शिव पुराण - विद्येश्वर संहिता - 8


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तीर्थ, पुण्यक्षेत्र और पवित्र नदियों का वर्णन

मोक्षदायक पुण्यक्षेत्रोंका वर्णन, कालविशेषमें विभिन्न नदियोंके जलमें स्नानके उत्तम फलका निर्देश तथा तीर्थोंमें पापसे बचे रहनेकी चेतावनी

सूतजी बोले – विद्वान् एवं बुद्धिमान् महर्षियो! मोक्षदायक शिवक्षेत्रोंका वर्णन सुनो।

तत्पश्चात् मैं लोकरक्षाके लिये शिवसम्बन्धी आगमोंका वर्णन करूँगा।

पर्वत, वन और काननोंसहित इस पृथ्वीका विस्तार पचास करोड़ योजन है।

भगवान् शिवकी आज्ञासे पृथ्वी सम्पूर्ण जगत् को धारण करके स्थित है।

भगवान् शिवने भूतलपर विभिन्न स्थानोंमें वहाँ-वहाँके निवासियोंको कृपापूर्वक मोक्ष देनेके लिये शिवक्षेत्रका निर्माण किया है।

कुछ क्षेत्र ऐसे हैं, जिन्हें देवताओं तथा ऋषियोंने अपना वासस्थान बनाकर अनुगृहीत किया है।

इसीलिये उनमें तीर्थत्व प्रकट हो गया है तथा अन्य बहुत-से तीर्थक्षेत्र ऐसे हैं, जो लोकोंकी रक्षाके लिये स्वयं प्रादुर्भूत हुए हैं।

तीर्थ और क्षेत्रमें जानेपर मनुष्यको सदा स्नान, दान और जप आदि करना चाहिये; अन्यथा वह रोग, दरिद्रता तथा मूकता आदि दोषोंका भागी होता है।

जो मनुष्य इस भारतवर्षके भीतर मृत्युको प्राप्त होता है, वह अपने पुण्यके फलसे ब्रह्मलोकमें वास करके पुण्यक्षयके पश्चात् पुनः मनुष्य-योनिमें ही जन्म लेता है।

(पापी मनुष्य पाप करके दुर्गतिमें ही पड़ता है।) ब्राह्मणो! पुण्य-क्षेत्रमें पापकर्म किया जाय तो वह और भी दृढ़ हो जाता है।

अतः पुण्यक्षेत्रमें निवास करते समय सूक्ष्म-से-सूक्ष्म अथवा थोड़ा-सा भी पाप न करे।* सिन्धु और शतद्रू (सतलज) नदीके तटपर बहुत-से पुण्यक्षेत्र हैं।

सरस्वती नदी परम पवित्र और साठ मुखवाली कही गयी है अर्थात् उसकी साठ धाराएँ हैं।

विद्वान् पुरुष सरस्वतीके उन-उन धाराओंके तटपर निवास करे तो वह क्रमशः ब्रह्मपदको पा लेता है।

हिमालय पर्वतसे निकली हुई पुण्यसलिला गंगा सौ मुखवाली नदी है, उसके तटपर काशी-प्रयाग आदि अनेक पुण्यक्षेत्र हैं।

वहाँ मकरराशिके सूर्य होनेपर गंगाकी तटभूमि पहलेसे भी अधिक प्रशस्त एवं पुण्यदायक हो जाती है।

शोणभद्र नदकी दस धाराएँ हैं, वह बृहस्पतिके मकरराशिमें आनेपर अत्यन्त पवित्र तथा अभीष्ट फल देनेवाला हो जाता है।

