शिव पुराण - विद्येश्वर संहिता - 10

शिव पुराण – विद्येश्वर संहिता – 10


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विभिन्न यज्ञों का और सप्ताह के सातों वारों का महत्व

अग्नियज्ञ, देवयज्ञ और ब्रह्मयज्ञ आदिका वर्णन

ऋषियोंने कहा – प्रभो! अग्नियज्ञ, देव-यज्ञ, ब्रह्मयज्ञ, गुरुपूजा तथा ब्रह्मतृप्तिका हमारे समक्ष क्रमशः वर्णन कीजिये।

सूतजी बोले – महर्षियो! गृहस्थ पुरुष अग्निमें सायंकाल और प्रातःकाल जो चावल आदि द्रव्यकी आहुति देता है, उसीको अग्नियज्ञ कहते हैं।

जो ब्रह्मचर्य आश्रममें स्थित हैं, उन ब्रह्मचारियोंके लिये समिधाका आधान ही अग्नियज्ञ है।

वे समिधाका ही अग्निमें हवन करें।

ब्राह्मणो! ब्रह्मचर्य आश्रममें निवास करनेवाले द्विजोंका जबतक विवाह न हो जाय और वे औपासनाग्निकी प्रतिष्ठा न कर लें, तबतक उनके लिये अग्निमें समिधाकी आहुति, व्रत आदिका पालन तथा विशेष यजन आदि ही कर्तव्य है (यही उनके लिये अग्नियज्ञ है)।

द्विजो! जिन्होंने बाह्य अग्निको विसर्जित करके अपने आत्मामें ही अग्निका आरोप कर लिया है, ऐसे वानप्रस्थियों और संन्यासियोंके लिये यही हवन या अग्नियज्ञ है कि वे विहित समयपर हितकर, परिमित और पवित्र अन्नका भोजन कर लें।

ब्राह्मणो! सायंकाल अग्निके लिये दी हुई आहुति सम्पत्ति प्रदान करनेवाली होती है, ऐसा जानना चाहिये और प्रातःकाल सूर्यदेवको दी हुई आहुति आयुकी वृद्धि करनेवाली होती है, यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिये।

दिनमें अग्निदेव सूर्यमें ही प्रविष्ट हो जाते हैं।

अतः प्रातःकाल सूर्यको दी हुई आहुति भी अग्नियज्ञके ही अन्तर्गत है।

इस प्रकार यह अग्नियज्ञका वर्णन किया गया।

इन्द्र आदि समस्त देवताओंके उद्देश्यसे अग्निमें जो आहुति दी जाती है, उसे देवयज्ञ समझना चाहिये।

स्थालीपाक आदि यज्ञोंको देवयज्ञ ही मानना चाहिये।

लौकिक अग्निमें प्रतिष्ठित जो चूडाकरण आदि संस्कार-निमित्तक हवन-कर्म हैं, उन्हें भी देवयज्ञके ही अन्तर्गत जानना चाहिये।

अब ब्रह्मयज्ञका वर्णन सुनो।

द्विजको चाहिये कि वह देवताओंकी तृप्तिके लिये निरन्तर ब्रह्मयज्ञ करे।

वेदोंका जो नित्य अध्ययन या स्वाध्याय होता है, उसीको ब्रह्मयज्ञ कहा गया है, प्रातः नित्यकर्मके अनन्तर सायंकालतक ब्रह्मयज्ञ किया जा सकता है।

उसके बाद रातमें इसका विधान नहीं है।

अग्निके बिना देवयज्ञ कैसे सम्पन्न होता है, इसे तुमलोग श्रद्धासे और आदरपूर्वक सुनो।

सृष्टिके आरम्भमें सर्वज्ञ, दयालु और सर्वसमर्थ महादेवजीने समस्त लोकोंके उपकारके लिये वारोंकी कल्पना की।

वे भगवान् शिव संसाररूपी रोगको दूर करनेके लिये वैद्य हैं।

सबके ज्ञाता तथा समस्त औषधोंके भी औषध हैं।


भगवान् शिवके द्वारा सातों वारोंका निर्माण तथा उनमें देवाराधनसे विभिन्न प्रकारके फलोंकी प्राप्तिका कथन

उन भगवान् ने पहले अपने वारकी कल्पना की, जो आरोग्य प्रदान करनेवाला है।

तत्पश्चात् अपनी मायाशक्तिका वार बनाया, जो सम्पत्ति प्रदान करनेवाला है।

जन्मकालमें दुर्गतिग्रस्त बालककी रक्षाके लिये उन्होंने कुमारके वारकी कल्पना की।

तत्पश्चात् सर्वसमर्थ महादेवजीने आलस्य और पापकी निवृत्ति तथा समस्त लोकोंका हित करनेकी इच्छासे लोकरक्षक भगवान् विष्णुका वार बनाया।

