहाँ पुत्री रूप में उत्पन्न हुई थीं। आश्विन कृष्ण चतुर्दशी को जन्म लेकर शुक्ल सप्तमी, अष्टमी तथा नवमी तक तीन दिन इन्होंने कात्यायन ऋषि की पूजा ग्रहण कर दशमी को महिषासुर का वध किया था।


माँ कात्यायनी का स्वरुप

माँ कात्यायनी का स्वरूप अत्यंत चमकीला और भास्वर (ज्योर्तिमय, प्रकाशमान) है।

इनकी चार भुजाएँ हैं। माताजी का दाहिनी तरफ का ऊपरवाला हाथ अभयमुद्रा में तथा नीचे वाला वरमुद्रा में है।

बाईं तरफ के ऊपरवाले हाथ में तलवार और नीचे वाले हाथ में कमल-पुष्प सुशोभित है। इनका वाहन सिंह है।


माँ कात्यायिनी की उपासना

नवरात्रि का छठा दिन माँ कात्यायनी की उपासना का दिन होता है।

उस दिन साधक का मन ‘आज्ञा’ चक्र में स्थित होता है। योगसाधना में इस आज्ञा चक्र का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। इस चक्र में स्थित मन वाला साधक माँ कात्यायनी के चरणों में अपना सर्वस्व निवेदित कर देता है।

परिपूर्ण आत्मदान करने वाले ऐसे भक्तों को सहज भाव से माँ के दर्शन प्राप्त हो जाते हैं। इनका ध्यान गोधुली बेला में करना होता है।


माँ कात्यायनी की महिमा

इनके पूजन से अद्भुत शक्ति का संचार होता है व दुश्मनों का संहार करने में ये सक्षम बनाती हैं।

माँ कात्यायनी अमोघ (जो निष्फल, निरर्थक या व्यर्थ न हो) फलदायिनी हैं। भगवान कृष्ण को पतिरूप में पाने के लिए ब्रज की गोपियों ने इन्हीं की पूजा यमुना के तट पर की थी। ये ब्रजमंडल की अधिष्ठात्री देवी के रूप में प्रतिष्ठित हैं।

माँ कात्यायनी की भक्ति और उपासना द्वारा मनुष्य को बड़ी सरलता से अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चारों फलों की प्राप्ति हो जाती है। वह इस लोक में स्थित रहकर भी अलौकिक तेज और प्रभाव से युक्त हो जाता है।

माँ को जो सच्चे मन से याद करता है उसके रोग, शोक, संताप, भय आदि सर्वथा विनष्ट हो जाते हैं। जन्म-जन्मांतर के पापों को विनष्ट करने के लिए माँ की शरणागत होकर उनकी पूजा-उपासना के लिए तत्पर होना चाहिए।


माँ कात्यायिनी का मंत्र (Katyayani Devi Mantra)

या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

अर्थ : हे माँ! सर्वत्र विराजमान और शक्ति -रूपिणी प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है (या मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ)।

चन्द्रहासोज्ज्वलकरा शार्दूलवरवाहना।
कात्यायनी शुभ दद्याद्देवी दानवघातिनी॥


कात्यायनी देवी की स्तुति

नवरात्रि का छठा है यह
माँ कात्यायनी रूप।
कलयुग में शक्ति बनी
दुर्गा मोक्ष स्वरूप॥

कात्यायन ऋषि पे किया
माँ ऐसा उपकार।
पुत्री बनकर आ गयी,
शक्ति अनोखी धार॥

देवों की रक्षा करी,
लिया तभी अवतार।
बृज मंडल में हो रही,
आपकी जय जय कार॥

गोपी ग्वाले आराधा,
जब जब हुए उदास।
मन की बात सुनाने को
आए आपके पास॥

श्रीकृष्ण ने भी जपा,
अम्बे आपका नाम।
दया दृष्टि मुझपर करो
बारम्बार प्रणाम॥

नवरात्रों की माँ
कृपा करदो माँ।
नवरात्रों की माँ
कृपा करदो माँ॥

जय कात्यायनी माँ।
जय जय कात्यायनी माँ॥

नवदुर्गा – माँ कालरात्रि – कथा, मंत्र, स्तुति


माँ कालरात्रि – माँ दुर्गा का सातवां रूप

एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता,
लम्बोष्टी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्त-शरीरिणी।
वामपादोल्ल-सल्लोह-लता-कण्टक-भूषणा,
वर्धन-मूर्ध-ध्वजा कृष्णा कालरात्रि-र्भयङ्करी॥

