<< शिव पुराण – वायवीय संहिता – उत्तरखण्ड – 28
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पारलौकिक फल देनेवाले कर्म – शिवलिंग-महाव्रतकी विधि और महिमाका वर्णन
उपमन्यु कहते हैं – यदुनन्दन! अब मैं केवल परलोकमें फल देनेवाले कर्मकी विधि बतलाऊँगा।
तीनों लोकोंमें इसके समान दूसरा कोई कर्म नहीं है।
यह विधि अतिशय पुण्यसे युक्त है और सम्पूर्ण देवताओंने इसका अनुष्ठान किया है।
ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, इन्द्रादि लोकपाल, सूर्यादि नवग्रह, विश्वामित्र और वसिष्ठ आदि ब्रह्मवेत्ता महर्षि, श्वेत, अगस्त्य, दधीचि तथा हम-सरीखे शिवभक्त, नन्दीश्वर, महाकाल और भृंगीश आदि गणेश्वर, पातालवासी दैत्य, शेष आदि महानाग, सिद्ध, यक्ष, गन्धर्व, राक्षस, भूत और पिशाच – इन सबने अपना-अपना पद प्राप्त करनेके लिये इस विधिका अनुष्ठान किया है।
इस विधिसे ही सब देवता देवत्वको प्राप्त हुए हैं।
इसी विधिसे ब्रह्माको ब्रह्मत्वकी, विष्णुको विष्णुत्वकी, रुद्रको रुद्रत्वकी, इन्द्रको इन्द्रत्वकी और गणेशको गणेशत्वकी प्राप्ति हुई है।
श्वेतचन्दनयुक्त जलसे लिंगस्वरूप शिव और शिवाको स्नान कराकर प्रफुल्ल श्वेत कमलोंद्वारा उनका पूजन करे।
फिर उनके चरणोंमें प्रणाम करके वहीं लिपी-पुती भूमिपर सुन्दर शुभ लक्षण पद्मासन बनवाकर रखे।
धन हो तो अपनी शक्तिके अनुसार सोने या रत्न आदिका पद्मासन बनवाना चाहिये।
कमलके केसरोंके मध्यभागमें अंगुष्ठके बराबर छोटे-से सुन्दर शिवलिंगकी स्थापना करे।
वह सर्वगन्धमय और सुन्दर होना चाहिये।
उसे दक्षिणभागमें स्थापित करके बिल्वपत्रोंद्वारा उसकी पूजा करे।
फिर उसके दक्षिणभागमें अगुरु, पश्चिम भागमें मैनसिल, उत्तरभागमें चन्दन और पूर्वभागमें हरिताल चढ़ाये।
फिर सुन्दर सुगन्धित विचित्र पुष्पोंद्वारा पूजा करे।
सब ओर काले अगुरु और गुग्गुलकी धूप दे।
अत्यन्त महीन और निर्मल वस्त्र निवेदन करे।
घृतमिश्रित खीरका भोग लगाये।
घीके दीपक जलाकर रखे।
मन्त्रोच्चारणपूर्वक सब कुछ चढ़ाकर परिक्रमा करे।
भक्तिभावसे देवेश्वर शिवको प्रणाम करके उनकी स्तुति करे और अन्तमें त्रुटियोंके लिये क्षमा-प्रार्थना करे।
तत्पश्चात् शिवपंचाक्षर-मन्त्रसे सम्पूर्ण उपहारोंसहित वह शिवलिंग शिवको समर्पित करे और स्वयं दक्षिणामूर्तिका आश्रय ले।
जो इस प्रकार पंच गन्धमय शुभ लिंगकी नित्य अर्चना करता है, वह सब पापोंसे मुक्त हो शिवलोकमें प्रतिष्ठित होता है।
यह शिवलिंग-महाव्रत सब व्रतोंमें उत्तम और गोपनीय है।
तुम भगवान् शंकरके भक्त हो; इसलिये तुमसे इसका वर्णन किया है।
जिस किसीको इसका उपदेश नहीं करना चाहिये।
केवल शिवभक्तोंको ही इसका उपदेश देना चाहिये।
प्राचीनकालमें भगवान् शिवने ही इस व्रतका उपदेश दिया था।
तदनन्तर लिंगकी कारणरूपता तथा लिंग-प्रतिष्ठा एवं पूजाकी व्याख्या करके उपमन्युने कहा – यदुनन्दन! यदि कोई स्थापित शिवलिंग न मिले तो शिवके स्थानभूत जल, अग्नि, सूर्य तथा आकाशमें भगवान् शिवका पूजन करना चाहिये।
(अध्याय ३३ – ३६)
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शिव पुराण – वायवीय संहिता – उत्तरखण्ड – 30
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