शिव पुराण – वायवीय संहिता – उत्तरखण्ड – 20


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योग्य शिष्यके आचार्यपदपर अभिषेकका वर्णन तथा संस्कारके विविध प्रकारोंका निर्देश

उपमन्यु कहते हैं – यदुनन्दन! जिसका इस प्रकार संस्कार किया गया हो और जिसने पाशुपत-व्रतका अनुष्ठान पूरा कर लिया हो, वह शिष्य यदि योग्य हो तो गुरु उसका आचार्यपदपर अभिषेक करे, योग्यता न होनेपर न करे।

इस अभिषेकके लिये पूर्ववत् मण्डल बनाकर परमेश्वर शिवकी पूजा करे।

फिर पूर्ववत् पाँच कलशोंकी स्थापना करे।

इनमें चार तो चारों दिशाओंमें हों और पाँचवाँ मध्यमें हो।

पूर्ववाले कलशपर निवृत्तिकलाका, पश्चिमवाले कलशपर प्रतिष्ठाकलाका, दक्षिण कलशपर विद्याकलाका, उत्तर कलशपर शान्तिकलाका और मध्यवर्ती कलशपर शान्त्यतीताकलाका न्यास करके उनमें रक्षा आदिका विधान करके धेनुमुद्रा बाँधकर कलशोंको अभिमन्त्रित करके पूर्ववत् पूर्णाहुतिपर्यन्त होम करे।

फिर नंगे सिर शिष्यको मण्डलमें ले आकर गुरु-मन्त्रोंका तर्पण आदि करे और पूर्णाहुति-पर्यन्त हवन एवं पूजन करके पूर्ववत् देवेश्वरकी आज्ञा ले शिष्यको अभिषेकके लिये ऊँचे आसनपर बिठाये।

पहले सकलीकरणकी क्रिया करके पंचकला-रूपी शिष्यके शरीरमें मन्त्रका न्यास करे।

फिर उस शिष्यको बाँधकर शिवको सौंप दे।

तदनन्तर निवृत्तिकला आदिसे युक्त कलशोंको क्रमशः उठाकर शिष्यका शिवमन्त्रसे अभिषेक करे।

अन्तमें मध्यवर्ती कलशके जलसे अभिषेक करना चाहिये।

इसके बाद शिवभावको प्राप्त हुए आचार्य शिष्यके मस्तकपर शिवहस्त* रखे और उसे शिवाचार्यकी संज्ञा दे।

तदनन्तर उसको वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत करके शिवमण्डलमें महादेवजीकी आराधना करके एक सौ आठ आहुति एवं पूर्णाहुति दे।

फिर देवेश्वरकी पूजा एवं भूतलपर साष्टांग प्रणाम करके गुरु मस्तकपर हाथ जोड़ भगवान् शिवसे यह निवेदन करे – भगवंस्त्वत्प्रसादेन देशिकोऽयं मया कृतः।

अनुगृह्य त्वया देव दिव्याज्ञास्मै प्रदीयताम्।।

‘भगवन्! आपकी कृपासे मैंने इस योग्य शिष्यको आचार्य बना दिया है।

देव! अब आप अनुग्रह करके इसे दिव्य आज्ञा प्रदान करें।’ इस प्रकार कहकर गुरु शिष्यके साथ पुनः शिवको प्रणाम करे और दिव्य शिवशास्त्रका शिवकी ही भाँति पूजन करे।

इसके बाद शिवकी आज्ञा लेकर आचार्य अपने उस शिष्यको अपने दोनों हाथोंसे शिवसम्बन्धी ज्ञानकी पुस्तक दे।

वह उस शिवागम विद्याको मस्तकपर रखकर फिर उसे विद्यासनपर रखे और यथोचित रीतिसे प्रणाम कर उसकी पूजा करे।

तदनन्तर गुरु उसे राजोचित चिह्न प्रदान करे; क्योंकि आचार्य-पदवीको प्राप्त हुआ पुरुष राज्य पानेके भी योग्य है।

