[आज मंगलवार है, महावीर का वार है, यह सच्चा दरबार है। सच्चे मन से जो कोई ध्यावे, उसका बेडा पार है॥] – (स्थाई – मुखड़ा )
अंतरा
चैत्र सुदी पूनम मंगल का, जन्म वीर ने पाया है। लाल लंगोट गदा हाथ में, सिर पर मुकट सजाया है। शंकर का अवतार है, महावीर का वार है। सच्चे मन से जो कोई ध्यावे, उसका बेडा पार है॥
[आज मंगलवार है….]
ब्रह्मा जी से ब्रह्म ज्ञान का, बल भी तुमने पाया है। राम काज शिवशंकर ने वानर का रूप धारिया है॥ लीला अपरम्पार है, महावीर का वार है। सच्चे मन से जो कोई ध्यावे, उसका बेडा पार है॥
[आज मंगलवार है….]
बालपन में महावीर ने हरदम ध्यान लगाया है। श्रम दिया ऋषियों ने तुमको ब्रह्म ध्यान लगाया है। (Or श्राप दिया ऋषियों ने तुमको, बल का ध्यान भुलाया है।) राम नाम आधार है, महावीर का वार है। सच्चे मन से जो कोई ध्यावे, उसका बेडा पार है॥
[आज मंगलवार है….]
राम जन्म हुआ अयोध्या में, कैसा नाच नचाया है। कहा राम ने लक्ष्मण से, यह वानर मन को भाया है। राम चरण से प्यार है, महावीर का वार है। सच्चे मन से जो कोई ध्यावे, उसका बेडा पार है॥
[आज मंगलवार है….]
पंचवटी से माता को जब रावण लेकर आया है। लंका में जाकर तुमने माता का पता लगाया है। अक्षय को दिया मार है, महावीर का वार है। सच्चे मन से जो कोई ध्यावे, उसका बेडा पार है॥
[आज मंगलवार है….]
मेघनाद ने ब्रह्म-पाश में तुमको जो फंसाया है। ब्रह्म-पाश में फँस करके ब्रह्मा का मान बढाया है। बजरंगी वाकी मार है, महावीर का वार है। सच्चे मन से जो कोई ध्यावे, उसका बेडा पार है॥
[आज मंगलवार है….]
लंका जलाई आपने जब रावण भी घबराया है। श्री राम लखन को आ कर माँ का सन्देश सुनाया है। सीता शोक अपार है, महावीर का वार है। सच्चे मन से जो कोई ध्यावे, उसका बेडा पार है॥
[आज मंगलवार है….]
शक्ति बाण लग्यो लक्ष्मण के बूटी लेने धाये हैं। लाकर बूटी लक्ष्मण जी के तुमने प्राण बचाये हैं। राम लखन से प्यार है, महावीर का वार है। सच्चे मन से जो कोई ध्यावे, उसका बेडा पार है॥
[आज मंगलवार है….]
राम चरण में महावीर ने हरदम ध्यान लगाया है। राम चरण में महावीर ने हरदम ध्यान लगाया है। सीने में राम दरबार है, महावीर का वार है। सच्चे मन से जो कोई ध्यावे, उसका बेडा पार है॥
[आज मंगलवार है….]
आज मंगलवार है, महावीर का वार है, यह सच्चा दरबार है। सच्चे मन से जो कोई ध्यावे, उसका बेडा पार है॥
जो व्यक्ति सच्चे मन से हनुमानजी की आराधना करता है, उसका बेडा पार हो जाता है। अर्थात्, वह सभी दुखों से मुक्त हो जाता है और मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
केवल पूजा-पाठ करना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि उसे सच्चे मन से करना चाहिए। यदि हम सच्चे मन से पूजा-पाठ करते हैं, तो भगवान हमारी प्रार्थना अवश्य सुनते हैं और हमें आशीर्वाद देते हैं।