माँ दुर्गाजी की सातवीं शक्ति कालरात्रि के नाम से जानी जाती हैं। नवरात्रि का सातवां दिन माँ कालरात्रि की उपासना का दिन होता है।

माँ कालरात्रि का स्वरूप देखने में अत्यंत भयानक है, लेकिन ये सदैव शुभ फल ही देने वाली हैं। इसलिए देविका एक नाम ‘शुभंकारी’ भी है।


माँ कालरात्रि का स्वरुप

कालरात्रि देवीके शरीर का रंग घने अंधकार की तरह एकदम काला है। सिर के बाल बिखरे हुए हैं। गले में विद्युत की तरह चमकने वाली माला है। इनके तीन नेत्र हैं। ये तीनों नेत्र ब्रह्मांड के सदृश गोल हैं। इनसे विद्युत के समान चमकीली किरणें निःसृत होती रहती हैं (निकलती रहती हैं) ।

ये ऊपर उठे हुए दाहिने हाथ की वरमुद्रा से सभी को वर प्रदान करती हैं। दाहिनी तरफ का नीचे वाला हाथ अभयमुद्रा में है। बाईं तरफ के ऊपर वाले हाथ में लोहे का काँटा तथा नीचे वाले हाथ में खड्ग (कटार) है।

माँ की नासिका के श्वास-प्रश्वास से अग्नि की भयंकर ज्वालाएँ निकलती रहती हैं। इनका वाहन गर्दभ (गदहा) है।

माँ कालरात्रि देवी का रूप देखने में अत्यंत भयानक है, किन्तु माता का यह शक्ति रूप साधक को सदैव शुभ फल देता हैं। इसिलिए माँ के इस रूप को ‘शुभंकारी’ भी कहते है। अतः इनसे भक्तों को किसी प्रकार भी भयभीत अथवा आतंकित होने की आवश्यकता नहीं है।


माँ कालरात्रि की उपासना

इस दिन साधक का मन ‘सहस्रार’ चक्र में स्थित रहता है। इसके लिए ब्रह्मांड की समस्त सिद्धियों का द्वार खुलने लगता है।

सहस्रार चक्र में स्थित साधक का मन पूर्णतः माँ कालरात्रि के स्वरूप में अवस्थित रहता है। उनके साक्षात्कार से मिलने वाले पुण्य का वह भागी हो जाता है। उसके समस्त पापों-विघ्नों का नाश हो जाता है। उसे अक्षय पुण्य-लोकों की प्राप्ति होती है।


माँ कालरात्रि की महिमा

माँ कालरात्रि दुष्टों का विनाश करने वाली हैं। दानव, दैत्य, राक्षस, भूत, प्रेत आदि इनके स्मरण मात्र से ही भयभीत होकर भाग जाते हैं। ये ग्रह-बाधाओं को भी दूर करने वाली हैं। इनके उपासकों को अग्नि-भय, जल-भय, जंतु-भय, शत्रु-भय, रात्रि-भय आदि कभी नहीं होते। इनकी कृपा से वह सर्वथा भय-मुक्त हो जाता है।

इनकी पूजा-अर्चना करने से सभी पापों से मुक्ति मिलती है व दुश्मनों का नाश होता है, तेज बढ़ता है। माँ कालरात्रि के स्वरूप-विग्रह को अपने हृदय में अवस्थित करके मनुष्य को एकनिष्ठ भाव से उपासना करनी चाहिए। यम, नियम, संयम का उसे पूर्ण पालन करना चाहिए। मन, वचन, काया की पवित्रता रखनी चाहिए।

माँ कालरात्रि शुभंकारी देवी हैं। उनकी उपासना से होने वाले शुभों की गणना नहीं की जा सकती। हमें निरंतर उनका स्मरण, ध्यान और पूजा करना चाहिए।


माँ कालरात्रि का मंत्र (Kaalratri Devi Mantra)

या देवी सर्वभू‍तेषु
माँ कालरात्रि रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै
नमस्तस्यै नमो नम:॥

