<< शिव पुराण – विद्येश्वर संहिता – 14
शिव पुराण संहिता लिंक – विद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय
पार्थिवलिंगके निर्माणकी रीति तथा वेद-मन्त्रोंद्वारा उसके पूजनकी विस्तृत एवं संक्षिप्त विधिका वर्णन
तदनन्तर पार्थिवलिंगकी श्रेष्ठता तथा महिमाका वर्णन करके सूतजी कहते हैं – महर्षियो! अब मैं वैदिक कर्मके प्रति श्रद्धा-भक्ति रखनेवाले लोगोंके लिये वेदोक्त मार्गसे ही पार्थिव-पूजाकी पद्धतिका वर्णन करता हूँ।
यह पूजा भोग और मोक्ष दोनोंको देनेवाली है।
आह्निकसूत्रोंमें बतायी हुई विधिके अनुसार विधिपूर्वक स्नान और संध्योपासना करके पहले ब्रह्मयज्ञ करे।
तत्पश्चात् देवताओं, ऋषियों, सनकादि मनुष्यों और पितरोंका तर्पण करे।
अपनी रुचिके अनुसार सम्पूर्ण नित्यकर्मको पूर्ण करके शिवस्मरणपूर्वक भस्म तथा रुद्राक्ष धारण करे।
तत्पश्चात् सम्पूर्ण मनोवांछित फलकी सिद्धिके लिये ऊँची भक्ति-भावनाके साथ उत्तम पार्थिवलिंगकी वेदोक्त विधिसे भलीभाँति पूजा करे।
नदी या तालाबके किनारे, पर्वतपर, वनमें, शिवालयमें अथवा और किसी पवित्र स्थानमें पार्थिव-पूजा करनेका विधान है।
ब्राह्मणो! शुद्ध स्थानसे निकाली हुई मिट्टीको यत्नपूर्वक लाकर बड़ी सावधानीके साथ शिवलिंगका विधिका वर्ण निर्माण करे।
ब्राह्मणके लिये श्वेत, क्षत्रियके लिये लाल, वैश्यके लिये पीली और शूद्रके लिये काली मिट्टीसे शिवलिंग बनानेका विधान है अथवा जहाँ जो मिट्टी मिल जाय, उसीसे शिवलिंग बनाये।
शिवलिंग बनानेके लिये प्रयत्नपूर्वक मिट्टीका संग्रह करके उस शुभ मृत्तिकाको अत्यन्त शुद्ध स्थानमें रखे।
फिर उसकी शुद्धि करके जलसे सानकर पिण्डी बना ले और वेदोक्त मार्गसे धीरे-धीरे सुन्दर पार्थिवलिंगकी रचना करे।
तत्पश्चात् भोग और मोक्षरूपी फलकी प्राप्तिके लिये भक्तिपूर्वक उसका पूजन करे।
उस पार्थिवलिंगके पूजनकी जो विधि है, उसे मैं विधानपूर्वक बता रहा हूँ; तुम सब लोग सुनो।
‘ॐ नमः शिवाय’ इस मन्त्रका उच्चारण करते हुए समस्त पूजन-सामग्रीका प्रोक्षण करे – उसपर जल छिड़के।
इसके बाद ‘भूरसि०१’ इत्यादि मन्त्रसे क्षेत्रसिद्धि करे, फिर ‘आपोऽस्मान्०२’ इस मन्त्रसे जलका संस्कार करे।
इसके बाद ‘नमस्ते रुद्र०३’ इस मन्त्रसे स्फाटिकाबन्ध (स्फटिक शिलाका घेरा) बनानेकी बात कही गयी है।
‘नमः शम्भवाय०१’ इस मन्त्रसे क्षेत्रशुद्धि और पंचामृतका प्रोक्षण करे।
तत्पश्चात् शिवभक्त पुरुष ‘नमः’ पूर्वक ‘नीलग्रीवाय०२’ मन्त्रसे शिवलिंगकी उत्तम प्रतिष्ठा करे।
इसके बाद वैदिक रीतिसे पूजन-कर्म करनेवाला उपासक भक्तिपूर्वक ‘एतत्ते रुद्रावसं०३’ इस मन्त्रसे रमणीय आसन दे।
‘मा नो महान्तम्०४’ इस मन्त्रसे आवाहन करे, ‘या ते रुद्र०५’ इस मन्त्रसे भगवान् शिवको आसनपर समासीन करे।
