शिव पुराण - विद्येश्वर संहिता - 13

शिव पुराण – विद्येश्वर संहिता – 13


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


पंचाक्षर, प्रणव, ओमकार जप की विधि और उनकी महिमा

षड्लिंगस्वरूप प्रणवका माहात्म्य, उसके सूक्ष्म रूप (ॐकार) और स्थूल रूप (पंचाक्षरमन्त्र)-का विवेचन, उसके जपकी विधि एवं महिमा

ऋषि बोले – प्रभो! महामुने! आप हमारे लिये क्रमशः षड् लिंगस्वरूप प्रणवका माहात्म्य तथा शिवभक्तके पूजनका प्रकार बताइये।

सूतजीने कहा – महर्षियो! आपलोग तपस्याके धनी हैं, आपने यह बड़ा सुन्दर प्रश्न उपस्थित किया है।

किंतु इसका ठीक-ठीक उत्तर महादेवजी ही जानते हैं, दूसरा कोई नहीं।

तथापि भगवान् शिवकी कृपासे ही मैं इस विषयका वर्णन करूँगा।

वे भगवान् शिव हमारी और आपलोगोंकी रक्षाका भारी भार बारंबार स्वयं ही ग्रहण करें।

‘प्र’ नाम है प्रकृतिसे उत्पन्न संसाररूपी महासागरका।

प्रणव इससे पार करनेके लिये दूसरी (नव) नाव है।

इसलिये इस ओंकारको ‘प्रणव’ की संज्ञा देते हैं।

ॐकार अपने जप करनेवाले साधकोंसे कहता है – ‘प्र – प्रपंच, न – नहीं है, वः – तुमलोगोंके लिये।’ अतः इस भावको लेकर भी ज्ञानी पुरुष ‘ओम्’ को ‘प्रणव’ नामसे जानते हैं।

इसका दूसरा भाव यों है – ‘प्र-प्रकर्षण, न-नयेत्, वः-युष्मान् मोक्षम् इति वा प्रणवः।

अर्थात् यह तुम सब उपासकोंको बलपूर्वक मोक्षतक पहुँचा देगा।’ इस अभिप्रायसे भी इसे ऋषि-मुनि ‘प्रणव’ कहते हैं।

अपना जप करनेवाले योगियोंके तथा अपने मन्त्रकी पूजा करनेवाले उपासकके समस्त कर्मोंका नाश करके यह दिव्य नूतन ज्ञान देता है; इसलिये भी इसका नाम प्रणव* है।

उन मायारहित महेश्वरको ही नव अर्थात् नूतन कहते हैं।

वे परमात्मा प्रकृष्टरूपसे नव अर्थात् शुद्धस्वरूप हैं, इसलिये ‘प्रणव’ कहलाते हैं।

प्रणव साधकको नव अर्थात् नवीन (शिवस्वरूप) कर देता है।

इसलिये भी विद्वान् पुरुष उसे प्रणवके नामसे जानते हैं।

अथवा प्रकृष्टरूपसे नव – दिव्य परमात्मज्ञान प्रकट करता है, इसलिये वह प्रणव है।

प्रणवके दो भेद बताये गये हैं – स्थूल और सूक्ष्म।

एक अक्षररूप जो ‘ओम्’ है, उसे सूक्ष्म प्रणव जानना चाहिये और ‘नमः शिवाय’ इस पाँच अक्षरवाले मन्त्रको स्थूल प्रणव समझना चाहिये।

जिसमें पाँच अक्षर व्यक्त नहीं हैं, वह सूक्ष्म है और जिसमें पाँचों अक्षर सुस्पष्ट-रूपसे व्यक्त हैं, वह स्थूल है।

जीवन्मुक्त पुरुषके लिये सूक्ष्म प्रणवके जपका विधान है।

वही उसके लिये समस्त साधनोंका सार है।

(यद्यपि जीवन्मुक्तके लिये किसी साधनकी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वह सिद्धरूप है, तथापि दूसरोंकी दृष्टिमें जबतक उसका शरीर रहता है, तबतक उसके द्वारा प्रणव-जपकी सहज साधना स्वतः होती रहती है।) वह अपनी देहका विलय होनेतक सूक्ष्म प्रणव मन्त्रका जप और उसके अर्थभूत परमात्म-तत्त्वका अनुसंधान करता रहता है।

