गीता के अनुसार मनुष्य का भविष्य कैसे बनता है?


मनुष्य की गति – मन के विचार और उनके परिणाम

भगवद्गीता के कुछ श्लोकों के जरिए भगवान् ने यह बताया कि
कैसे मनुष्य के विचार और उसका आचरण
उसका भविष्य निर्धारित करते है और
उसकी क्या गति होती है।

इस पोस्ट में
गीता के उन श्लोकों का अर्थ दिया गया है और
धर्मग्रंथों और संतों के प्रवचनों के आधार पर
उपाय दिया गया है।


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ऊपर की इमेज में दिए गए शब्द

मनुष्य योनि –

  • 0 – मनुष्य – मनुष्य जीवन

पशु योनि का कारण –

  • 1 – लोभ – जैसे मुझे 10 रुपये चाहिए
  • 2 – मोह – 10 रुपये मिलने के बाद, मुझे और 100 रुपये चाहिए
  • 3 – आसक्ति – ये मेरा पैसा, ये मेरा घर, ये मेरा बच्चा
  • 4 – घमंड – मैने किया, मैने कमाया, मैने घर बनाया
  • 5 – अहंकार – मै, मेरा, मेरी कोई गलती नही, मै सबसे अच्छा

द्वेष, क्रोध जैसे जहर की वजह से जहरीले पशु योनि का कारण –

  • 6 – ईर्ष्या – उसके पास मेरे से ज्यादा कैसे
  • 7 – द्वेष, घृणा – उसने मेरे साथ ऐसे किया, उसने मेरे को ऐसा बोला

फिर राक्षस लोक, नरक लोक का कारण –

  • 8 – क्रोध – मैंने उसके लिए इतना किया और उसने मेरे साथ ऐसा किया, इसलिए क्रोध और झगड़ा
  • 9 – क्रोध, लोभ की वजह से स्थितियां – जैसे चोरी, हत्या, मारना आदि

बार-बार आसुरी योनि, घोर नरक का कारण –

  • 10 – गलतियों का अहसास ना होना,
    अपनी गलतियों के लिए, अपराध के लिए,
    ईश्वर से माफ़ी ना मांगना

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
हे ईश्वर! हमें सद्बुद्धि दो।


गीता के श्लोकों में मन के विचारों का वर्णन

भगवद्गीता के कुछ श्लोकों में
मन में उठने वाले विचार और
उसके परिणामों के बारें में दिया गया है।

उनमे से कुछ श्लोक है –

अध्याय 16 – श्लोक 15 से 21,
अध्याय 13 – श्लोक 21 और
अध्याय 14 – श्लोक 15

निचे उन श्लोकों के
प्रत्येक शब्द का अर्थ और
भावार्थ दिया गया है।

जिसे पढ़ने पर हमें पता चलता है कि
भगवान् ने हमें इन विचारों के बारे में क्या बताया है।


इसका उपाय क्या है?

प्रत्येक क्षण हमारे अंतर्मन में
इनमे से कुछ ना कुछ विचार उठते ही रहते है।

कभी पैसे के लोभ का,
कभी सांसारिक चीजों की इच्छा का,
कभी अहंकार और घमंड का,
तो कभी द्वेष का विचार
हर समय हमारे मन में उठते ही रहते है।

ये विकार जन्म जन्मांतर से
अंतर्मन में इतने गहरे बेठे है,
कि इनको निकालना इतना आसान नहीं है।

—-

तो इन विकारों से कैसे बच सकते है?

इसके लिए हमें ईश्वर, प्रभु, भगवान्,
परमपिता परमेश्वर की सहायता लेनी पड़ती है।

इसलिए सभी धर्मों के ग्रंथो में
प्रार्थना, पश्चाताप को इतना महत्व दिया गया है।

सभी संतों ने ईश्वर से प्रार्थना और
बार बार अपनी गलतियों के लिए
ईश्वर से माफ़ी मांगने के बारे कहा है।

प्रार्थना के कुछ वाक्य जैसे की –

हे ईश्वर! मेरे मन और अंतर्मन को
पवित्र कर देना।

हे ईश्वर! मेरी गलतियां और
मेरे अपराध माफ करना।

—-

हे प्रभु! मेरे मन से द्वेष, घृणा,
ईर्ष्या के विचार (विकार) मिटा दो।

हे ईश्वर! मेरे मन में कभी किसी के लिए
द्वेष, बुरे विचार, घृणा ना आए।

—-

हे ईश्वर! मेरे मन से अहंकार, घमंड
जैसे विकार मिटा दो।

हे परमेश्वर! मेरे मन में कभी
घमंड, अहंकार ना जागे।

—-

हे ईश्वर! मुझे सदबुद्धी दो। मुझे अपने चरणों में जगह दो।
हे ईश्वर! अपने चरणों में हमको सदा रखना।


चित्तानुपश्यना

इसलिए यह महत्वपूर्ण है की
मनुष्य को अपने विचार और आचरण के प्रति
हर क्षण सतर्क रहना जरूरी है।

जैसे विपश्यना के एक अंग
चित्तानुपश्यना (चित्त अनुपश्यना) में
हमें मन के प्रति जागृत रहना पड़ता है और
मन को और प्रत्येक विचार को देखना पड़ता है।

इसका भी ख़याल रखना पड़ता है कि
क्या हमारे कर्म से,
हम जो काम कर रहे है
उससे किसी को दुःख पहुंच रहा है क्या?

क्या मन में किसी के लिए
द्वेष, घृणा के विचार आ रहे है?

क्या मन में खुद के किये हुए कामों का
अहंकार, घमंड आ रहा है।
जैसे मैंने पैसा कमाया, मैंने घर बनाया,
मैंने इतने काम किये, मैं सब कर रहा हूँ आदि।

ॐ नमः शिवाय
हे ईश्वर! हमें सब बन्धनों से मुक्त कर दो।


अध्याय 16

15

आढयोऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः॥

आढ्यः – बड़ा धनी (और)
अभिजनवान् – बड़े कुटुम्बवाला
अस्मि – हूँ।
मया – मेरे
सदृशः – समान
अन्यः – दूसरा
कः – कौन
अस्ति – है?
यक्ष्ये – मैं यज्ञ करूँगा,
दास्यामि – दान दूँगा (और)
मोदिष्ये – आमोद-प्रमोद करूँगा।

मैं बड़ा धनी और बड़े कुटुम्ब वाला हूँ।
मेरे समान दूसरा कौन है?
मैं यज्ञ करूँगा, दान दूँगा और
आमोद-प्रमोद करूँगा॥15॥

आगे श्लोक 16 में
भगवान् ने यह बताया कि
ऐसे अज्ञानी और घमंडी पुरुषों की क्या गति होती है,
यानी की उन्हें बाद में किस प्रकार का जीवन मिलता है।


अहंकार और घमंड

अहंकार, घमंड और अभिमानके परायण होकर
अज्ञानी मनुष्य सोचता है की –
कितना धन मेरे पास है,
कितना सोनाचाँदी, मकान, खेत और
जमीन मेरे पास है।

कितने ऊँचे पदाधिकारी मेरे पक्षमें हैं।
मै धन और लोगोके बलपर,
रिश्वत और सिफारिशके बलपर
जो चाहें वही कर सकता हूँ।

मैं कितना दान देता हूँ,
लोगो का भला करता हूँ।
दानसे मेरा नाम अखबारोंमें छपेगा।

धर्मशाला बनवाऊंगा और
उसमें मेरा नाम खुदवाया जायेगा,
जिससे मेरी यादगारी रहेगी।

इस प्रकार अध्याय 16 के
13, 14, और 15 श्लोकमें वर्णित मनोरथ करनेवाले
यानी की इच्छा वाले मनुष्य अज्ञानसे मोहित रहते हैं।

मूढ़ताके कारण ही
उनकी ऐसे मनोरथवाली वृत्ति होती है।


अहंकार वाले मूढ़ विचार मन में क्यों आते है?

अध्याय 3 श्लोक 38 में भगवान् ने कहा था कि,
जिस प्रकार धुएँ से अग्नि और
मैल से दर्पण ढँका जाता है,
वैसे ही अज्ञान और इच्छाओं द्वारा ज्ञान ढँका रहता है और
इसी अज्ञान की वजह से ही इस प्रकार के
मूढ़ विचार, अहंकारी विचार उनके मन में आते रहते है।

हरे राम हरे कृष्ण
हे ईश्वर! सब सुखी हों, सबका मंगल हो।


16

अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः।
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ॥

इति – इस प्रकार
अज्ञानविमोहिताः – अज्ञानसे मोहित रहनेवाले (तथा)
अनेकचित्तविभ्रान्ताः – अनेक प्रकारसे भ्रमित चित्तवाले
मोहजालसमावृताः – मोहरूप जालसे समावृत (और)
कामभोगेषु – विषयभोगोंमें
प्रसक्ताः – अत्यन्त आसक्त (आसुरलोग)
अशुचौ – महान् अपवित्र
नरके – नरकमें
पतन्ति – गिरते हैं।

इस प्रकार अज्ञान से मोहित रहने वाले
तथा अनेक प्रकार से भ्रमित चित्त वाले
मोहरूप जाल से समावृत और
विषयभोगों में अत्यन्त आसक्त आसुरलोग
महान्‌ अपवित्र नरक में गिरते हैं॥16॥


इच्छाएं और मोहजाल

अनेकचित्तविभ्रान्ताः अर्थात
इस प्रकार लोभी और अहंकारी पुरुषों के मन में
कई प्रकार की इच्छाएं और कामनायें जागृत होती रहती है।

और उस एकएक इच्छाकी पूर्तिके लिये
वे अनेक तरहके उपाय ढूंढते हैं
तथा उन उपायोंके विषयमें
निरंतर उनके मन में चिंतन चलता रहता है,
निरंतर मन भटकता रहता है।

मोहजालसमावृताः यानी की
मोहजालसे वे ढके रहते हैं।
जैसे मछली जाल मे फंसी रहती है,
उसी प्रकार वो मनुष्य बंधनों के और
माया के जाल में फंसा रहता है।


इच्छाओं की पूर्ति के बाद भय और फिर दुःख

ऐसे मनुष्यों में
क्रोध और अभिमानके साथसाथ,
संग्रह किये हुए धन को बचाये रखने का भय भी बना रहता है।

शुरुआत में
वह धन और संग्रह की हुई चीजें, सुखदायी लगती है,
बड़ी अच्छी लगती है,
किन्तु कुछ वर्षो के बाद
वही चीजें उसके लिए दुःख का कारण बनती जाती है।

पतन्ति नरकेऽशुचौ अर्थात
मोहजाल उनके लिये जीतेजी ही नरक बन जाता है और
मरनेके बाद उन्हें नरकोंकी प्राप्ति होती है।
उन नरकोंमें भी वे घोर यातनावाले नरकोंमें गिरते हैं।

नरके अशुचौ कहनेका तात्पर्य यह है कि
जिन नरकोंमें महान् असह्य यातना और भयंकर दुःख दिया जाता है,
ऐसे घोर नरकोंमें वे गिरते हैं।

क्योंकि जिनकी जैसी स्थिति होती है,
मरनेके बाद भी उनकी वैसी (स्थितिके अनुसार) ही गति होती है।


17

आत्मसम्भाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः।
यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्‌॥

ते – वे
आत्मसम्भाविताः – अपने-आपको ही श्रेष्ठ माननेवाले
स्तब्धाः – घमण्डी पुरुष
धनमानमदान्विताः – धन और मानके मदसे युक्त होकर
नामयज्ञैः – केवल नाममात्रके यज्ञोंद्वारा
दम्भेन – पाखण्डसे
अविधिपूर्वकम् – शास्त्रविधिरहित
यजन्ते – यजन करते हैं।

वे अपने-आपको ही श्रेष्ठ मानने वाले घमण्डी पुरुष
धन और मान के मद से युक्त होकर
केवल नाममात्र के यज्ञों द्वारा
पाखण्ड से शास्त्रविधिरहित यजन करते हैं॥17॥

ॐ गं गणपतये नमः
हे ईश्वर! अपने चरणों में हमको सदा रखना।


18

अहङ्‍कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः।
मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः॥

अहङ्कारम् – अहंकार,
बलम् – बल,
दर्पम् – घमण्ड,
कामम् – कामना, (और)
क्रोधम् – क्रोधादिके
संश्रिताः – परायण
– और
अभ्यसूयकाः – दूसरोंकी निन्दा करनेवाले पुरुष
आत्मपरदेहेषु – अपने और दूसरोंके शरीरमें (स्थित)
माम् – मुझ अन्तर्यामीसे
प्रद्विषन्तः – द्वेष करनेवाले होते हैं।

(द्वेष करनेवाले नराधमोंको आसुरी योनियोंकी प्राप्ति।)

वे अहंकार, बल,
घमण्ड, कामना और

क्रोधादि के परायण और
दूसरों की निन्दा करने वाले पुरुष

अपने और दूसरों के शरीर में स्थित
मुझ अन्तर्यामी से द्वेष करने वाले होते हैं॥18॥

हे प्रभु, मुझे पवित्र कर दो।


19

तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान्‌।
क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु॥

तान् – उन
द्विषतः – द्वेष करनेवाले
अशुभान् – पापाचारी (और)
क्रूरान् – क्रूरकर्मी
नराधमान् – नराधमोंको
अहम् – मैं
संसारेषु – संसारमें
अजस्रम् – बार-बार
आसुरीषु – आसुरी
योनिषु – योनियोंमें
एव – ही
क्षिपामि – डालता हूँ।

(आसुरी स्वभाववालोंको अधोगति प्राप्त होनेका कथन।)

उन द्वेष करने वाले पापाचारी और
क्रूरकर्मी नराधमों को
मैं संसार में बार-बार आसुरी योनियों में ही डालता हूँ॥19॥

हे ईश्वर! हमारे सब दु:ख दुर्गुण दूर कर दो।


20

आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि।
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्‌॥

कौन्तेय – हे अर्जुन!
मूढाः – वे मूढ
माम् – मुझको
अप्राप्य – न प्राप्त होकर
एव – ही
जन्मनि – जन्म-
जन्मनि – जन्ममें
आसुरीम् – आसुरी
योनिम् – योनिको
आपन्नाः – प्राप्त होते हैं, (फिर)
ततः – उससे भी
अधमाम् – अति नीच
गतिम् – गतिको
यान्ति – प्राप्त होते हैं अर्थात् घोर नरकोंमें पड़ते हैं।

(आसुरी सम्पदाके प्रधान लक्षण—काम, क्रोध और लोभको नरकके द्वार बतलाना।)

हे अर्जुन!
वे मूढ़ मुझको न प्राप्त होकर
जन्म-जन्म में आसुरी योनि को प्राप्त होते हैं,
फिर उससे भी अति नीच गति को ही प्राप्त होते हैं
अर्थात्‌ घोर नरकों में पड़ते हैं॥20॥

हे ईश्वर! अज्ञानता से हमे बचाये रखना।


21

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्‌॥

काम, क्रोध तथा लोभ –
ये तीन प्रकार के नरक के द्वार
आत्मा का नाश करने वाले अर्थात्‌ उसको अधोगति में ले जाने वाले हैं।

