शिव पुराण - विद्येश्वर संहिता - 16


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शिव पूजा, नैवेद्य और बिल्वका महत्व

पार्थिवपूजाकी महिमा, शिवनैवेद्यभक्षणके विषयमें निर्णय तथा बिल्वका माहात्म्य

(तदनन्तर ऋषियोंके पूछनेपर किस कामनाकी पूर्तिके लिये कितने पार्थिवलिंगोंकी पूजा करनी चाहिये, इस विषयका वर्णन करके)

सूतजी बोले –

महर्षियो! पार्थिव-लिंगोंकी पूजा कोटि-कोटि यज्ञोंका फल देनेवाली है।

कलियुगमें लोगोंके लिये शिवलिंग-पूजन जैसा श्रेष्ठ दिखायी देता है वैसा दूसरा कोई साधन नहीं है – यह समस्त शास्त्रोंका निश्चित सिद्धान्त है।

शिवलिंग भोग और मोक्ष देनेवाला है।

लिंग तीन प्रकारके कहे गये हैं – उत्तम, मध्यम और अधम।

जो चार अंगुल ऊँचा और देखनेमें सुन्दर हो तथा वेदीसे युक्त हो, उस शिवलिंगको शास्त्रज्ञ महर्षियोंने ‘उत्तम’ कहा है।

उससे आधा ‘मध्यम’ और उससे आधा ‘अधम’ माना गया है।

इस तरह तीन प्रकारके शिवलिंग कहे गये हैं, जो उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं।

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र अथवा विलोम संकर – कोई भी क्यों न हो, वह अपने अधिकारके अनुसार वैदिक अथवा तान्त्रिक मन्त्रसे सदा आदरपूर्वक शिवलिंगकी पूजा करे।

ब्राह्मणो! महर्षियो! अधिक कहनेसे क्या लाभ? शिवलिंगका पूजन करनेमें स्त्रियोंका तथा अन्य सब लोगोंका भी अधिकार है*।

द्विजोंके लिये वैदिक पद्धतिसे ही शिवलिंगकी पूजा करना श्रेष्ठ है; परंतु अन्य लोगोंके लिये वैदिक मार्गसे पूजा करनेकी सम्मति नहीं है।

वेदज्ञ द्विजोंको वैदिक मार्गसे ही पूजन करना चाहिये, अन्य मार्गसे नहीं – यह भगवान् शिवका कथन है।

दधीचि और गौतम आदिके शापसे जिनका चित्त दग्ध हो गया है, उन द्विजोंकी वैदिक कर्ममें श्रद्धा नहीं होती।

जो मनुष्य वेदों तथा स्मृतियोंमें कहे हुए सत्कर्मोंकी अवहेलना करके दूसरे कर्मको करने लगता है, उसका मनोरथ कभी सफल नहीं होता।* इस प्रकार विधिपूर्वक भगवान् शंकरका नैवेद्यान्त पूजन करके उनकी त्रिभुवनमयी आठ मूर्तियोंका भी वहीं पूजन करे।

पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा तथा यजमान – ये भगवान् शंकरकी आठ मूर्तियाँ कही गयी हैं।

इन मूर्तियोंके साथ-साथ शर्व, भव, रुद्र, उग्र, भीम, ईश्वर, महादेव तथा पशपति – इन नामोंकी भी अर्चना करे।

तदनन्तर चन्दन, अक्षत और बिल्वपत्र लेकर वहाँ ईशान आदिके क्रमसे भगवान् शिवके परिवारका उत्तम भक्तिभावसे पूजन करे।

ईशान, नन्दी, चण्ड, महाकाल, भृंगी, वृष, स्कन्द, कपर्दीश्वर, सोम तथा शुक्र – ये दस शिवके परिवार हैं, जो क्रमशः ईशान आदि दसों दिशाओंमें पूजनीय हैं।