‘यामिषुं०६’ इस मन्त्रसे शिवके अंगोंमें न्यास करे।
‘अध्यवोचत्०७’ इस मन्त्रसे प्रेमपूर्वक अधिवासन करे।
‘असौ यस्ताम्रो०८’ इस मन्त्रसे शिवलिंगमें इष्टदेवता शिवका न्यास करे।
‘असौ योऽवसर्पति०९’ इस मन्त्रसे उपसर्पण (देवताके समीप गमन) करे।
इसके बाद ‘नमोऽस्तु नीलग्रीवाय०१०’ इस मन्त्रसे इष्टदेवको पाद्य समर्पित करे।
‘रुद्रगायत्री०११’ से अर्घ्य दे।
‘त्र्यम्बकं०१२’ मन्त्रसे आचमन कराये।
‘पयः पृथिव्यां०१३’ इस मन्त्रसे दुग्धस्नान कराये।
‘दधिक्राव्णो०१४’ इस मन्त्रसे दधिस्नान कराये।
‘घृतं घृतपावा०१’ इस मन्त्रसे घृतस्नान कराये।
‘मधु वाता०२’, ‘मधु नक्तं०३’, ‘मधुमान्नो४’ इन तीन ऋचाओंसे मधु-स्नान और शर्करास्नान५ कराये।
इन दुग्ध आदि पाँच वस्तुओंको पंचामृत कहते हैं।
अथवा पाद्य-समर्पणके लिये कहे गये ‘नमोऽस्तु नीलग्रीवाय०’ इत्यादि मन्त्रद्वारा पंचामृतसे स्नान कराये।
तदनन्तर ‘मा नस्तोके०६’ इस मन्त्रसे प्रेमपूर्वक भगवान् शिवको कटिबन्ध (करधनी) अर्पित करे।
‘नमो धृष्णवे०७’ इस मन्त्रका उच्चारण करके आराध्य देवताको उत्तरीय धारण कराये।
‘या ते हेतिः०८’ इत्यादि चार ऋचाओंको पढ़कर वेदज्ञ भक्त प्रेमसे विधिपूर्वक भगवान् शिवके लिये वस्त्र (एवं यज्ञोपवीत) समर्पित करे।
इसके बाद ‘नमःश्वभ्यः०९’ इत्यादि मन्त्रको पढ़कर शुद्ध बुद्धिवाला भक्त पुरुष भगवान् को प्रेमपूर्वक गन्ध (सुगन्धित चन्दन एवं रोली) चढ़ाये।
‘नमस्तक्षभ्यो०१०’ इस मन्त्रसे अक्षत अर्पित करे।
‘नमः पार्याय०११’ इस मन्त्रसे फूल चढ़ाये।
‘नमः पर्णाय०१’ इस मन्त्रसे बिल्वपत्र समर्पण करे।
‘नमः कपर्दिने च०२’ इत्यादि मन्त्रसे विधिपूर्वक धूप दे।
‘नम आशवे०३’ इस ऋचासे शास्त्रोक्त विधिके अनुसार दीप निवेदन करे।
तत्पश्चात् (हाथ धोकर) ‘नमो ज्येष्ठाय०४’ इस मन्त्रसे उत्तम नैवेद्य अर्पित करे।
फिर पूर्वोक्त त्र्यम्बक-मन्त्रसे आचमन कराये।
‘इमा रुद्राय०५’ इस ऋचासे फल समर्पण करे।
फिर ‘नमो व्रज्याय०६’ इस मन्त्रसे भगवान् शिवको अपना सब कुछ समर्पित कर दे।
तदनन्तर ‘मा नो महान्तम्०’ तथा ‘मा नस्तोके’ इन पूर्वोक्त दो मन्त्रोंद्वारा केवल अक्षतोंसे ग्यारह रुद्रोंका पूजन करे।
फिर ‘हिरण्यगर्भः०७’ इत्यादि मन्त्रसे जो तीन ऋचाओंके रूपमें पठित है, दक्षिणा चढ़ाये*।
‘देवस्य त्वा०८’ इस मन्त्रसे विद्वान् पुरुष आराध्यदेवका अभिषेक करे।
दीपके लिये बताये हुए ‘नम आशवे०’ इत्यादि मन्त्रसे भगवान् शिवकी नीराजना (आरती) करे।
तत्पश्चात् ‘इमा रुद्राय०’ इत्यादि तीन ऋचाओंसे भक्तिपूर्वक रुद्रदेवको पुष्पांजलि अर्पित करे।
‘मा नो महान्तम्०’ इस मन्त्रसे विज्ञ उपासक पूजनीय देवताकी परिक्रमा करे।
फिर उत्तम बुद्धिवाला उपासक ‘मा नस्तोके०’ इस मन्त्रसे भगवान् को साष्टांग प्रणाम करे।