अतएव इन तीनों को त्याग देना चाहिए॥21॥

(सर्व अनर्थों के मूल और
नरक की प्राप्ति में हेतु होने से
यहाँ काम, क्रोध और लोभ को
“नरक के द्वार” कहा है)

ॐ नमः शिवाय

हे ईश्वर! सब संकटों से हमारी रक्षा करो।


अध्याय 14

15

रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसङ्‍गिषु जायते।
तथा प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते॥

रजसि – रजोगुणके बढ़नेपर
प्रलयम् – मृत्युको
गत्वा – प्राप्त होकर
कर्मसङ्गिषु – कर्मोंकी आसक्तिवाले मनुष्योंमें
जायते – उत्पन्न होता है;
तथा – तथा
तमसि – तमोगुणके बढ़नेपर
प्रलीनः – मरा हुआ मनुष्य (कीट, पशु आदि)
मूढयोनिषु – मूढयोनियोंमें
जायते – उत्पन्न होता है।

रजोगुण के बढ़ने पर
मृत्यु को प्राप्त होकर कर्मों की आसक्ति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है तथा
तमोगुण के बढ़ने पर मरा हुआ मनुष्य
कीट, पशु आदि मूढ़योनियों में उत्पन्न होता है॥


अध्याय 13

21

पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्‍क्ते प्रकृतिजान्गुणान्‌।
कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु॥

प्रकृतिस्थः – प्रकृतिमें स्थित
हि – ही
पुरुषः – पुरुष
प्रकृतिजान् – प्रकृतिसे उत्पन्न
गुणान् – त्रिगुणात्मक पदार्थोंको
भुङ्क्ते – भोगता है (और इन)
गुणसङ्गः – गुणोंका संग (ही)
अस्य – इस जीवात्माके
सदसद्योनिजन्मसु – अच्छी-बुरी योनियोंमें जन्म लेनेका
कारणम् – कारण है

प्रकृति में (भगवान की त्रिगुणमयी माया) स्थित ही
पुरुष प्रकृति से उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थों को भोगता है और
इन गुणों का संग ही
इस जीवात्मा के अच्छी-बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण है।

सत्त्वगुण के संग से देवयोनि में एवं
रजोगुण के संग से मनुष्य योनि में और
तमोगुण के संग से पशु आदि नीच योनियों में जन्म होता है।॥

ओम जय जगदीश हरे


1.

ओम जय जगदीश हरे,
स्वामी जय जगदीश हरे।
भक्त जनों के संकट,
क्षण में दूर करे॥
॥ओम जय जगदीश हरे॥


2.

जो ध्यावे फल पावे,
दुख बिनसे मन का,
स्वामी दुख बिनसे मन का।
सुख सम्पति घर आवे,
कष्ट मिटे तन का॥
॥ओम जय जगदीश हरे॥


3.

मात पिता तुम मेरे,
शरण गहूं मैं किसकी,
स्वामी शरण गहूं किसकी।
तुम बिन और न दूजा,
आस करूं मैं किसकी॥
॥ओम जय जगदीश हरे॥


4.

तुम पूरण परमात्मा,
तुम अंतरयामी,
स्वामी तुम अंतरयामी।
पारब्रह्म परमेश्वर,
तुम सब के स्वामी॥
॥ओम जय जगदीश हरे॥


5.

तुम करुणा के सागर,
तुम पालनकर्ता,
स्वामी तुम पालनकर्ता,
मैं मूरख खल कामी,
कृपा करो भर्ता॥
॥ओम जय जगदीश हरे॥


6.

तुम हो एक अगोचर,
सबके प्राणपति,
स्वामी सबके प्राणपति
किस विधि मिलूं दयामय,
तुमको मैं कुमति॥
॥ओम जय जगदीश हरे॥


7.

दीनबंधु दुखहर्ता,
तुम रक्षक मेरे,
स्वामी तुम रक्षक मेरे।
अपने हाथ बढाओ,
द्वार पडा तेरे॥
॥ओम जय जगदीश हरे॥


8.

विषय विकार मिटाओ,
पाप हरो देवा,
स्वमी पाप हरो देवा।
श्रद्धा भक्ति बढ़ाओ,
संतन की सेवा॥
॥ओम जय जगदीश हरे॥


9.

तन मन धन सब कुछ है तेरा,
(तन मन धन जो कुछ है,
सब ही है तेरा।)
स्वामी सब कुछ है तेरा।
तेरा तुझको अर्पण,
क्या लागे मेरा॥
॥ओम जय जगदीश हरे॥


10.

ओम जय जगदीश हरे,
स्वामी जय जगदीश हरे।
भक्त जनों के संकट,
क्षण में दूर करे॥
॥ओम जय जगदीश हरे॥

भगवद गीता अर्थ सहित अध्याय – 01


भगवद गीता के 700 श्लोकों में से
इस पहले अध्याय में 47 श्लोक आते हैं।


इस पोस्ट से सम्बन्धित एक महत्वपूर्ण बात

इस लेख में भगवद गीता के सभी श्लोक अर्थ सहित दिए गए हैं।

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भगवद गीता अध्याय की लिस्ट

अथ प्रथमोऽध्यायः – अर्जुनविषादयोग

दुर्योधन द्वारा द्रोणाचार्य को सेना की जानकारी

1

धृतराष्ट्र, संजय से, कुरुक्षेत्र में कौरव और पांडवों के बारे में पूछते है

धृतराष्ट्र उवाच:
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय॥

धृतराष्ट्र बोले – हे संजय!
धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में एकत्रित युद्ध की इच्छावाले,
मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?॥1॥

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2

दुर्योधन, द्रोणाचार्य के पास जाता है

संजय उवाच:
दृष्टवा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।
आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत्‌॥

संजय बोले –
उस समय राजा दुर्योधन ने
व्यूहरचनायुक्त पाण्डवों की सेना को देखा
और द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहा॥2॥

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3

दुर्योधन, द्रोणाचर्य को, पांडवो की सेना के बारे में बताता है

पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्‌।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता॥

हे आचार्य!
आपके बुद्धिमान्‌ शिष्य, द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न द्वारा,
व्यूहाकार खड़ी की हुई
पाण्डुपुत्रों की इस बड़ी भारी सेना को देखिए॥3॥

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4-6

पांडवों की सेना के महारथी – अर्जुन, भीम, सात्यकि, अभिमन्यु ……

अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः॥

धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान्‌।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङवः॥

युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्‌।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः॥

इस सेना में बड़े-बड़े धनुषों वाले तथा
युद्ध में भीम और अर्जुन के समान शूरवीर सात्यकि और
विराट तथा महारथी राजा द्रुपद,
धृष्टकेतु और चेकितान तथा
बलवान काशिराज, पुरुजित, कुन्तिभोज और
मनुष्यों में श्रेष्ठ शैब्य, पराक्रमी युधामन्यु तथा
बलवान उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र अभिमन्यु एवं
द्रौपदी के पाँचों पुत्र
– ये सभी महारथी हैं॥4-6॥

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7

दुर्योधन, कौरवों की सेना के बारें में बताता है

अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम।
नायका मम सैन्यस्य सञ्ज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते॥

हे ब्राह्मणश्रेष्ठ!
अपने पक्ष में भी जो प्रधान हैं उनको आप समझ लीजिए।

आपकी जानकारी के लिए
मेरी सेना के जो-जो सेनापति हैं उनको बतलाता हूँ॥7॥

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8

कौरवों की सेना के महारथी – द्रोणाचार्य, भीष्म, कर्ण, अश्वत्थामा ……

भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च॥

आप द्रोणाचार्य और पितामह भीष्म तथा
कर्ण और संग्रामविजयी कृपाचार्य तथा वैसे ही
अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र भूरिश्रवा॥8॥

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9

दुर्योधन द्वारा, कौरवों की सेना की तारीफ़

अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः।
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः॥

और भी मेरे लिए जीवन की आशा त्याग देने वाले बहुत-से शूरवीर,
अनेक प्रकार के शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित और
सब-के-सब युद्ध में चतुर हैं॥9॥

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10

भीष्म द्वारा रक्षित कौरव Vs भीम द्वारा रक्षित पांडव

अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम्‌।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम्‌॥

भीष्म पितामह द्वारा रक्षित
हमारी वह सेना सब प्रकार से अजेय है और
भीम द्वारा रक्षित
इन लोगों की यह सेना जीतने में सुगम है॥10॥

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11

दुर्योधन, सेना को, भीष्म पितामह की, रक्षा का आदेश देता है

अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि॥

इसलिए, सब मोर्चों पर अपनी-अपनी जगह स्थित रहते हुए
आप लोग सभी निःसंदेह भीष्म पितामह की ही सब ओर से रक्षा करें॥11॥

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योद्धाओं का शंख बजाना

12

पितामह भीष्म ने शंख बजाया

तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शंख दध्मो प्रतापवान्‌॥

कौरवों में वृद्ध बड़े प्रतापी पितामह भीष्म ने
उस दुर्योधन के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुए
उच्च स्वर से सिंह की दहाड़ के समान गरजकर शंख बजाया॥12॥

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13

शंख, नगाड़े, ढोल आदि बाजे एक साथ बज उठे

ततः शंखाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्‌॥

इसके पश्चात शंख और नगाड़े तथा
ढोल, मृदंग और नरसिंघे आदि बाजे एक साथ ही बज उठे।
उनका वह शब्द, बड़ा भयंकर हुआ॥13॥

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14

भगवान् कृष्ण ने शंख बजाया

ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ।
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शंखौ प्रदध्मतुः॥

इसके अनन्तर सफेद घोड़ों से युक्त उत्तम रथ में बैठे हुए
श्रीकृष्ण महाराज और अर्जुन ने भी अलौकिक शंख बजाए॥14॥

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15

अर्जुन और भीम ने शंख बजाए

पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशंख भीमकर्मा वृकोदरः॥

श्रीकृष्ण महाराज ने पाञ्चजन्य नामक,
अर्जुन ने देवदत्त नामक और
भयानक कर्मवाले भीमसेन ने पौण्ड्र नामक महाशंख बजाया॥15॥

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16

युधिष्ठिर, नकुल और सहदेव ने शंख बजाये

अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ॥

कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने, अनन्तविजय नामक और नकुल तथा सहदेव ने, सुघोष और मणिपुष्पक, नामक शंख बजाए॥16॥

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17-18

सात्यकि, द्रुपद, विराट आदि महारथियों ने भी शंख बजाये

काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः॥

द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते।
सौभद्रश्च महाबाहुः शंखान्दध्मुः पृथक्पृथक्‌॥

श्रेष्ठ धनुष वाले काशिराज और महारथी शिखण्डी एवं धृष्टद्युम्न तथा

राजा विराट और अजेय सात्यकि, राजा द्रुपद एवं

द्रौपदी के पाँचों पुत्र और बड़ी भुजावाले सुभद्रा पुत्र अभिमन्यु –

इन सभी ने, हे राजन्‌! सब ओर से, अलग-अलग शंख बजाए॥17-18॥

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19

शंखों के आवाज, सभी दिशाओं में गूंजने लगे

स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत्‌।
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन्‌॥

और उस भयानक शब्द ने आकाश और पृथ्वी को भी गुंजाते हुए,
धार्तराष्ट्रों के अर्थात आपके पक्षवालों के हृदय विदीर्ण कर दिए॥19॥

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20-21

अर्जुन ने, श्रीकृष्ण से, रथ को, सेना के बीच में ले जाने के लिए कहा

अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्‌ कपिध्वजः।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः॥

हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ।
अर्जुन उवाचः
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत॥

हे राजन्‌!
इसके बाद कपिध्वज अर्जुन ने
मोर्चा बाँधकर डटे हुए धृतराष्ट्र-संबंधियों को देखकर
शस्त्र चलने की तैयारी के समय धनुष उठाकर
हृषीकेश श्रीकृष्ण महाराज से, यह वचन कहा –

हे अच्युत!
मेरे रथ को दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा कीजिए॥20-21॥

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22

यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान्‌।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे॥

और जब तक कि मैं युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी
इन विपक्षी योद्धाओं को भली प्रकार देख न लूँ कि
इस युद्ध रूप व्यापार में मुझे किन-किन के साथ युद्ध करना योग्य है,
तब तक उसे खड़ा रखिए॥22॥

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23

योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः॥

दुर्बुद्धि दुर्योधन का युद्ध में हित चाहने वाले
जो-जो ये राजा लोग इस सेना में आए हैं,
इन युद्ध करने वालों को मैं देखूँगा॥23॥

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24-25

संजय उवाचः
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्‌॥

भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्‌।
उवाच पार्थ पश्यैतान्‌ समवेतान्‌ कुरूनिति॥

संजय बोले – हे धृतराष्ट्र!
अर्जुन द्वारा कहे अनुसार महाराज श्रीकृष्णचंद्र ने, दोनों सेनाओं के बीच में,
भीष्म और द्रोणाचार्य के सामने तथा सम्पूर्ण राजाओं के सामने
उत्तम रथ को खड़ा कर इस प्रकार कहा कि –

हे पार्थ!
युद्ध के लिए जुटे हुए इन कौरवों को देख॥24-25॥

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26 और 27वें का पूर्वार्ध

तत्रापश्यत्स्थितान्‌ पार्थः पितृनथ पितामहान्‌।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा॥
श्वशुरान्‌ सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ।

इसके बाद पृथापुत्रअर्जुन ने उन दोनों ही सेनाओं में स्थित
ताऊ-चाचों को, दादों-परदादों को,
गुरुओं को, मामाओं को, भाइयों को,
पुत्रों को, पौत्रों को तथा मित्रों को,
ससुरों को और सुहृदों को भी देखा
॥26 और 27वें का पूर्वार्ध॥

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27वें का उत्तरार्ध और 28वें का पूर्वार्ध

तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्‌ बन्धूनवस्थितान्‌॥
कृपया परयाविष्टो विषीदत्रिदमब्रवीत्‌ ।

उन उपस्थित सम्पूर्ण बंधुओं को देखकर वे कुंतीपुत्र अर्जुन,
अत्यन्त करुणा से युक्त होकर शोक करते हुए यह वचन बोले।
॥27वें का उत्तरार्ध और 28वें का पूर्वार्ध॥

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28वें का उत्तरार्ध और 29

अर्जुन उवाच:
दृष्टेवमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्‌॥

सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।
वेपथुश्च शरीरे में रोमहर्षश्च जायते॥

अर्जुन बोले – हे कृष्ण!
युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इस स्वजनसमुदाय को देखकर
मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं और
मुख सूखा जा रहा है तथा
मेरे शरीर में कम्प एवं रोमांच हो रहा है॥
॥28वें का उत्तरार्ध और 29॥

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30

गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्वक्चैव परिदह्यते।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः॥

हाथ से गांडीव धनुष गिर रहा है और
त्वचा भी बहुत जल रही है तथा
मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है,
इसलिए मैं खड़ा रहने को भी समर्थ नहीं हूँ॥30॥

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31

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे॥

हे केशव!
मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हूँ तथा
युद्ध में स्वजन-समुदाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता॥31॥

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32

न काङ्‍क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।
किं नो राज्येन गोविंद किं भोगैर्जीवितेन वा॥

हे कृष्ण!
मैं न तो विजय चाहता हूँ और
न राज्य तथा सुखों को ही।

हे गोविंद!
हमें ऐसे राज्य से क्या प्रयोजन है
अथवा ऐसे भोगों से और जीवन से भी क्या लाभ है?॥32॥

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33

येषामर्थे काङक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च॥

हमें जिनके लिए, राज्य, भोग और सुखादि अभीष्ट हैं,
वे ही ये सब, धन और जीवन की आशा को त्यागकर युद्ध में खड़े हैं॥33॥

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34

आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः संबंधिनस्तथा॥

गुरुजन, ताऊ-चाचे, लड़के और
उसी प्रकार दादे, मामे, ससुर, पौत्र, साले तथा
और भी संबंधी लोग हैं ॥34॥

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35

एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते॥

हे मधुसूदन!
मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिए भी
मैं इन सबको मारना नहीं चाहता,
फिर पृथ्वी के लिए तो कहना ही क्या है?॥35॥

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36

निहत्य धार्तराष्ट्रान्न का प्रीतिः स्याज्जनार्दन।
पापमेवाश्रयेदस्मान्‌ हत्वैतानाततायिनः॥

हे जनार्दन!
धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी?

इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा॥36॥

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37

तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्‌।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव॥

अतएव हे माधव!
अपने ही बान्धव धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारने के लिए हम योग्य नहीं हैं
क्योंकि अपने ही कुटुम्ब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे?॥37॥

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38-39

यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्‌॥

कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्‌।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन॥

यद्यपि लोभ से भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और
मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते,

तो भी हे जनार्दन!
कुल के नाश से उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से हटने के लिए
क्यों नहीं विचार करना चाहिए?॥38-39॥

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40

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत॥

कुल के नाश से सनातन कुल-धर्म नष्ट हो जाते हैं तथा
धर्म का नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में पाप भी बहुत फैल जाता है॥40॥

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41

अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः॥

हे कृष्ण!
पाप के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियाँ अत्यन्त दूषित हो जाती हैं और
हे वार्ष्णेय!
स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्णसंकर उत्पन्न होता है॥41॥

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42

संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः॥

वर्णसंकर कुलघातियों को और कुल को नरक में ले जाने के लिए ही होता है।

लुप्त हुई पिण्ड और जल की क्रिया वाले
अर्थात श्राद्ध और तर्पण से वंचित इनके पितर लोग भी अधोगति को प्राप्त होते हैं॥42॥

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43

दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः॥

इन वर्णसंकरकारक दोषों से, कुलघातियों के सनातन कुल-धर्म और जाति-धर्म नष्ट हो जाते हैं॥43॥

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44

उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम॥

हे जनार्दन! जिनका कुल-धर्म नष्ट हो गया है,
ऐसे मनुष्यों का अनिश्चितकाल तक नरक में वास होता है,
ऐसा हम सुनते आए हैं॥44॥

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45

अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्‌।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः॥

हा! शोक! हम लोग बुद्धिमान होकर भी महान पाप करने को तैयार हो गए हैं,
जो राज्य और सुख के लोभ से स्वजनों को मारने के लिए उद्यत हो गए हैं॥45॥

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46

यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्‌॥

यदि मुझ शस्त्ररहित एवं सामना न करने वाले को शस्त्र हाथ में लिए हुए,
धृतराष्ट्र के पुत्र, रण में मार डालें,
तो वह मारना भी मेरे लिए अधिक कल्याणकारक होगा॥46॥

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47

संजय उवाच:
एवमुक्त्वार्जुनः सङ्‍ख्ये रथोपस्थ उपाविशत्‌।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः॥

संजय बोले-
रणभूमि में शोक से उद्विग्न मन वाले अर्जुन इस प्रकार कहकर,
बाणसहित धनुष को त्यागकर,
रथ के पिछले भाग में बैठ गए॥47॥

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु
ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादेऽर्जुनविषादयोगो
नाम प्रथमोऽध्यायः।॥1॥


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Aisi Lagi Lagan Meera Ho Gayi Magan – Lyrics in English


Aisi Lagi Lagan Meera Ho Gayi Magan Lyrics

Aisi lagi lagan, Meera ho gayi magan.
Wo to gali gali Hari gun gaane lagi.

Hai aankh wo, jo Shyam ka darshan kiya kare.
Hai sheesh, jo Prabhu charan mein, vandan kiya kare.

Bekaar vo mukh hai, jo rahe vyarth baaton mein.
Mukh hai wo, jo Hari naam ka sumiran kiya kare.

Heere moti se nahi shobha hai haath ki.
Hai haath, jo bhagavaan ka poojan kiya kare.

Mar ke bhi amar naam hai, us jeev ka jag mein.
Prabhu prem mein, balidaan jo jivan kiya kare.


Aisi lagi lagan, Meera ho gayi magan.
Wo to gali gali Hari gun gaane lagi.

Mahalo mein pali, ban ke jogan chali.
Meera rani deewani kahaane lagi.

Aisi lagi lagan, Meera ho gayi magan.
Vo to gali gali gali gali, Hari gun gaane lagi.


Koi roke nahin, koi toke nahin,
Meera Govind Gopal gaane lagi.

Baithi santo ke sang, rangi mohan ke rang,
Meera premi pritam ko manaane lagi.
Wo to gali gali Hari gun gaane lagi.

Aisi lagi lagan, Meera ho gayi magan.
Wo to gali gali Hari gun gaane lagi.


Raana ne vish diya, maano amrit piya,
Meera saagar mein sarita samaane lagi.

Duhkh laakhon sahe, mukh se govind kahe,
Meera govind gopaal gaane lagi.
Wo to gali gali Hari gun gaane lagi.

Aisi lagi lagan, Meera ho gayi magan.
Wo to gali gali Hari gun gaane lagi.


Mahalon mein pali, ban ke jogan chali.
Meera raani divaani kahaane lagi.

Aisi lagi lagan, Meera ho gayi magan.
Aisi lagi lagan, Meera ho gayi magan.


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Aisi Lagi Lagan Meera Ho Gayi Magan – Meera Bhajan

Anup Jalota


Krishna Bhajan



Aisi Lagi Lagan Bhajan

Aisi Lagi Lagan Meera Ho Gayi Magan” is a popular bhajan in Hindi that is associated with the devotion and love of the poet-saint Meera Bai towards Lord Krishna.

It depicts Meera’s deep and intense spiritual connection with the divine.

Krishna Devotee – Meerabai

Meera, better known as Mirabai and venerated as Sant Meerabai, was a 16th-century Hindu mystic poet and devotee of Krishna.

Source – Wikipedia – Meerabai

Meera Bai composed and sang many devotional songs dedicated to Lord Krishna. She expressed her devotion to Lord Krishna through her poignant and heartfelt poetry.

The bhajan portrays Meera’s state of being completely absorbed and enchanted by her love for Lord Krishna.

The lyrics express her surrender and devotion, describing how her love for the divine has made her completely absorbed and intoxicated.

The origins of the bhajan can be traced back to Meera Bai herself, as she composed and sang numerous devotional songs dedicated to Lord Krishna.

Over time, the bhajan has been sung and popularized by various artists and has become a cherished part of the devotional music repertoire.

Engrossed in the Devotion of Krishna

The melody of “Aisi Lagi Lagan Meera Ho Gayi Magan” is soulful and melodious, capturing the essence of Meera’s deep longing and devotion.

It is often sung with great emotional fervor, invoking a sense of spiritual ecstasy and connection with the divine.

The bhajan continues to be sung by devotees and lovers of devotional music, as it serves as a reminder of the profound love and devotion that Meera Bai had for Lord Krishna.

It inspires listeners to cultivate a similar depth of devotion like Meerabai and surrender to the divine.


Krishna Bhajan



Aisi Lagi Lagan Meera Ho Gayi Magan – Lyrics in Hindi


ऐसी लागी लगन, मीरा हो गयी मगन

ऐसी लागी लगन, मीरा हो गयी मगन लिरिक्स के इस पेज में पहले मीरा भजन के हिंदी लिरिक्स दिए गए है।

बाद में इस भजन का आध्यात्मिक महत्व दिया गया है और इसकी पंक्तियों से हमें कौन कौन सी बातें सीखने को मिलती है यह बताया गया है, जो हमें भक्ति मार्ग पर चलने में मदद कर सकती है।

क्योंकि इस भजन में हमें मीराबाई की कृष्ण-भक्ति से कई प्रेरणादायक संदेश मिलते हैं और उनकी भक्ति की महानता के बारे में भी जानने को मिलता है।


Aisi Lagi Lagan Meera Ho Gayi Magan Hindi Lyrics

ऐसी लागी लगन, मीरा हो गयी मगन।
वो तो गली गली, हरी गुण गाने लगी॥


बेकार वो मुख है, जो रहे व्यर्थ बातों में।
मुख है वो जो, हरी नाम का सुमिरन किया करे॥

हीरे मोती से नहीं शोभा है हाथ की।
है हाथ जो भगवान् का पूजन किया करे॥

मर के भी अमर नाम है उस जीव का जग में।
प्रभु प्रेम में बलिदान जो जीवन किया करे॥


ऐसी लागी लगन, मीरा हो गयी मगन।
वो तो गली गली, हरी गुण गाने लगी॥
महलों में पली, बन के जोगन चली।
मीरा रानी दीवानी कहाने लगी॥

[ऐसी लागी लगन, मीरा हो गयी मगन।
वो तो गली गली, हरी गुण गाने लगी॥]


कोई रोके नहीं, कोई टोके नहीं,
मीरा गोविन्द गोपाल गाने लगी।
बैठी संतो के संग, रंगी मोहन के रंग,
मीरा प्रेमी प्रीतम को मनाने लगी।
वो तो गली गली हरी गुण गाने लगी॥
[ऐसी लागी लगन…]


राणा ने विष दिया, मानो अमृत पिया,
मीरा सागर में सरिता समाने लगी।
दुःख लाखों सहे, मुख से गोविन्द कहे,
मीरा गोविन्द गोपाल गाने लगी।
वो तो गली गली हरी गुण गाने लगी॥
[ऐसी लागी लगन…]


महलों में पली, बन के जोगन चली।
मीरा रानी दीवानी कहाने लगी॥
ऐसी लागी लगन, मीरा हो गयी मगन।
वो तो गली गली हरी गुण गाने लगी॥


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Aisi Lagi Lagan Meera Ho Gayi Magan – Meera Bhajan

Anup Jalota


Krishna Bhajan



ऐसी लागी लगन, मीरा हो गयी मगन भजन का आध्यात्मिक महत्व

ऐसी लागी लगन, मीरा हो गयी मगन” भजन की पंक्तियों से हमें मीराबाई के जीवन और भक्ति से कई प्रेरणादायक शिक्षाएं मिलती हैं। साथ ही साथ सच्ची भक्ति, धैर्य, ध्यान, और संतों के साथ सत्संग करने का महत्व भी समझ में आता है।

भक्ति से सम्बंधित जो महत्वपूर्ण बातें इस भजन से हमें सीखने को मिलती हैं, उनमे से कुछ हैं –


भक्ति में समर्पण

ऐसी लागी लगन, मीरा हो गयी मगन।
वो तो गली गली, हरी गुण गाने लगी॥

मीराबाई ने अपनी पूरी जिंदगी कृष्ण को समर्पित कर दी थी। वे कृष्ण के प्रति इतनी समर्पित थीं कि उन्होंने उनके लिए अपना सब कुछ छोड़ दिया। उन्होंने कृष्ण की भक्ति को ही अपना जीवन बना लिया था।

इन पंक्तियों से हमें यह शिक्षा मिलती है कि भक्ति में समर्पण होना चाहिए और हमें भी भक्ति को अपने जीवन का केंद्र बनाना चाहिए।


भक्ति में दृढ़ता

महलों में पली, बन के जोगन चली।
मीरा रानी दीवानी कहाने लगी॥

मीराबाई को कृष्ण के प्रति भक्ति इतनी गहरी थी की जब उन्हें लगने लगा की महलों की बाते उनकी भक्ति में बाधक बन रही है, तो उन्होंने महल छोड़ दिया।

उन्होंने घर-परिवार, धन-संपत्ति सब त्याग दिया और कृष्ण के प्रेम में लीन हो गईं। वे हर समय कृष्ण के गुण गाती रहती थीं। उनके प्रेम और भक्ति की शक्ति से वे सबको प्रभावित करती थीं।

वे किसी भी तरह के विरोध या उपहास से भी नहीं डरी।


भक्ति में आत्मविश्वास

कोई रोके नहीं, कोई टोके नहीं,
मीरा गोविन्द गोपाल गाने लगी।

मीराबाई की भक्ति में प्रेम का अद्भुत संगम था। उन्होंने कृष्ण को अपना सर्वस्व मान लिया था। वह कृष्ण के प्रेम में डूबकर रहती थीं।

उन्होंने भक्ति में आत्मविश्वास का परिचय दिया। उन्होंने कभी नहीं सोचा कि उनके जैसे सामान्य व्यक्ति को कृष्ण की प्राप्ति नहीं होगी।

उन्होंने अपने प्रेम और विश्वास के बल पर कृष्ण को पा लिया।


भक्ति में साहस

दुःख लाखों सहे, मुख से गोविन्द कहे,
मीरा गोविन्द गोपाल गाने लगी।

मीराबाई ने भक्ति में साहस और दृढ़ता का भी परिचय दिया। उन्होंने जीवन में कई कठिनाइयों का सामना किया, लेकिन उन्होंने अपनी भक्ति नहीं छोड़ी।

यह पंक्ति हमें बताती है की मीराबाई ने अपनी भक्ति के लिए अपने परिवार और समाज के विरोध का सामना किया, लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी।

इसी प्रकार हमें भी अपने जीवन में भक्ति के लिए कठिनाइयों का सामना करने से नहीं डरना चाहिए।


भक्ति में प्रेम की पराकाष्ठा

राणा ने विष दिया, मानो अमृत पिया,
मीरा सागर में सरिता समाने लगी।

उन्होंने दुख, अपमान, और यहां तक कि अपने परिवार और समाज के तिरस्कार को भी सहा।

मीराबाई के कृष्ण प्रेम को उनके घरवाले और समाज ने नहीं समझा। उन्हें तरह-तरह की परेशानियां दी गईं। लेकिन, मीरा ने कभी हार नहीं मानी। उन्होंने अपनी कृष्ण-भक्ति को कभी नहीं छोड़ा।

उन्होंने समाज के रीति-रिवाजों और रूढ़ियों को चुनौती दी। उन्होंने महिलाओं को भी भक्ति के लिए प्रेरित किया।