जब शरीर नष्ट हो जाता है, तब वह पूर्ण ब्रह्मस्वरूप शिवको प्राप्त कर लेता है – यह सुनिश्चित बात है।

जो अर्थका अनुसंधान न करके केवल मन्त्रका जप करता है, उसे निश्चय ही योगकी प्राप्ति होती है।

जिसने छत्तीस करोड़ मन्त्रका जप कर लिया हो, उसे अवश्य ही योग प्राप्त हो जाता है।

सूक्ष्म प्रणवके भी ह्रस्व और दीर्घके भेदसे दो रूप जानने चाहिये।

अकार, उकार, मकार, बिन्दु, नाद, शब्द, काल और कला – इनसे युक्त जो प्रणव है, उसे ‘दीर्घ प्रणव’ कहते हैं।

वह योगियोंके ही हृदयमें स्थित होता है।

मकारपर्यन्त जो ओम् है, वह अ उ म् – इन तीन तत्त्वोंसे युक्त है।

इसीको ‘ह्रस्व प्रणव’ कहते हैं।

‘अ’ शिव है, ‘उ’ शक्ति है और मकार इन दोनोंकी एकता है।

वह त्रितत्त्वरूप है, ऐसा समझकर ह्रस्व प्रणवका जप करना चाहिये।

जो अपने समस्त पापोंका क्षय करना चाहते हैं, उनके लिये इस ह्रस्व प्रणवका जप अत्यन्त आवश्यक है।

पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश – ये पाँच भूत तथा शब्द, स्पर्श आदि इनके पाँच विषय – ये सब मिलकर दस वस्तुएँ मनुष्योंकी कामनाके विषय हैं।

इनकी आशा मनमें लेकर जो कर्मोंके अनुष्ठानमें संलग्न होते हैं, वे दस प्रकारके पुरुष प्रवृत्त (अथवा प्रवृत्तिमार्गी) कहलाते हैं तथा जो निष्कामभावसे शास्त्रविहित कर्मोंका अनुष्ठान करते हैं, वे निवृत्त (अथवा निवृत्तिमार्गी) कहे गये हैं।

प्रवृत्त पुरुषोंको ह्रस्व प्रणवका ही जप करना चाहिये और निवृत्त पुरुषोंको दीर्घ प्रणवका।

व्याहृतियों तथा अन्य मन्त्रोंके आदिमें इच्छानुसार शब्द और कलासे युक्त प्रणवका उच्चारण करना चाहिये।

वेदके आदिमें और दोनों संध्याओंकी उपासनाके समय भी ओंकारका उच्चारण करना चाहिये।

प्रणवका नौ करोड़ जप करनेसे मनुष्य शुद्ध हो जाता है।

फिर नौ करोड़का जप करनेसे वह पृथ्वीतत्त्वपर विजय पा लेता है।

तत्पश्चात् पुनः नौ करोड़का जप करके वह जल-तत्त्वको जीत लेता है।

पुनः नौ करोड़ जपसे अग्नितत्त्वपर विजय पाता है।

तदनन्तर फिर नौ करोड़का जप करके वह वायु-तत्त्वपर विजयी होता है।

फिर नौ करोड़के जपसे आकाशको अपने अधिकारमें कर लेता है।

इसी प्रकार नौ-नौ करोड़का जप करके वह क्रमशः गन्ध, रस, रूप, स्पर्श और शब्दपर विजय पाता है, इसके बाद फिर नौ करोड़का जप करके अहंकारको भी जीत लेता है।

इस तरह एक सौ आठ करोड़ प्रणवका जप करके उत्कृष्ट बोधको प्राप्त हुआ पुरुष शुद्ध योगका लाभ करता है।

शुद्ध योगसे युक्त होनेपर वह जीवन्मुक्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं है।

सदा प्रणवका जप और प्रणवरूपी शिवका ध्यान करते-करते समाधिमें स्थित हुआ महायोगी पुरुष साक्षात् शिव ही है, इसमें संशय नहीं है।

पहले अपने शरीरमें प्रणवके ऋषि, छन्द और देवता आदिका न्यास करके फिर जप आरम्भ करना चाहिये।

अकारादि मातृका वर्णोंसे युक्त प्रणवका अपने अंगोंमें न्यास करके मनुष्य ऋषि हो जाता है।