‘एष ते०९’ इस मन्त्रसे शिवमुद्राका प्रदर्शन करे।
‘यतो यतः०१’ इस मन्त्रसे अभय नामक मुद्राका, ‘त्र्यम्बकं०’ मन्त्रसे ज्ञान नामक मुद्राका तथा ‘नमः सेना०२’ इत्यादि मन्त्रसे महामुद्राका प्रदर्शन करे।
‘नमो गोभ्य०३’ इस ऋचाद्वारा धेनुमुद्रा दिखाये।
इस तरह पाँच मुद्राओंका प्रदर्शन करके शिवसम्बन्धी मन्त्रोंका जप करे अथवा वेदज्ञ पुरुष ‘शतरुद्रिय०४’ मन्त्रकी आवृत्ति करे।
तत्पश्चात् वेदज्ञ पुरुष पंचांग पाठ करे।
तदनन्तर ‘देवा गातु०५’ इत्यादि मन्त्रसे भगवान् शंकरका विसर्जन करे।
इस प्रकार शिवपूजाकी वैदिक विधिका विस्तारसे प्रतिपादन किया गया।
महर्षियो! अब संक्षेपसे भी पार्थिव-पूजनकी वैदिक विधिका वर्णन सुनो।
‘सद्यो जातं०६’ इस ऋचासे पार्थिवलिंग बनानेके लिये मिट्टी ले आये।
‘वामदेवाय०७’ इत्यादि मन्त्र पढ़कर उसमें जल डाले।
(जब मिट्टी सनकर तैयार हो जाय तब) ‘अघोर०८’ मन्त्रसे लिंग निर्माण करे।
फिर ‘तत्पुरुषाय०९’ इस मन्त्रसे विधिवत् उसमें भगवान् शिवका आवाहन करे।
तदनन्तर ‘ईशान०१०’ मन्त्रसे भगवान् शिवको वेदीपर स्थापित करे।
इनके सिवाय अन्य सब विधानोंको भी शुद्ध बुद्धिवाला उपासक संक्षेपसे ही सम्पन्न करे।
इसके बाद विद्वान् पुरुष पंचाक्षरमन्त्रसे अथवा गुरुके दिये हुए अन्य किसी शिवसम्बन्धी मन्त्रसे सोलह उपचारोंद्वारा विधिवत् पूजन करे अथवा – भवाय भवनाशाय महादेवाय धीमहि।
उग्राय उग्रनाशाय शर्वाय शशिमौलिने।।
(२०।४३) – इस मन्त्रद्वारा विद्वान् उपासक भगवान् शंकरकी पूजा करे।
वह भ्रम छोड़कर उत्तम भाव-भक्तिसे शिवकी आराधना करे; क्योंकि भगवान् शिव भक्तिसे ही मनोवांछित फल देते हैं।
ब्राह्मणो! यहाँ जो वैदिक विधिसे पूजन-का क्रम बताया गया है, इसका पूर्णरूपसे आदर करता हुआ मैं पूजाकी एक दूसरी विधि भी बता रहा हूँ, जो उत्तम होनेके साथ ही सर्वसाधारणके लिये उपयोगी है।
मुनिवरो! पार्थिवलिंगकी पूजा भगवान् शिवके नामोंसे बतायी गयी है।
वह पूजा सम्पूर्ण अभीष्टोंको देनेवाली है।
मैं उसे बताता हूँ, सुनो! हर, महेश्वर, शम्भु, शूलपाणि, पिनाकधृक्, शिव, पशुपति और महादेव – ये क्रमशः शिवके आठ नाम कहे गये हैं।
इनमेंसे प्रथम नामके द्वारा अर्थात् ‘ॐ हराय नमः’ का उच्चारण करके पार्थिवलिंग बनानेके लिये मिट्टी लाये।
दूसरे नाम अर्थात् ‘ॐ महेश्वराय नमः’ का उच्चारण करके लिंग-निर्माण करे।
फिर ‘ॐ शम्भवे नमः’ बोलकर उस पार्थिव-लिंगकी प्रतिष्ठा करे।
तत्पश्चात् ‘ॐ शूलपाणये नमः’ कहकर उस पार्थिवलिंगमें भगवान् शिवका आवाहन करे।
‘ॐ पिनाकधृषे नमः’ कहकर उस शिवलिंगको नहलाये।
‘ॐ शिवाय नमः’ बोलकर उसकी पूजा करे।
फिर ‘ॐ पशुपतये नमः’ कहकर क्षमा-प्रार्थना करे और अन्तमें ‘ॐ महादेवाय नमः’ कहकर आराध्यदेवका विसर्जन कर दे।