इससे हमें यह भी सीखने को मिलता है कि जीवन में होने वाली परेशानियां हो या भक्ति मार्ग पर चलते समय मिलने वाली कठिनाइयां, दोनो का सामना करने के लिए धैर्य और ध्यान का महत्व होता है।


संत समाज का महत्व

बैठी संतो के संग, रंगी मोहन के रंग,
मीरा प्रेमी प्रीतम को मनाने लगी।

मीरा बाई ने अपने जीवन में संतों का मार्गदर्शन प्राप्त किया। संतों के सान्निध्य में रहने से उनकी भक्ति और प्रेम में और भी अधिक वृद्धि हुई।

मीरा बाई कृष्ण के प्रेम में इतनी डूब गईं कि उन्होंने अपने जीवन को कृष्ण के लिए समर्पित कर दिया। वे कृष्ण के बिना एक पल भी नहीं रह सकती थीं। वे कृष्ण के दर्शन के लिए तरसती रहती थीं।

यह बात हमें संतों के साथ सत्संग करने और सद्गुरु के मार्ग पर चलने के महत्व को बताती है। साथ ही हमें सिखाती है की हमें संत समाज का सम्मान करना चाहिए। क्योंकि संतों के मार्गदर्शन से ही हमें सही मार्ग मिल सकता है।


Summary

इस प्रकार ऐसी लागी लगन भजन की पंक्तियाँ भक्त को मीराबाई की तरह ईश्वर भक्ति करने की प्रेरणा देती है।

भक्ति हमें मोक्ष की प्राप्ति कराती है। मीरा बाई ने भी अपनी भक्ति के माध्यम से मोक्ष प्राप्त किया। यह बताती है की भक्ति की शक्ति बहुत बड़ी होती है, जो हमें जीवन में सही मार्गदर्शन देती है।

इन पंक्तियों को पढ़कर हमें यह भी प्रेरणा मिलती है कि हमें भी मीरा बाई की तरह कृष्ण की भक्ति में लीन होना चाहिए। हमें दिन रात सिर्फ अपनी भौतिक इच्छाओं के पीछे नहीं भागना चाहिए, बल्कि कृष्ण के प्रति सच्ची भक्ति रखनी चाहिए।

मीरा बाई ने कृष्ण की भक्ति के माध्यम से अपने जीवन को पूर्ण बनाया। भक्ति हमें जीवन में पूर्णता और संतुष्टि प्रदान कर सकती है। इसलिए हमें कृष्ण को अपना सर्वस्व मानना चाहिए और उनकी भक्ति में डूब जाना चाहिए। इन शिक्षाओं को अपनाकर हम भी अपने जीवन में सफलता और सुख प्राप्त कर सकते हैं।


Krishna Bhajan



ऐसी लागी लगन भजन

ऐसी लागी लगन मीरा हो गई मगन” हिंदी में एक लोकप्रिय भजन है जो भगवान कृष्ण के प्रति मीराबाई की भक्ति और प्रेम से जुड़ा है।

इसमें मीराबाई के परमात्मा के साथ गहरे और गहन आध्यात्मिक संबंध को दर्शाया गया है।

कृष्णभक्त मीराबाई

मीराबाई (1498-1547) सोलहवीं शताब्दी की एक कृष्ण भक्त और कवयित्री थीं।
Source – Wikipedia – Meerabai

मीराबाई ने भगवान कृष्ण को समर्पित कई भक्तिगीतों की रचना की और गाए है। उन्होंने अपनी मर्मस्पर्शी और हृदयस्पर्शी कविताओं और पदों के माध्यम से भगवान कृष्ण के प्रति अपनी भक्ति व्यक्त की है। संत रैदास या रविदास उनके गुरु थे।

ऐसी लागी लगन भजन, मीरा की भगवान कृष्ण के प्रति उनके प्रेम से पूरी तरह से लीन और मुग्ध होने की स्थिति को चित्रित करता है।

यह गीत उनके समर्पण और भक्ति को व्यक्त करता हैं, यह वर्णन करते हुए कि कैसे परमात्मा के प्रति उनके प्रेम ने उन्हें पूरी तरह से लीन कर दिया है।

समय के साथ, मीराबाई के भजन विभिन्न कलाकारों द्वारा गाए गए और लोकप्रिय हुए और भक्ति संगीत प्रदर्शनों की सूची का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गए।

कृष्ण की भक्ति में लीन मीराबाई

ऐसी लागी लगन मीरा हो गई मगन” का मधुर संगीत और भक्ति भाव से भरे शब्द, मीराबाई की ईश्वर के प्रति गहरी लालसा और भक्ति के सार को बहुत खूबसूरती से दर्शाता है।

यह भजन अक्सर बड़े भावनात्मक उत्साह के साथ गाया जाता है, आध्यात्मिक परमानंद और परमात्मा के साथ संबंध की भावना का आह्वान करता है।

भजन भक्तों और भक्ति संगीत के प्रेमियों द्वारा गाया जाता है, क्योंकि यह मीरा बाई के भगवान कृष्ण के प्रति गहन प्रेम और भक्ति की याद दिलाता है।

यह श्रोताओं को मीराबाई की तरह भक्ति की गहराई विकसित करने और परमात्मा के प्रति समर्पण करने के लिए प्रेरित करता है।

भगवद गीता अर्थ सहित अध्याय – 02


भगवद गीता के इस दूसरे अध्याय में
जब अर्जुन युद्ध नहीं करने का निश्चय करने लगता है,
तब भगवान् कृष्ण अर्जुन को समत्व योग के बारे में समझाते है।

साथ ही साथ इस अध्याय में श्री कृष्ण ने यह भी बताया की,
किसी भी विषय के चिंतन से अर्थात किसी भी इच्छा से,
कैसे एक से दूसरी कड़ी जुड़ती जाती है, और
मनुष्य अपनी स्थति से गिर जाता है।

आत्मा के स्वरुप के बारे में भी इस अध्याय में विस्तार से दिया गया है।

भगवद गीता के 700 श्लोकों में से इस दूसरे अध्याय में 72 श्लोक आते हैं।


इस पोस्ट से सम्बन्धित एक महत्वपूर्ण बात

इस लेख में भगवद गीता के दूसरे अध्याय के सभी 72 श्लोक अर्थ सहित दिए गए हैं।

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भगवद गीता अध्याय की लिस्ट

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भगवद गीता अध्याय – 02 – सांख्ययोग

1

अर्जुन का युद्ध ना करने का निश्चय

संजय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्‌।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः॥

संजय बोले –
उस प्रकार करुणा से व्याप्त और
आँसुओं से पूर्ण तथा व्याकुल नेत्रों वाले
शोकयुक्त उस अर्जुन के प्रति
भगवान मधुसूदन ने यह वचन कहा॥1॥

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2

असमय मोह से कोई लाभ नहीं होता

श्रीभगवानुवाच
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्‌।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन।

श्रीभगवान बोले – हे अर्जुन!
तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ?

क्योंकि, न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है,
न स्वर्ग को देने वाला है और
न कीर्ति को करने वाला ही है॥2॥

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3

मन की दुर्बलता को त्यागकर कर्म

क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप॥

इसलिए, हे अर्जुन!
नपुंसकता को मत प्राप्त हो,
तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती।

हे परंतप!
हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर
युद्ध के लिए खड़ा हो जा॥3॥

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4

अर्जुन पूछता है – आचार्यों से कैसे युद्ध करें

अर्जुन उवाच
कथं भीष्ममहं सङ्‍ख्ये द्रोणं च मधुसूदन।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन॥

अर्जुन बोले – हे मधुसूदन!
मैं रणभूमि में किस प्रकार बाणों से भीष्म पितामह
और द्रोणाचार्य के विरुद्ध लड़ूँगा?

क्योंकि हे अरिसूदन! वे दोनों ही पूजनीय हैं॥4॥

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5

गुरुजनों से युद्ध करके क्या मिलेगा

गुरूनहत्वा हि महानुभावा- ञ्छ्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुंजीय भोगान्‌ रुधिरप्रदिग्धान्‌॥

इसलिए इन महानुभाव गुरुजनों को न मारकर
मैं इस लोक में भिक्षा का अन्न भी खाना कल्याणकारक समझता हूँ;

क्योंकि गुरुजनों को मारकर भी
इस लोक में रुधिर से सने हुए अर्थ और
कामरूप भोगों को ही तो भोगूँगा॥5॥

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6

युद्ध का परिणाम क्या होगा

न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरीयो- यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम- स्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः॥

हम यह भी नहीं जानते कि
हमारे लिए युद्ध करना और न करना –
इन दोनों में से कौन-सा श्रेष्ठ है,
अथवा यह भी नहीं जानते
कि उन्हें हम जीतेंगे या हमको वे जीतेंगे।

और जिनको मारकर हम जीना भी नहीं चाहते,
वे ही हमारे आत्मीय धृतराष्ट्र के पुत्र
हमारे मुकाबले में खड़े हैं॥6॥

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7

अर्जुन कृष्ण से सही रास्ता दिखाने के लिए कहता है

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्‌॥

इसलिए कायरता रूप दोष से उपहत हुए स्वभाव वाला तथा
धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि
जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो, वह मेरे लिए कहिए;

क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ,
इसलिए आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिए॥7॥

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8

युद्ध जीतकर भी क्या होगा

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्या- द्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्‌।
अवाप्य भूमावसपत्रमृद्धं- राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्‌॥

क्योंकि, भूमि में निष्कण्टक, धन-धान्य सम्पन्न राज्यको और
देवताओंके स्वामीपने को प्राप्त होकर भी
मैं उस उपाय को नहीं देखता हूँ,
जो मेरी इन्द्रियों के सुखाने वाले शोक को दूर कर सके॥8॥

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9

अर्जुन कहता है – युद्ध नहीं करूँगा

संजय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप।
न योत्स्य इतिगोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह॥

संजय बोले – हे राजन्‌!
निद्रा को जीतने वाले अर्जुन
अंतर्यामी श्रीकृष्ण महाराज के प्रति इस प्रकार कहकर,
फिर श्री गोविंद भगवान्‌ से
“युद्ध नहीं करूँगा” यह स्पष्ट कहकर चुप हो गए॥9॥

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10

श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते है

तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदंतमिदं वचः॥

हे भरतवंशी धृतराष्ट्र!
अंतर्यामी श्रीकृष्ण महाराज
दोनों सेनाओं के बीच में शोक करते हुए
उस अर्जुन को हँसते हुए से यह वचन बोले॥10॥

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11

श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते है

श्री भगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः॥

श्री भगवान बोले, हे अर्जुन!
तू न शोक करने योग्य मनुष्यों के लिए शोक करता है और
पण्डितों के से वचनों को कहता है।

परन्तु जिनके प्राण चले गए हैं, उनके लिए और
जिनके प्राण नहीं गए हैं, उनके लिए भी,
पण्डितजन शोक नहीं करते॥11॥

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12

कृष्ण, अर्जुन और अन्य लोग – पहले भी थे – आगे भी रहेंगे

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्‌॥12॥


पढ़ने और समझने के लिए
न तु एव अहम्‌ जातु न आसम्
न त्वम् न इमे जनाधिपाः
न च एव न भविष्यामः
सर्वे वयम् अतः परम् 

शब्दों का अर्थ:

न तु (एवम्) एव = न तो (ऐसा) ही (है कि)
अहम् जातु न आसम् = मैं किसी कालमें नहीं था (अथवा)

त्वम् न (आसीः) = तू नहीं (था) (अथवा)
इमे जनाधिपाः न (आसन्) = ये राजालोग नहीं (थे)

च न (एवम्) एव = और न (ऐसा) ही (है कि)
अतः परम् वयम् सर्वे न भविष्यामः = इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे।

—-

भावार्थ:

न तो ऐसा ही है कि
मैं किसी काल में नहीं था,
तू नहीं था
अथवा ये राजा लोग नहीं थे और
न ऐसा ही है कि
इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे॥12॥

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13

जीवात्मा की एक शरीर से दूसरे शरीर की यात्रा

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति॥

जैसे जीवात्मा की इस देह में
बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है,
वैसे ही अन्य शरीर की प्राप्ति होती है।

उस विषय में धीर पुरुष, मोहित नहीं होता।13॥

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14

इन्द्रिय और विषयों के संयोग अनित्य है

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत॥

हे कुंतीपुत्र!
सर्दी-गर्मी और सुख-दुःख को देने वाले
इन्द्रिय और विषयों के संयोग तो
उत्पत्ति-विनाशशील और अनित्य हैं।

इसलिए हे भारत!
उनको तू सहन कर॥14॥

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15

विषयों में सम रहनेवाला पुरुष – मोक्ष के योग्य

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते॥

क्योंकि, हे पुरुषश्रेष्ठ!
दुःख-सुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को
ये इन्द्रिय और विषयों के संयोग व्याकुल नहीं करते,
वह मोक्ष के योग्य होता है॥15॥

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16

सत और असत में फर्क

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः॥

असत्‌ वस्तु की तो सत्ता नहीं है और
सत्‌ का अभाव नहीं है।

इस प्रकार इन दोनों का ही तत्व
तत्वज्ञानी पुरुषों द्वारा देखा गया है॥16॥

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17

अविनाशी परमेश्वर से सम्पूर्ण जगत व्याप्त

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्‌।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति॥

नाशरहित तो तू उसको जान,
जिससे यह सम्पूर्ण जगत्‌- दृश्यवर्ग व्याप्त है।

इस अविनाशी का विनाश करने में
कोई भी समर्थ नहीं है॥17॥

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18

जीवात्मा के शरीर नाशवान

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत॥

इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप जीवात्मा के
ये सब शरीर नाशवान कहे गए हैं।

इसलिए, हे भरतवंशी अर्जुन!
तू युद्ध कर॥18॥

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19

आत्मा का स्वरुप

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्‌।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते॥

जो इस आत्मा को मारने वाला समझता है तथा
जो इसको मरा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते;

क्योंकि यह आत्मा वास्तव में न तो किसी को मारता है और
न किसी द्वारा मारा जाता है॥19॥

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20

आत्मा का स्वरुप

न जायते म्रियते वा कदाचि- न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो- न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥

यह आत्मा किसी काल में भी
न तो जन्मता है और
न मरता ही है तथा
न यह उत्पन्न होकर फिर होने वाला ही है;

क्योंकि यह अजन्मा, नित्य,
सनातन और पुरातन है।

शरीर के मारे जाने पर भी
यह आत्मा नहीं मारा जाता॥20॥

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21

आत्मा का स्वरुप

वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्‌।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्‌॥

हे पृथापुत्र अर्जुन!
जो पुरुष इस आत्मा को नाशरहित, नित्य,
अजन्मा और अव्यय जानता है,

वह पुरुष कैसे किसको मरवाता है और
कैसे किसको मारता है?॥21॥

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22

जीवात्मा की शरीर से शरीर की यात्रा

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा- न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥

जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्यागकर
दूसरे नए वस्त्रों को ग्रहण करता है,

वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरों को त्यागकर,
दूसरे नए शरीरों को प्राप्त होता है॥22॥

