शिव पुराण – वायवीय संहिता – उत्तरखण्ड – 9


<< श्रीशिवपुराण – Index

<< शिव पुराण – वायवीय संहिता – उत्तरखण्ड – 8

शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


शिवके अवतार, योगाचार्यों तथा उनके शिष्योंकी नामावली

श्रीकृष्ण बोले – भगवन्! समस्त युगावर्तोंमें योगाचार्यके व्याजसे भगवान् शंकरके जो अवतार होते हैं और उन अवतारोंके जो शिष्य होते हैं, उन सबका वर्णन कीजिये।

उपमन्युने कहा – श्वेत, सुतार, मदन, सुहोत्र, कंकलौगाक्षि, महामायावी जैगीषव्य, दधिवाह, ऋषभ मुनि, उग्र, अत्रि, सुपालक, गौतम, वेदशिरा मुनि, गोकर्ण, गुहावासी, शिखण्डी, जटामाली, अट्टहास, दारुक, लांगुली, महाकाल, शूली, दण्डी, मुण्डीश, सहिष्णु, सोमशर्मा और नकुलीश्वर – ये वाराह कल्पके इस सातवें मन्वन्तरमें युगक्रमसे अट्ठाईस योगाचार्य प्रकट हुए हैं।

इनमेंसे प्रत्येकके शान्तचित्तवाले चार-चार शिष्य हुए हैं, जो श्वेतसे लेकर रुष्यपर्यन्त बताये गये हैं।

मैं उनका क्रमशः वर्णन करता हूँ, सुनो।

श्वेत, श्वेतशिख, श्वेताश्व, श्वेतलोहित, दुन्दुभि, शतरूप, ऋचीक, केतुमान, विकोश, विकेश, विपाश, पाशनाशन, सुमुख, दुर्मुख, दुर्गम, दुरतिक्रम, सनत्कुमार, सनक, सनन्दन, सनातन, सुधामा, विरजा, शंख, अण्डज, सारस्वत, मेघ, मेघवाह, सुवाहक, कपिल, आसुरि, पंचशिख, वाष्कल, पराशर, गर्ग, भार्गव, अंगिरा, बलबन्धु, निरामित्र, केतुशृंग, तपोधन, लम्बोदर, लम्ब, लम्बात्मा, लम्बकेशक, सर्वज्ञ, समबुद्धि, साध्य, सिद्धि, सुधामा, कश्यप, वसिष्ठ, विरजा, अत्रि, उग्र, गुरुश्रेष्ठ, श्रवण, श्रविष्ठक, कुणि, कुणबाहु, कुशरीर, कुनेत्रक, काश्यप, उशना, च्यवन, बृहस्पति, उतथ्य, वामदेव, महाकाल, महानिल, वाचःश्रवा, सुवीर, श्यावक, यतीश्वर, हिरण्यनाभ, कौशल्य, लोकाक्षि, कुथुमि, सुमन्तु, जैमिनी, कुबन्ध, कुशकन्धर, प्लक्ष, दार्भायणि, केतुमान, गौतम, भल्लवी, मधुपिंग, श्वेतकेतु, उशिज, बृहदश्व, देवल, कवि, शालिहोत्र, सुवेष, युवनाश्व, शरद्वसु, छगल, कुम्भकर्ण, कुम्भ, प्रबाहुक, उलूक, विद्युत्, शम्बूक, आश्वलायन, अक्षपाद, कणाद, उलूक, वत्स, कुशिक, गर्ग, मित्रक और रुष्य – ये योगाचार्यरूपी महेश्वरके शिष्य हैं।

इनकी संख्या एक सौ बारह है।

ये सब-के-सब सिद्ध पाशुपत हैं।

इनका शरीर भस्मसे विभूषित रहता है।

ये सम्पूर्ण शास्त्रोंके तत्त्वज्ञ, वेद और वेदांगोंके पारंगत विद्वान्, शिवाश्रममें अनुरक्त, शिवज्ञानपरायण, सब प्रकारकी आसक्तियोंसे मुक्त, एकमात्र भगवान् शिवमें ही मनको लगाये रखनेवाले, सम्पूर्ण द्वन्द्वोंको सहनेवाले, धीर, सर्वभूतहितकारी, सरल, कोमल, स्वस्थ, क्रोधशून्य और जितेन्द्रिय होते हैं, रुद्राक्षकी माला ही इनका आभूषण है।

उनके मस्तक त्रिपुण्ड्रसे अंकित होते हैं।

उनमेंसे कोई तो शिखाके रूपमें ही जटा धारण करते हैं।

किन्हींके सारे केश ही जटारूप होते हैं।

कोई-कोई ऐसे हैं, जो जटा नहीं रखते हैं और कितने ही सदा माथा मुड़ाये रहते हैं।

वे प्रायः फल-मूलका आहार करते हैं।

प्राणायाम-साधनमें तत्पर होते हैं।

‘मैं शिवका हूँ’ इस अभिमानसे युक्त होते हैं।

सदा शिवके ही चिन्तनमें लगे रहते हैं।

उन्होंने संसाररूपी विषवृक्षके अंकुरको मथ डाला है।

वे सदा परमधाममें जानेके लिये ही कटिबद्ध होते हैं।

जो योगाचार्योंसहित इन शिष्योंको जान-मानकर सदा शिवकी आराधना करता है, वह शिवका सायुज्य प्राप्त कर लेता है, इसमें कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये।

(अध्याय ९)


Next.. आगे पढें….. >> शिव पुराण – वायवीय संहिता – उत्तरखण्ड – 10

शिव पुराण – वायवीय संहिता – उत्तरखण्ड का अगला पेज पढ़ने के लिए क्लिक करें >>

शिव पुराण – वायवीय संहिता – उत्तरखण्ड – 10


Shiv Purana List


Shiv Stotra, Mantra


Shiv Bhajan, Aarti, Chalisa