उस समय वहाँ स्नान और उपवास करनेसे विनायकपदकी प्राप्ति होती है।

पुण्यसलिला महानदी नर्मदाके चौबीस मुख (स्रोत) हैं।

उसमें स्नान तथा उसके तटपर निवास करनेसे मनुष्यको वैष्णवपदकी प्राप्ति होती है।

तमसाके बारह तथा रेवाके दस मुख हैं।

परम पुण्यमयी गोदावरीके इक्कीस मुख बताये गये हैं।

वह ब्रह्महत्या तथा गोवधके पापका भी नाश करनेवाली एवं रुद्रलोक देनेवाली है।

कृष्णवेणी नदीका जल बड़ा पवित्र है।

वह नदी समस्त पापोंका नाश करनेवाली है।

उसके अठारह मुख बताये गये हैं तथा वह विष्णुलोक प्रदान करनेवाली है।

तुंगभद्राके दस मुख हैं।

वह ब्रह्मलोक देनेवाली है।

पुण्यसलिला सुवर्ण-मुखरीके नौ मुख कहे गये हैं।

ब्रह्मलोकसे लौटे हुए जीव उसीके तटपर जन्म लेते हैं।

सरस्वती नदी, पम्पासरोवर, कन्याकुमारी अन्तरीप तथा शुभकारक श्वेत नदी – ये सभी पुण्यक्षेत्र हैं।

इनके तटपर निवास करनेसे इन्द्रलोककी प्राप्ति होती है।

सह्य पर्वतसे निकली हुई महानदी कावेरी परम पुण्यमयी है।

उसके सत्ताईस मुख बताये गये हैं।

वह सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओंको देनेवाली है।

उसके तट स्वर्गलोककी प्राप्ति करानेवाले तथा ब्रह्मा और विष्णुका पद देनेवाले हैं।

कावेरीके जो तट शैवक्षेत्रके अन्तर्गत हैं, वे अभीष्ट फल देनेके साथ ही शिवलोक प्रदान करनेवाले भी हैं।

नैमिषारण्य तथा बदरिकाश्रममें सूर्य और बृहस्पतिके मेषराशिमें आनेपर यदि स्नान करे तो उस समय वहाँ किये हुए स्नान-पूजन आदिको ब्रह्मलोककी प्राप्ति करानेवाला जानना चाहिये।

सिंह और कर्कराशिमें सूर्यकी संक्रान्ति होनेपर सिन्धु नदीमें किया हुआ स्नान तथा केदार तीर्थके जलका पान एवं स्नान ज्ञानदायक माना गया है।

जब बृहस्पति सिंहराशिमें स्थित हों, उस समय सिंहकी संक्रान्तिसे युक्त भाद्रपदमासमें यदि गोदावरीके जलमें स्नान किया जाय तो वह शिवलोककी प्राप्ति करानेवाला होता है, ऐसा पूर्वकालमें स्वयं भगवान् शिवने कहा था।

जब सूर्य और बृहस्पति कन्याराशिमें स्थित हों, तब यमुना और शोणभद्रमें स्नान करे।

वह स्नान धर्मराज तथा गणेशजीके लोकमें महान् भोग प्रदान करानेवाला होता है, यह महर्षियोंकी मान्यता है।

जब सूर्य और बृहस्पति तुलाराशिमें स्थित हों, उस समय कावेरी नदीमें स्नान करे।

वह स्नान भगवान् विष्णुके वचनकी महिमासे सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओंको देनेवाला माना गया है।

जब सूर्य और बृहस्पति वृश्चिकराशिपर आ जायँ, तब मार्गशीर्ष (अगहन)-के महीनेमें नर्मदामें स्नान करनेसे श्रीविष्णुलोककी प्राप्ति हो सकती है।

सूर्य और बृहस्पतिके धनराशिमें स्थित होनेपर सुवर्णमुखरी नदीमें किया हुआ स्नान शिवलोक प्रदान करानेवाला होता है, जैसा कि ब्रह्माजीका वचन है।

जब सूर्य और बृहस्पति मकरराशिमें स्थित हों, उस समय माघमासमें गंगाजीके जलमें स्नान करना चाहिये।

ब्रह्माजीका कथन है कि वह स्नान शिवलोककी प्राप्ति करानेवाला होता है।

शिवलोकके पश्चात् ब्रह्मा और विष्णुके स्थानोंमें सुख भोगनेपर अन्तमें मनुष्यको ज्ञानकी प्राप्ति हो जाती है।

