शिव पुराण – वायवीय संहिता – उत्तरखण्ड – 22


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


शिवपूजनकी विधि

उपमन्यु कहते हैं – यदुनन्दन! विशुद्धिके लिये मूलमन्त्रसे गन्ध, चन्दनमिश्रित जलके द्वारा पूजास्थानका प्रोक्षण करना चाहिये।

इसके बाद वहाँ फूल बिखेरे।

अस्त्र-मन्त्र (फट्)-का उच्चारण करके विघ्नोंको भगाये।

फिर कवच-मन्त्र (हुम्)-से पूजास्थानको सब ओरसे अवगुण्ठित करे।

अस्त्र-मन्त्रका सम्पूर्ण दिशाओंमें न्यास करके पूजाभूमिकी कल्पना करे।

वहाँ सब ओर कुश बिछा दे और प्रोक्षण आदिके द्वारा उस भूमिका प्रक्षालन करे।

पूजासम्बन्धी समस्त पात्रोंका शोधन करके द्रव्यशुद्धि करे।

प्रोक्षणीपात्र, अर्घ्यपात्र, पाद्यपात्र और आचमनीयपात्र – इन चारोंका प्रक्षालन, प्रोक्षण और वीक्षण करके इनमें शुभ जल डाले और जितने मिल सकें, उन सभी पवित्र द्रव्योंको उनमें डाले।

पंचरत्न, चाँदी, सोना, गन्ध, पुष्प, अक्षत आदि तथा फल, पल्लव और कुश – ये सब अनेक प्रकारके पुण्य द्रव्य हैं।

स्नान और पीनेके जलमें विशेषरूपसे सुगन्ध आदि एवं शीतल मनोज्ञ पुष्प आदि छोड़े।

पाद्यपात्रमें खश और चन्दन छोड़ना चाहिये।

आचमनीयपात्रमें विशेषतः जायफल, कंकोल, कपूर, सहिजन और तमालका चूर्ण करके डालना चाहिये।

इलायची सभी पात्रोंमें डालनेकी वस्तु है।

कपूर, चन्दन, कुशाग्रभाग, अक्षत, जौ, धान, तिल, घी, सरसों, फूल और भस्म – इन सबको अर्घ्यपात्रमें छोड़ना चाहिये।

कुश, फूल, जौ, धान, सहिजन, तमाल और भस्म – इन सबका प्रोक्षणीपात्रमें प्रक्षेपण करना चाहिये।

सर्वत्र मन्त्र-न्यास करके कवच-मन्त्रसे प्रत्येक पात्रको बाहरसे आवेष्टित करे।

तत्पश्चात् अस्त्र-मन्त्रसे उसकी रक्षा करके धेनुमुद्रा दिखाये।

पूजाके सभी द्रव्योंका प्रोक्षणीपात्रके जलसे मूलमन्त्रद्वारा प्रोक्षण करके विधिवत् शोधन करे।

श्रेष्ठ साधकको चाहिये कि अधिक पात्रोंके न मिलनेपर सब कर्मोंमें एकमात्र प्रोक्षणीपात्रको ही सम्पादित करके रखे और उसीके जलसे सामान्यतः अर्घ्य आदि दे।

तत्पश्चात् मण्डपके दक्षिण द्वारभागमें भक्ष्य-भोज्य आदिके क्रमसे विधिपूर्वक विनायकदेवकी पूजा करके अन्तःपुरके स्वामी साक्षात् नन्दीकी भलीभाँति पूजा करे।

उनकी अंगकान्ति सुवर्णमय पर्वतके समान है।

समस्त आभूषण उसकी शोभा बढ़ाते हैं।

मस्तकपर बालचन्द्रका मुकुट सुशोभित होता है।

उनकी मूर्ति सौम्य है।

वे तीन नेत्र और चार भुजाओंसे युक्त हैं।

उनके एक हाथमें चमचमाता हुआ त्रिशूल, दूसरेमें मृगी, तीसरेमें टंक और चौथेमें तीखा बेंत है।

उनके मुखकी कान्ति चन्द्रमण्डलके समान उज्ज्वल है।

मुख वानरके सदृश है।

द्वारके उत्तर पार्श्वमें उनकी पत्नी सुयशा हैं, जो मरुद् गणोंकी कन्या हैं।

वे उत्तम व्रतका पालन करनेवाली हैं और पार्वतीजीके चरणोंका शृंगार करनेमें लगी रहती हैं।