अर्थ: हे माँ, सर्वत्र विराजमान और कालरात्रि के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है (मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ)। हे माँ, मुझे पाप से मुक्ति प्रदान कर।

एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता,
लम्बोष्टी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्त-शरीरिणी।
वामपादोल्ल-सल्लोह-लता-कण्टक-भूषणा,
वर्धन-मूर्ध-ध्वजा कृष्णा कालरात्रि-र्भयङ्करी॥


माँ कालरात्रि की स्तुति

सातवाँ जब नवरात्र हो,
आनंद ही छा जाता।
अन्धकार सा रूप ले,
पुजती हो माता॥

गले में विद्युत माला है,
तीन नेत्र प्रगटाती।
धरती क्रोधित रूप माँ,
चैन नहीं वो पाती॥

गर्दभ पर विराज कर,
पाप का बोझ उठाती।
धर्म की रखती मर्यादा,
विचलित सी हो जाती॥

भूत प्रेत को दूर कर,
निर्भयता है लाती।
योगिनिओं को साथ ले,
धीरज वो दिलवाती॥

शक्ति पाने के लिए,
तांत्रिक धरते ध्यान।
मेरे जीवन में भी दो,
हलकी सी मुस्कान॥

नवरात्रों की माँ,
कृपा कर दो माँ।
नवरात्रों की माँ,
कृपा कर दो माँ॥

जय माँ कालरात्रि।
जय माँ कालरात्रि॥

सातवाँ जब नवरात्र हो,
आनंद ही छा जाता।
अन्धकार सा रूप ले,
पुजती हो माता॥

Navdurga – Nine forms of Goddess Durga


नवदुर्गा – माँ दुर्गा के नौ रुप

माँ दुर्गा के नौ रूपों को एक साथ नवदुर्गा कहा जाता है। नवरात्रि में दुर्गा पूजा के अवसर पर माँ के इन नौ रूपों की पूजा-उपासना की जाती है।

Nine forms of Goddess Durga

  1. शैलपुत्री (Shailputri)
  2. ब्रह्मचारिणी (Brahmacharini)
  3. चन्द्रघन्टा (Candraghanta)
  4. कूष्माण्डा (Kusamanda)
  5. स्कन्दमाता (Skandamata)
  6. कात्यायनी (Katyayani)
  7. कालरात्री (Kalaratri)
  8. महागौरी (Mahagauri)
  9. सिद्धिदात्री (Siddhidatri)
नवदुर्गा – माँ दुर्गा के नौ रुप

निम्नांकित श्लोक में नवदुर्गा के नाम क्रमश: दिये गए हैं –

Narendra Chanchal


Lakhbir Singh Lakha

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नवदुर्गा की संपूर्ण आरती के लिए क्लिक करे – नवदुर्गा की आरती

प्रथमं शैलपुत्री
द्वितीयं ब्रह्मचारिणी
तृतीयं चन्द्रघण्टेति
कूष्माण्डेति चतुर्थकम्॥

पंचमं स्कन्दमातेति
षष्ठं कात्यायनीति च।
सप्तमं कालरात्रीति
महागौरीति चाष्टमम्॥

नवदुर्गा – माँ दुर्गा के नौ रुप

नवमं सिद्धिदात्री
नवदुर्गा: प्रकीर्तिता:।
उक्तान्येतानि नामानि
ब्रह्मणैव महात्मना:॥

1. देवी शैलपुत्री

देवी शैलपुत्री नव दुर्गाओं में प्रथम दुर्गा हैं। शैलपुत्री दुर्गा का महत्त्व और शक्तियाँ अनन्त हैं। नवरात्र पूजन में प्रथम दिवस इन्हीं की पूजा और उपासना की जाती है। पर्वतराज हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न होने के कारण इनका नाम शैलपुत्री पड़ा।

नवरात्र की इस प्रथम दिन की उपासना में साधक अपने मन को – मूलाधार चक्र – में स्थित करते हैं। यहीं से उनकी योग साधना आरम्भ होती है।

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माँ शैलपुत्री

2. माँ ब्रह्मचारिणी

नवरात्र पर्व के दूसरे दिन माँ ब्रह्मचारिणी की पूजा-अर्चना की जाती है। साधक इस दिन अपने मन को माँ के चरणों में लगाते हैं। ब्रह्म का अर्थ है तपस्या और चारिणी यानी आचरण करने वाली। इसलिए ब्रह्मचारिणी का अर्थ है तप का आचरण करने वाली।