प्रत्येक नामके आदिमें ॐकार और अन्तमें चतुर्थी विभक्तिके साथ ‘नमः’ पद लगाकर बड़े आनन्द और भक्तिभावसे पूजनसम्बन्धी सारे कार्य करने चाहिये।१ षडक्षर-मन्त्रसे अंगन्यास और करन्यासकी विधि भलीभाँति सम्पन्न करके फिर नीचे लिखे अनुसार ध्यान करे।
जो कैलास पर्वतपर एक सुन्दर सिंहासनके मध्यभागमें विराजमान हैं, जिनके वामभागमें भगवती उमा उनसे सटकर बैठी हुई हैं, सनक-सनन्दन आदि भक्तजन जिनकी पूजा कर रहे हैं तथा जो भक्तोंके दुःखरूपी दावानलको नष्ट कर देनेवाले अप्रमेय-शक्तिशाली ईश्वर हैं, उन विश्वविभूषण भगवान् शिवका चिन्तन करना चाहिये।
भगवान् महेश्वरका प्रतिदिन इस प्रकार ध्यान करे – उनकी अंग-कान्ति चाँदीके पर्वतकी भाँति गौर है।
वे अपने मस्तकपर मनोहर चन्द्रमाका मुकुट धारण करते हैं।
रत्नोंके आभूषण धारण करनेसे उनका श्रीअंग और भी उद्भासित हो उठा है।
उनके चार हाथोंमें क्रमशः परशु, मृगमुद्रा, वर एवं अभयमुद्रा सुशोभित हैं।
वे सदा प्रसन्न रहते हैं।
कमलके आसनपर बैठे हैं और देवतालोग चारों ओर खड़े होकर उनकी स्तुति कर रहे हैं।
उन्होंने वस्त्रकी जगह व्याघ्रचर्म धारण कर रखा है।
वे इस विश्वके आदि हैं, बीज (कारण)-रूप हैं।
तथा सबका समस्त भय हर लेनेवाले हैं।
उनके पाँच मुख हैं और प्रत्येक मुखमण्डलमें तीन-तीन नेत्र हैं।२ इस प्रकार ध्यान तथा उत्तम पार्थिवलिंगका पूजन करके गुरुके दिये हुए पंचाक्षरमन्त्रका विधिपूर्वक जप करे।
विप्रवरो! विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वह देवेश्वर शिवको प्रणाम करके नाना प्रकारकी स्तुतियोंद्वारा उनका स्तवन करे तथा शतरुद्रिय (यजु० १६ वें अध्यायके मन्त्रों)-का पाठ करे।
तत्पश्चात् अंजलिमें अक्षत और फूल लेकर उत्तम भक्तिभावसे निम्नांकित मन्त्रोंको पढ़ते हुए प्रेम और प्रसन्नताके साथ भगवान् शंकरसे इस प्रकार प्रार्थना करे – ‘सबको सुख देनेवाले कृपानिधान भूतनाथ शिव! मैं आपका हूँ।
आपके गुणोंमें ही मेरे प्राण बसते हैं अथवा आपके गुण ही मेरे प्राण – मेरे जीवनसर्वस्व हैं।
मेरा चित्त सदा आपके ही चिन्तनमें लगा हुआ है।
यह जानकर मुझपर प्रसन्न होइये।
कृपा कीजिये।
शंकर! मैंने अनजान-में अथवा जान-बूझकर यदि कभी आपका जप और पूजन आदि किया हो तो आपकी कृपासे वह सफल हो जाय।
गौरीनाथ! मैं आधुनिक युगका महान् पापी हूँ, पतित हूँ और आप सदासे ही परम महान् पतितपावन हैं।
इस बातका विचार करके आप जैसा चाहें, वैसा करें।
महादेव! सदाशिव! वेदों, पुराणों, नाना प्रकारके शास्त्रीय सिद्धान्तों और विभिन्न महर्षियोंने भी अबतक आपको पूर्णरूपसे नहीं जाना है।
फिर मैं कैसे जान सकता हूँ? महेश्वर! मैं जैसा हूँ, वैसा ही, उसी रूपमें सम्पूर्ण भावसे आपका हूँ, आपके आश्रित हूँ, इसलिये आपसे रक्षा पानेके योग्य हूँ।