उनका पूजन करके परमेश्वर शिवके भवनके भीतर प्रवेश करे और उन द्रव्योंसे शिवलिंगका पूजन करके निर्माल्यको वहाँसे हटा ले।

तदनन्तर फूल धोकर शिवलिंगके मस्तकपर उसकी शुद्धिके लिये रखे।

फिर हाथमें फूल ले यथाशक्ति मन्त्रका जप करे।

इससे मन्त्रकी शुद्धि होती है।

ईशानकोणमें चण्डीकी आराधना करके उन्हें पूर्वोक्त निर्माल्य अर्पित करे।

तत्पश्चात् इष्टदेवके लिये आसनकी कल्पना करे।

क्रमशः आधार आदिका ध्यान करे – कल्याणमयी आधार-शक्ति भूतलपर विराजमान हैं और उनकी अंगकान्ति श्याम है।

इस प्रकार उनके स्वरूपका चिन्तन करे।

उनके ऊपर फन उठाये सर्पाकार अनन्त बैठे हैं, जिनकी अंगकान्ति उज्ज्वल है।

वे पाँच फनोंसे युक्त हैं और आकाशको चाटते हुए-से जान पड़ते हैं।

अनन्तके ऊपर भद्रासन है, जिसके चारों पायोंमें सिंहकी आकृति बनी हुई है।

वे चारों पाये क्रमशः धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्यरूप हैं।

धर्म नामवाला पाया आग्नेय-कोणमें है और उसका रंग सफेद है।

ज्ञान नामक पाया नैर्ऋत्यकोणमें है और उसका रंग लाल है।

वैराग्य वायव्यकोणमें है और उसका रंग पीला है तथा ऐश्वर्य ईशान-कोणमें है और उसका वर्ण श्याम है।

अधर्म आदि उस आसनके पूर्वादि भागोंमें क्रमशः स्थित हैं अर्थात् अधर्म पूर्वमें, अज्ञान दक्षिणमें, अवैराग्य पश्चिममें और अनैश्वर्य उत्तरमें हैं।

इनके अंग राजावर्त मणिके समान हैं – ऐसी भावना करनी चाहिये।

इस भद्रासनको ऊपरसे आच्छादित करनेवाला श्वेत निर्मल पद्ममय आसन है।

अणिमा आदि आठ ऐश्वर्य – गुण ही उस कमलके आठ दल हैं; वामदेव आदि रुद्र अपनी वामा आदि शक्तियोंके साथ उस कमलके केसर हैं।

वे मनोन्मनी आदि अन्तःशक्तियाँ ही बीज हैं, अपर वैराग्य कर्णिका है, शिवस्वरूप ज्ञान नाल है, शिवधर्म कन्द है, कर्णिकाके ऊपर तीन मण्डल (चन्द्र-मण्डल, सूर्यमण्डल और वह्निमण्डल) हैं और उन मण्डलोंके ऊपर आत्मतत्त्व, विद्यातत्त्व तथा शिवतत्त्वरूप त्रिविध आसन हैं।

इन सब आसनोंके ऊपर विचित्र बिछौनोंसे आच्छादित एक सुखद दिव्य आसनकी कल्पना करे, जो शुद्ध विद्यासे अत्यन्त प्रकाशमान हो।

आसनके अनन्तर आवाहन, स्थापन, संनिरोधन, निरीक्षण एवं नमस्कार करे।

इन सबकी पृथक्-पृथक् मुद्राएँ बाँधकर दिखाये।* तदनन्तर पाद्य, आचमन, अर्घ्य, (स्नानीय, वस्त्र, यज्ञोपवीत,) गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, (नैवेद्य) और ताम्बूल देकर शिवा और शिवको शयन कराये अथवा उपर्युक्त रूपसे आसन और मूर्तिकी कल्पना करके मूलमन्त्र एवं अन्य ईशानादि ब्रह्ममन्त्रोंद्वारा सकलीकरणकी क्रिया करके देवी पार्वतीसहित परम कारण शिवका आवाहन करे।

भगवान् शिवकी अंगकान्ति शुद्ध स्फटिकके समान उज्ज्वल है।

वे निश्चल, अविनाशी, समस्त लोकोंके परम कारण, सर्वलोकस्वरूप, सबके बाहर-भीतर विद्यमान, सर्वव्यापी, अणु-से-अणु और महान् से भी महान् हैं।