मन्त्रोंके दशविध१ संस्कार, मातृकान्यास तथा षडध्वशोधन२ आदिके साथ सम्पूर्ण न्यासफल उसे प्राप्त हो जाता है।

प्रवृत्ति तथा प्रवृत्ति-निवृत्तिसे मिश्रित भाववाले पुरुषोंके लिये स्थूल प्रणवका जप ही अभीष्ट साधक होता है।

क्रिया, तप और जपके योगसे शिव-योगी तीन प्रकारके होते हैं – जो क्रमशः क्रियायोगी, तपोयोगी और जपयोगी कहलाते हैं।

जो धन आदि वैभवोंसे पूजा-सामग्रीका संचय करके हाथ आदि अंगोंसे नमस्कारादि क्रिया करते हुए इष्टदेव-की पूजामें लगा रहता है, वह ‘क्रियायोगी’ कहलाता है।

पूजामें संलग्न रहकर जो परिमित भोजन करता, बाह्य इन्द्रियोंको जीतकर वशमें किये रहता और मनको भी वशमें करके परद्रोह आदिसे दूर रहता है, वह ‘तपोयोगी’ कहलाता है।

इन सभी सद् गुणोंसे युक्त होकर जो सदा शुद्धभावसे रहता तथा समस्त काम आदि दोषोंसे रहित हो शान्तचित्तसे निरन्तर जप किया करता है, उसे महात्मा पुरुष ‘जपयोगी’ मानते हैं।

जो मनुष्य सोलह प्रकारके उपचारोंसे शिवयोगी महात्माओंकी पूजा करता है, वह शुद्ध होकर सालोक्य आदिके क्रमसे उत्तरोत्तर उत्कृष्ट मुक्तिको प्राप्त कर लेता है।


कार्यब्रह्मके लोकोंसे लेकर कारणरुद्रके लोकोंतकका विवेचन करके कालातीत, पंचावरणविशिष्ट शिवलोकके अनिर्वचनीय वैभवका निरूपण तथा शिव-भक्तोंके सत्कारकी महत्ता

द्विजो! अब मैं जपयोगका वर्णन करता हूँ।

तुम सब लोग ध्यान देकर सुनो।

तपस्या करनेवालेके लिये जपका उपदेश किया गया है; क्योंकि वह जप करते-करते अपने-आपको सर्वथा शुद्ध (निष्पाप) कर लेता है।

ब्राह्मणो! पहले ‘नमः’ पद हो, उसके बाद चतुर्थी विभक्तिमें ‘शिव’ शब्द हो तो पंचतत्त्वात्मक ‘नमः शिवाय’ मन्त्र होता है।

इसे ‘शिव-पंचाक्षर’ कहते हैं।

यह स्थूल प्रणवरूप है।

इस पंचाक्षरके जपसे ही मनुष्य सम्पूर्ण सिद्धियोंको प्राप्त कर लेता है।

पंचाक्षरमन्त्रके आदिमें ओंकार लगाकर ही सदा उसका जप करना चाहिये।

द्विजो! गुरुके मुखसे पंचाक्षरमन्त्रका उपदेश पाकर जहाँ सुखपूर्वक निवास किया जा सके, ऐसी उत्तम भूमिपर महीनेके पूर्वपक्ष (शुक्ल)-में (प्रतिपदासे) आरम्भ करके कृष्णपक्षकी चतुर्दशीतक निरन्तर जप करता रहे।

माघ और भादोंके महीने अपना विशिष्ट महत्त्व रखते हैं।

यह समय सब समयोंसे उत्तमोत्तम माना गया है।

साधकको चाहिये कि वह प्रतिदिन एक बार परिमित भोजन करे, मौन रहे, इन्द्रियोंको वशमें रखे, अपने स्वामी एवं माता-पिताकी नित्य सेवा करे।

इस नियमसे रहकर जप करनेवाला पुरुष एक सहस्र जपसे ही शुद्ध हो जाता है, अन्यथा वह ऋणी होता है।

भगवान् शिवका निरन्तर चिन्तन करते हुए पंचाक्षरमन्त्रका पाँच लाख जप करे।

जपकालमें इस प्रकार ध्यान करे।

कल्याणदाता भगवान् शिव कमलके आसनपर विराजमान हैं।

उनका मस्तक श्रीगंगाजी तथा चन्द्रमाकी कलासे सुशोभित है।

उनकी बायीं जाँघपर आदिशक्ति भगवती उमा बैठी हैं।

वहाँ खड़े हुए बड़े-बड़े गण भगवान् शिवकी शोभा बढ़ा रहे हैं।

महादेवजी अपने चार हाथोंमें मृगमुद्रा, टंक तथा वर एवं अभयकी मुद्राएँ धारण किये हुए हैं।