परमेश्वर! आप मुझपर प्रसन्न होइये।’* मुने! इस प्रकार प्रार्थना करके हाथमें लिये हुए अक्षत और पुष्पको भगवान् शिवके ऊपर चढ़ाकर उन शम्भुदेवको भक्तिभावसे विधिपूर्वक साष्टांग प्रणाम करे।
तदनन्तर शुद्ध बुद्धिवाला उपासक शास्त्रोक्त विधिसे इष्टदेवकी परिक्रमा करे।
फिर श्रद्धापूर्वक स्तुतियोंद्वारा देवेश्वर शिवकी स्तुति करे।
इसके बाद गला बजाकर (गलेसे अव्यक्त शब्दका उच्चारण करके) पवित्र एवं विनीत चित्तवाला साधक भगवान् को प्रणाम करे।
फिर आदरपूर्वक विज्ञप्ति करे और उसके बाद विसर्जन।
मुनिवरो! इस प्रकार विधि-पूर्वक पार्थिवपूजा बतायी गयी।
वह भोग और मोक्ष देनेवाली तथा भगवान् शिवके प्रति भक्तिभावको बढ़ानेवाली है।
(अध्याय १९-२०) १. पूरा मन्त्र इस प्रकार है – भूरसि भूमिरस्यदितिरसि विश्वधाया विश्वस्य भुवनस्य धर्त्री।
पृथिवीं यच्छ पृथिवीं दृ्ँह पृथिवीं मा हि्ँसीः।
(यजु० १३।१८) २. आपो अस्मान् मातरः शुन्धयन्तु घृतेन नो घृतप्वः पुनन्तु।
विश्व्ँ रिप्रं प्रवहन्ति देवीरुदिदाभ्यः शुचिरा पूत एमि।
दीक्षातपसोस्तनूरसि तां त्वा शिवा्ँशग्मां परि दधे भद्रं वर्णं पुष्यन्।
(यजु० ४।२) ३. नमस्ते रुद्र मन्यव उतो त इषवे नमः बाहुभ्यामुत ते नमः।
(यजु० १६।१) १. नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नमः शङ्कराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च।
(यजु० १६।४१) २. नमोऽस्तु नीलग्रीवाय सहस्रक्षाय मीढुषे।
अथो ये अस्य सत्वानोऽहं तेभ्योऽकरं नमः।
(यजु० १६।८) ३. एतत्ते रुद्रावसं तेन परो मूजवतोऽतीहि।
अवततधन्वा पिनाकावसः कृत्तिवासा अहि्ँसन्नः शिवोऽतीहि।
(यजु० ३।६१) ४. मा नो महान्तमुत मा नो अर्भकं मा न उक्षन्तमुत मा न उक्षितम्।
मा नो वधीः पितरं मोत मातरं मा नः प्रियास्तन्वो रुद्र रीरिषः।
(यजु० १६।१५) ५. या ते रुद्र शिवा तनूरघोराऽपापकाशिनी।
या नस्तन्वा शन्तमया गिरिशन्ताभि चाकशीहि।
(यजु० १६।२) ६. यामिषुं गिरिशन्त हस्ते विभर्ष्यस्तवे।
शिवां गिरित्र तां कुरु मा हि्ँसीः पुरुषं जगत्।
(यजु० १६।३) ७. अध्यवोचदधिवक्ता प्रथमो दैव्यो भिषक्।
अही्ँश्च सर्वाञ्जम्भयन्त्सर्वाश्च यातुधान्योऽधराचीः परा सुव।
(यजु० १६।५) ८. असौ यस्ताम्रो अरुण उत बभ्रुः सुमङ्गलः।
ये चैन्ँरुद्रा अभितो दिक्षु श्रिताः सहस्रशोऽवैषा्ँहेड ईमहे।
(यजु० १६।६) ९. असौ योऽवसर्पति नीलग्रीवो विलोहितः।
उतैनं गोपा अदृश्रन्नदृश्रन्नुदहार्यः स दृष्टो मृडयाति नः।
(यजु १६।७) १०. यह मन्त्र पहले दिया जा चुका है।
११. तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्।
१२. त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्।
