<< शिव पुराण – वायवीय संहिता – उत्तरखण्ड – 31
शिव पुराण संहिता लिंक – विद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय
ध्यान और उसकी महिमा, योगधर्म तथा शिवयोगीका महत्त्व, शिवभक्त या शिवके लिये प्राण देने अथवा शिवक्षेत्रमें मरणसे तत्काल मोक्ष-लाभका कथन
उपमन्यु कहते हैं – श्रीकृष्ण! श्रीकण्ठनाथका स्मरण करनेवाले लोगोंके सम्पूर्ण मनोरथोंकी सिद्धि तत्काल हो जाती है, ऐसा जानकर कुछ योगी उनका ध्यान अवश्य करते हैं।
कुछ लोग मनकी स्थिरताके लिये स्थूलरूपका ध्यान करते हैं।
स्थूल-रूपके चिन्तनमें लगकर जब चित्त निश्चल हो जाता है, तब सूक्ष्मरूपमें वह स्थिर होता है।
भगवान् शिवका चिन्तन करनेपर सब सिद्धियाँ प्रत्यक्ष सिद्ध हो जाती हैं।
अन्य मूर्तियोंका ध्यान करनेपर भी शिवरूपका अवश्य चिन्तन करना चाहिये।
जिस-जिस रूपमें मनकी स्थिरता लक्षित हो, उस-उसका बारंबार ध्यान करना चाहिये।
ध्यान पहले सविषय होता है, फिर निर्विषय होता है – ऐसा ज्ञानी पुरुषोंका कथन है।
इस विषयमें कुछ सत्पुरुषोंका मत है कि कोई भी ध्यान निर्विषय होता ही नहीं।
बुद्धिकी ही कोई प्रवाहरूपा संतति ‘ध्यान’ कहलाती है, इसलिये निर्विषय बुद्धि केवल – निर्गुण-निराकार ब्रह्ममें ही प्रवृत्त होती है।
अतः सविषय ध्यान प्रातःकालके सूर्यकी किरणोंके समान ज्योतिका आश्रय लेनेवाला है।
तथा निर्विषय ध्यान सूक्ष्मतत्त्वका अवलम्बन करनेवाला है।
इन दोके सिवा और कोई ध्यान वास्तवमें नहीं है।
अथवा सविषय ध्यान साकार स्वरूपका अवलम्बन करनेवाला है तथा निराकार स्वरूपका जो बोध या अनुभव है, वही निर्विषय ध्यान माना गया है।
वह सविषय और निर्विषय ध्यान ही क्रमशः सबीज और निर्बीज कहा जाता है।
निराकारका आश्रय लेनेसे उसे निर्बीज और साकारका आश्रय लेनेसे सबीजकी संज्ञा दी गयी है।
अतः पहले सविषय या सबीज ध्यान करके अन्तमें सब प्रकारकी सिद्धिके लिये निर्विषय अथवा निर्बीज ध्यान करना चाहिये।
प्राणायाम करनेसे क्रमशः शान्ति आदि दिव्य सिद्धियाँ सिद्ध होती हैं।
उनके नाम हैं – शान्ति, प्रशान्ति, दीप्ति और प्रसाद।
समस्त आपदाओंके शमनको ही शान्ति कहा गया है।
तम (अज्ञान)-का बाहर और भीतरसे नाश ही प्रशान्ति है।
बाहर और भीतर जो ज्ञानका प्रकाश होता है, उसका नाम दीप्ति है तथा बुद्धिकी जो स्वस्थता (आत्मनिष्ठता) है, उसीको प्रसाद कहा गया है।
बाह्य और आभ्यन्तरसहित जो समस्त करण हैं, वे बुद्धिके प्रसादसे शीघ्र ही प्रसन्न (निर्मल) हो जाते हैं।
ध्याता, ध्यान, ध्येय और ध्यान-प्रयोजन – इन चारको जानकर ध्यान करनेवाला पुरुष ध्यान करे।