इस प्रकार सदा सबपर अनुग्रह करनेवाले भगवान् सदाशिवका बारंबार स्मरण करते हुए हृदय अथवा सूर्यमण्डलमें पहले उनकी मानसिक पूजा करके फिर पूर्वाभिमुख हो पूर्वोक्त पंचाक्षरी विद्याका जप करे।

उन दिनों साधक सदा शुद्ध कर्म ही करे (और दुष्कर्मसे बचा रहे)।

जपकी समाप्तिके दिन कृष्णपक्षकी चतुर्दशीको प्रातःकाल नित्यकर्म करके शुद्ध एवं सुन्दर स्थानमें शौच-संतोषादि नियमोंसे युक्त हो शुद्ध हृदयसे पंचाक्षरमन्त्रका बारह सहस्र जप करे।

तत्पश्चात् पाँच सपत्नीक ब्राह्मणोंका, जो श्रेष्ठ एवं शिवभक्त हों, वरण करे।

इनके अतिरिक्त एक श्रेष्ठ आचार्यप्रवरका भी वरण करे और उसे साम्ब सदाशिव-का स्वरूप समझे।

ईशान, तत्पुरुष, अघोर, वामदेव तथा सद्योजात – इन पाँचोंके प्रतीकस्वरूप पाँच ही श्रेष्ठ और शिवभक्त ब्राह्मणोंका वरण करनेके पश्चात् पूजन-सामग्रीको एकत्र करके भगवान् शिवका पूजन आरम्भ करे।

विधिपूर्वक शिवकी पूजा सम्पन्न करके होम आरम्भ करे।

अपने गृह्यसूत्रके अनुसार सुखान्त कर्म करके अर्थात् परिसमूहन, उपलेपन, उल्लेखन, मृद्-उद्धरण और अभ्युक्षण – इन पंच भू-संस्कारोंके पश्चात् वेदीपर स्वाभिमुख अग्निको स्थापित करके कुशकण्डिकाके अनन्तर प्रज्वलित अग्निमें आज्यभागान्त आहुति देकर प्रस्तुत होमका कार्य आरम्भ करे।

कपिला गायके घीसे ग्यारह, एक सौ एक अथवा एक हजार एक आहुतियाँ स्वयं ही दे अथवा विद्वान् पुरुष शिवभक्त ब्राह्मणोंसे एक सौ आठ आहुतियाँ दिलाये।

होमकर्म समाप्त होनेपर गुरुको दक्षिणाके रूपमें एक गाय और बैल देने चाहिये।

ईशान आदिके प्रतीकरूप जिन पाँच ब्राह्मणोंका वरण किया गया हो, उनको ईशान आदिका स्वरूप ही समझे तथा आचार्यको साम्ब सदाशिवका स्वरूप माने।

इसी भावनाके साथ उन सबके चरण धोये और उनके चरणोदकसे अपने मस्तकको सींचे।

ऐसा करनेसे वह साधक अगणित तीर्थोंमें तत्काल स्नान करनेका फल प्राप्त कर लेता है।

उन ब्राह्मणोंको भक्तिपूर्वक दशांश अन्न देना चाहिये।

गुरुपत्नीको पराशक्ति मानकर उनका भी पूजन करे।

ईशानादि-क्रमसे उन सभी ब्राह्मणोंका उत्तम अन्नसे पूजन करके अपने वैभव-विस्तारके अनुसार रुद्राक्ष, वस्त्र, बड़ा और पूआ आदि अर्पित करे।

तदनन्तर दिक्पालादिको बलि देकर ब्राह्मणोंको भरपूर भोजन कराये।

इसके बाद देवेश्वर शिवसे प्रार्थना करके अपना जप समाप्त करे।

इस प्रकार पुरश्चरण करके मनुष्य उस मन्त्रको सिद्ध कर लेता है।

फिर पाँच लाख जप करनेसे समस्त पापोंका नाश हो जाता है।

तदनन्तर पुनः पाँच लाख जप करनेपर अतलसे लेकर सत्यलोकतक चौदहों भुवनोंपर क्रमशः अधिकार प्राप्त हो जाता है।