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पतिवेदनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनादितो मुक्षीय मामुतः।
(यजु० ३।६०) १३. पयः पृथिव्यां पय ओषधीषु पयो दिव्यन्तरिक्षे पयो धाः।
पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम्।
(यजु० १८।३६) १४. दधिक्राव्णो अकारिषं जिष्णोरश्वस्य वाजिनः।
सुरभि नो मुखा करत्प्रणआयू्ँषि तारिषत्।
(यजु० २३।३२) १. घृतं घृतपावानः पिबत वसां वसापावानः पिबतान्तरिक्षस्य हविरसि स्वाहा।
दिशः प्रदिश आदिशो विदिश उद्दिशो दिग्भ्यः स्वाहा।
(यजु० ६।१९) २. मधु वाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः।
माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः।
(यजु० १३।२७) ३. मधु नक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिव्ँरजः।
मधु द्यौरस्तु नः पिता।
(यजु० १३।२८) ४. मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमा्ँ अस्तु सूर्य्यः।
माध्वीर्गावो भवन्तु नः।
(यजु० १३।२९) ५. बहुत-से विद्वान् ‘मधु वाता०’ आदि तीन ऋचाओंका उपयोग केवल मधुस्नानमें ही करते हैं और शर्करास्नान कराते समय निम्नांकित मन्त्र बोलते हैं – अपा्ँसमुद्वयस्ँ सूर्ये सन्त्ँ समाहितम्।
अपाय्ँरसस्य यो रसस्तं वो गृह्णाभ्युत्तममुपयामगृही- तोऽसीन्द्राय त्वां जुष्टं गृह्णाम्येष ते योनिरिन्द्राय त्वा जुष्टतमम्।
(यजु० ९।३) ६. मा नस्तोके तनये मा न आयुषि मा नो गोषु मा नो अश्वेषु रीरिषः।
मा नो वीरान् रुद्र भामिनो वधीर्हविष्मन्तः सदमित् त्वा हवामहे।
(यजु० १६।१६) ७. नमो धृष्णवे च प्रमृशाय च नमो निषङ्गिणे चेषुधिमते च नमस्तीक्ष्णेषवे चायुधिने च नमः स्वायुधाय च सुधन्वने च।
(यजु० १६।३६) ८. या ते हेतिर्मीढुष्टम हलो बभूव ते धनुः।
तयास्मान्विश्वतस्त्वमयक्ष्मया परि भुज (११)।
परि ते धन्वनो हेतिरस्मान्वृणक्तु विश्वतः।
अथो य इषुधिस्तवारे अस्मन्नि धेहि तम् (१२)।
अवतत्य धनुष्ट्व्ँ सहस्राक्ष शतेषुधे।
निशीर्य्य शल्यानां मुखा शिवो न सुमना भव (१३)।
नमस्त आयुधायानातताय धृष्णवे।
उभाभ्यामुत ते नमो बाहुभ्यां तव धन्वने (१४)।
(यजु० १६) ९. नमः श्वभ्यः श्वपतिभ्यश्च वो नमो नमो भवाय च रुद्राय च नमः शर्वाय च पशुपतये च नमो नीलग्रीवाय च शितिकण्ठाय च।
(यजु० १६।२८) १०. नमस्तक्षभ्यो रथकारेभ्यश्च वो नमो नमः कुलालेभ्यः कर्मारेभ्यश्च वो नमो नमो निषादेभ्यःपुञ्जिष्ठेभ्यश्च वो नमो नमः श्वनिभ्यो मृगयुभ्यश्च वो नमः।
(यजु० १६।२७) ११. नमः पार्याय चावार्याय च नमः प्रतरणाय चोत्तरणाय च नमस्तीर्थ्याय च कूल्याय च नमः शष्प्याय च फेन्याय च।
(यजु० १६।४२) १. नमः पर्णाय च पर्णशदाय च नम उद् गुरमाणाय चाभिघ्नते च नम आखिदते च प्रखिदते च नम इषुकृद्भ्यो धनुष्कृद्भ्यश्च वो नमो नमो वः किरिकेभ्यो देवाना हृदयेभ्यो नमो विचिन्वत्केभ्यो नमो नम आनिर्हतेभ्यः।