नवरात्री के दुसरे दिन साधक का मन – स्वाधिष्ठान चक्र – में स्थित होता है। माँ ब्रह्मचारिणी की उपासना से मनुष्य में तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार, संयम की वृद्धि होती है। माँ दुर्गाजी का यह दूसरा स्वरूप भक्तों को अनन्तफल देने वाला है।

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माँ ब्रह्मचारिणी

3. देवी चंद्रघंटा

नवरात्र-पूजन के तीसरे दिन चंद्रघंटा देवी के स्वरूप की उपासना की जाती है। इनकी कृपासे साधक के समस्त पाप और बाधाएँ नष्ट हो जाती हैं।

इस दिन साधक का मन – मणिपूर चक्र – में प्रविष्ट होता है। माँ चंद्रघंटा की कृपा से अलौकिक वस्तुओं के दर्शन होते हैं, दिव्य सुगंधियों का अनुभव होता है तथा विविध प्रकार की दिव्य ध्वनियाँ सुनाई देती हैं। ये क्षण साधक के लिए अत्यंत सावधान रहने के होते हैं। माँ चंद्रघंटा का स्वरूप परम शान्तिदायक और कल्याणकारी है।

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देवी चंद्रघंटा

4. देवी कूष्माण्डा

नवरात्र-पूजन के चौथे दिन कूष्माण्डा देवी के स्वरूप की ही उपासना की जाती है। माँ की आठ भुजाएँ हैं। अतः ये अष्टभुजा देवी के नाम से भी विख्यात हैं। चतुर्थी के दिन माँ कूष्मांडा की आराधना की जाती है। ये ही सृष्टि की आदि-स्वरूपा, आदिशक्ति हैं।

इस दिन साधक का मन – अनाहत चक्र – में स्थित होता है। देवी की उपासनासे भक्तोंके समस्त रोग-शोक नष्ट हो जाते हैं।

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देवी कूष्माण्डा

5. माँ स्कंदमाता

नवरात्रि का पाँचवाँ दिन स्कंदमाता की उपासना का दिन होता है। मोक्ष के द्वार खोलने वाली माता परम सुखदायी हैं। माँ अपने भक्तों की समस्त इच्छाओं की पूर्ति करती हैं। भगवान स्कंद कुमार कार्तिकेय नाम से भी जाने जाते हैं। इन्हीं भगवान स्कंद की माता होने के कारण माँ दुर्गाजी के इस स्वरूप को स्कंदमाता के नाम से जाना जाता है।

नवरात्री पूजा में पांचवें दिन साधक अपने मन को – विशुद्ध चक्र – में स्थित करते हैं। इस चक्र में स्थित मन वाले साधक की समस्त बाह्य क्रियाओं एवं चित्तवृत्तियों का लोप हो जाता है। साधकका मन भौतिक विकारों से (काम, क्रोध, मोह आदि विकारों से) मुक्त हो जाता है।

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माँ स्कंदमाता

6. कात्यायिनी देवी

माँ दुर्गा के छठे स्वरूप का नाम कात्यायनी है। माँ कात्यायनी अमोघ (जो निष्फल, निरर्थक या व्यर्थ न हो) फलदायिनी हैं।

दुर्गा पूजा के छठे दिन साधक का मन – आज्ञा चक्र – में स्थित होता है। इनके पूजन से अद्भुत शक्ति का संचार होता है व दुश्मनों का संहार करने में ये सक्षम बनाती हैं।

कात्यायिनी देवी की कथा, महिमा, उपासना और मंत्र पढ़ने के लिए क्लिक करे – कात्यायिनी देवी
कात्यायिनी देवी

7. कालरात्रि देवी

माँ दुर्गाजी की सातवीं शक्ति कालरात्रि के नाम से जानी जाती हैं। दुर्गापूजा के सातवें दिन माँ कालरात्रि की उपासना का विधान है। माँ की यह शक्ति सदैव शुभ फल ही देने वाली हैं, इसलिए देविका एक नाम शुभंकारी भी है।