तत्पश्चात् गुरु उसे पूर्वाचार्योंद्वारा आचरित शिवशास्त्रोक्त आचारका अनुशासन करे, जिससे सब लोकोंमें सम्मान होता है।

‘आचार्य’ पदवीको प्राप्त हुआ पुरुष शिवशास्त्रोक्त लक्षणोंके अनुसार यत्न-पूर्वक शिष्योंकी परीक्षा करके उनका संस्कार करनेके अनन्तर उन्हें शिवज्ञानका उपदेश दे।

इस प्रकार वह बिना किसी आयासके शौच, क्षमा, दया, अस्पृहा (कामना-त्याग) तथा अनसूया (ईर्ष्या-त्याग) आदि गुणोंका यत्नपूर्वक अपने भीतर संग्रह करे।

इस तरह उस शिष्यको आदेश देकर मण्डलसे शिवका, शिव-कलशोंका तथा अग्नि आदिका विसर्जन करके वह सदस्योंका भी पूजन (दक्षिणा आदिसे सत्कार) करे।

अथवा, अपने गणोंसहित गुरु एक साथ ही सब संस्कार करे।

जहाँ दो या तीन संस्कारोंका प्रयोग करना हो, वहाँके लिये विधिका उपदेश किया जाता है – वहाँ आदिमें ही अध्वशुद्धि-प्रकरणमें कहे अनुसार कलशोंकी स्थापना करे।

अभिषेकके सिवा समयाचार दीक्षाके सब कर्म करके शिवका पूजन और अध्वशोधन करे।

अध्वशुद्धि हो जानेपर फिर महादेवजीकी पूजा करे।

इसके बाद हवन और मन्त्र-तर्पण करके दीपन-कर्म करे तथा महेश्वरकी आज्ञा ले शिष्यके हाथमें मन्त्रसमर्पणपूर्वक शेष कार्य पूर्ण करे।

अथवा सम्पूर्ण मन्त्र-संस्कारका क्रमशः अनुचिन्तन करके गुरु अभिषेक-पर्यन्त अध्वशुद्धिका कार्य सम्पन्न करे।

वहाँ शान्त्यतीता आदि कलाओंके लिये जिस विधिका अनुष्ठान किया गया है।

वह सारा विधान तीन तत्त्वोंकी शुद्धिके लिये भी कर्तव्य है।

शिव-तत्त्व, विद्या-तत्त्व और आत्म-तत्त्व – ये तीन तत्त्व कहे गये हैं।

शक्तिमें पहले शिवका, फिर विद्याका और उसके बाद उसकी आत्माका आविर्भाव हुआ है।

शिवसे ‘शान्त्यतीताध्वा’ व्याप्त है, उससे ‘शान्तिकलाध्वा’ उससे ‘विद्या-कलाध्वा’ विद्यासे परिशिष्ट ‘प्रतिष्ठा-कलाध्वा’ और उससे ‘निवृत्तिकलाध्वा’ व्याप्त है।

शिवशास्त्रके पारंगत मनीषी पुरुष मन्त्रमूलक शाम्भव (शैव)-संस्कारको दुर्लभ मानकर शाक्तसंस्कारका प्रतिपादन करते हैं।

श्रीकृष्ण! इस प्रकार मैंने तुमसे सम्पूर्ण यह चतुर्विध संस्कार-कर्मका वर्णन किया।

अब और क्या सुनना चाहते हो?
(अध्याय २०) * गुरु पहले अपने दाहिने हाथपर सुगन्ध द्रव्यद्वारा मण्डलका निर्माण करे, तत्पश्चात् वह उसपर विधि-पूर्वक भगवान् शिवकी पूजा करे।

इस प्रकार वह ‘शिवहस्त’ हो जाता है।

‘मैं स्वयं परम शिव हूँ’ यह निश्चय करके श्रीगुरुदेव असंदिग्धचित्तसे शिष्यके सिरका स्पर्श करते हैं।

उस ‘शिवहस्त’ के स्पर्शमात्रसे शिष्यका शिवत्व अभिव्यक्त हो जाता है।


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