(यजु० १६।४६) २. नमः कपर्दिने च व्युप्तकेशाय च नमः सहस्राक्षाय च शतधन्वने च नमो गिरिशयाय च शिपिविष्टाय च नमो मीढुष्टमाय चेषुमते च।
(यजु० १६।२९) ३. नम आशवे चाझिराय च नमः शीघ्र् याय च शीम्याय च नम ऊर्म्याय चावस्वन्याय च नमो नादेयाय च द्वीप्याय च।
(यजु० १६।३१) ४. नमो ज्येष्ठाय च कनिष्ठाय च नमः पूर्वजाय चापरजाय च नमो मध्यमाय चापगल्भाय च नमो जघन्याय च बुध्न्याय च।
(यजु० १६।३२) ५. इमा रुद्राय तवसे कपर्दिने क्षयद्वीराय प्रभरामहे मतीः।
यथा शमसद् द्विपदे चतुष्पदे विश्वं पुष्टं ग्रामे अस्मिन्ननातुरम्।
(यजु० १६।४८) ६. नमो व्रज्याय च गोष्ठ्याय च नमस्तल्प्याय च गेह्याय च नमो हृदय्याय च निवेष्याय च नमः काट्याय च गह्वरेष्ठाय च।
(यजु० १६।४४) ७. हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम।
* यह मन्त्र यजुर्वेदके अन्तर्गत तीन स्थानोंमें पठित और तीन मन्त्रोंके रूपमें परिगणित है।
यथा – यजु० १३।४; २३।१ तथा २५।१० में।
८. देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्वि नोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम्।
अश्विनोर्भैषज्येन तेजसे ब्रह्मवर्चसायाभि षिञ्चामि सरस्वत्यै भैषज्येन वीर्यायाआद्यायाभि षिञ्चामीन्द्रस्येन्द्रियेण बलाय श्रियै यशसेऽभिषिञ्चामि।
(यजु० २०।३) ९. एष ते रुद्र भागः सह स्वस्राम्बिकया तं जुषस्व स्वाहा।
एष ते रुद्र भाग आखुस्ते पशुः।।
(यजु० ३।५७) १. यतो यतः समीहसे ततो नो अभयं कुरु।
शं नः कुरु प्रजाभ्योऽभयं नः पशुभ्यः।।
(यजु० ३६।२३) २. नमः सेनाभ्यः सेनानिभ्यश्च वो नमो नमो रथिभ्यो अरथेभ्यश्च वो नमो नमः।
क्षतृभ्यः संग्रहीतृभ्यश्च वो नमो नमो महद्भ्यो अर्भकेभ्यश्च वो नमः।।
(यजु० १६।२६) ३. नमो गोभ्यः श्रीमतीध्यः सौरभेयीभ्य एव च।
नमो ब्रह्मसुताभ्यश्च पवित्राभ्यो नमो नमः।।
(गोमतीविद्या) ४. यजुर्वेदका वह अंश, जिसमें रुद्रके सौ या उससे आधिक नाम आये हैं और उनके द्वारा रुद्रदेवकी स्तुति की गयी है।
(देखिये यजु० अध्याय १६) ५. देवा गातुविदो गातुं वित्त्वा गातुमित।
मनसस्पत इमं देव यज्ञ्ँ स्वाहा वाते धाः।।
(यजु० ८।२१) ६. सद्योजातं प्रपद्यामि सद्योजाताय वै नमो नमः।
भवे भवेनातिभवे भवस्व मां भवोद्भवाय नमः।।
७. ॐ वामदेवाय नमो ज्येष्ठाय नमः श्रेष्ठाय नमो रुद्राय नमः कालाय नमः कलविकरणाय नमो बलविकरणाय नमो बलाय नमो बलप्रमथनाय नमः सर्वभूतदमनाय नमो मनोन्मथाय नमः।
८. ॐ अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यो घोरघोरतरेभ्यः सर्वेभ्यः सर्वशर्वेभ्यो नमस्तेऽस्तु रुद्ररूपेभ्यः।
९. ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात्।