यदि अनुष्ठान पूर्ण होनेके पहले बीचमें ही साधककी मृत्यु हो जाय तो वह परलोकमें उत्तम भोग भोगनेके पश्चात् पुनः पृथ्वीपर जन्म लेकर पंचाक्षरमन्त्रके जपका अनुष्ठान करता है।

समस्त लोकोंका ऐश्वर्य पानेके पश्चात् वह मन्त्रको सिद्ध करनेवाला पुरुष यदि पुनः पाँच लाख जप करे तो उसे ब्रह्माजीका सामीप्य प्राप्त होता है।

पुनः पाँच लाख जप करनेसे सारूप्य नामक ऐश्वर्य प्राप्त होता है।

सौ लाख जप करनेसे वह साक्षात् ब्रह्माके समान हो जाता है।

इस तरह कार्य-ब्रह्म (हिरण्यगर्भ)-का सायुज्य प्राप्त करके वह उस ब्रह्माका प्रलय होनेतक उस लोकमें यथेष्ट भोग भोगता है।

फिर दूसरे कल्पका आरम्भ होनेपर वह ब्रह्माजीका पुत्र होता है।

उस समय फिर तपस्या करके दिव्य तेजसे प्रकाशित हो वह क्रमशः मुक्त हो जाता है।

पृथ्वी आदि कार्यस्वरूप भूतोंद्वारा पातालसे लेकर सत्यलोकपर्यन्त ब्रह्माजीके चौदह लोक क्रमशः निर्मित हुए हैं।

सत्यलोकसे ऊपर क्षमालोकतक जो चौदह भुवन हैं, वे भगवान् विष्णुके लोक हैं।

क्षमालोकसे ऊपर शुचिलोकपर्यन्त अट्ठाईस भुवन स्थित हैं।

शुचिलोकके अन्तर्गत कैलासमें प्राणियोंका संहार करनेवाले रुद्रदेव विराजमान हैं।

शुचिलोकसे ऊपर अहिंसालोकपर्यन्त छप्पन भुवनोंकी स्थिति है।

अहिंसालोकका आश्रय लेकर जो ज्ञानकैलास नामक नगर शोभा पाता है, उसमें कार्यभूत महेश्वर सबको अदृश्य करके रहते हैं।

अहिंसालोकके अन्तमें कालचक्रकी स्थिति है।

यहाँतक महेश्वरके विराट्-स्वरूपका वर्णन किया गया।

वहींतक लोकोंका तिरोधान अथवा लय होता है।

उससे नीचे कर्मोंका भोग है और उससे ऊपर ज्ञानका भोग।

उसके नीचे कर्ममाया है और उसके ऊपर ज्ञानमाया।

(अब मैं कर्ममाया और ज्ञानमायाका तात्पर्य बता रहा हूँ – ) ‘मा’ का अर्थ है लक्ष्मी।

उससे कर्मभोग यात – प्राप्त होता है।

इसलिये वह माया अथवा कर्ममाया कहलाती है।

इसी तरह मा अर्थात् लक्ष्मीसे ज्ञानभोग यात अर्थात् प्राप्त होता है।

इसलिये उसे माया या ज्ञानमाया कहा गया है।

उपर्युक्त सीमासे नीचे नश्वर भोग हैं और ऊपर नित्य भोग।

उससे नीचे ही तिरोधान अथवा लय है, ऊपर नहीं।

वहाँसे नीचे ही कर्ममय पाशोंद्वारा बन्धन होता है।

ऊपर बन्धनका सदा अभाव है।

उससे नीचे ही जीव सकाम कर्मोंका अनुसरण करते हुए विभिन्न लोकों और योनियोंमें चक्कर काटते हैं।