हनुमानजी ने हमेशा भगवान राम के चरणों में ध्यान लगाया है। अर्थात्, उन्होंने अपना सर्वस्व भगवान राम को समर्पित कर दिया था।
यदि हमारे हृदय में राम नाम का वास है, तो हमें किसी भी प्रकार का भय नहीं रह जाता है। राम नाम ही हमारा आधार है।
इस प्रकार, इन पंक्तियों से हमें भक्ति, सच्चे मन से पूजा-पाठ करने, भगवान के प्रति समर्पण और राम नाम के महत्व की शिक्षा मिलती है।
इन पंक्तियों के आधार पर, हम अपने जीवन में निम्नलिखित बातों को अपनाने का प्रयास कर सकते हैं:
हम सच्चे मन से ईश्वर की आराधना करें। हम ईश्वर के प्रति समर्पित रहें। हम अपने जीवन में राम नाम का जाप करते रहें। यदि हम इन बातों को अपने जीवन में अपनाएंगे, तो हमें ईश्वर का आशीर्वाद प्राप्त होगा और हम अपने जीवन में सुख, शांति और समृद्धि प्राप्त कर सकेंगे।
बुद्धिहीन तनु जानिके – आप तो जानते ही हैं कि मेरा शरीर और बुद्धि निर्बल है
सुमिरो पवन-कुमार – हे पवन कुमार! मैं आपका सुमिरन करता हूं।
(हे पवन कुमार! मैं आपको सुमिरन करता हूं। आप तो जानते ही हैं कि मेरा शरीर और बुद्धि निर्बल है।)
बल बुद्धि विद्या देहु मोहिं – मुझे शारीरिक बल, सद्बुद्धि एवं ज्ञान दीजिए और
हरहु कलेश विकार – मेरे दुखों व दोषों का नाश कर दीजिए।
Chaupai (चौपाई):
जय हनुमान ज्ञान गुण सागर, जय कपीस तिहुं लोक उजागर॥1॥ राम दूत अतुलित बलधामा, अंजनी पुत्र पवन सुत नामा॥2॥
जय हनुमान – श्री हनुमान जी! आपकी जय हो।
ज्ञान गुण सागर – आप ज्ञान और गुणों के अथाह सागर हो।
जय कपीस– हे कपीश्वर! आपकी जय हो!
तिहुं लोक उजागर– तीनों लोकों में (स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल लोक में) आपकी कीर्ति है।
राम दूत अतुलित बलधामा– हे राम दूत हनुमान, आपके समान दूसरा बलवान नहीं है।
अंजनी पुत्र पवन सुत नामा– हे अंजनी पुत्र, हे पवनपुत्र हनुमान, आपकी जय हो!
महावीर विक्रम बजरंगी, कुमति निवार सुमति के संगी॥3॥ कंचन बरन बिराज सुबेसा, कानन कुण्डल कुंचित केसा॥4॥
महावीर विक्रम बजरंगी– हे बजरंग बली! आप महावीर और विशेष पराक्रम वाले है।
कुमति निवार– आप कुमति (खराब बुद्धि) को दूर करते है,
सुमति के संगी– और अच्छी बुद्धि वालों के साथी और सहायक है।
कंचन बरन बिराज सुबेसा– आप सुनहले रंग, सुन्दर वस्त्रों से सुशोभित हैं
कानन कुण्डल कुंचित केसा– आप कानों में कुण्डल और घुंघराले बालों से शोभित हैं।
(आप सुनहले रंग, सुन्दर वस्त्रों, कानों में कुण्डल और घुंघराले बालों से सुशोभित हैं।)
हाथबज्र और ध्वजा विराजे, कांधे मूंज जनेऊ साजै॥5॥ शंकर सुवन केसरी नंदन, तेज प्रताप महा जग वंदन॥6॥
हाथबज्र और ध्वजा विराजे– आपके हाथ में बज्र और ध्वजा है और
कांधे मूंज जनेऊ साजै– कन्धे पर मूंज के जनेऊ की शोभा है।
शंकर सुवन केसरी नंदन– हे शंकर के अवतार! हे केसरी नंदन!