जो ज्ञान और वैराग्यसे सम्पन्न हो, सदा शान्तचित्त रहता हो, श्रद्धालु हो और जिसकी बुद्धि प्रसादगुणसे युक्त हो, ऐसे साधकको ही सत्पुरुषोंने ध्याता कहा है।
‘ध्यै चिन्तायाम्’ यह धातु है।
इसका अर्थ है चिन्तन।
भगवान् शिवका बारंबार चिन्तन ही ध्यान कहलाता है।
जैसे थोड़ा-सा भी योगाभ्यास पापका नाश कर देता है, उसी तरह क्षणमात्र भी ध्यान करनेवाले पुरुषके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं।
श्रद्धापूर्वक, विक्षेपरहित चित्तसे परमेश्वरका जो चिन्तन है, उसीका नाम ‘ध्यान’ है।
बुद्धिके प्रवाहरूप ध्यानका जो आलम्बन या आश्रय है, उसीको साधु पुरुष ‘ध्येय’ कहते हैं।
स्वयं साम्ब सदाशिव ही वह ध्येय हैं।
मोक्ष-सुखका पूर्ण अनुभव और अणिमा आदि ऐश्वर्यकी उपलब्धि – ये पूर्ण शिवध्यानके साक्षात् प्रयोजन कहे गये हैं।
ध्यानसे सौख्य और मोक्ष दोनोंकी प्राप्ति होती है, इसलिये मनुष्यको सब कुछ छोड़कर ध्यानमें लग जाना चाहिये।
बिना ध्यानके ज्ञान नहीं होता और जिसने योगका साधन नहीं किया है, उसका ध्यान नहीं सिद्ध होता।
जिसे ध्यान और ज्ञान दोनों प्राप्त हैं, उसने भवसागरको पार कर लिया।
समस्त उपाधियोंसे रहित, निर्मल ज्ञान और एकाग्रतापूर्ण ध्यान – ये योगाभ्याससे युक्त योगीको ही सिद्ध होते हैं।
जिनके सारे पाप नष्ट हो गये हैं, उन्हींकी बुद्धि ज्ञान और ध्यानमें लगती है।
जिनकी बुद्धि पापसे दूषित है, उनके लिये ज्ञान और ध्यानकी बात भी अत्यन्त दुर्लभ है।
जैसे प्रज्वलित हुई आग सूखी और गीली लकड़ीको भी जला देती है, उसी प्रकार ध्यानाग्नि शुभ और अशुभ कर्मको भी क्षणभरमें दग्ध कर देती है।
जैसे बहुत छोटा दीपक भी महान् अन्धकारका नाश कर देता है, इसी तरह थोड़ा-सा योगाभ्यास भी महान् पापका विनाश कर डालता है।
श्रद्धापूर्वक क्षणभर भी परमेश्वरका ध्यान करनेवाले पुरुषको जो महान् श्रेय प्राप्त होता है, उसका कहीं अन्त नहीं है।१ ध्यानके समान कोई तीर्थ नहीं है, ध्यानके समान कोई तप नहीं है और ध्यानके समान कोई यज्ञ नहीं है; इसलिये ध्यान अवश्य करे।२ अपने आत्मा एवं परमात्माका बोध प्राप्त करनेके कारण योगीजन केवल जलसे भरे हुए तीर्थों और पत्थर एवं मिट्टीकी बनी हुई देवमूर्तियोंका आश्रय नहीं लेते (वे आत्मतीर्थमें अवगाहन करते और आत्मदेवके ही भजनमें लगे रहते हैं)।
जैसे अयोगी पुरुषोंको मिट्टी और काठ आदिकी बनी हुई स्थूल मूर्तियोंका प्रत्यक्ष होता है, उसी तरह योगियोंको ईश्वरके सूक्ष्म स्वरूपका प्रत्यक्ष दर्शन होता है।