१०. ॐ ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वभूतानां ब्रह्माधिपतिर्ब्रह्मणो ब्रह्मा शिवो मेऽस्तु सदा शिवोम्।।
१. हरो महेश्वरः शम्भुः शूलपाणिः पिनाकधृक्।
शिवः पशुपतिश्चैव महादेव इति क्रमात्।।
मुदाहरणसंघट्टप्रतिष्ठाह्वानमेव च।
स्नपनं पूजनं चैव क्षमस्वेति विसर्जनम्।।
ॐ कारादिचतुर्थ्यन्तैर्नमोऽन्तैर्नामभिः क्रमात्।
कर्तव्याश्च क्रियाः सर्वा भक्त्या परमया मुदा।।
(शि० पु० वि० २०।४७ – ४९) २. अंगन्यास और करन्यासका प्रयोग इस प्रकार समझना चाहिये।
ॐ ॐअङ् गुष्ठाभ्यां नमः १।
ॐ नं तर्जनीभ्यां नमः २।
ॐ मं मध्यमाभ्यां नमः ३।
ॐ शिं अनामिकाभ्यां नमः ४।
ॐ वां कनिष्ठिकाभ्यां नमः ५।
ॐ यं करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ६।
इति करन्यासः।
ॐ ॐहृदयाय नमः १।
ॐ नं शिरसे स्वाहा २।
ॐ मं शिखायै वषट् ३।
ॐ शिं कवचाय हुम् ४।
ॐ वां नेत्रत्रयाय वौषट् ५।
ॐ यं अस्त्राय फट् ६।
इति हृदयादिषडङ्गन्यासः।
यहाँ करन्यास और हृदयादिषडङ्गन्यासके छः-छः वाक्य दिये गये हैं।
इनमें करन्यासके प्रथम वाक्यको पढ़कर दोनों तर्जनी अंगुलियोंसे अंगुष्ठोंका स्पर्श करना चाहिये।
शेष वाक्योंको पढ़कर अंगुष्ठोंसे तर्जनी आदि अंगुलियोंका स्पर्श करना चाहिये।
इसी प्रकार अंगन्यासमें भी दाहिने हाथसे हृदयादि अंगोंका स्पर्श करनेकी विधि है।
केवल कवचन्यासमें दाहिने हाथसे बायीं भुजा और बायें हाथसे दायीं भुजाका स्पर्श करना चाहिये।
‘अस्त्राय फट्’ इस अन्तिम वाक्यको पढ़ते हुए दाहिने हाथको सिरके ऊपरसे ले आकर बायीं हथेलीपर ताली बजानी चाहिये।
ध्यानसम्बधी श्लोक, जिनके भाव ऊपर दिये गये हैं, इस प्रकार हैं – कैलासपीठासनमध्यसंस्थं भक्तैः सनन्दादिभिरर्च्यमानम् ।
भक्तार्तिदावानलहाप्रमेयं ध्यायेदुमालिङ्गितविश्वभूषणम् ।।
ध्यायेन्नित्यं महेशं रजतगिरिनिभं चारुचन्द्रावतंसं रत्नाकल्पोज्ज्वलाङ्गं परशुमृगवराभीतिहस्तं प्रसन्नम्।
पद्मासीनं समन्तात्स्तुतममरतणैर्व्याघ्रकृत्तिं वसानं विश्वाद्यं विश्वबीजं निखिलभयहरं पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रम्।।
(शि० पु० वि० २०।५१-५२) * तावकस्त्वद् गुणप्राणस्त्वच्चितोऽहं सदा मृड।
कृपानिधे इति ज्ञात्वा भूतनाथ प्रसीद मे।।
अज्ञानाद्यदि वा ज्ञानाज्जपपूजादिकं मया।
कृतं तदस्तु सफलं कृपया तव शङ्कर।।
अहं पापी महानद्य पावनश्च भवान्महान्।
इति विज्ञाय गौरीश यदिच्छसि तथा कुरु।।
वेदैः पुराणैः सिद्धान्तैर्ऋषिभिर्विविधैरपि।
न ज्ञातोऽसि महादेव कुतोऽहं त्वां सदाशिव।।
यथा तथा त्वदीयोऽस्मि सर्वभावैर्महेश्वर।
रक्षणीयस्त्वयाहं वै प्रसीद परमेश्वर।।
(शि० पु० वि० २०।५६ – ६०)
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शिव पुराण – विद्येश्वर संहिता – 16
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