तेज प्रताप महा जग वंदन– आपके महान पराक्रम और यश की संसार भर में वन्दना होती है।
विद्यावान गुणी अति चातुर, राम काज करिबे को आतुर॥7॥ प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया, राम लखन सीता मन बसिया॥8॥
विद्यावान गुणी अति चातुर– आप विद्या निधान और गुणवान है। और अत्यन्त कार्य कुशल होकर
राम काज करिबे को आतुर– श्री राम के काज करने के लिए आतुर रहते है।
(आप विद्या निधान है, गुणवान और अत्यन्त कार्य कुशल होकर श्री राम के काज करने के लिए आतुर रहते है।)
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया– आप श्री राम चरित सुनने में आनन्द रस लेते है।
राम लखन सीता मन बसिया– श्री राम, सीता और लक्ष्मण आपके हृदय में बसे रहते है।
सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा, बिकट रूप धरि लंक जरावा॥9॥ भीम रूप धरि असुर संहारे, रामचन्द्र के काज संवारे॥10॥
सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा– आपने सूक्ष्म रूप (बहुत छोटा रूप) धारण करके सीता जी को दिखलाया और
बिकट रूप धरि– भयंकर रूप धारण करके
लंक जरावा– लंका को जलाया।
भीम रूप धरि– आपने भीम रूप (विकराल रूप) धारण करके
असुर संहारे– राक्षसों को मारा और
रामचन्द्र के काज संवारे– श्री रामचन्द्र जी के उद्देश्यों को सफल कराया।
लाय सजीवन लखन जियाये, श्री रघुवीर हरषि उर लाये॥11॥ रघुपति कीन्हीं बहुत बड़ाई, तुम मम प्रिय भरत सम भाई॥12॥
लाय सजीवन लखन जियाये– आपने संजीवनी बूटी लाकर लक्ष्मण जी को जिलाया
श्री रघुवीर हरषि उर लाये– जिससे श्री रघुवीर ने हर्षित होकर आपको हृदय से लगा लिया।
रघुपति कीन्हीं बहुत बड़ाई– श्री रामचन्द्र ने आपकी बहुत प्रशंसा की
तुम मम प्रिय भरत सम भाई– और कहा कि तुम मेरे भरत जैसे प्यारे भाई हो।
सहस बदन तुम्हरो जस गावैं, अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं॥13॥ सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा, नारद, सारद सहित अहीसा॥14॥
सहस बदन तुम्हरो जस गावैं।– तुम्हारा यश हजार मुख से सराहनीय है
अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं– यह कहकर श्री राम ने आपको हृदय से लगा लिया।
(श्री राम ने आपको यह कहकर हृदय से लगा लिया की तुम्हारा यश हजार मुख से सराहनीय है।)
सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा– श्री सनक, श्री सनातन, श्री सनन्दन, श्री सनत-कुमार आदि मुनि, ब्रह्मा आदि देवता और
नारद, सारद सहित अहीसा– नारद जी, सरस्वती जी, शेषनाग जी सब आपका गुण गान करते है।
(सनकादिक ऋषि ब्रह्माजी के चार मानस पुत्र हैं। पुराणों में उनकी विशेष महत्ता है। ब्रह्माजी ने सर्वप्रथम चार पुत्रों का सृजन किया था – सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार। ये चारों सनकादिक ऋषि कहलाते हैं।)
जम कुबेर दिगपाल जहां ते, कबि कोबिद कहि सके कहां ते॥15॥ तुम उपकार सुग्रीवहि कीन्हा, राम मिलाय राजपद दीन्हा॥16॥
जम कुबेर दिगपाल जहां ते– यमराज, कुबेर आदि सब दिशाओं के रक्षक,
कबि कोबिद कहि सके कहां ते– कवि विद्वान, पंडित या कोई भी आपके यश का पूर्णतः वर्णन नहीं कर सकते।
तुम उपकार सुग्रीवहि कीन्हा– आपने सुग्रीव जी पर उपकार किया
राम मिलाय राजपद दीन्हा – उन्हें श्रीराम से मिलाया, जिसके कारण वे राजा बने।
(आपने सुग्रीव जी को श्रीराम से मिलाकर उपकार किया, जिसके कारण वे राजा) बने।