उससे ऊपरके लोकोंमें निष्काम कर्मका ही भोग बताया गया है।

बिन्दुपूजामें तत्पर रहनेवाले उपासक वहाँसे नीचेके लोकोंमें ही घूमते हैं।

उसके ऊपर तो निष्कामभावसे शिवलिंगकी पूजा करनेवाले उपासक ही जाते हैं।

जो एकमात्र शिवकी ही उपासनामें तत्पर हैं, वे उससे ऊपरके लोकोंमें जाते हैं।

वहाँसे नीचे जीवकोटि है और ऊपर ईश्वरकोटि।

नीचे संसारी जीव रहते हैं और ऊपर मुक्त पुरुष।

नीचे कर्मलोक है और ऊपर ज्ञानलोक।

ऊपर मद और अहंकारका नाश करनेवाली नम्रता है, वहाँ जन्मजनित तिरोधान नहीं है।

उसका निवारण किये बिना वहाँ किसीका प्रवेश सम्भव नहीं है।

इस प्रकार तिरोधानका निवारण करनेसे वहाँ ज्ञानशब्दका अर्थ ही प्रकाशित होता है।

आधिभौतिक पूजा करनेवाले लोग उससे नीचेके लोकोंमें ही चक्कर काटते हैं।

जो आध्यात्मिक उपासना करनेवाले हैं वे ही उससे ऊपरको जाते हैं।

जो सत्य, अहिंसा आदि धर्मोंसे युक्त हो भगवान् शिवके पूजनमें तत्पर रहते हैं, वे कालचक्रको पार कर जाते हैं।

काल-चक्रेश्वरकी सीमातक जो विराट् महेश्वरलोक बताया गया है, उससे ऊपर वृषभके आकारमें धर्मकी स्थिति है।

वह ब्रह्मचर्यका मूर्तिमान् रूप हैं।

उसके सत्य, शौच, अहिंसा और दया – ये चार पाद हैं।

वह साक्षात् शिवलोकके द्वारपर खड़ा है।

क्षमा उसके सींग हैं, शम कान है, वह वेदध्वनिरूपी शब्दसे विभूषित है।

आस्तिकता उसके दोनों नेत्र हैं, विश्वास ही उसकी श्रेष्ठ बुद्धि एवं मन है।

क्रिया आदि धर्मरूपी जो वृषभ हैं, वे कारण आदिमें स्थित हैं – ऐसा जानना चाहिये।

उस क्रियारूप वृषभाकार धर्मपर कालातीत शिव आरूढ़ होते हैं।

ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वरकी जो अपनी-अपनी आयु है, उसीको दिन कहते हैं।

जहाँ धर्मरूपी वृषभकी स्थिति है, उससे ऊपर न दिन है न रात्रि।

वहाँ जन्म-मरण आदि भी नहीं हैं।

वहाँ फिरसे कारणस्वरूप ब्रह्माके कारण सत्यलोकपर्यन्त चौदह लोक स्थित हैं, जो पांचभौतिक गन्ध आदिसे परे हैं।

उनकी सनातन स्थिति है।

सूक्ष्म गन्ध ही उनका स्वरूप है।

उनसे ऊपर फिर कारणरूप विष्णुके चौदह लोक स्थित हैं।

उनसे भी ऊपर फिर कारणरूपी रुद्रके अट्ठाईस लोकोंकी स्थिति मानी गयी है।

फिर उनसे भी ऊपर कारणेश शिवके छप्पन लोक विद्यमान हैं।

तदनन्तर शिवसम्मत ब्रह्मचर्यलोक है और वहीं पाँच आवरणोंसे युक्त ज्ञानमय कैलास है, जहाँ पाँच मण्डलों, पाँच ब्रह्मकलाओं और आदिशक्तिसे संयुक्त आदिलिंग प्रतिष्ठित है।

उसे परमात्मा शिवका शिवालय कहा गया है।

वहीं पराशक्तिसे युक्त परमेश्वर शिव निवास करते हैं।

वे सृष्टि, पालन, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह – इन पाँचों कृत्योंमें प्रवीण हैं।

उनका श्रीविग्रह सच्चिदानन्दस्वरूप है।

वे सदा ध्यानरूपी धर्ममें ही स्थित रहते हैं और सदा सबपर अनुग्रह किया करते हैं।

वे स्वात्माराम हैं और समाधिरूपी आसनपर आसीन हो नित्य विराजमान होते हैं।

कर्म एवं ध्यान आदिका अनुष्ठान करनेसे क्रमशः साधनपथमें आगे बढ़नेपर उनका दर्शन साध्य होता है।

नित्य-नैमित्तिक आदि कर्मोंद्वारा देवताओंका यजन करनेसे भगवान् शिवके समाराधन-कर्ममें मन लगता है।