नवरात्रा में सातवे दिन साधक का मन – सहस्रार चक्र – में स्थित रहता है। भक्त के लिए ब्रह्मांड की समस्त सिद्धियों का द्वार खुलने लगता है। माँ कालरात्रि दुष्टों का विनाश करने वाली हैं और देवीकी कृपा से साधक सर्वथा भय-मुक्त हो जाता है।

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कालरात्रि देवी

8. महागौरी

माँ दुर्गाजी की आठवीं शक्ति का नाम महागौरी है। दुर्गापूजा के आठवें दिन महागौरी की उपासना का विधान है। इनकी शक्ति अमोघ और सद्यः फलदायिनी है। इनकी उपासना से भक्तों को सभी कल्मष धुल जाते हैं, पूर्वसंचित पाप भी विनष्ट हो जाते हैं। भविष्य में पाप-संताप, दैन्य-दुःख उसके पास कभी नहीं जाते। वह सभी प्रकार से पवित्र और अक्षय पुण्यों का अधिकारी हो जाता है।

Durga Bhajans

Navdurga – Maa Shailputri – (Katha, Mantra, Stuti)


Durga Bhajan

माता शैलपुत्री – माँ दुर्गा का पहला स्वरूप


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वन्दे वाञ्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
वृषारूढां शूलधरां शैलपुत्री यशस्विनीम्॥

माँ दुर्गा अपने पहले स्वरूप में शैलपुत्री के नाम से जानी जाती हैं। पर्वतराज हिमालय के घर पुत्री के रूप में जन्म लेने के कारण उनका नाम शैलपुत्री पड़ा था।

शैल का अर्थ होता है – पहाड़, पर्वत।
शैलपुत्री – पर्वतराज हिमालय की पुत्री

यही नव दुर्गाओं में प्रथम दुर्गा हैं। शैलपुत्री दुर्गा का महत्त्व और शक्तियाँ अनन्त हैं। नवरात्र-पूजन में प्रथम दिवस इन्हीं की पूजा और उपासना की जाती है।

माता शैलपुत्री

माता शैलपुत्री की कथा

देवी शैलपुत्री पूर्वजन्म में प्रजापति दक्षकी कन्या सती

देवी शैलपुत्री सती के नाम से भी जानी जाती हैं। अपने पूर्वजन्म मे ये प्रजापति दक्षकी कन्या के रूप में उत्पन्न हुई थीं। तब इनका नाम सती था। इनका विवाह भगवान शंकरजी से हुआ था।

एक बार प्रजापति दक्षने एक बहुत बड़ा यज्ञ किया। यज्ञमें उन्होंने सारे देवताओं को निमंत्रित किया। किन्तु शंकरजी को उन्होंने इस यज्ञमें निमंत्रित नहीं किया।

सती ने जब सुना कि उनके पिता एक विशाल यज्ञ कर रहे हैं, तब वहाँ जाने के लिए उनका मन विकल हो उठा।

अपनी यह इच्छा उन्होंने शंकर जी को बतायी।

सारी बातों पर विचार करने के बाद शंकरजी ने कहा कि – सारे देवताओं को निमंत्रित किया गया है, उन्हें नहीं। ऐसे में वहां जाना उचित नहीं है।

किन्तु सती का प्रबल आग्रह देखकर शंकरजी ने उन्हें यज्ञ में जाने की अनुमति दे दी।


सती ने पिताके घर पहुँचकर देखा कि कोई भी उनसे आदर और प्रेम के साथ बात नहीं कर रहा है। केवल उनकी माता ने ही स्नेह से उन्हें गले लगाया। बहनों की बातों में व्यंग्य और उपहास के भाव भरे हुए थे।

उन्होंने यह भी देखा कि वहाँ भगवान शंकर के प्रति तिरस्कार का भाव भरा हुआ है। दक्ष ने उनके प्रति कुछ अपमान जनक वचन भी कहे। परिजनों के इस व्यवहार से उनके मन को बहुत क्लेश पहुँचा। उनका हृदय क्षोभ, ग्लानि और क्रोध से सन्तप्त हो उठा।

Maa Shailputri

उन्होंने सोचा भगवान् शंकरजी की बात न मानकर, यहाँ आकर उन्होंने बहुत बड़ी गलती की है। वह अपने पति भगवान् शंकर के इस अपमान को सह न सकीं। उन्होंने अपने उस रूप को वहीं योगाग्नि द्वारा जलाकर भस्म कर दिया।