इसके बाद सबके स्वामी भगवान् शिवने पुष्टि और रक्षाके लिये आयुःकर्ता त्रिलोकस्रष्टा परमेष्ठी ब्रह्माका आयुष्कारक वार बनाया, जिससे सम्पूर्ण जगत् के आयुष्यकी सिद्धि हो सके।

इसके बाद तीनों लोकोंकी वृद्धिके लिये पहले पुण्य-पापकी रचना हो जानेपर उनके करनेवाले लोगोंको शुभाशुभ फल देनेके लिये भगवान् शिवने इन्द्र और यमके वारोंका निर्माण किया।

ये दोनों वार क्रमशः भोग देनेवाले तथा लोगोंके मृत्युभयको दूर करनेवाले हैं।

इसके बाद सूर्य आदि सात ग्रहोंको, जो अपने ही स्वरूपभूत तथा प्राणियोंके लिये सुख-दुःखके सूचक हैं, भगवान् शिवने उपर्युक्त सात वारोंका स्वामी निश्चित किया।

वे सब-के-सब ग्रह-नक्षत्रोंके ज्योतिर्मय मण्डलमें प्रतिष्ठित हैं।

शिवके वार या दिनके स्वामी सूर्य हैं।

शक्तिसम्बन्धी वारके स्वामी सोम हैं।

कुमारसम्बन्धी दिनके अधिपति मंगल हैं।

विष्णुवारके स्वामी बुध हैं।

ब्रह्माजीके वारके अधिपति बृहस्पति हैं।

इन्द्रवारके स्वामी शुक्र और यमवारके स्वामी शनैश्चर हैं।

अपने-अपने वारमें की हुई उन देवताओंकी पूजा उनके अपने-अपने फलको देनेवाली होती है।

सूर्य आरोग्यके और चन्द्रमा सम्पत्तिके दाता हैं।

मंगल व्याधियोंका निवारण करते हैं, बुध पुष्टि देते हैं।

बृहस्पति आयुकी वृद्धि करते हैं।

शुक्र भोग देते हैं और शनैश्चर मृत्युका निवारण करते हैं।

ये सात वारोंके क्रमशः फल बताये गये हैं, जो उन-उन देवताओंकी प्रीतिसे प्राप्त होते हैं।

अन्य देवताओंकी भी पूजाका फल देनेवाले भगवान् शिव ही हैं।

देवताओंकी प्रसन्नताके लिये पूजाकी पाँच प्रकारकी ही पद्धति बनायी गयी।

उन-उन देवताओंके मन्त्रोंका जप यह पहला प्रकार है।

उनके लिये होम करना दूसरा, दान करना तीसरा तथा तप करना चौथा प्रकार है।

किसी वेदीपर, प्रतिमामें, अग्निमें अथवा ब्राह्मणके शरीरमें आराध्य देवताकी भावना करके सोलह उपचारोंसे उनकी पूजा या आराधना करना पाँचवाँ प्रकार है।

इनमें पूजाके उत्तरोत्तर आधार श्रेष्ठ हैं।

पूर्व-पूर्वके अभावमें उत्तरोत्तर आधारका अवलम्बन करना चाहिये।

दोनों नेत्रों तथा मस्तकके रोगमें और कुष्ठ रोगकी शान्तिके लिये भगवान् सूर्यकी पूजा करके ब्राह्मणोंको भोजन कराये।

तदनन्तर एक दिन, एक मास, एक वर्ष अथवा तीन वर्षतक लगातार ऐसा साधन करना चाहिये।

इससे यदि प्रबल प्रारब्धका निर्माण हो जाय तो रोग एवं जरा आदि रोगोंका नाश हो जाता है।

इष्टदेवके नाममन्त्रोंका जप आदि साधन वार आदिके अनुसार फल देते हैं।

रविवारको सूर्यदेवके लिये, अन्य देवताओंके लिये तथा ब्राह्मणोंके लिये विशिष्ट वस्तु अर्पित करे।

यह साधन विशिष्ट फल देनेवाला होता है तथा इसके द्वारा विशेषरूपसे पापोंकी शान्ति होती है।

सोमवारको विद्वान् पुरुष सम्पत्तिकी प्राप्तिके लिये लक्ष्मी आदिकी पूजा करे तथा सपत्नीक ब्राह्मणोंको घृतपक्व अन्नका भोजन कराये।