तत्पश्चात् भगवान् शिवके समक्ष वीरभद्रका और पीछे कीर्तिमुखका पूजन करके विधिपूर्वक ग्यारह रुद्रोंकी पूजा करे।

इसके बाद पंचाक्षरमन्त्रका जप करके शतरुद्रिय स्तोत्रका, नाना प्रकारकी स्तुतियोंका तथा शिवपंचांगका पाठ करे।

तत्पश्चात् परिक्रमा और नमस्कार करके शिवलिंगका विसर्जन करे।

इस प्रकार मैंने शिवपूजनकी सम्पूर्ण विधिका आदरपूर्वक वर्णन किया।

रात्रिमें देवकार्यको सदा उत्तराभिमुख होकर ही करना चाहिये।

इसी प्रकार शिवपूजन भी पवित्रभावसे सदा उत्तराभिमुख होकर ही करना उचित है।

जहाँ शिवलिंग स्थापित हो, उससे पूर्वदिशाका आश्रय लेकर नहीं बैठना या खड़ा होना चाहिये; क्योंकि वह दिशा भगवान् शिवके आगे या सामने पड़ती है (इष्टदेवका सामना रोकना ठीक नहीं)।

शिवलिंगसे उत्तरदिशामें भी न बैठे; क्योंकि उधर भगवान् शंकरका वामांग है, जिसमें शक्तिस्वरूपा देवी उमा विराजमान हैं।

पूजकको शिवलिंगसे पश्चिमदिशामें भी नहीं बैठना चाहिये; क्योंकि वह आराध्यदेवका पृष्ठभाग है (पीछेकी ओरसे पूजा करना उचित नहीं है)।

अतः अवशिष्ट दक्षिणदिशा ही ग्राह्य है।

उसीका आश्रय लेना चाहिये।

तात्पर्य यह कि शिवलिंगसे दक्षिणदिशामें उत्तराभिमुख होकर बैठे और पूजा करे।

विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वह भस्मका त्रिपुण्ड्र लगाकर, रुद्राक्षकी माला लेकर तथा बिल्वपत्रका संग्रह करके ही भगवान् शंकरकी पूजा करे, इनके बिना नहीं।

मुनिवरो! शिवपूजन आरम्भ करते समय यदि भस्म न मिले तो मिट्टीसे भी ललाटमें त्रिपुण्ड्र अवश्य कर लेना चाहिये।

ऋषि बोले – मुने! हमने पहलेसे यह बात सुन रखी है कि भगवान् शिवका नैवेद्य नहीं ग्रहण करना चाहिये।

इस विषयमें शास्त्रका निर्णय क्या है, यह बताइये।

साथ ही बिल्वका माहात्म्य भी प्रकट कीजिये।

सूतजीने कहा – मुनियो! आप शिव-सम्बन्धी व्रतका पालन करनेवाले हैं।

अतः आप सबको शतशः धन्यवाद है।

मैं प्रसन्नतापूर्वक सब कुछ बताता हूँ, आप सावधान होकर सुनें।

जो भगवान् शिवका भक्त है, बाहर-भीतरसे पवित्र और शुद्ध है, उत्तम व्रतका पालन करनेवाला तथा दृढ़ निश्चयसे युक्त है, वह शिव-नैवेद्यका अवश्य भक्षण करे।

भगवान् शिवका नैवेद्य अग्राह्य है, इस भावनाको मनसे निकाल दे।

शिवके नैवेद्यको देख लेनेमात्रसे भी सारे पाप दूर भाग जाते हैं, उसको खा लेनेपर तो करोड़ों पुण्य अपने भीतर आ जाते हैं।

आये हुए शिव-नैवेद्यको सिर झुकाकर प्रसन्नताके साथ ग्रहण करे और प्रयत्न करके शिव-स्मरणपूर्वक उसका भक्षण करे।

आये हुए शिव-नैवेद्यको जो यह कहकर कि मैं इसे दूसरे समयमें ग्रहण करूँगा, लेनेमें विलम्ब कर देता है, वह मनुष्य निश्चय ही पापसे बँध जाता है।