क्रिया आदि जो शिवसम्बन्धी कर्म हैं, उनके द्वारा शिवज्ञान सिद्ध करे।

जिन्होंने शिवतत्त्वका साक्षात्कार कर लिया है अथवा जिनपर शिवकी कृपादृष्टि पड़ चुकी है, वे सब मुक्त ही हैं – इसमें संशय नहीं है।

आत्मस्वरूपसे जो स्थिति है, वही मुक्ति है।

एकमात्र अपने आत्मामें रमण या आनन्दका अनुभव करना ही मुक्तिका स्वरूप है।

जो पुरुष क्रिया, तप, जप, ज्ञान और ध्यानरूपी धर्मोंमें भलीभाँति स्थित है, वह शिवका साक्षात्कार करके स्वात्मारामत्वरूप मोक्षको भी प्राप्त कर लेता है।

जैसे सूर्यदेव अपनी किरणोंसे अशुद्धिको दूर कर देते हैं, उसी प्रकार कृपा करनेमें कुशल भगवान् शिव अपने भक्तके अज्ञानको मिटा देते हैं।

अज्ञानकी निवृत्ति हो जानेपर शिवज्ञान स्वतः प्रकट हो जाता है।

शिवज्ञानसे अपना विशुद्ध स्वरूप आत्मारामत्व प्राप्त होता है और आत्मारामत्वकी सम्यक् सिद्धि हो जानेपर मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है।

इस तरह यहाँ जो कुछ बताया गया है।

वह पहले मुझे गुरुपरम्परासे प्राप्त हुआ था।

तत्पश्चात् मैंने पुनः नन्दीश्वरके मुखसे इस विषयको सुना था।

नन्दिस्थानसे परे जो स्वसंवेद्य शिव-वैभव है, उसका अनुभव केवल भगवान् शिवको ही है।

साक्षात् शिवलोकके उस वैभवका ज्ञान सबको शिवकी कृपासे ही हो सकता है, अन्यथा नहीं – ऐसा आस्तिक पुरुषोंका कथन है।

साधकको चाहिये कि वह पाँच लाख जप करनेके पश्चात् भगवान् शिवकी प्रसन्नताके लिये महाभिषेक एवं नैवेद्य निवेदन करके शिवभक्तोंका पूजन करे।

भक्तकी पूजासे भगवान् शिव बहुत प्रसन्न होते हैं।

शिव और उनके भक्तमें कोई भेद नहीं है।

वह साक्षात् शिवस्वरूप ही है।

शिवस्वरूप मन्त्रको धारण करके वह शिव ही हो गया रहता है।

शिवभक्तका शरीर शिवरूप ही है।

अतः उसकी सेवामें तत्पर रहना चाहिये।

जो शिवके भक्त हैं, वे लोक और वेदकी सारी क्रियाओंको जानते हैं।

जो क्रमशः जितना-जितना शिवमन्त्रका जप कर लेता है, उसके शरीरको उतना-ही-उतना शिवका सामीप्य प्राप्त होता जाता है, इसमें संशय नहीं है।

शिवभक्त स्त्रीका रूप देवी पार्वतीका ही स्वरूप है।

वह जितना मन्त्र जपती है, उसे उतना ही देवीका सांनिध्य प्राप्त होता जाता है।

साधक स्वयं शिवस्वरूप होकर पराशक्तिका पूजन करे।

शक्ति, वेर तथा लिंगका चित्र बनाकर अथवा मिट्टी आदिसे इनकी आकृतिका निर्माण करके प्राणप्रतिष्ठापूर्वक निष्कपट-भावसे इनका पूजन करे।

शिवलिंगको शिव मानकर, अपनेको शक्तिरूप समझकर, शक्तिलिंगको देवी मानकर और अपनेको शिवरूप समझकर, शिवलिंगको नादरूप तथा शक्तिको बिन्दुरूप मानकर परस्पर सटे हुए शक्तिलिंग और शिवलिंगके प्रति उपप्रधान और प्रधानकी भावना रखते हुए जो शिव और शक्तिका पूजन करता है, वह मूलरूपकी भावना करनेके कारण शिवरूप ही है।

शिवभक्त शिव-मन्त्ररूप होनेके कारण शिवके ही स्वरूप हैं।

जो सोलह उपचारोंसे उनकी पूजा करता है, उसे अभीष्ट वस्तुकी प्राप्ति होती है।

जो शिवलिंगोपासक शिवभक्तकी सेवा आदि करके उसे आनन्द प्रदान करता है, उस विद्वान् पर भगवान् शिव बड़े प्रसन्न होते हैं।