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23

आत्मा का स्वरुप

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः॥

इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते,
इसको आग नहीं जला सकती,
इसको जल नहीं गला सकता और
वायु नहीं सुखा सकता॥23॥

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24

आत्मा का स्वरुप

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः॥

क्योंकि यह आत्मा अच्छेद्य है,
यह आत्मा अदाह्य, अक्लेद्य और
निःसंदेह अशोष्य है,

तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापी,
अचल, स्थिर रहने वाला और
सनातन है॥24॥

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25

आत्मा का स्वरुप

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि॥॥

यह आत्मा अव्यक्त है,
यह आत्मा अचिन्त्य है और
यह आत्मा विकाररहित कहा जाता है।

इससे हे अर्जुन!
इस आत्मा को उपर्युक्त प्रकार से जानकर
तू शोक करने के योग्य नहीं है,
अर्थात्‌ तुझे शोक करना उचित नहीं है॥25॥

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26

आत्मा का स्वरुप

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्‌।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि॥

किन्तु यदि तू इस आत्मा को सदा जन्मने वाला तथा
सदा मरने वाला मानता हो,
तो भी हे महाबाहो!
तू इस प्रकार शोक करने योग्य नहीं है॥26॥

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27

मनष्य जीवन का सच

जातस्त हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि॥

क्योंकि इस मान्यता के अनुसार,
जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और
मरे हुए का जन्म निश्चित है।

इससे भी इस बिना उपाय वाले विषय में
तू शोक करने योग्य नहीं है॥27॥

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28

मनष्य जीवन से पहले और बाद में

अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना॥

हे अर्जुन!
सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और
मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले हैं,
केवल बीच में ही प्रकट हैं;

फिर ऐसी स्थिति में क्या शोक करना है?॥28॥

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29

महापुरुष आत्मा को जानते है – अज्ञानी नहीं जानता

आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन- माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्‌॥

कोई एक महापुरुष ही
इस आत्मा को आश्चर्य की भाँति देखता है और
वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही
इसके तत्व का आश्चर्य की भाँति वर्णन करता है तथा

दूसरा कोई अधिकारी पुरुष ही
इसे आश्चर्य की भाँति सुनता है और
कोई-कोई तो सुनकर भी
इसको नहीं जानता॥29॥

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30

देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि॥

हे अर्जुन!
यह आत्मा सबके शरीर में सदा ही अवध्य है।
(जिसका वध नहीं किया जा सकता)
इस कारण सम्पूर्ण प्राणियों के लिए तू शोक करने योग्य नहीं है॥30॥

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31

स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते॥

तथा अपने धर्म को देखकर भी तू भय करने योग्य नहीं है
अर्थात्‌ तुझे भय नहीं करना चाहिए,

क्योंकि क्षत्रिय के लिए धर्मयुक्त युद्ध से बढ़कर
दूसरा कोई कल्याणकारी कर्तव्य नहीं है॥31॥

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32

यदृच्छया चोपपन्नां स्वर्गद्वारमपावृतम्‌।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्‌॥

हे पार्थ!
अपने-आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वार रूप
इस प्रकार के युद्ध को भाग्यवान क्षत्रिय लोग ही पाते हैं॥32॥

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33

अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्‍ग्रामं न करिष्यसि।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि॥

किन्तु यदि तू, इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा,
तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा ॥33॥

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34

अकीर्तिं चापि भूतानि कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम्‌।
सम्भावितस्य चाकीर्ति- र्मरणादतिरिच्यते॥

तथा सब लोग
तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीर्ति का भी कथन करेंगे और
माननीय पुरुष के लिए
अपकीर्ति मरण से भी बढ़कर है॥34॥

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35

भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्‌॥

और जिनकी दृष्टि में
तू पहले बहुत सम्मानित होकर अब लघुता को प्राप्त होगा,
वे महारथी लोग
तुझे भय के कारण युद्ध से हटा हुआ मानेंगे॥35॥

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36

अवाच्यवादांश्च बहून्‌ वदिष्यन्ति तवाहिताः।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम्‌॥

तेरे वैरी लोग तेरे सामर्थ्य की निंदा करते हुए
तुझे बहुत से न कहने योग्य वचन भी कहेंगे,
उससे अधिक दुःख और क्या होगा?॥36॥

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37

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्‌।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः॥

या तो तू युद्ध में मारा जाकर स्वर्ग को प्राप्त होगा अथवा
संग्राम में जीतकर पृथ्वी का राज्य भोगेगा।

इस कारण हे अर्जुन!
तू युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा॥37॥

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38

सुख-दुःख और लाभ हानि में सम 

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥

जय-पराजय, लाभ-हानि और
सुख-दुख को समान समझकर,
उसके बाद, युद्ध के लिए तैयार हो जा,
इस प्रकार युद्ध करने से
तू पाप को नहीं प्राप्त होगा॥38॥

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39

कर्मयोग – कर्म बंधनों से छुटकारे के लिए

एषा तेऽभिहिता साङ्‍ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु।
बुद्ध्‌या युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि॥

हे पार्थ!
यह बुद्धि तेरे लिए ज्ञानयोग के विषय में कही गई और
अब तू इसको कर्मयोग के विषय में सुन –

जिस बुद्धि से युक्त हुआ
तू कर्मों के बंधन को भली-भाँति त्याग देगा,
अर्थात सर्वथा नष्ट कर डालेगा॥39॥

(अध्याय 3 श्लोक 3 की टिप्पणी में इसका विस्तार देखें।)

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40

कर्मयोग का महत्व

यनेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवातो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्‌॥

इस कर्मयोग में आरंभ का अर्थात बीज का नाश नहीं है और
उलटा फलरूप दोष भी नहीं है,
बल्कि इस कर्मयोग रूप धर्म का थोड़ा-सा भी साधन
जन्म-मृत्यु रूप महान भय से रक्षा कर लेता है॥40॥

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41

कर्मयोगी की स्थिर बुद्धि

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।
बहुशाका ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्‌॥

हे अर्जुन!
इस कर्मयोग में निश्चयात्मिका बुद्धि एक ही होती है,
किन्तु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुद्धियाँ
निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनन्त होती हैं॥41॥

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42-44

विषयों में आसक्त पुरुष – अस्थिर बुद्धि

यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः॥
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्‌।
क्रियाविश्लेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति॥
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्‌।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते॥

हे अर्जुन!
जो भोगों में तन्मय हो रहे हैं,
जो कर्मफल के प्रशंसक वेदवाक्यों में ही प्रीति रखते हैं,
जिनकी बुद्धि में स्वर्ग ही परम प्राप्य वस्तु है और
जो स्वर्ग से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु ही नहीं है – ऐसा कहने वाले हैं,

वे अविवेकीजन
इस प्रकार की पुष्पित
अर्थात्‌ दिखाऊ शोभायुक्त वाणी को कहा करते हैं,

जो कि जन्मरूप कर्मफल देने वाली
एवं भोग तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए
नाना प्रकार की बहुत-सी क्रियाओं का वर्णन करने वाली है,

उस वाणी द्वारा जिनका चित्त हर लिया गया है,
जो भोग और ऐश्वर्य में अत्यन्त आसक्त हैं,
उन पुरुषों की
परमात्मा में निश्चियात्मिका बुद्धि नहीं होती॥42-44॥

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45

आसक्तिहीन, हर्ष-शोकादि द्वंद्वों से रहित

त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्‌॥

हे अर्जुन!
वेद उपर्युक्त प्रकार से
तीनों गुणों के कार्य रूप
समस्त भोगों एवं उनके साधनों का प्रतिपादन करने वाले हैं,

इसलिए तू उन भोगों एवं उनके साधनों में आसक्तिहीन,
हर्ष-शोकादि द्वंद्वों से रहित,
नित्यवस्तु परमात्मा में स्थित “योग क्षेम” को न चाहने वाला और
स्वाधीन अन्तःकरण वाला हो॥45॥

योग – अप्राप्त की प्राप्ति का नाम ‘योग’ है।
क्षेम – प्राप्त वस्तु की रक्षा का नाम ‘क्षेम’ है।

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46

ब्रह्म को जानने वाला मनुष्य

यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके।
तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः॥

सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो जाने पर
छोटे जलाशय में मनुष्य का जितना प्रयोजन रहता है,
ब्रह्म को तत्व से जानने वाले ब्राह्मण का
समस्त वेदों में उतना ही प्रयोजन रह जाता है॥46॥

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47

कर्म और उसका फल

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥

तेरा कर्म करने में ही अधिकार है,
उसके फलों में कभी नहीं।

इसलिए तू कर्मों के फल हेतु मत हो तथा
तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो॥47॥

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48

समत्व योग – आसक्ति को त्यागकर समबुद्धि

योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥

हे धनंजय! तू आसक्ति को त्यागकर
तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर
योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर;

क्योंकि समत्व ही योग कहलाता है॥48॥

समत्व अर्थात – जो कुछ भी कर्म किया जाए, उसके पूर्ण होने और न होने में तथा उसके फल में समभाव रहने का नाम समत्व है।

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49

फल की इच्छा – निम्न श्रेणी – दीन स्थिति

दूरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनंजय।
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः॥

इस समत्वरूप बुद्धियोग से
सकाम कर्म अत्यन्त ही निम्न श्रेणी का है।

इसलिए हे धनंजय!
तू समबुद्धि में ही रक्षा का उपाय ढूँढ
अर्थात्‌ बुद्धियोग का ही आश्रय ग्रहण कर,
क्योंकि फल के हेतु बनने वाले अत्यन्त दीन हैं॥49॥

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50

समत्व रूप योग – कर्म बंधनों से छुटकारा

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्‌॥

समबुद्धियुक्त पुरुष
पुण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है,
अर्थात उनसे मुक्त हो जाता है।

इससे तू समत्व रूप योग में लग जा,
यह समत्व रूप योग ही कर्मों में कुशलता है
अर्थात कर्मबंध से छूटने का उपाय है॥50॥

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51

समबुद्धि – जन्म मरण बंधन से मुक्ति

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।
जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्‌॥

क्योंकि समबुद्धि से युक्त ज्ञानीजन
कर्मों से उत्पन्न होने वाले फल को त्यागकर,
जन्मरूप बंधन से मुक्त हो,
निर्विकार परम पद को प्राप्त हो जाते हैं॥51॥

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52

मोहरूपी दलदल

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च॥

जिस काल में
तेरी बुद्धि मोहरूपी दलदल को
भलीभाँति पार कर जाएगी,

उस समय
तू सुने हुए और सुनने में आने वाले
इस लोक और परलोक संबंधी
सभी भोगों से वैराग्य को प्राप्त हो जाएगा॥52॥

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53

परमात्मा में स्थिर बुद्धि

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि॥

भाँति-भाँति के वचनों को सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि
जब परमात्मा में अचल और स्थिर ठहर जाएगी,

तब तू योग को प्राप्त हो जाएगा
अर्थात तेरा परमात्मा से नित्य संयोग हो जाएगा॥53॥

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54

अर्जुन स्थिरबुद्धि पुरुष के बारे में पूछता है

अर्जुन उवाच:
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्‌॥

अर्जुन बोले- हे केशव!
समाधि में स्थित परमात्मा को प्राप्त हुए
स्थिरबुद्धि पुरुष का क्या लक्षण है?

वह स्थिरबुद्धि पुरुष कैसे बोलता है,
कैसे बैठता है और
कैसे चलता है?॥54॥

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55

संपूर्ण कामनाओं का त्याग – स्थितप्रज्ञ

श्रीभगवानुवाच:
प्रजहाति यदा कामान्‌ सर्वान्पार्थ मनोगतान्‌।
आत्मयेवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते॥

श्री भगवान्‌ बोले- हे अर्जुन!
जिस काल में यह पुरुष
मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं को भलीभाँति त्याग देता है और
आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहता है,
उस काल में वह स्थितप्रज्ञ कहा जाता है॥55॥

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56

स्थिरबुद्धि मनष्य के लक्षण

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥

दुःखों की प्राप्ति होने पर जिसके मन में उद्वेग नहीं होता,
सुखों की प्राप्ति में सर्वथा निःस्पृह है तथा
जिसके राग, भय और क्रोध नष्ट हो गए हैं,
ऐसा मुनि स्थिरबुद्धि कहा जाता है॥56॥

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57

स्थिरबुद्धि मनष्य के लक्षण

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्‌।
नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥

जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ
उस-उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर
न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है,
उसकी बुद्धि स्थिर है॥57॥

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58

इन्द्रियों को विषयों से हटाना

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गनीव सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥

और कछुवा सब ओर से अपने अंगों को जैसे समेट लेता है,
वैसे ही जब यह पुरुष
इन्द्रियों के विषयों से इन्द्रियों को सब प्रकार से हटा लेता है,
तब उसकी बुद्धि स्थिर है (ऐसा समझना चाहिए)॥58॥

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59

विषयों के प्रति आसक्ति को भी समाप्त करना जरूरी

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्टवा निवर्तते॥

इन्द्रियों द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले पुरुष के भी
केवल विषय तो निवृत्त हो जाते हैं,
परन्तु उनमें रहने वाली आसक्ति निवृत्त नहीं होती।

इस स्थितप्रज्ञ पुरुष की तो आसक्ति भी
परमात्मा का साक्षात्कार करके निवृत्त हो जाती है॥59॥

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60

आसक्ति मनुष्य के बुद्धि को हर लेती है

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः॥

हे अर्जुन!
आसक्ति का नाश न होने के कारण
ये प्रमथन स्वभाव वाली इन्द्रियाँ
यत्न करते हुए बुद्धिमान पुरुष के मन को भी
बलात्‌ हर लेती हैं॥60॥

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61

स्थिर बुद्धि के लिए – इन्द्रियों को वश में करना जरूरी

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥

इसलिए साधक को चाहिए
कि वह उन सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में करके,
समाहित चित्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे,

क्योंकि जिस पुरुष की इन्द्रियाँ वश में होती हैं,
उसी की बुद्धि स्थिर हो जाती है॥61॥

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62

इच्छा – इच्छा पूरी ना होने से क्रोध

ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥

विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की
उन विषयों में आसक्ति हो जाती है।

आसक्ति से
उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और
कामना में विघ्न पड़ने से
क्रोध उत्पन्न होता है॥62॥

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63

क्रोध से – बुद्धि का नाश

क्रोधाद्‍भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥

क्रोध से अत्यन्त मूढ़ भाव उत्पन्न हो जाता है,

मूढ़ भाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है,

स्मृति में भ्रम हो जाने से
बुद्धि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और

बुद्धि का नाश हो जाने से
यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है॥63॥

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64

वश में इन्द्रियाँ – प्रसन्न अंतःकरण

रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन्‌।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति॥

परंन्तु अपने अधीन किए हुए अन्तःकरण वाला साधक
अपने वश में की हुई,
राग-द्वेष रहित इन्द्रियों द्वारा विषयों में विचरण करता हुआ
अन्तःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है॥64॥