तुम्हरो मंत्र विभीषण माना, लंकेस्वर भए सब जग जाना॥17॥ जुग सहस्त्र जोजन पर भानू, लील्यो ताहि मधुर फल जानू॥18॥
तुम्हरो मंत्र विभीषण माना– आपके उपदेश का विभिषण ने पालन किया
लंकेस्वर भए सब जग जाना– जिससे वे लंका के राजा बने, इसको सब संसार जानता है।
जुग सहस्त्र जोजन पर भानू– जो सूर्य इतने योजन दूरी पर है कि उस पर पहुंचने के लिए कई वर्ष लगते है।
लील्यो ताहि मधुर फल जानू– उस सूर्य को (जो दो हजार योजन की दूरी पर स्थित है) आपने एक मीठा फल समझकर निगल लिया।
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहि– आपने श्री रामचन्द्र जी की अंगूठी मुंह में रखकर
जलधि लांघि गये अचरज नाहीं– समुद्र को लांघ लिया, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है।
दुर्गम काज जगत के जेते– संसार में जितने भी कठिन से कठिन काम हो,
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते– वो आपकी कृपा से सहज हो जाते है।
(संसार में जितने भी कठिन से कठिन काम हो, वो आपकी कृपा से सहज हो जाते है।)
राम दुआरे तुम रखवारे, होत न आज्ञा बिनु पैसा रे॥21॥ सब सुख लहै तुम्हारी सरना, तुम रक्षक काहू को डरना ॥22॥
राम दुआरे तुम रखवारे– श्री रामचन्द्र जी के द्वार के आप रखवाले है,
होत न आज्ञा बिनु पैसा रे– जिसमें आपकी आज्ञा बिना किसी को प्रवेश नहीं मिलता है।
(अर्थात् आपकी प्रसन्नता के बिना श्री राम कृपा दुर्लभ है)
सब सुख लहै तुम्हारी सरना– जो भी आपकी शरण में आते है, उस सभी को आनन्द प्राप्त होता है, और
तुम रक्षक काहू को डरना– जब आप रक्षक है, तो फिर किसी का डर नहीं रहता।
आपन तेज सम्हारो आपै, तीनों लोक हांक तें कांपै॥23॥ भूत पिशाच निकट नहिं आवै, महावीर जब नाम सुनावै॥24॥
आपन तेज सम्हारो आपै– आपके सिवाय आपके वेग को कोई नहीं रोक सकता,
तीनों लोक हांक तें कांपै– आपकी गर्जना से तीनों लोक कांप जाते है।
भूत पिशाच निकट नहिं आवै– वहां भूत, पिशाच पास भी नहीं फटक सकते।
महावीर जब नाम सुनावै– जहां महावीर हनुमान जी का नाम सुनाया जाता है,
(जहां हनुमानजी का नाम सुनाया जाता है, वहां भूत, पिशाच पास नहीं फटक सकते।)
नासै रोग हरै सब पीरा, जपत निरंतर हनुमत बीरा ॥25॥ संकट तें हनुमान छुड़ावै, मन क्रम बचन ध्यान जो लावै॥26॥
नासै रोग हरै सब पीरा– सब रोग चले जाते है और सब पीड़ा मिट जाती है
जपत निरंतर हनुमत बीरा– जब मनुष्य वीर हनुमान जी का निरंतर जप करता है।
(वीर हनुमान जी! आपका निरंतर जप करने से सब रोग चले जाते है और सब पीड़ा मिट जाती है।)
संकट तें हनुमान छुड़ावै– सब संकटों से हनुमानजी छुड़ाते है।
मन क्रम बचन ध्यान जो लावै– जब मनुष्य विचार करने में, कर्म करने में और बोलने में हनुमानजी का ध्यान रखता है।
(हे हनुमान जी! विचार करने में, कर्म करने में और बोलने में, जिनका ध्यान आपमें रहता है, उनको सब संकटों से आप छुड़ाते है।)
सब पर राम तपस्वी राजा, तिनके काज सकल तुम साजा॥27॥ और मनोरथ जो कोइ लावै, सोई अमित जीवन फल पावै॥28॥
सब पर राम तपस्वी राजा– तपस्वी राजा प्रभु श्री राम सबसे श्रेष्ठ है,
तिनके काज सकल तुम साजा– उनके सब कार्यों को आपने सहज में कर दिया।
और मनोरथ जो कोइ लावै– जिस पर आपकी कृपा हो, वह कोई भी अभिलाषा करें
सोई अमित जीवन फल पावै– तो उसे ऐसा फल मिलता है जिसकी जीवन में कोई सीमा नहीं होती।
(जिस पर आपकी कृपा हो, वह कोई भी अभिलाषा करें तो उसे ऐसा फल मिलता है जिसकी जीवन में कोई सीमा नहीं होती।)