भक्तोंको अनायास ही दर्शन देते हैं।

सबके ईश्वर एवं अव्यय हैं।

ब्रह्मा, इन्द्र, विष्णु तथा रुद्र आदि देवताओंके लिये भी अगोचर हैं।

सम्पूर्ण वेदोंके सारतत्त्व हैं।

विद्वानोंके भी दृष्टिपथमें नहीं आते हैं।

आदि, मध्य और अन्तसे रहित हैं।

भवरोगसे ग्रस्त प्राणियोंके लिये औषधरूप हैं।

शिवतत्त्वके रूपमें विख्यात हैं और सबका कल्याण करनेके लिये जगत् में सुस्थिर शिवलिंगके रूपमें विद्यमान हैं।

ऐसी भावना करके भक्तिभावसे गन्ध, धूप, दीप, पुष्प और नैवेद्य – इन पाँच उपचारोंद्वारा उत्तम शिवलिंगका पूजन करे।

परमात्मा महेश्वर शिवकी लिंगमयी मूर्तिके स्नानकालमें जय-जयकार आदि शब्द और मंगलपाठ करे।

पंचगव्य, घी, दूध, दही, मधु और शर्कराके साथ फल-मूलके सारतत्त्वसे, तिल, सरसों, सत्तूके उबटनसे, जौ आदिके उत्तम बीजोंसे, उड़द आदिके चूर्णोंसे तथा आटा आदिसे आलेपन करके गरम जलसे शिवलिंगको नहलाये।

लेप और गन्धके निवारणके लिये बिल्वपत्र आदिसे रगड़े।

फिर जलसे नहलाकर चक्रवर्ती सम्राट् के लिये उपयोगी उपचारोंसे (अर्थात् सुगन्धित तेल-फुलेल आदिके द्वारा) सेवा करे।

सुगन्धयुक्त आँवला और हल्दी भी क्रमशः अर्पित करे।

इन सब वस्तुओंसे शिवलिंग अथवा शिवमूर्तिका भलीभाँति शोधन करके चन्दनमिश्रित जल, कुश-पुष्पयुक्त जल, सुवर्ण एवं रत्नयुक्त जल तथा मन्त्रसिद्ध जलसे क्रमशः स्नान कराये।

इन सब द्रव्योंका मिलना सम्भव न होनेपर यथासम्भव संगृहीत वस्तुओंसे युक्त जलद्वारा अथवा केवल मन्त्राभिमन्त्रित जलद्वारा श्रद्धापूर्वक शिवको स्नान कराये।

कलश, शंख और वर्धनीसे तथा कुश और पुष्पसे युक्त हाथके जलसे मन्त्रोच्चारणपूर्वक इष्टदेवताको नहलाना चाहिये।

पवमानसूक्त, रुद्रसूक्त, नीलरुद्रसूक्त, त्वरितमन्त्र, लिंगसूक्त, आदिसूक्त, अथर्वशीर्ष, ऋग्वेद, सामवेद तथा शिवसम्बन्धी ईशानादि पंच-ब्रह्ममन्त्र, शिवमन्त्र तथा प्रणवसे देवदेवेश्वर शिवको स्नान कराये।

जैसे महादेवजीको स्नान कराये, उसी तरह महादेवी पार्वतीको भी स्नान आदि कराना चाहिये।

उन दोनोंमें कोई अन्तर नहीं है; क्योंकि वे दोनों सर्वथा समान हैं।

पहले महादेवजीके उद्देश्यसे स्नान आदि क्रिया करके फिर देवीके लिये उन्हीं देवाधिदेवके आदेशसे सब कुछ करे।

अर्धनारीश्वरकी पूजा करनी हो तो उसमें पूर्वापरका विचार नहीं है।

अतः उसमें महादेव और महादेवीकी साथ-साथ पूजा होती रहती है।

शिवलिंगमें या अन्यत्र मूर्ति आदिमें अर्द्धनारीश्वरकी भावनासे सभी उपचारोंका शिव और शिवाके लिये एक साथ ही उपयोग होता है।

पवित्र सुगन्धित जलसे शिवलिंगका अभिषेक करके उसे वस्त्रसे पोंछे।

फिर नूतन वस्त्र एवं यज्ञोपवीत चढ़ावे।

तत्पश्चात् पाद्य, आचमन, अर्घ्य, गन्ध, पुष्प, आभूषण, धूप, दीप, नैवेद्य, पीनेयोग्य जल, मुखशुद्धि, पुनराचमन, मुखवास तथा सम्पूर्ण रत्नोंसे जटित सुन्दर मुकुट, आभूषण, नाना प्रकारकी पवित्र पुष्पमालाएँ, छत्र, चँवर, व्यजन, ताड़का पंखा और दर्पण देकर सब प्रकारकी मंगलमयी वाद्यध्वनियोंके साथ इष्टदेवकी नीराजना करे (आरती उतारे)।