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65

प्रसन्नचित्त कर्मयोगी – परमात्मा में स्थिति

प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते॥

अन्तःकरण की प्रसन्नता होने पर
इसके सम्पूर्ण दुःखों का अभाव हो जाता है और
उस प्रसन्नचित्त वाले कर्मयोगी की बुद्धि
शीघ्र ही सब ओर से हटकर
एक परमात्मा में ही भलीभाँति स्थिर हो जाती है॥65॥

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66

नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम्‌॥

न जीते हुए मन और इन्द्रियों वाले पुरुष में
निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती और
उस अयुक्त मनुष्य के अन्तःकरण में भावना भी नहीं होती

तथा भावनाहीन मनुष्य को शान्ति नहीं मिलती और
शान्तिरहित मनुष्य को सुख कैसे मिल सकता है?॥66॥

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67

इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि॥

क्योंकि, जैसे जल में चलने वाली नाव को
वायु हर लेती है,
वैसे ही विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों में से
मन जिस इन्द्रिय के साथ रहता है,
वह एक ही इन्द्रिय
इस अयुक्त पुरुष की बुद्धि को हर लेती है॥67॥

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68

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥

इसलिए हे महाबाहो!
जिस पुरुष की इन्द्रियाँ,
इन्द्रियों के विषयों में सब प्रकार निग्रह की हुई हैं,
उसी की बुद्धि स्थिर है॥68॥

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69

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः॥

सम्पूर्ण प्राणियों के लिए जो रात्रि के समान है,
उस नित्य ज्ञानस्वरूप परमानन्द की प्राप्ति में
स्थितप्रज्ञ योगी जागता है और

जिस नाशवान सांसारिक सुख की प्राप्ति में
सब प्राणी जागते हैं,
परमात्मा के तत्व को जानने वाले मुनि के लिए
वह रात्रि के समान है॥69॥

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70

आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं- समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्‌।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥

जैसे नाना नदियों के जल सब ओर से परिपूर्ण,
अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में
उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं,

वैसे ही सब भोग
जिस स्थितप्रज्ञ पुरुष में
किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किए बिना ही समा जाते हैं,
वही पुरुष परम शान्ति को प्राप्त होता है,
भोगों को चाहने वाला नहीं॥70॥

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71

विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति॥

जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओं को त्याग कर
ममतारहित, अहंकाररहित और
स्पृहारहित हुआ विचरता है,
वही शांति को प्राप्त होता है
अर्थात वह शान्ति को प्राप्त है॥71॥

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72

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति॥

हे अर्जुन! यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है,
इसको प्राप्त होकर योगी कभी मोहित नहीं होता और
अंतकाल में भी इस ब्राह्मी स्थिति में स्थित होकर
ब्रह्मानन्द को प्राप्त हो जाता है॥72॥

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ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु
ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे सांख्ययोगो नाम द्वितीयोऽध्यायः॥2॥




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भगवद गीता अध्याय – 3

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Bhagavad Gita Adhyay – 3

भगवद गीता अध्याय की लिस्ट

भगवद गीता अर्थ सहित अध्याय – 03


भगवद गीता के 700 श्लोकों में से
इस अध्याय में 43 श्लोक आते हैं।

गीता में यह तीसरा अध्याय एक महत्वपूर्ण अध्याय है,
क्योंकि इसी अध्याय से भगवान् ने कर्मों के बारे में बताना शुरू किया है।


भगवद गीता के तीसरे अध्याय में क्या हैं?

इस अध्याय में बताया गया है की
कर्म करना जरूरी है,
लेकिन कौन सा कर्म, तो यज्ञ निमित्त कर्म।

इसके अलावा किया गया कोई भी कर्म,
मनुष्य को कर्म बंधन से बांध देता है, और
मनुष्य का जीवन व्यर्थ हो जाता है।

कर्म और यज्ञ निमित्त कर्म क्या है और कैसे करें,
इसके बारें में आगे के अध्यायों में भगवानने विस्तार से समझाया है।

साथ ही साथ इस तीसरे अध्याय में भगवान ने यह भी बताया की,
कैसे कर्म करते हुए बंधनो से छुटकारा पाया जा सकता है,
जिससे मनुष्य जीवन सार्थक हो सके।

श्री कृष्ण ने यह भी बताया कि
उन्हें या किसी भी अवतारी पुरुष के लिए भी
कर्म करना क्यों जरूरी हैं।

आखरी के कुछ श्लोकों में,
इन्द्रियों से लेकर आत्मा तक की कड़ी दी गयी है और
कैसे आत्मा से प्रेरणा लेकर,
अर्थात भीतर से, इन्द्रियों को वश में करना चाहिए।

क्योंकि सिर्फ बाहर से इन्द्रियों को विषयों से हटाना
– एक झुठ, छलावा, मिथ्याचार या दिखावा है,
यदि मन के भीतर उन विषयों के बारें में विचार चलते रहे तो।
ऐसे मनुष्य को भगवान् ने मिथ्याचारी या दम्भी कहा है।


इस पोस्ट से सम्बन्धित एक महत्वपूर्ण बात

इस लेख में भगवद गीता के तीसरे अध्याय के
सभी 43 श्लोक अर्थ सहित दिए गए हैं।

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भगवद गीता अध्याय – 03 प्रारम्भ

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भगवद गीता अध्याय की लिस्ट

अथ तृतीयोऽध्यायः- कर्मयोग

यदि कर्म से ज्ञान ऊंचा, तो कर्म क्यों?

1

अर्जुन उवाच
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव॥

अर्जुन बोले – हे जनार्दन!
यदि आपको कर्म की अपेक्षा, ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है,
तो फिर हे केशव!
मुझे भयंकर कर्म में क्यों लगाते हैं?॥1॥

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2

ज्ञान या कर्म, दोनों में से एक बताएं

व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्‌॥

आप मिले हुए से वचनों से मेरी बुद्धि को मानो मोहित कर रहे हैं।

इसलिए, उस एक बात को निश्चित करके कहिए,
जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाऊँ॥2॥॥

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3

ज्ञानयोग और कर्मयोग में फर्क

श्रीभगवानुवाच
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन साङ्‍ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्‌॥

श्रीभगवान बोले- हे निष्पाप!
इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा मेरे द्वारा पहले कही गई है।

उनमें से सांख्य योगियों की निष्ठा तो ज्ञान योग से और
योगियों की निष्ठा, कर्मयोग से होती है॥3॥

ज्ञानयोग, सांख्ययोग अर्थात
माया से उत्पन्न हुए सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरतते हैं,
ऐसे समझकर तथा
मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाली सम्पूर्ण क्रियाओं में,
कर्तापन के अभिमान से रहित होकर,
सर्वव्यापी परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहने का नाम ज्ञान योग है,
इसी को संन्यास या सांख्ययोग आदि नामों से कहा गया है।

कर्मयोग अर्थात
फल और आसक्ति को त्यागकर,
भगवदाज्ञानुसार केवल भगवदर्थ समत्व बुद्धि से कर्म करने का नाम निष्काम कर्मयोग है,
इसी को समत्वयोग, बुद्धियोग, कर्मयोग, तदर्थकर्म, मदर्थकर्म, मत्कर्म आदि नामों से कहा गया है।

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4

बिना कर्मों के योग नहीं हो सकता

न कर्मणामनारंभान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति॥

मनुष्य न तो कर्मों का आरंभ किए बिना निष्कर्मता को
यानी योगनिष्ठा को प्राप्त होता है और
न कर्मों के केवल त्यागमात्र से
सिद्धि यानी सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है॥4॥

निष्कर्मता अर्थात
जिस अवस्था को प्राप्त हुए पुरुष के कर्म अकर्म हो जाते हैं
अर्थात फल उत्पन्न नहीं कर सकते,
उस अवस्था का नाम “निष्कर्मता” है।

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5

गुणों के कारण मनुष्य हर क्षण कर्म करता है

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्‌।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः॥

निःसंदेह कोई भी मनुष्य किसी भी काल में
क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता,

क्योंकि,
सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ
कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है॥5॥

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6

सिर्फ इन्द्रियों को विषयों से हटाने वाला – मिथ्याचारी, झूठा

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्‌।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते॥

जो मूढ़ बुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को
हठपूर्वक ऊपर से रोककर,
मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है,
वह मिथ्याचारी अर्थात दम्भी कहा जाता है॥6॥

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7

विषयों के प्रति आसक्ति को हटाना जरूरी

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते॥

किन्तु हे अर्जुन!
जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ
समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग काआचरण करता है,
वही श्रेष्ठ है॥7॥॥

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8

कर्म जरूरी है

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।

तू शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म कर,
क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा,
कर्म करना श्रेष्ठ है तथा
कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा॥8॥

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9

यज्ञ के अतिरिक्त कर्म – कर्मबन्धन में बंधना

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधनः।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर॥

यज्ञ के निमित्त किए जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त,
दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मुनष्य समुदाय कर्मों से बँधता है।

इसलिए हे अर्जुन!
तू आसक्ति से रहित होकर
उस यज्ञ के निमित्त ही भलीभाँति कर्तव्य कर्म कर॥9॥

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10

करनेयोग्य कर्म करना क्यों जरूरी?

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टा पुरोवाचप्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्‌॥

प्रजापति ब्रह्मा ने
कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजाओं को रचकर
उनसे कहा कि
तुम लोग इस यज्ञ द्वारा वृद्धि को प्राप्त होओ। 

और यह यज्ञ
तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो॥10॥

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11

मनुष्य और देवता का सम्बन्ध

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ॥

तुम लोग इस यज्ञ द्वारा देवताओं को उन्नत करो और
वे देवता तुम लोगों को उन्नत करें।

इस प्रकार, निःस्वार्थ भाव से
एक-दूसरे को उन्नत करते हुए,
तुम लोग परम कल्याण को प्राप्त हो जाओगे॥11॥

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12

कौनसा मनुष्य चोर है?

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुंक्ते स्तेन एव सः॥

यज्ञ द्वारा बढ़ाए हुए देवता
तुम लोगों को बिना माँगे ही इच्छित भोग निश्चय ही देते रहेंगे।

इस प्रकार उन देवताओं द्वारा दिए हुए भोगों को
जो पुरुष उनको बिना दिए स्वयं भोगता है,
वह चोर ही है॥12॥

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13

सब प्रकार के पापों से मुक्ति कैसे?

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्‌॥

यज्ञ से बचे हुए अन्न को खाने वाले श्रेष्ठ पुरुष
सब पापों से मुक्त हो जाते हैं और
जो पापी लोग अपना शरीर-पोषण करने के लिए ही अन्न पकाते हैं,
वे तो पाप को ही खाते हैं॥13॥

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14-15

परमात्मा से प्राणी तक की कड़ी

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः॥
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्‌।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्‌॥

सम्पूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं,
अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है,
वृष्टि यज्ञ से होती है और
यज्ञ विहित कर्मों से उत्पन्न होने वाला है।

कर्मसमुदाय को तू वेद से उत्पन्न और
वेद को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ जान।

इससे सिद्ध होता है कि
सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा
सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है॥14-15॥

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16

मनुष्य जीवन कब व्यर्थ हो जाता है?

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥

हे पार्थ!
जो पुरुष इस लोक में
इस प्रकार परम्परा से प्रचलित सृष्टिचक्र के अनुकूल नहीं बरतता
अर्थात अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता,
वह इन्द्रियों द्वारा भोगों में रमण करने वाला पापायु पुरुष
व्यर्थ ही जीता है॥16॥

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17

मनुष्य कर्मबन्धन से कब छूट सकता है?

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥

परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमण करने वाला और
आत्मा में ही तृप्त तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट हो,
उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है॥17॥

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18

किसी भी प्राणी से स्वार्थ का सम्बन्ध – पापों की शुरुआत

संजय उवाच : नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः॥

उस महापुरुष का इस विश्व में
न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और
न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है
तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी
इसका किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थ का संबंध नहीं रहता॥18॥

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19

आसक्ति से रहित कर्म – परमात्मा की प्राप्ति

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः॥

इसलिए तू निरन्तर आसक्ति से रहित होकर
सदा कर्तव्यकर्म को भलीभाँति करता रह,
क्योंकि आसक्ति से रहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य
परमात्मा को प्राप्त हो जाता है॥19॥

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20

कर्म करना जरूरी? लेकिन, कौन सा कर्म?

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।
लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि॥

जनकादि ज्ञानीजन भी
आसक्ति रहित कर्मद्वारा ही परम सिद्धि को प्राप्त हुए थे। 

इसलिए, तथा लोकसंग्रह को देखते हुए भी
तू कर्म करने के ही योग्य है
अर्थात तुझे कर्म करना ही उचित है॥20॥

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21

महापुरुष कर्म क्यों करते है?

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥

श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है,
अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं।

वह जो कुछ प्रमाण कर देता है,
समस्त मनुष्य-समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है ।

(यहाँ क्रिया में एकवचन है, परन्तु “लोक” शब्द समुदायवाचक होने से भाषा में बहुवचन की क्रिया लिखी गई है।)॥21॥<

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22

भगवान् कृष्ण के लिए भी कर्म क्यों?

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि॥

हे अर्जुन!
मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्तव्य है और
न कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है,
तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ॥22॥

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23

मनुष्य, अवतारी पुरुषों के कर्मों का अनुसरण करता है 

यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥

क्योंकि हे पार्थ!
यदि कदाचित्‌ मैं सावधान होकर कर्मों में न बरतूँ
तो बड़ी हानि हो जाए,
क्योंकि मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं॥23॥

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24

यदि कृष्ण कर्म ना करे तो क्या होगा?

यदि उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्‌।
संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः॥

इसलिए यदि मैं कर्म न करूँ,
तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जाएँ और
मैं संकरता का करने वाला होऊँ तथा
इस समस्त प्रजा को नष्ट करने वाला बनूँ॥24॥

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25

अज्ञानी और ज्ञानी के कर्म में क्या फर्क है?

सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत।
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम्‌॥

हे भारत!
कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जिस प्रकार कर्म करते हैं,
आसक्तिरहित विद्वान भी लोकसंग्रह करना चाहता हुआ
उसी प्रकार कर्म करे॥25॥

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26

ज्ञानियों के लिए तो कर्म बहुत जरूरी

न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङि्गनाम्‌।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन्‌॥

परमात्मा के स्वरूप में
अटल स्थित हुए ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि
वह शास्त्रविहित कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में
भ्रम अर्थात कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न न करे,

किन्तु स्वयं
शास्त्रविहित समस्त कर्म भलीभाँति करता हुआ
उनसे भी वैसे ही करवाए॥26॥

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27

अज्ञानी का सबसे पसंदीदा वाक्य – मैने किया, मैं कर्ता

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते॥

वास्तव में सम्पूर्ण कर्म
सब प्रकार से प्रकृति के गुणों द्वारा किए जाते हैं,
तो भी जिसका अन्तःकरण अहंकार से मोहित हो रहा है,
ऐसा अज्ञानीमैं कर्ता हूँ – ऐसा मानता है॥27॥

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28

लेकिन ज्ञानी पुरुष – गुण और कर्म के सम्बन्ध को जानता है

तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः।
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते॥

परन्तु हे महाबाहो!
गुण विभाग और कर्म विभाग के तत्व को जानने वाला ज्ञान योगी
सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं,
ऐसा समझकर उनमें आसक्त नहीं होता। ॥28॥

त्रिगुणात्मक माया के कार्यरूप पाँच महाभूत और मन, बुद्धि, अहंकार तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और शब्दादि पाँच विषय- इन सबके समुदाय का नाम  – गुण विभाग – है और

इनकी परस्पर की चेष्टाओं का नाम – कर्म विभाग – है।

उपर्युक्त गुण विभाग और कर्म विभाग से आत्मा को
पृथक अर्थात्‌ निर्लेप जानना ही इनका तत्व जानना है।)

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29

लेकिन ज्ञानी पुरुष, अज्ञानी को विचलित ना करें

प्रकृतेर्गुणसम्मूढ़ाः सज्जन्ते गुणकर्मसु।
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्‌॥

प्रकृति के गुणों से अत्यन्त मोहित हुए मनुष्य
गुणों में और कर्मों में आसक्त रहते हैं,
उन पूर्णतया न समझने वाले मन्दबुद्धि अज्ञानियों को
पूर्णतया जानने वाला ज्ञानी विचलित न करे॥29॥

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30

सम्पूर्ण कर्मों को परमात्मा को अर्पण

मयि सर्वाणि कर्माणि सन्नयस्याध्यात्मचेतसा।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः॥

मुझ अन्तर्यामी परमात्मा में लगे हुए चित्त द्वारा
सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके
आशारहित, ममतारहित और
सन्तापरहित होकर युद्ध कर॥30॥

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31

कृष्ण की बातें – कर्म बंधन से छूटने का मार्ग

ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः।
श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽति कर्मभिः॥

जो कोई मनुष्य दोषदृष्टि से रहित और श्रद्धायुक्त होकर
मेरे इस मत का सदा अनुसरण करते हैं,
वे भी सम्पूर्ण कर्मों से छूट जाते हैं॥31॥

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32

कृष्ण की बातों को ना मानना से क्या होगा?

ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्‌।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः॥

परन्तु जो मनुष्य मुझमें दोषारोपण करते हुए
मेरे इस मत के अनुसार नहीं चलते हैं,
उन मूर्खों को तू सम्पूर्ण ज्ञानों में मोहित और
नष्ट हुए ही समझ॥32॥

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33

प्रकृति के गुण और कर्म

सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति॥

सभी प्राणी प्रकृति को प्राप्त होते हैं
अर्थात अपने स्वभाव के परवश हुए कर्म करते हैं।

ज्ञानवान्‌ भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है।

फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा॥33॥

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34

इन्द्रिय विषय के सम्बन्ध – राग द्वेष

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ॥

इन्द्रिय-इन्द्रिय के अर्थ में
अर्थात प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में
राग और द्वेष छिपे हुए स्थित हैं।

मनुष्य को उन दोनों के वश में नहीं होना चाहिए
क्योंकि वे दोनों ही
इसके कल्याण मार्ग में विघ्न करने वाले महान्‌ शत्रु हैं॥34॥

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35

स्वयं के गुण और कर्मों को समझना जरूरी

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्‌।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः॥

अच्छी प्रकार आचरण में लाए हुए दूसरे के धर्म से
गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है।

अपने धर्म में तो मरना भी कल्याणकारक है और
दूसरे का धर्म भय को देने वाला है॥35॥

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36

तो फिर मनुष्य क्यों बुरे कार्य करता है

अर्जुन उवाचः अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः॥

अर्जुन बोले- हे कृष्ण!
तो फिर यह मनुष्य स्वयं न चाहता हुआ भी
बलात्‌ लगाए हुए की भाँति
किससे प्रेरित होकर
पाप का आचरण करता है॥36॥॥

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37

रजोगुण – इच्छाएं – मनुष्य के कल्याण में बाधक

श्रीभगवानुवाच: काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम्‌॥

श्री भगवान बोले –
रजोगुण से उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है।

यह बहुत खाने वाला
अर्थात भोगों से कभी न अघानेवाला और बड़ा पापी है।

इसको ही तू इस विषय में वैरी जान॥37॥

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38

इच्छाओं से ज्ञान ढँक जाता है

धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्‌॥

जिस प्रकार धुएँ से अग्नि और मैल से दर्पण ढँका जाता है
तथा जिस प्रकार जेर से गर्भ ढँका रहता है,
वैसे ही उस काम द्वारा यह ज्ञान ढँका रहता है॥38॥

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39

इच्छाएं – ज्ञान की वैरी

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च॥

और हे अर्जुन!
इस अग्नि के समान
कभी न पूर्ण होने वाले काम रूप से
(ज्ञानियों के नित्य वैरी द्वारा)
मनुष्य का ज्ञान ढँका हुआ है॥39॥

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40

इच्छाएं कहाँ रहती है

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्‌॥

इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि –
ये सब इसके वासस्थान कहे जाते हैं।

यह काम
इन मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा ही
ज्ञान को आच्छादित करके
जीवात्मा को मोहित करता है। ॥40॥

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41

विषयों में आसक्ति को खत्म करना जरूरी, कैसे?

तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्‌॥

इसलिए हे अर्जुन!
तू पहले इन्द्रियों को वश में करके
इस ज्ञान और विज्ञान का नाश करने वाले
महान पापी काम को
अवश्य ही बलपूर्वक मार डाल॥41॥

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42

इन्द्रियों से आत्मा तक की कड़ी

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः॥

इन्द्रियों को स्थूल शरीर से पर
यानी श्रेष्ठ, बलवान और सूक्ष्म कहते हैं।

इन इन्द्रियों से पर मन है,
मन से भी पर बुद्धि है और
जो बुद्धि से भी अत्यन्त पर है,
वह आत्मा है॥42॥

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43

भगवान् ने मनुष्य के सबसे बड़े शत्रु को मारने का मार्ग बताया

एवं बुद्धेः परं बुद्धवा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्‌॥

इस प्रकार बुद्धि से पर
अर्थात सूक्ष्म, बलवान और अत्यन्त श्रेष्ठ आत्मा को जानकर और
बुद्धि द्वारा मन को वश में करके हे महाबाहो!
तू इस कामरूप दुर्जय शत्रु को मार डाल॥43॥

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श्रीकृष्णार्जुनसंवाद कर्मयोग नामक तीसरा अध्याय समाप्त

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्यायः॥3॥


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भगवद गीता अध्याय – 4

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Bhagavad Gita Adhyay – 4

भगवद गीता अध्याय की लिस्ट




मैं आरती तेरी गाउँ, ओ केशव कुञ्ज बिहारी


1.

मैं आरती तेरी गाउँ,
ओ केशव कुञ्ज बिहारी।
मैं नित नित शीश नवाऊँ,
ओ मोहन कृष्ण मुरारी॥


2.

है तेरी छबि अनोखी,
ऐसी ना दूजी देखी।
तुझ सा ना सुन्दर कोई,
ओ मोर मुकुटधारी॥


3.

मैं आरती तेरी गाउँ,
ओ केशव कुञ्ज बिहारी।
मैं नित नित शीश नवाऊँ,
ओ मोहन कृष्ण मुरारी॥


4.

जो आए शरण तिहारी,
विपदा मिट जाए सारी।
हम सब पर कृपा रखना,
ओ जगत के पालनहारी॥


5.

मैं आरती तेरी गाउँ,
ओ केशव कुञ्ज बिहारी।
मैं नित नित शीश नवाऊँ,
ओ मोहन कृष्ण मुरारी॥

भगवद गीता अर्थ सहित अध्याय – 04


इस आधाय में भगवान् ने मनुष्य के लिए यज्ञ का महत्व समझाया और
यज्ञों के कई रूपों के बारें में बताया है,
जैसे की, द्रव्य यज्ञ, तपस्या, योग, स्वाध्याय और प्राण अपान का हवन।

और यह कहा की ज्ञानयज्ञ, बाहरी द्रव्य यज्ञों की अपेक्षा श्रेष्ठ है।

ज्ञानयज्ञ किससे सीखना चाहिए इसका भी वर्णन है।

श्रीकृष्ण ने यह भी समझाया की कैसे कर्म करते हुए, भगवान् के स्वरुप को प्राप्त कर सकते है, अर्थात मोक्ष या मुक्ति मिल सकती है।

इसी अध्याय में सबसे लोकप्रिय श्लोक भी आता है, जिसमे भगवान् अपने अवतार का कारण बताते है और वे कब कब अपने साकार स्वरुप में आते है यह समझाया है। वह लोकप्रिय श्लोक है –

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥

भगवद गीता के 700 श्लोकों में से
इस चौथे अध्याय में 42 श्लोक आते हैं।


इस पोस्ट से सम्बन्धित एक महत्वपूर्ण बात

इस लेख में भगवद गीता के चौथे अध्याय सभी 42 श्लोक अर्थ सहित दिए गए हैं।

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भगवद गीता अध्याय की लिस्ट

अथ चतुर्थोऽध्यायः- ज्ञानकर्मसंन्यासयोग

1

भगवान् से योग किस प्रकार पृथ्वी तक आया

श्री भगवानुवाच : इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्‌।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्‌॥

श्री भगवान बोले-
मैंने इस अविनाशी योग को सूर्य से कहा था,
सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और
मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा॥1॥

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2

योग का लुप्तप्राय होना

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप॥

हे परन्तप अर्जुन!
इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस योग को राजर्षियों ने जाना,
किन्तु उसके बाद वह योग बहुत काल से
इस पृथ्वी लोक में लुप्तप्राय हो गया॥2॥

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3

भगवान् कृष्ण ने पुरातन योग अर्जुन से क्यों कहा?

स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्‌॥

तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है,
इसलिए वही यह पुरातन योग आज मैंने तुझको कहा है
क्योंकि यह बड़ा ही उत्तम रहस्य है
अर्थात गुप्त रखने योग्य विषय है॥3॥

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4

अर्जुन के मन में भगवान् के बारें में शंका

अर्जुन उवाच: अपरं भवतो जन्म परं जन्म विवस्वतः।
कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति॥

अर्जुन बोले –
आपका जन्म तो अर्वाचीन-अभी हाल का है और
सूर्य का जन्म बहुत पुराना है
अर्थात कल्प के आदि में हो चुका था।

तब मैं इस बात को कैसे समूझँ
कि आप ही ने कल्प के आदि में
सूर्य से यह योग कहा था?॥4॥

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5

भगवान् अर्जुन को जन्मों के बारें में समझाते है

श्रीभगवानुवाच: बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप॥

श्री भगवान बोले- हे परंतप अर्जुन!
मेरे और तेरे बहुत से जन्म हो चुके हैं।

उन सबको तू नहीं जानता,
किन्तु मैं जानता हूँ॥5॥

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6

भगवान् साकार रूप में प्रकट कैसे होते है?

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्‌।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया॥

मैं अजन्मा और अविनाशीस्वरूप होते हुए भी
तथा समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी
अपनी प्रकृति को अधीन करके
अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ॥6॥

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7

भगवान् पृथ्वी पर अवतार क्यों लेते है?

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌॥

हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है,
तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ
अर्थात साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ॥7॥

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8

कब कब भगवान साकार रूप में प्रकट होते है?

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्‌।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥

साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए,
पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और
धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए
मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ॥8॥

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9

मनुष्य कैसे भगवान् को प्राप्त हो सकता है?

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्वतः।
त्यक्तवा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन॥

हे अर्जुन! मेरे जन्म और कर्म
दिव्य अर्थात निर्मल और अलौकिक हैं –
इस प्रकार जो मनुष्य तत्व से जान लेता है,
वह शरीर को त्याग कर फिर जन्म को प्राप्त नहीं होता,
किन्तु मुझे ही प्राप्त होता है॥9॥

(सर्वशक्तिमान, सच्चिदानन्दन परमात्मा
अज, अविनाशी और सर्वभूतों के परम गति तथा परम आश्रय हैं,
वे केवल धर्म को स्थापन करने और
संसार का उद्धार करने के लिए ही
अपनी योगमाया से सगुणरूप होकर प्रकट होते हैं।

इसलिए परमेश्वर के समान
सुहृद्, प्रेमी और पतितपावन दूसरा कोई नहीं है,
ऐसा समझकर जो पुरुष परमेश्वर का
अनन्य प्रेम से निरन्तर चिन्तन करता हुआ
आसक्तिरहित संसार में बर्तता है,
वही उनको तत्व से जानता है।)

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10

कौन से भक्त पहले भगवान् के स्वरूप को प्राप्त हुए है?

वीतरागभय क्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः॥

पहले भी, जिनके राग, भय और क्रोध सर्वथा नष्ट हो गए थे और
जो मुझ में अनन्य प्रेमपूर्वक स्थित रहते थे,
ऐसे मेरे आश्रित रहने वाले बहुत से भक्त
उपर्युक्त ज्ञान रूप तप से पवित्र होकर
मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुके हैं॥10॥

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11

भक्त और भगवान् में सम्बन्ध

ये यथा माँ प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्‌।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥

हे अर्जुन!
जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं,
मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ,
क्योंकि सभी मनुष्य सब प्रकार से
मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं॥11॥

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12

देवताओं की पूजा से शीघ्र कर्मों का फल

काङ्‍क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा॥

इस मनुष्य लोक में
कर्मों के फल को चाहने वाले लोग
देवताओं का पूजन किया करते हैं
क्योंकि उनको कर्मों से उत्पन्न होने वाली सिद्धि
शीघ्र मिल जाती है॥12॥

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13

मनुष्य के चार वर्ण – कर्मों के आधार पर

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्‌॥

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र –
इन चार वर्णों का समूह,
गुण और कर्मों के विभागपूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है।

इस प्रकार उस सृष्टि-रचनादि कर्म का
कर्ता होने पर भी
मुझ अविनाशी परमेश्वर को
तू वास्तव में अकर्ता ही जान॥13॥

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14

कर्म बंधन से छूटने का एक मार्ग – ईश्वर को तत्व से जानना

न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते॥

कर्मों के फल में मेरी स्पृहा नहीं है,
इसलिए मुझे कर्म लिप्त नहीं करते –
इस प्रकार जो मुझे तत्व से जान लेता है,
वह भी कर्मों से नहीं बँधता॥14॥

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15

मुक्त पुरुषों के कर्मों को जानकार कर्म करें

एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः।
कुरु कर्मैव तस्मात्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्‌॥

पूर्वकाल में मुमुक्षुओं ने भी
इस प्रकार जानकर ही कर्म किए हैं,
इसलिए तू भी
पूर्वजों द्वारा सदा से किए जाने वाले कर्मों को ही कर॥15॥

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16

कर्मबन्धनों से मुक्ति के लिए कर्मतत्व समझना जरूरी

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्‌॥

कर्म क्या है? और अकर्म क्या है?
इस प्रकार इसका निर्णय करने में
बुद्धिमान पुरुष भी मोहित हो जाते हैं।

इसलिए वह कर्मतत्व मैं तुझे भलीभाँति समझाकर कहूँगा,
जिसे जानकर तू अशुभ से
अर्थात कर्मबंधन से मुक्त हो जाएगा॥16॥

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17

कर्म, अकर्म और विकर्म का स्वरुप

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः॥

कर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए और
अकर्मण का स्वरूप भी जानना चाहिए तथा
विकर्म का स्वरूप भी जानना चाहिए
क्योंकि कर्म की गति गहन है॥17॥

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18

बुद्धिमान और योगी किस प्रकार कर्म करते है?