चारों जुग परताप तुम्हारा, है परसिद्ध जगत उजियारा॥29॥ साधु सन्त के तुम रखवारे, असुर निकंदन राम दुलारे॥30॥
चारों जुग परताप तुम्हारा– चारो युगों में (सतयुग, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग में) आपका यश फैला हुआ है,
है परसिद्ध जगत उजियारा– जगत में आपकी कीर्ति सर्वत्र प्रकाशमान है।
साधु सन्त के तुम रखवारे– आप सज्जनों की रक्षा करते है
असुर निकंदन राम दुलारे– और हे श्री राम के दुलारे! आप दुष्टों का नाश करते हो।
(हे श्री राम के दुलारे! आप सज्जनों की रक्षा करते है और दुष्टों का नाश करते है।)
अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता, अस बर दीन जानकी माता॥31॥ राम रसायन तुम्हरे पासा, सदा रहो रघुपति के दासा॥32॥
अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता– आप किसी को भी आठों सिद्धियां और नौ निधियां दे सकते
अस बर दीन जानकी माता– ऐसा वरदान आपको माता श्री जानकी से मिला हुआ है,
(आपको माता श्री जानकी से ऐसा वरदान मिला हुआ है, जिससे आप किसी को भी आठों सिद्धियां और नौ निधियां दे सकते है।) आठ सिद्धियां: 1.) अणिमा- जिससे साधक किसी को दिखाई नहीं पड़ता और कठिन से कठिन पदार्थ में प्रवेश कर जाता है। 2.) महिमा- जिसमें योगी अपने को बहुत बड़ा बना देता है। 3.) गरिमा- जिससे साधक अपने को चाहे जितना भारी बना लेता है। 4.) लघिमा- जिससे जितना चाहे उतना हल्का बन जाता है। 5.) प्राप्ति- जिससे इच्छित पदार्थ की प्राप्ति होती है। 6.) प्राकाम्य- जिससे इच्छा करने पर वह पृथ्वी में समा सकता है, आकाश में उड़ सकता है। 7.) ईशित्व- जिससे सब पर शासन का सामर्थ्य हो जाता है। 8.) वशित्व- जिससे दूसरों को वश में किया जाता है।
राम रसायन तुम्हरे पासा– आपके पास असाध्य रोगों के नाश के लिए राम नाम औषधि है।
सदा रहो रघुपति के दासा– आप निरंतर श्री रघुनाथ जी की शरण में रहते है।
(आप निरंतर श्री रघुनाथ जी की शरण में रहते है, जिससे आपके पास असाध्य रोगों के नाश के लिए राम नाम औषधि है।)
तुम्हरे भजन राम को पावै, जनम जनम के दुख बिसरावै॥33॥ अन्त काल रघुबर पुर जाई, जहां जन्म हरि भक्त कहाई॥34॥
तुम्हरे भजन राम को पावै– आपका भजन करने से श्री राम जी प्राप्त होते है और
जनम जनम के दुख बिसरावै– जन्म जन्मांतर के दुख दूर होते है।
अन्त काल रघुबर पुर जाई– अंत समय श्री रघुनाथ जी के धाम को जाते है और
जहां जन्म हरि भक्त कहाई– यदि फिर भी जन्म लेंगे तो भक्ति करेंगे और श्री राम भक्त कहलाएंगे।
और देवता चित न धरई, हनुमत सेई सर्व सुख करई॥35॥ संकट कटै मिटै सब पीरा, जो सुमिरै हनुमत बलबीरा॥36॥
और देवता चित न धरई– अन्य किसी देवता की आवश्यकता नहीं रहती, जब
हनुमत सेई सर्व सुख करई– हनुमान जी की सेवा करने से सब प्रकार के सुख मिलते है।
(हे हनुमान जी! आपकी सेवा करने से सब प्रकार के सुख मिलते है, फिर अन्य किसी देवता की आवश्यकता नहीं रहती।)
संकट कटै मिटै सब पीरा– सब संकट कट जाते है और सब पीड़ा मिट जाती है।
जो सुमिरै हनुमत बलबीरा– जो हनुमानजी का सुमिरन करता रहता है।
(हे वीर हनुमान जी! जो आपका सुमिरन करता रहता है, उसके सब संकट कट जाते है और सब पीड़ा मिट जाती है।)
जय जय जय हनुमान गोसाईं, कृपा करहु गुरु देव की नाई॥37॥ जो सत बार पाठ कर कोई, छूटहि बंदि महा सुख होई॥38॥
जय जय जय हनुमान गोसाईं– हे स्वामी हनुमान जी! आपकी जय हो, जय हो, जय हो!