जैसे राजाको अपने अन्तःपुरमें विचरनेवाले स्वजन एवं परिजन प्रिय होते हैं और बाहरके लोग उतने प्रिय नहीं होते, उसी प्रकार भगवान् शंकरको अन्तःकरणमें ध्यान लगानेवाले भक्त ही अधिक प्रिय हैं, बाह्य उपचारोंका आश्रय लेनेवाले कर्मकाण्डी नहीं।
जैसे लोकमें यह देखा गया है कि बाहरी लोग राजाके भवनमें राजकीय पुरुषोचित फलका उपभोग नहीं कर पाते, केवल अन्तःपुरके लोग ही उस फलके भागी होते हैं, उसी प्रकार यहाँ बाह्यकर्मी पुरुष उस फलको नहीं पाते, जो ध्यानयोगियोंको सुलभ होता है।
ज्ञानयोगकी साधनाके लिये उद्यत हुआ पुरुष यदि बीचमें ही मर जाय तो भी वह योगके लिये उद्योग करनेमात्रसे रुद्रलोकमें जायगा।
वहाँ दिव्य सुखका उपभोग करके वह फिर योगियोंके कुलमें जन्म लेगा और पुनः ज्ञानयोगको पाकर संसारसागरको लाँघ जायगा।
योगका जिज्ञासु पुरुष भी जिस गतिको पाता है, उसे यज्ञकर्ता सम्पूर्ण महायज्ञोंका अनुष्ठान करके भी नहीं पाता।
करोड़ों वेदवेत्ता द्विजोंकी पूजा करनेसे जो फल मिलता है, वह एक शिवयोगीको भिक्षा देनेमात्रसे प्राप्त हो जाता है।
यज्ञ, अग्निहोत्र, दान, तीर्थसेवन और होम – इन सभी पुण्यकर्मोंके अनुष्ठानसे जो फल मिलता है, वह सारा फल शिवयोगियोंको अन्न देनेमात्रसे प्राप्त हो जाता है।
जो मूढ़ मानव शिवयोगियोंकी निन्दा करते हैं, वे श्रोताओंसहित नरकमें पड़ते हैं और प्रलयकालतक वहीं रहते हैं।
श्रोताके होनेपर ही कोई शिवयोगियोंकी निन्दाका वक्ता हो सकता है, इसलिये महापुरुषोंके मतमें उस निन्दाको सुननेवाला भी महान् पापी और दण्डनीय है।
जो लोग सदा भक्तिभावसे शिवयोगियोंकी सेवा करते हैं, वे महान् भोग पाते और अन्तमें शिवयोगकी भी उपलब्धि कर लेते हैं।
इसलिये भोगार्थी मनुष्योंको चाहिये कि वे रहनेको स्थान, खान-पान, शय्या तथा ओढ़ने-बिछानेकी सामग्री आदि देकर सदा शिवयोगियोंका सत्कार करें।
योगधर्म ससार – अत्यन्त प्रबल है, अतः पापरूपी मुद् गरोंसे उसका भेदन नहीं हो सकता।
योगधर्म और पाप-मुद् गरमें उतना ही अन्तर समझना चाहिये, जितना वज्र और तन्दुलमें; अतः योगीजन पापों और तापसमूहोंसे उसी तरह लिप्त नहीं होते, जैसे कमलका पत्ता पानीसे।
शिवयोगपरायण मुनि जिस देशमें नित्य निवास करता है, वह देश भी पवित्र हो जाता है।
फिर उसकी पवित्रताके विषयमें तो कहना ही क्या।
अतः चतुर एवं विद्वान् पुरुष सब कृत्योंको छोड़कर सम्पूर्ण दुःखोंसे छुटकारा पानेके लिये शिवयोगका अभ्यास करे।
जिसका योगफल सिद्ध हो गया है, वह योगी यथेष्ट भोगोंको भोगकर समस्त लोकोंकी हित-कामनासे संसारमें विचरे अथवा अपने स्थानपर ही रहे या विषयसुखको अत्यन्त तुच्छ समझकर छोड़ दे और वैराग्ययोगसे स्वेच्छापूर्वक कर्मोंका परित्याग कर दे।