जिसने शिवकी दीक्षा ली हो, उस शिवभक्तके लिये यह शिव-नैवेद्य अवश्य भक्षणीय है – ऐसा कहा जाता है।

शिवकी दीक्षासे युक्त शिवभक्त पुरुषके लिये सभी शिवलिंगोंका नैवेद्य शुभ एवं ‘महाप्रसाद’ है; अतः वह उसका अवश्य भक्षण करे।

परंतु जो अन्य देवताओंकी दीक्षासे युक्त हैं और शिवभक्तिमें भी मनको लगाये हुए हैं, उनके लिये शिव-नैवेद्य-भक्षणके विषयमें क्या निर्णय है – इसे आपलोग प्रेमपूर्वक सुनें।

ब्राह्मणो! जहाँसे शालग्रामशिलाकी उत्पत्ति होती है, वहाँके उत्पन्न लिंगमें, रस-लिंग (पारदलिंग)-में, पाषाण, रजत तथा सुवर्णसे निर्मित लिंगमें, देवताओं तथा सिद्धोंद्वारा प्रतिष्ठित लिंगमें, केसर-निर्मित लिंगमें, स्फटिकलिंगमें, रत्ननिर्मित लिंगमें तथा समस्त ज्योतिर्लिंगोंमें, विराजमान भगवान् शिवके नैवेद्यका भक्षण चान्द्रायणव्रतके समान पुण्यजनक है।

ब्रह्महत्या करनेवाला पुरुष भी यदि पवित्र होकर शिव-निर्माल्यका भक्षण करके उसे (सिरपर) धारण करे तो उसका सारा पाप शीघ्र ही नष्ट हो जाता है।

पर जहाँ चण्डका अधिकार है, वहाँ जो शिव-निर्माल्य हो, उसे साधारण मनुष्योंको नहीं खाना चाहिये।

जहाँ चण्डका अधिकार नहीं है, वहाँके शिव-निर्माल्यका सभीको भक्तिपूर्वक भोजन करना चाहिये।

बाणलिंग (नर्मदेश्वर), लोह-निर्मित (स्वर्णादि-धातुमय) लिंग, सिद्धलिंग (जिन लिंगोंकी उपासनासे किसीने सिद्धि प्राप्त की है अथवा जो सिद्धोंद्वारा स्थापित हैं वे लिंग), स्वयम्भूलिंग – इन सब लिंगोंमें तथा शिवकी प्रतिमाओं (मूर्तियों)-में चण्डका अधिकार नहीं है।

जो मनुष्य शिवलिंगको विधिपूर्वक स्नान कराकर उस स्नानके जलका तीन बार आचमन करता है, उसके कायिक, वाचिक और मानसिक – तीनों प्रकारके पाप यहाँ शीघ्र नष्ट हो जाते हैं।

जो शिव-नैवेद्य, पत्र, पुष्प, फल और जल अग्राह्य है, वह सब भी शालग्रामशिलाके स्पर्शसे पवित्र – ग्रहणके योग्य हो जाता है।

मुनीश्वरो! शिवलिंगके ऊपर चढ़ा हुआ जो द्रव्य है, वह अग्राह्य है।

जो वस्तु लिंगस्पर्शसे रहित है अर्थात् जिस वस्तुको अलग रखकर शिवजीको निवेदित किया जाता है – लिंगके ऊपर चढ़ाया नहीं जाता, उसे अत्यन्त पवित्र जानना चाहिये।

मुनिवरो! इस प्रकार नैवेद्यके विषयमें शास्त्रका निर्णय बताया गया।

अब तुमलोग सावधान हो आदरपूर्वक बिल्वका माहात्म्य सुनो।

यह बिल्ववृक्ष महादेवका ही रूप है।

देवताओंने भी इसकी स्तुति की है।

फिर जिस किसी तरहसे इसकी महिमा कैसे जानी जा सकती है।

तीनों लोकोंमें जितने पुण्य-तीर्थ प्रसिद्ध हैं, वे सम्पूर्ण तीर्थ बिल्वके मूलभागमें निवास करते हैं।