पाँच, दस या सौ सपत्नीक शिवभक्तोंको बुलाकर भोजन आदिके द्वारा पत्नीसहित उनका सदैव समादर करे।

धनमें, देहमें और मन्त्रमें शिवभावना रखते हुए उन्हें शिव और शक्तिका स्वरूप जानकर निष्कपट-भावसे उनकी पूजा करे।

ऐसा करनेवाला पुरुष इस भूतलपर फिर जन्म नहीं लेता।

(अध्याय १७) * प्र (कर्मक्षयपूर्वक) नव (नूतन ज्ञान देनेवाला)।

१. मन्त्रोंके दस संस्कार ये हैं – जनन, दीपन, बोधन, ताड़न, अभिषेचन, विमलीकरण, जीवन, तर्पण, गोपन और आप्यायन।

इनकी विधि इस प्रकार है – भोजपत्रपर गोरोचन, कुंकुम, चन्दनादिसे आत्माभिमुख त्रिकोण लिखे, फिर तीनों कोणोंमें छः-छः समान रेखाएँ खींचे।

ऐसा करनेपर ४९ त्रिकोण कोष्ठ बनेंगे।

उनमें ईशानकोणसे मातृकावर्ण लिखकर देवताका आवाहन-पूजन करके मन्त्रका एक-एक वर्ण उच्चारण करके अलग पत्रपर लिखे।

ऐसा करनेपर ‘जनन’ नामका प्रथम संस्कार होगा।

हंसमन्त्रका सम्पुट करनेसे एक हजार जपद्वारा मन्त्रका दूसरा ‘दीपन’ संस्कार होता है।

यथा – हंसः रामाय नमः सोऽहम्।

ह्रूँ-बीज-सम्पुटित मन्त्रका पाँच हजार जप करनेसे ‘बोधन’ नामक तीसरा संस्कार होता है।

यथा – ह्रूँ रामाय नमः ह्रूँ।

फट्-सम्पुटित मन्त्रका एक हजार जप करनेसे ‘ताड़न’ नामक चतुर्थ संस्कार होता है।

यथा – फट् रामाय नमः फट्।

भूर्जपत्रपर मन्त्र लिखकर ‘रों हंसः ओं’ इस मन्त्रसे जलको अभिमन्त्रित करे और उस अभिमन्त्रित जलसे अश्वत्थपत्रादिद्वारा मन्त्रका अभिषेक करे।

ऐसा करनेपर ‘अभिषेक’ नामक पाँचवाँ संस्कार होता है।

‘ओं त्रों वषट्’ इन वर्णोंसे सम्पुटित मन्त्रका एक हजार जप करनेसे ‘विमलीकरण’ नामक छठा संस्कार होता है।

यथा – ओं त्रों वषट् रामाय नमः वषट् त्रों ओं।

स्वधा-वषट्-सम्पुटित मूलमन्त्रका एक हजार जप करनेसे ‘जीवन’ नामक सातवाँ संस्कार होता है।

यथा – स्वधा वषट् रामाय नमः वषट् स्वधा।

दुग्ध, जल एवं घृतके द्वारा मूलमन्त्रसे सौ बार तर्पण करना ही ‘तर्पण’ संस्कार है।

ह्रीं-बीज-सम्पुटित एक हजार जप करनेसे ‘गोपन’ नामक नवम संस्कार होता है।

यथा – ह्रीं रामाय नमः ह्रीं।

ह्रौं-बीज-सम्पुटित एक हजार जप करनेसे ‘आप्यायन’ नामक दसवाँ संस्कार होता है।

यथा – ह्रौं रामाय नमः ह्रौं १०००।

इस प्रकार संस्कृत किया हुआ मन्त्र शीघ्र सिद्धिप्रद होता है।

२. षडध्व-शोधनका कार्य हौत्री दीक्षाके अन्तर्गत है।

उसमें पहले कुण्डमें या वेदीपर अग्निस्थापन होता है।

वहाँ षडध्वाका शोधन करके होमसे ही दीक्षा सम्पन्न होती है।

विस्तार-भयसे अधिक विवरण नहीं दिया जा रहा है।


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