जो मनुष्य बहुत-से अरिष्ट देखकर अपनी मृत्युको निकट जान ले, उसे योगानुष्ठानमें संलग्न हो शिवक्षेत्रका आश्रय लेना चाहिये।
वह मनुष्य यदि धीरचित्त होकर वहीं निवास करता रहे तो रोग आदिके बिना भी स्वयं ही प्राणोंका परित्याग कर सकता है।
अनशन करके, शिवाग्निमें शरीरकी आहुति देकर अथवा शिवतीर्थोंमें अवगाहन करते हुए अपने शरीरको उन्हींके जलमें डालकर शिवशास्त्रोक्त विधिसे जो अपने प्राणोंका त्याग करता है, वह तत्काल मुक्त हो जाता है – इसमें अन्यथा विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है अथवा जो रोग आदिसे विवश होकर शिवक्षेत्रकी शरण लेता है, उसकी भी यदि वहाँ मृत्यु हो जाय तो वह इसी प्रकार मुक्त हो जाता है – इसमें संशय नहीं है।
इसलिये लोग अनशन आदिसे शिवक्षेत्रमें श्रेष्ठ मरणकी कामना करते हैं; क्योंकि शास्त्रपर विश्वास करके धीर हुए मनसे उनके द्वारा इस तरहकी मृत्यु स्वीकार की जाती है।
जो शिवके लिये अथवा शिवभक्तोंके लिये प्राणत्याग करता है, उसके समान दूसरा कोई मनुष्य मुक्ति-मार्गपर स्थित नहीं है।
इस कारण इस संसार-मण्डलसे उसकी शीघ्र मुक्ति हो जाती है।
इनमेंसे किसी एक उपायका किसी तरह भी अवलम्बन करके अथवा विधिवत् षडध्वशुद्धिको प्राप्त होकर यदि कोई मनुष्य मरता है तो उसका अन्य पशुओं – प्राणियोंके समान यहाँ और्ध्वदैहिक संस्कार नहीं करना चाहिये।
विशेषतः उसके पुत्र आदिको उसके मरनेसे अशौचकी प्राप्ति नहीं होती।
ऐसे पुरुषके मृत शरीरको धरतीमें गाड़ दे या पवित्र अग्निसे जला दे या शिवस्वरूपजलमें डाल दे अथवा काठ या मिट्टीके ढेलेकी भाँति कहीं भी फेंक दे, सब उसके लिये बराबर है।
यदि ऐसे पुरुषके उद्देश्यसे भी कोई कर्म करनेकी इच्छा हो तो दूसरोंका कल्याण ही करे और अपनी शक्तिके अनुसार शिवभक्तोंको तृप्त करे।
उसके धनको शिवभक्त ही ग्रहण करे।
यदि उसकी संतति शिवभक्त हो तो वह भी ग्रहण कर सकती है।
यदि ऐसा सम्भव न हो तो उसका धन भगवान् शिवको समर्पित कर दे।
परंतु उसकी पशुसंतति (शिवभक्तिहीन संतान) उस धनको ग्रहण न करे।
(अध्याय ३९) १- यथा वह्निर्महादीप्तः शुष्कमार्द्रं च निर्दहेत्।
तथा शुभाशुभं कर्म ध्यानाग्निर्दहते क्षणात्।।
ध्यायतः क्षणमात्रं वा श्रद्धया परमेश्वरम्।
यद्भवेत् सुमहच्छ्रेयस्तस्यान्तो नैव विद्यते।।
(शि० पु०, वा० सं०, उ० ख० ३९।२५,२७) २- नास्ति ध्यानसमं तीर्थं नास्ति ध्यानसमं तपः।
नास्ति ध्यानरूपो यज्ञस्तस्माद्धयानं समाचरेत्।।
(शि० पु०, वा० सं०, उ० ख० ३९।२८)
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शिव पुराण – वायवीय संहिता – उत्तरखण्ड – 33
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