माघमासमें तथा सूर्यके कुम्भराशिमें स्थित होनेपर फाल्गुनमासमें गंगाजीके तटपर किया हुआ श्राद्ध, पिण्डदान अथवा तिलोदक-दान पिता और नाना दोनों कुलोंके पितरोंकी अनेकों पीढ़ियोंका उद्धार करनेवाला माना गया है।

सूर्य और बृहस्पति जब मीनराशिमें स्थित हों, तब कृष्णवेणी नदीमें किये गये स्नानकी ऋषियोंने प्रशंसा की है।

उन-उन महीनोंमें पूर्वोक्त तीर्थोंमें किया हुआ स्नान इन्द्रपदकी प्राप्ति करानेवाला होता है।

विद्वान् पुरुष गंगा अथवा कावेरी नदीका आश्रय लेकर तीर्थवास करे।

ऐसा करनेसे तत्काल किये हुए पापका निश्चय ही नाश हो जाता है।

रुद्रलोक प्रदान करनेवाले बहुत-से क्षेत्र हैं।

ताम्रपर्णी और वेगवती – ये दोनों नदियाँ ब्रह्मलोककी प्राप्तिरूप फल देनेवाली हैं।

इन दोनोंके तटपर कितने ही स्वर्गदायक क्षेत्र हैं।

इन दोनोंके मध्यमें बहुत-से पुण्यप्रद क्षेत्र हैं।

वहाँ निवास करनेवाला विद्वान् पुरुष वैसे फलका भागी होता है।

सदाचार, उत्तम वृत्ति तथा सद्भावनाके साथ मनमें दयाभाव रखते हुए विद्वान् पुरुषको तीर्थमें निवास करना चाहिये।

अन्यथा उसका फल नहीं मिलता।

पुण्यक्षेत्रमें किया हुआ थोड़ा-सा पुण्य भी अनेक प्रकारसे वृद्धिको प्राप्त होता है तथा वहाँ किया हुआ छोटा-सा पाप भी महान् हो जाता है।

यदि पुण्यक्षेत्रमें रहकर ही जीवन बितानेका निश्चय हो तो उस पुण्यसंकल्पसे उसका पहलेका सारा पाप तत्काल नष्ट हो जायगा; क्योंकि पुण्यको ऐश्वर्यदायक कहा गया है।

ब्राह्मणो! तीर्थवासजनित पुण्य कायिक, वाचिक और मानसिक सारे पापोंका नाश कर देता है।

तीर्थमें किया हुआ मानसिक पाप वज्रलेप हो जाता है।

वह कई कल्पों-तक पीछा नहीं छोड़ता है।* वैसा पाप केवल ध्यानसे ही नष्ट होता है, अन्यथा नहीं।

वाचिक पाप जपसे तथा कायिक पाप शरीरको सुखाने-जैसे कठोर तपसे नष्ट होता है; अतः सुख चाहनेवाले पुरुषको देवताओंकी पूजा करते और ब्राह्मणोंको दान देते हुए पापसे बचकर ही तीर्थमें निवास करना चाहिये। (अध्याय १२)

* क्षेत्रे पापस्य करणं दृढं भवति भूसुराः।
पुण्यक्षेत्रे निवासे हि पापमण्वपि नाचरेत्।।

(शि० पु० वि० १२।७)

* पुण्यक्षेत्रे कृतं पुण्यं बहुधा ऋद्धिमृच्छति।
पुण्यक्षेत्रे कृतं पापं महदण्वपि जायते।।

तत्कालं जीवनार्थं चेत् पुण्येन क्षयमेष्यति।
पुण्यमैश्वर्यदं प्राहुः कायिकं वाचिकं तथा।।

मानसं च तथा पापं तादृशं नाशयेद् द्विजाः।
मानसं वज्रलेपं तु कल्पकल्पानुगं तथा।।

(शिवपुराण, विद्येश्वर-सं० १३।३६ – ३८)


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