मंगलवारको रोगोंकी शान्तिके लिये काली आदिकी पूजा करे तथा उड़द, मूँग एवं अरहरकी दाल आदिसे युक्त अन्न ब्राह्मणोंको भोजन कराये।

बुधवारको विद्वान् पुरुष दधियुक्त अन्नसे भगवान् विष्णुका पूजन करे।

ऐसा करनेसे सदा पुत्र, मित्र और कलत्र आदिकी पुष्टि होती है।

जो दीर्घायु होनेकी इच्छा रखता हो, वह गुरुवारको देवताओंकी पुष्टिके लिये वस्त्र, यज्ञोपवीत तथा घृतमिश्रित खीरसे यजन-पूजन करे।

भोगोंकी प्राप्तिके लिये शुक्रवारको एकाग्रचित्त होकर देवताओंका पूजन करे और ब्राह्मणोंकी तृप्तिके लिये षड् रस युक्त अन्न दे।

इसी प्रकार स्त्रियोंकी प्रसन्नताके लिये सुन्दर वस्त्र आदिका विधान करे।

शनैश्चर अपमृत्युका निवारण करनेवाला है।

उस दिन बुद्धिमान् पुरुष रुद्र आदिकी पूजा करे।

तिलके होमसे, दानसे देवताओंको संतुष्ट करके ब्राह्मणोंको तिलमिश्रित अन्न भोजन कराये।

जो इस तरह देवताओंकी पूजा करेगा, वह आरोग्य आदि फलका भागी होगा।

देवताओंके नित्य-पूजन, विशेष-पूजन, स्नान, दान, जप, होम तथा ब्राह्मण-तर्पण आदिमें एवं रवि आदि वारोंमें विशेष तिथि और नक्षत्रोंका योग प्राप्त होनेपर विभिन्न देवताओंके पूजनमें सर्वज्ञ जगदीश्वर भगवान् शिव ही उन-उन देवताओंके रूपमें पूजित हो सब लोगोंको आरोग्य आदि फल प्रदान करते हैं।

देश, काल, पात्र, द्रव्य, श्रद्धा एवं लोकके अनुसार उनके तारतम्य क्रमका ध्यान रखते हुए महादेवजी आराधना करनेवाले लोगोंको आरोग्य आदि फल देते हैं।

शुभ (मांगलिक कर्म)-के आरम्भमें और अशुभ (अन्त्येष्टि आदि कर्म)-के अन्तमें तथा जन्म-नक्षत्रोंके आनेपर गृहस्थ पुरुष अपने घरमें आरोग्य आदिकी समृद्धिके लिये सूर्य आदि ग्रहोंका पूजन करे।

इससे सिद्ध है कि देवताओंका यजन सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओंको देनेवाला है।

ब्राह्मणोंका देवयजन कर्म वैदिक मन्त्रके साथ होना चाहिये।

(यहाँ ब्राह्मण शब्द क्षत्रिय और वैश्यका भी उपलक्षण है।) शूद्र आदि दूसरोंका देवयज्ञ तान्त्रिक विधिसे होना चाहिये।

शुभ फलकी इच्छा रखनेवाले मनुष्योंको सातों ही दिन अपनी शक्तिके अनुसार सदा देवपूजन करना चाहिये।

निर्धन मनुष्य तपस्या (व्रत आदिके कष्ट-सहन)-द्वारा और धनी धनके द्वारा देवताओंकी आराधना करे।

वह बार-बार श्रद्धापूर्वक इस तरहके धर्मका अनुष्ठान करता है और बारंबार पुण्यलोकोंमें नाना प्रकारके फल भोगकर पुनः इस पृथ्वीपर जन्म ग्रहण करता है।

धनवान् पुरुष सदा भोग-सिद्धिके लिये मार्गमें वृक्षादि लगाकर लोगोंके लिये छायाकी व्यवस्था करे।

जलाशय (कुँआ, बावली और पोखरे) बनवाये।

वेदशास्त्रोंकी प्रतिष्ठाके लिये पाठशालाका निर्माण करे तथा अन्यान्य प्रकारसे भी धर्मका संग्रह करता रहे।

धनीको यह सब कार्य सदा ही करते रहना चाहिये।

समयानुसार पुण्यकर्मोंके परिपाकसे अन्तःकरण शुद्ध होनेपर ज्ञानकी सिद्धि हो जाती है।

द्विजो! जो इस अध्यायको सुनता, पढ़ता अथवा सुननेकी व्यवस्था करता है, उसे देवयज्ञका फल प्राप्त होता है। (अध्याय १४)


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