इस दारुण दुःखद घटना को सुनकर शंकर जी ने क्रुद्ध हो अपने गणोंको भेजकर दक्षके उस यज्ञका पूर्णतः विध्वंस करा दिया।


सतीने योगाग्नि द्वारा अपने शरीर को भस्मकर अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया। इस बार वह शैलपुत्री नाम से विख्यात हुईं।


देवी शैलपुत्री

सती अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्मीं और शैलपुत्री कहलाईं। शैलपुत्री देवी का विवाह भी शंकर जी से ही हुआ। पूर्वजन्म की भाँति इस जन्म में भी वह शिवजी की अर्धांगिनी बनीं। पार्वती, हैमवती भी उन्हीं के नाम हैं।

उपनिषद की एक कथा के अनुसार इन्हीं हैमवती स्वरूप से देवताओं का गर्व-भंजन किया था।

माँ शैलपुत्री का स्वरुप

Shailputri Mata

देवी शैलपुत्री के दाहिने हाथ में त्रिशूल और बायें हाथ में कमल सुशोभित है।

इनका वाहन वृषभ है, इसलिए यह देवी वृषारूढ़ा के नाम से भी जानी जाती हैं।

माँ शैलपुत्री की उपासना

नवरात्र पूजनमें प्रथम दिवस इन्हीं की पूजा और उपासना की जाती है। इस प्रथम दिन की उपासना में योगी अपने मन को मूलाधार चक्र में स्थिर करते हैं। यहीं से उनकी योगसाधना का प्रारम्भ होता है।

नव दुर्गाओं में प्रथम शैलपुत्री दुर्गा का महत्त्व और उनकी शक्तियाँ अनन्त हैं।

Shailputri Devi Mantra (माँ शैलपुत्री का मंत्र)

वन्दे वाञ्छितलाभाय चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
वृषारूढां शूलधरां शैलपुत्री यशस्विनीम्॥


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माता शैलपुत्री की स्तुति


जय माँ शैलपुत्री प्रथम,
दक्ष की हो संतान।
नवरात्री के पहले दिन,
करे आपका ध्यान॥

अग्नि कुण्ड में जा कूदी,
पति का हुआ अपमान।
अगले जनम में पा लिया,
शिव के पास स्थान॥

जय माँ शैलपुत्री,
जय माँ शैलपुत्री॥

राजा हिमाचल से मिला,
पुत्री बन सम्मान।
उमा नाम से पा लिया,
देवों का वरदान॥

सजा है दाये हाथ में,
संहारक त्रिशूल।
बाए हाथ में ले लिया,
खिला कमल का फूल॥

जय माँ शैलपुत्री,
जय माँ शैलपुत्री॥

बैल है वाहन आपका,
जपती हो शिव नाम।
दर्शन से आनंद मिले,
अम्बे तुम्हे प्रणाम॥

नवरात्रों की माँ,
कृपा कर दो माँ।
जय माँ शैलपुत्री,
जय माँ शैलपुत्री॥

Navdurga - Maa Shailputri
Navdurga – Maa Shailputri

जय माँ शैलपुत्री प्रथम,
दक्ष की हो संतान।

Durga Bhajans

Navdurga – Maa Shailputri

Anuradha Paudwal

Navdurga – Maa Shailputri

Jai Maa Shailputri pratham,
daksh ki ho santaan.
Navratri ke pahale din,
kare aapka dhyaan.

Agni kund mein ja koodi,
pati ka hua apmaan.
Agale janam mein pa liya
Shiv ke paas sthaan.

Jai Maa Shailaputri,
Jai Maa Shailaputri.

Raja Himaachal se mila,
putri ban sammaan.
Uma naam se pa liya,
devon ka varadaan.

Saja hai daaye haath mein,
sanhaarak trishul.
Baaye haath mein le liya,
khila kamal ka phool.

Jai Maa Shailaputri,
Jai Maa Shailaputri.

Bail hai wahan aapka,
japati ho Shiv naam.
darshan se anand mile,
Ambe tumhe pranaam.

Navaratro ki maan,
krpa kar do maa.

Jai Maa Shailputri,
Jai Maa Shailputri.

Navdurga - Maa Shailputri
Navdurga – Maa Shailputri

Jai Maa Shailputri pratham,
daksh ki ho santaan.

Durga Bhajans