जो पुण्यात्मा मनुष्य बिल्वके मूलमें लिंगस्वरूप अविनाशी महादेवजीका पूजन करता है, वह निश्चय ही शिवपदको प्राप्त होता है।

जो बिल्वकी जड़के पास जलसे अपने मस्तकको सींचता है, वह सम्पूर्ण तीर्थोंमें स्नानका फल पा लेता है और वही इस भूतलपर पावन माना जाता है।

इस बिल्वकी जड़के परम उत्तम थालेको जलसे भरा हुआ देखकर महादेवजी पूर्णतया संतुष्ट होते हैं।

जो मनुष्य गन्ध, पुष्प आदिसे बिल्वके मूलभागका पूजन करता है, वह शिवलोकको पाता है और इस लोकमें भी उसकी सुख-संतति बढ़ती है।

जो बिल्वकी जड़के समीप आदरपूर्वक दीपावली जलाकर रखता है, वह तत्त्वज्ञानसे सम्पन्न हो भगवान् महेश्वरमें मिल जाता है।

जो बिल्वकी शाखा थामकर हाथसे उसके नये-नये पल्लव उतारता और उनसे उस बिल्वकी पूजा करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो जाता है।

जो बिल्वकी जड़के समीप भगवान् शिवमें अनुराग रखनेवाले एक भक्तको भी भक्तिपूर्वक भोजन कराता है, उसे कोटिगुना पुण्य प्राप्त होता है।

जो बिल्वकी जड़के पास शिवभक्तको खीर और घृतसे युक्त अन्न देता है, वह कभी दरिद्र नहीं होता।

ब्राह्मणो! इस प्रकार मैंने सांगोपांग शिवलिंग-पूजनका वर्णन किया।

यह प्रवृत्तिमार्गी तथा निवृत्तिमार्गी पूजकोंके भेदसे दो प्रकारका होता है।

प्रवृत्तिमार्गी लोगोंके लिये पीठ-पूजा इस भूतलपर सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओंको देनेवाली होती है।

प्रवृत्त पुरुष सुपात्र गुरु आदिके द्वारा ही सारी पूजा सम्पन्न करे और अभिषेकके अन्तमें अगहनीके चावलसे बना हुआ नैवेद्य निवेदन करे।

पूजाके अन्तमें शिवलिंगको शुद्ध सम्पुटमें विराजमान करके घरके भीतर कहीं अलग रख दे।

निवृत्तिमार्गी उपासकोंके लिये हाथपर ही शिवपूजनका विधान है।

उन्हें भिक्षा आदिसे प्राप्त हुए अपने भोजनको ही नैवेद्यरूपमें निवेदित कर देना चाहिये।

निवृत्त पुरुषोंके लिये सूक्ष्म लिंग ही श्रेष्ठ बताया जाता है।

वे विभूतिसे पूजन करें और विभूतिको ही नैवेद्यरूपसे निवेदित भी करें।

पूजा करके उस लिंगको सदा अपने मस्तकपर धारण करें। (अध्याय २१-२२)

* ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः शूद्रो वा प्रतिलोमजः।
पूजयेत् सततं लिङ्गं तत्तन्मन्त्रेण सादरम्।।

किं बहूक्तेन मुनयः स्त्रीणामपि तथान्यतः।
अधिकारोऽस्ति सर्वेषां शिवलिङ्गार्चने द्विजाः।। (शि० पु० वि० २१।३९-४०)

* यो वैदिकमनावृत्य कर्म स्मार्तमथापि वा।
अन्यत् समाचरेन्मर्त्यो न संकल्पफलं लभेत्।। (शि० पु० वि० २१।४४)


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