कृपा करहु गुरु देव की नाई– आप मुझ पर श्री गुरुजी के समान कृपा कीजिए।
जो सत बार पाठ कर कोई– जो कोई इस हनुमान चालीसा का सौ बार पाठ करेगा
छूटहि बंदि महा सुख होई– वह सब बंधनों से छूट जाएगा और उसे परम सुख की प्राप्ति होगी।
(जो कोई इस हनुमान चालीसा का सौ बार पाठ करेगा वह सब बंधनों से छूट जाएगा और उसे परमानन्द मिलेगा।)
जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा, होय सिद्धि साखी गौरीसा॥39॥ तुलसीदास सदा हरि चेरा, कीजै नाथ हृदय मंह डेरा॥40॥
जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा– जो यह हनुमान चालीसा पढ़ेगा
होय सिद्धि साखी गौरीसा– उसे निश्चय ही सफलता प्राप्त होगी। भगवान शंकर ने यह हनुमान चालीसा लिखवाया, इसलिए वे साक्षी है।
(भगवान शंकर ने यह हनुमान चालीसा लिखवाया, इसलिए वे साक्षी है, कि जो इसे पढ़ेगा उसे निश्चय ही सफलता प्राप्त होगी।)
तुलसीदास सदा हरि चेरा– हे नाथ हनुमान जी! तुलसीदास सदा ही श्री राम का दास है।
कीजै नाथ हृदय मंह डेरा– इसलिए आप उसके हृदय में निवास कीजिए।
सुंदरकाण्ड रामायण और रामचरितमानस का एक सोपान (भाग) है। हनुमानजी की शक्ति और सफलता के लिए सुंदरकाण्ड को याद किया जाता है।
इस सोपान के मुख्य घटनाक्रम है – हनुमानजी का लंका की ओर प्रस्थान, विभीषण से भेंट, सीताजी से भेंट करके उन्हें श्री राम की मुद्रिका देना, अक्षय कुमार का वध, लंका दहन और लंका से वापसी।
महाकाव्य रामायण में सुंदरकांड की कथा सबसे अलग है। संपूर्ण रामायण कथा श्रीराम के गुणों और उनके पुरुषार्थ को दर्शाती है। किन्तु सुंदरकांड एकमात्र ऐसा अध्याय है, जो सिर्फ हनुमानजी की शक्ति और विजय का कांड है।
हनुमानजी का सीता शोध के लिए लंका प्रस्थान
चौपाई (Chaupai – Sunderkand)
जामवंत के बचन सुहाए। सुनि हनुमंत हृदय अति भाए॥ तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई। सहि दुख कंद मूल फल खाई॥
जाम्बवान के सुहावने वचन सुनकर हनुमानजी को अपने मन में वे वचन बहुत अच्छे लगे॥ और हनुमानजी ने कहा की हे भाइयो! आप लोग कन्द, मूल व फल खा, दुःख सह कर मेरी राह देखना॥
जबतक मै सीताजीको देखकर लौट न आऊँ, क्योंकि कार्य सिद्ध होने पर मन को बड़ा हर्ष होगा॥
ऐसे कह, सबको नमस्कार करके, रामचन्द्रजी का ह्रदय में ध्यान धरकर, प्रसन्न होकर हनुमानजी लंका जाने के लिए चले॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
सिंधु तीर एक भूधर सुंदर। कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर॥ बार-बार रघुबीर सँभारी। तरकेउ पवनतनय बल भारी॥
समुद्र के तीर पर एक सुन्दर पहाड़ था। उसपर कूदकर हनुमानजी कौतुकी से चढ़ गए॥ फिर वारंवार रामचन्द्रजी का स्मरण करके, बड़े पराक्रम के साथ हनुमानजी ने गर्जना की॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता। चलेउ सो गा पाताल तुरंता॥ जिमि अमोघ रघुपति कर बाना। एही भाँति चलेउ हनुमाना॥
जिस पहाड़ पर हनुमानजी ने पाँव रखे थे, वह पहाड़ तुरंत पाताल के अन्दर चला गया॥ और जैसे श्रीरामचंद्रजी का अमोघ बाण जाता है, ऐसे हनुमानजी वहा से चले॥
समुद्र ने हनुमानजी को श्रीराम (रघुनाथ) का दूत जानकर मैनाक नाम पर्वत से कहा की हे मैनाक, तू जा, और इनको ठहरा कर श्रम मिटानेवाला हो॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
मैनाक पर्वत की हनुमानजी से विनती
सोरठा – Sunderkand
सिन्धुवचन सुनी कान, तुरत उठेउ मैनाक तब। कपिकहँ कीन्ह प्रणाम, बार बार कर जोरिकै॥
समुद्रके वचन कानो में पड़तेही मैनाक पर्वत वहांसे तुरंत उठा और हनुमानजीके पास आकर वारंवार हाथ जोड़कर उसने हनुमानजीको प्रणाम किया॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
दोहा (Doha – Sunderkand)
हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम। राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम ॥1॥
हनुमानजी ने उसको अपने हाथसे छूकर फिर उसको प्रणाम किया, और कहा की, रामचन्द्रजीका का कार्य किये बिना मुझको विश्राम कहा है? ॥1॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
हनुमानजीकी सुरसा से भेंट
चौपाई (Chaupai – Sunderkand)
जात पवनसुत देवन्ह देखा। जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा॥ सुरसा नाम अहिन्ह कै माता। पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता॥