उस समय गीत और नृत्य आदिके साथ जय-जयकार भी होनी चाहिये।

सोना, चाँदी, ताँबा अथवा मिट्टीके सुन्दर पात्रमें कमल आदिके शोभायमान फूल रखे।

कमलके बीज तथा दही, अक्षत आदि भी डाल दे।

त्रिशूल, शंख, दो कमल, नन्द्यावर्त नामक शंखविशेष, सूखे गोबरकी आग, श्रीवत्स, स्वस्तिक, दर्पण, वज्र तथा अग्नि आदिसे चिह्नित पात्रमें आठ दीपक रखे।

वे आठों आठ दिशाओंमें रहें और एक नवाँ दीपक मध्यभागमें रहे।

इन नवों दीपकोंमें वामा आदि नव शक्तियोंका पूजन करे।

फिर कवचमन्त्रसे आच्छादन और आस्त्रमन्त्रद्वारा सब ओरसे संरक्षण करके धेनुमुद्रा दिखाकर दोनों हाथोंसे पात्रको ऊपर उठाये अथवा पात्रमें क्रमशः पाँच दीप रखे।

चारको चारों कोनोंमें और एकको बीचमें स्थापित करे।

तत्पश्चात् उस पात्रको उठाकर शिवलिंग या शिवमूर्ति आदिके ऊपर क्रमशः तीन बार प्रदक्षिण क्रमसे घुमाये और मूलमन्त्रका उच्चारण करता रहे।

तदनन्तर मस्तकपर अर्घ्य और सुगन्धित भस्म चढ़ाये।

फिर पुष्पांजलि देकर उपहार निवेदन करे।

इसके बाद जल देकर आचमन कराये।

फिर सुगन्धित द्रव्योंसे युक्त पाँच ताम्बूल भेंट करे।

तत्पश्चात् प्रोक्षणीय पदार्थोंका प्रोक्षण करके नृत्य और गीतका आयोजन करे।

लिंग या मूर्ति आदिमें शिव तथा पार्वतीका चिन्तन करते हुए यथाशक्ति शिव-मन्त्रका जप करे।

जपके पश्चात् प्रदक्षिणा, नमस्कार, स्तुतिपाठ, आत्मसमर्पण तथा कार्यका विनयपूर्वक विज्ञापन करे।

फिर अर्घ्य और पुष्पांजलि दे विधिवत् मुद्रा बाँधकर इष्ट-देवसे त्रुटियोंके लिये क्षमा-प्रार्थना करे।

तत्पश्चात् मूर्तिसहित देवताका विसर्जन करके अपने हृदयमें उसका चिन्तन करे।

पाद्यसे लेकर मुखवासपर्यन्त पूजन करना चाहिये अथवा अर्घ्य आदिसे पूजन आरम्भ करना चाहिये या अधिक संकटकी स्थितिमें प्रेमपूर्वक केवल फूलमात्र चढ़ा देना चाहिये।

प्रेमपूर्वक फूलमात्र चढ़ा देनेसे ही परम धर्मका सम्पादन हो जाता है।

जबतक प्राण रहे शिवका पूजन किये बिना भोजन न करे।

(अध्याय २४) * दोनों हाथोंकी अंजलि बनाकर अनामिका अंगुलिके मूलपर्वपर अँगूठेको लगा देना ‘आवाहन’ मुद्रा है।

इसी आवाहन मुद्राको अधोमुख कर दिया जाय तो वह ‘स्थापन’ मुद्रा हो जाती है।

यदि मुट्ठीके भीतर अँगूठेको डाल दिया जाय और दोनों हाथोंकी मुट्ठी संयुक्त कर दी जाय तो वह ‘संनिरोधन’ मुद्रा कही गयी है।

दोनों मुट्ठियोंको उत्तान कर देनेपर ‘सम्मुखीकरण’ नामक मुद्रा होती है।

इसीको यहाँ ‘निरीक्षण’ नामसे कहा गया है।

शरीरको दण्डकी भाँति देवताके सामने डाल देना, मुखको नीचेकी ओर रखना और दोनों हाथोंको देवताकी ओर फैला देना – साष्टांग प्रणामकी इस क्रियाको ही यहाँ ‘नमस्कार’ मुद्रा कहा गया है।


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