कर्मण्य कर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्‌॥

जो मनुष्य कर्म में अकर्म देखता है और
जो अकर्म में कर्म देखता है,
वह मनुष्यों में बुद्धिमान है और
वह योगी समस्त कर्मों को करने वाला है॥18॥

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19

बिना कामना और संकल्प के कर्म से मनुष्य क्या होता है?

यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पंडितं बुधाः॥

जिसके सम्पूर्ण शास्त्रसम्मत कर्म
बिना कामना और संकल्प के होते हैं
तथा जिसके समस्त कर्म ज्ञानरूप अग्नि द्वारा भस्म हो गए हैं,
उस महापुरुष को ज्ञानीजन भी पंडित कहते हैं॥19॥

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20

निरंतर ईश्वर में मन और कर्मफलों का त्याग

त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः।
कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किंचित्करोति सः॥

जो पुरुष समस्त कर्मों में और
उनके फल में आसक्ति का सर्वथा त्याग करके
संसार के आश्रय से रहित हो गया है और
परमात्मा में नित्य तृप्त है,
वह कर्मों में भलीभाँति बर्तता हुआ भी
वास्तव में कुछ भी नहीं करता॥20॥

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21

कर्म करते हुए भी पापों से कैसे बचा जा सकता है?

निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः।
शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्‌॥

जिसका अंतःकरण और इन्द्रियों सहित शरीर जीता हुआ है और
जिसने समस्त भोगों की सामग्री का परित्याग कर दिया है,
ऐसा आशारहित पुरुष
केवल शरीर-संबंधी कर्म करता हुआ भी
पापों को नहीं प्राप्त होता॥21॥

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22

कर्मयोगी किस प्रकार कर्म बंधनों में नहीं बंधता?

यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वंद्वातीतो विमत्सरः।
समः सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते॥

जो बिना इच्छा के अपने-आप प्राप्त हुए पदार्थ में सदा संतुष्ट रहता है,
जिसमें ईर्ष्या का सर्वथा अभाव हो गया हो,
जो हर्ष-शोक आदि द्वंद्वों से सर्वथा अतीत हो गया है –
ऐसा सिद्धि और असिद्धि में सम रहने वाला कर्मयोगी
कर्म करता हुआ भी उनसे नहीं बँधता॥22॥

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23

सम्पूर्ण कर्म कैसे विलीन हो सकते है?

गतसङ्‍गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते॥

जिसकी आसक्ति सर्वथा नष्ट हो गई है,
जो देहाभिमान और ममता से रहित हो गया है,
जिसका चित्त निरन्तर परमात्मा के ज्ञान में स्थित रहता है –
ऐसा केवल यज्ञसम्पादन के लिए
कर्म करने वाले मनुष्य के सम्पूर्ण कर्म
भलीभाँति विलीन हो जाते हैं॥23॥

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24

ब्रह्म का स्वरूप क्या है?

ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्रौ ब्रह्मणा हुतम्‌।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥

जिस यज्ञ में अर्पण अर्थात स्रुवा आदि भी ब्रह्म है और
हवन किए जाने योग्य द्रव्य भी ब्रह्म है,
तथा ब्रह्मरूप कर्ता द्वारा ब्रह्मरूप अग्नि में आहुति देना रूप क्रिया भी ब्रह्म है –
उस ब्रह्मकर्म में स्थित रहने वाले योगी द्वारा
प्राप्त किए जाने योग्य फल भी ब्रह्म ही हैं॥24॥

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25

यज्ञ, अनुष्ठान, हवन और ब्रह्म

दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते।
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति॥

दूसरे योगीजन देवताओं के पूजनरूप यज्ञ का ही
भलीभाँति अनुष्ठान किया करते हैं और
अन्य योगीजन परब्रह्म परमात्मारूप अग्नि में
अभेद दर्शनरूप यज्ञ द्वारा ही आत्मरूप यज्ञ का हवन किया करते हैं।

(परब्रह्म परमात्मा में ज्ञान द्वारा एकीभाव से स्थित होना ही
ब्रह्मरूप अग्नि में यज्ञ द्वारा यज्ञ को हवन करना है।)॥25॥

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26

विषयों का इन्द्रियों में हवन

श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति।
शब्दादीन्विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति॥

अन्य योगीजन श्रोत्र आदि समस्त इन्द्रियों को
संयम रूप अग्नियों में हवन किया करते हैं और
दूसरे योगी लोग शब्दादि समस्त विषयों को
इन्द्रिय रूप अग्नियों में हवन किया करते हैं॥26॥

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27

इन्द्रियों का संयमरूपी अग्नि में हवन

सर्वाणीन्द्रियकर्माणि प्राणकर्माणि चापरे।
आत्मसंयमयोगाग्नौ जुह्वति ज्ञानदीपिते॥

दूसरे योगीजन इन्द्रियों की सम्पूर्ण क्रियाओं और
प्राणों की समस्त क्रियाओं को
ज्ञान से प्रकाशित आत्म संयम योगरूप अग्नि में हवन किया करते हैं।

(सच्चिदानंदघन परमात्मा के सिवाय
अन्य किसी का भी न चिन्तन करना ही
उन सबका हवन करना है।)॥27॥

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28

यज्ञ के रुप – द्रव्य, तपस्या, योग, स्वाध्याय

द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे।
स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतयः संशितव्रताः॥

कई पुरुष द्रव्य संबंधी यज्ञ करने वाले हैं,
कितने ही तपस्या रूप यज्ञ करने वाले हैं
तथा दूसरे कितने ही योगरूप यज्ञ करने वाले हैं,
कितने ही अहिंसादि तीक्ष्णव्रतों से युक्त यत्नशील पुरुष
स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञ करने वाले हैं॥28॥

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29-30

यज्ञ के रुप – प्राण अपान का हवन

अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः॥ अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति।
सर्वेऽप्येते यज्ञविदो यज्ञक्षपितकल्मषाः॥

दूसरे कितने ही योगीजन
अपान वायु में प्राणवायु को हवन करते हैं,
वैसे ही अन्य योगीजन प्राणवायु में अपान वायु को हवन करते हैं
तथा अन्य कितने ही नियमित आहार
(गीता अध्याय 6 श्लोक 17 में देखना चाहिए।)
करने वाले प्राणायाम परायण पुरुष
प्राण और अपान की गति को रोककर
प्राणों को प्राणों में ही हवन किया करते हैं।

ये सभी साधक यज्ञों द्वारा
पापों का नाश कर देने वाले और
यज्ञों को जानने वाले हैं॥29-30॥

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31

ऊपर बताए गए यज्ञ क्यों जरूरी है?

यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्‌।
नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम॥

हे कुरुश्रेष्ठ अर्जुन!
यज्ञ से बचे हुए अमृत का अनुभव करने वाले योगीजन
सनातन परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं।

और यज्ञ न करने वाले पुरुष के लिए तो
यह मनुष्यलोक भी सुखदायक नहीं है,
फिर परलोक कैसे सुखदायक हो सकता है?॥31॥

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32

कर्म बंधन से छूटने के लिए – मन, इन्द्रियों का यज्ञ

एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे॥

इसी प्रकार और भी बहुत तरह के यज्ञ
वेद की वाणी में विस्तार से कहे गए हैं।

उन सबको तू
मन, इन्द्रिय और शरीर की क्रिया द्वारा सम्पन्न होने वाले जान,
इस प्रकार तत्व से जानकर
उनके अनुष्ठान द्वारा
तू कर्म बंधन से सर्वथा मुक्त हो जाएगा॥32॥

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33

बाहर के द्रव्ययज्ञ से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ

श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परन्तप।
सर्वं कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते॥

हे परंतप अर्जुन!
द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ अत्यन्त श्रेष्ठ है
तथा यावन्मात्र सम्पूर्ण कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं॥33॥

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34

ज्ञानयज्ञ किससे सीखे?

तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः॥

उस ज्ञान को तू तत्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ,
उनको भलीभाँति दण्डवत्‌ प्रणाम करने से,
उनकी सेवा करने से और
कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से
वे परमात्म तत्व को भलीभाँति जानने वाले ज्ञानी महात्मा
तुझे उस तत्वज्ञान का उपदेश करेंगे॥34॥

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35

ज्ञानयज्ञ से क्या मिलेगा अर्थात उसका फल क्या है?

यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव।
येन भुतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि॥

जिसको जानकर
फिर तू इस प्रकार मोह को नहीं प्राप्त होगा
तथा हे अर्जुन!
जिस ज्ञान द्वारा तू सम्पूर्ण भूतों को
निःशेषभाव से पहले अपने में
(गीता अध्याय 6 श्लोक 29 में देखना चाहिए।) और
पीछे मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्मा में देखेगा।

(गीता अध्याय 6 श्लोक 30 में देखना चाहिए।)॥35॥

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36

ज्ञानयज्ञ सभी पापों से मुक्ति दिला सकता है

अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः।
सर्वं ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि॥

यदि तू अन्य सब पापियों से भी अधिक पाप करने वाला है,
तो भी तू ज्ञान रूप नौका द्वारा
निःसंदेह सम्पूर्ण पाप-समुद्र से भलीभाँति तर जाएगा॥36॥

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37

ज्ञानयज्ञ से कर्म बंधन कट जाते है

यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।
ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा॥

क्योंकि हे अर्जुन!
जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधनों को भस्ममय कर देता है,
वैसे ही ज्ञानरूप अग्नि सम्पूर्ण कर्मों को भस्ममय कर देता है॥37॥

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38

कर्मयोग से अपने आप ही ज्ञान की प्राप्ति

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति॥

इस संसार में
ज्ञान के समान पवित्र करने वाला
निःसंदेह कुछ भी नहीं है।

उस ज्ञान को
कितने ही काल से कर्मयोग द्वारा
शुद्धान्तःकरण हुआ मनुष्य
अपने-आप ही आत्मा में पा लेता है॥38॥

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39

ज्ञान प्राप्त होने के अगले ही क्षण क्या हो जाता है?

श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्धवा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥

जितेन्द्रिय, साधनपरायण और
श्रद्धावान मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है
तथा ज्ञान को प्राप्त होकर वह बिना विलम्ब के
तत्काल ही भगवत्प्राप्तिरूप परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है॥39॥

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40

संशययुक्त, अज्ञानी पुरुष की क्या गति?

अज्ञश्चश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।
नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः॥

विवेकहीन और श्रद्धारहित
संशययुक्त मनुष्य परमार्थ से अवश्य भ्रष्ट हो जाता है।

ऐसे संशययुक्त मनुष्य के लिए
न यह लोक है, न परलोक है और न सुख ही है॥40॥

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41

कौन से पुरुष को कर्म नहीं बाँध सकते?

योगसन्नयस्तकर्माणं ज्ञानसञ्न्निसंशयम्‌।
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय॥

हे धनंजय!
जिसने कर्मयोग की विधि से
समस्त कर्मों का परमात्मा में अर्पण कर दिया है और
जिसने विवेक द्वारा समस्त संशयों का नाश कर दिया है,
ऐसे वश में किए हुए अन्तःकरण वाले पुरुष को कर्म नहीं बाँधते॥41॥

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42

भगववान अर्जुन को समत्वरूप कर्मयोग के लिए कहते है

तस्मादज्ञानसम्भूतं हृत्स्थं ज्ञानासिनात्मनः।
छित्वैनं संशयं योगमातिष्ठोत्तिष्ठ भारत॥

इसलिए हे भरतवंशी अर्जुन!
तू हृदय में स्थित इस अज्ञानजनित अपने संशय का
विवेकज्ञान रूप तलवार द्वारा छेदन करके
समत्वरूप कर्मयोग में स्थित हो जा और युद्ध के लिए खड़ा हो जा॥42॥

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ज्ञानकर्मसंन्यास योग नामक चौथा अध्याय समाप्त

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानकर्मसंन्यास योगो नाम चतुर्थोऽध्यायः॥4॥


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भगवद गीता अध्याय – 5

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भगवद गीता अध्याय की लिस्ट

Meethi Meethi Mere Saanware Ki Murli Baaje – Lyrics in Hindi


मीठी मीठी मेरे सांवरे की मुरली बाजे

मीठी मीठी मेरे सांवरे की,
मुरली बाजे, प्यारी बंसी बाजे।
होकर श्याम की दीवानी,
राधा रानी नाचे॥


छोटो सो कन्हैयो मेरो,
बांसुरी बजावे।
यमुना किनारे देखो,
रास रचावे।

पकड़ी राधे जी की बईया,
देखो घूमर घाले।
होकर श्याम की दीवानी,
राधा रानी नाचे।

मीठी मीठी मेरे सांवरे की,
मुरली बाजे, प्यारी बंसी बाजे।
होकर श्याम की दीवानी,
राधा रानी नाचे॥


छम छम बाजे देखो,
राधे की पैजनियाँ।
नाचे रे कन्हैयो मेरो,
छोड़ के मुरलिया।

राधे संग में नैन लड़ावे,
नाचे सागे सागे।
होकर श्याम की दीवानी,
राधा रानी नाचे॥

मीठी मीठी मेरे सांवरे की,
मुरली बाजे, प्यारी बंसी बाजे।
होकर श्याम की दीवानी,
राधा रानी नाचे॥


प्यारी प्यारी लागे देखो,
जोड़ी राधेश्याम की।
शान है या जान है या,
देखो सारे गाँव की।

राधेश्याम की जोड़ी ने,
हिवड़े माहि राखे,
होकर श्याम की दीवानी,
राधा रानी नाचे॥

मीठी मीठी मेरे सांवरे की,
मुरली बाजे, प्यारी बंसी बाजे।
होकर श्याम की दीवानी,
राधा रानी नाचे॥


बाजे रे मुरलिया देखो,
बाजे रे पैजनियाँ।
भगता ने बनाले तेरे,
गाँव की गुजरिया।

करदे बनवारी यो काम,
तेरो काई लागे।
होकर श्याम की दीवानी,
राधा रानी नाचे॥

मीठी मीठी मेरे सांवरे की,
मुरली बाजे, प्यारी बंसी बाजे।
होकर श्याम की दीवानी,
राधा रानी नाचे॥


Meethi Meethi Mere Saanware Ki Murli Baaje

Saurabh Madhukar


Krishna Bhajan