हनुमानजी को जाते देखकर उसके बल और बुद्धि के वैभव को जानने के लिए देवताओं ने नाग माता सुरसा को भेजा। उस नागमाताने आकर हनुमानजी से यह बात कही॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा। सुनत बचन कह पवनकुमारा॥ राम काजु करि फिरि मैं आवौं। सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं॥
आज तो मुझको देवताओं ने यह अच्छा आहार दिया। यह बात सुन हँस कर, हनुमानजी बोले॥ – मैं रामचन्द्रजी का काम करके लौट आऊ और सीताजी की खबर रामचन्द्रजी को सुना दूं॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
तब तव बदन पैठिहउँ आई। सत्य कहउँ मोहि जान दे माई॥ कवनेहुँ जतन देइ नहिं जाना। ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना॥
फिर हे माता! मै आकर आपके मुँह में प्रवेश करूंगा। अभी तू मुझे जाने दे। इसमें कुछभी फर्क नहीं पड़ेगा। मै तुझे सत्य कहता हूँ॥ जब उसने किसी उपायसे उनको जाने नहीं दिया, तब हनुमानजी ने कहा कि तू क्यों देरी करती है? तू मुझको नही खा सकती॥
सुरसाने अपना मुंह एक योजनभरमें फैलाया। हनुमानजी ने अपना शरीर दो योजन विस्तारवाला किया॥ सुरसा ने अपना मुँह सोलह (१६) योजनमें फैलाया। हनुमानजीने अपना शरीर तुरंत बत्तीस (३२) योजन बड़ा किया॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
जस जस सुरसा बदनु बढ़ावा। तासु दून कपि रूप देखावा॥ सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा। अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा॥
सुरसा ने जैसा जैसा मुंह फैलाया, हनुमानजीने वैसेही अपना स्वरुप उससे दुगना दिखाया॥ जब सुरसा ने अपना मुंह सौ योजन (चार सौ कोस का) में फैलाया, तब हनुमानजी तुरंत बहुत छोटा स्वरुप धारण कर॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
बदन पइठि पुनि बाहेर आवा। मागा बिदा ताहि सिरु नावा॥ मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा। बुधि बल मरमु तोर मैं पावा॥
उसके मुंहमें पैठ कर (घुसकर) झट बाहर चले आए। फिर सुरसा से विदा मांग कर हनुमानजी ने प्रणाम किया॥ उस वक़्त सुरसा ने हनुमानजी से कहा की हे हनुमान! देवताओंने मुझको जिसके लिए भेजा था, वह तेरा बल और बुद्धि का भेद मैंने अच्छी तरह पा लिया है॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
दोहा (Doha – Sunderkand)
राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान। आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान ॥2॥
तुम बल और बुद्धि के भण्डार हो, सो श्रीरामचंद्रजी के सब कार्य सिद्ध करोगे। ऐसे आशीर्वाद देकर सुरसा तो अपने घर को चली, और हनुमानजी प्रसन्न होकर लंकाकी ओर चले ॥2॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
हनुमानजी की छाया पकड़ने वाले राक्षस से भेंट
चौपाई (Chaupai – Sunderkand)
निसिचरि एक सिंधु महुँ रहई। करि माया नभु के खग गहई॥ जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं। जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं॥
समुद्र के अन्दर एक राक्षस रहता था। सो वह माया करके आकाशचारी पक्षी और जंतुओको पकड़ लिया करता था॥ जो जीवजन्तु आकाश में उड़कर जाता, उसकी परछाई जल में देखकर, परछाई को जल में पकड़ लेता॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई। एहि बिधि सदा गगनचर खाई॥ सोइ छल हनूमान कहँ कीन्हा। तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा॥
परछाई को जल में पकड़ लेता, जिससे वह जिव जंतु फिर वहा से सरक नहीं सकता। इसतरह वह हमेशा आकाशचारी जिवजन्तुओ को खाया करता था॥ उसने वही कपट हनुमानसे किया। हनुमान ने उसका वह छल तुरंत पहचान लिया॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
ताहि मारि मारुतसुत बीरा। बारिधि पार गयउ मतिधीरा॥ तहाँ जाइ देखी बन सोभा। गुंजत चंचरीक मधु लोभा॥
धीर बुद्धिवाले पवनपुत्र वीर हनुमानजी उसे मारकर समुद्र के पार उतर गए॥ वहा जाकर हनुमानजी वन की शोभा देखते है कि भ्रमर मकरंद के लोभसे गुँजाहट कर रहे है॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
हनुमानजी लंका पहुंचे
नाना तरु फल फूल सुहाए। खग मृग बृंद देखि मन भाए॥ सैल बिसाल देखि एक आगें। ता पर धाइ चढ़ेउ भय त्यागें॥
अनेक प्रकार के वृक्ष फल और फूलोसे शोभायमान हो रहे है। पक्षी और हिरणोंका झुंड देखकर मन मोहित हुआ जाता है॥ वहा सामने हनुमान एक बड़ा विशाल पर्वत देखकर निर्भय होकर उस पहाड़पर कूदकर चढ़ बैठे॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
उमा न कछु कपि कै अधिकाई। प्रभु प्रताप जो कालहि खाई॥ गिरि पर चढ़ि लंका तेहिं देखी। कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी॥
महदेव जी कहते है कि हे पार्वती! इसमें हनुमान की कुछ भी अधिकता नहीं है। यह तो केवल एक रामचन्द्रजीके ही प्रताप का प्रभाव है कि जो कालकोभी खा जाता है॥ पर्वत पर चढ़कर हनुमानजी ने लंका को देखा, तो वह ऐसी बड़ी दुर्गम है की जिसके विषय में कुछ कहा नहीं जा सकता॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
अति उतंग जलनिधि चहु पासा। कनक कोट कर परम प्रकासा॥
पहले तो वह पुरी बहुत ऊँची, फिर उसके चारो ओर समुद्र की खाई। उसपर भी सुवर्णके कोटका महाप्रकाश कि जिससे नेत्र चकाचौंध हो जावे॥
उस नगरीका रत्नों से जड़ा हुआ सुवर्ण का कोट अतिव सुन्दर बना हुआ है। चौहटे, दुकाने व सुन्दर गलियों के बहार उस सुन्दर नगरी के अन्दर बनी है॥ जहा हाथी, घोड़े, खच्चर, पैदल व रथोकी गिनती कोई नहीं कर सकता। और जहा महाबली अद्भुत रूपवाले राक्षसोके सेनाके झुंड इतने है की जिसका वर्णन किया नहीं जा सकता॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं। नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं॥ कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं। नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं॥
जहा वन, बाग़, बागीचे, बावडिया, तालाब, कुएँ, बावलिया शोभायमान हो रही है। जहां मनुष्यकन्या, नागकन्या, देवकन्या और गन्धर्वकन्याये विराजमान हो रही है – जिनका रूप देखकर मुनिलोगोका मन मोहित हुआ जाता है॥ कही पर्वत के समान बड़े विशाल देहवाले महाबलिष्ट मल्ल गर्जना करते है और अनेक अखाड़ों में अनेक प्रकारसे भिड रहे है और एक एकको आपस में पटक पटक कर गर्जना कर रहे है॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं। कहुँ महिष मानुष धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं॥ एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही। रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही॥
जहा कही विकट शरीर वाले करोडो भट चारो तरफसे नगरकी रक्षा करते है और कही वे राक्षस लोग भैंसे, मनुष्य, गौ, गधे, बकरे और पक्षीयोंको खा रहे है॥ राक्षस लोगो का आचरण बहुत बुरा है। इसीलिए तुलसीदासजी कहते है कि मैंने इनकी कथा बहुत संक्षेपसे कही है। ये महादुष्ट है, परन्तु रामचन्द्रजीके बानरूप पवित्र तीर्थनदीके अन्दर अपना शरीर त्यागकर गति अर्थात मोक्षको प्राप्त होंगे॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
दोहा (Doha – Sunderkand)
पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार। अति लघु रूप धरों निसि नगर करौं पइसार ॥3॥
हनुमानजी ने बहुत से रखवालो को देखकर मन में विचार किया की मै छोटा रूप धारण करके नगर में प्रवेश करूँ ॥3॥
बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं। नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं॥ कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं। नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं॥
करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं। कहुँ महिष मानुष धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं॥ एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही। रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही॥
दोहा (Doha – Sunderkand)
पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार। अति लघु रूप धरों निसि नगर करौं पइसार ॥3॥
श्री राम, जय राम, जय जय राम
हनुमानजी की लंकिनी से भेंट
चौपाई (Chaupai – Sunderkand)
मसक समान रूप कपि धरी। लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी॥ नाम लंकिनी एक निसिचरी। सो कह चलेसि मोहि निंदरी॥
जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा। मोर अहार जहाँ लगि चोरा॥ मुठिका एक महा कपि हनी। रुधिर बमत धरनीं ढनमनी॥
पुनि संभारि उठी सो लंका। जोरि पानि कर बिनय ससंका॥ जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा। चलत बिरंच कहा मोहि चीन्हा॥
बिकल होसि तैं कपि कें मारे। तब जानेसु निसिचर संघारे॥ तात मोर अति पुन्य बहूता। देखेउँ नयन राम कर दूता॥
दोहा (Doha – Sunderkand)
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग। तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग ॥4॥