शिव पुराण – वायवीय संहिता – उत्तरखण्ड – 11


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वर्णाश्रम-धर्म तथा नारी-धर्मका वर्णन; शिवके भजन, चिन्तन एवं ज्ञानकी महत्ताका प्रतिपादन

महादेवजी कहते हैं – देवेश्वरि! अब मैं अधिकारी, विद्वान् एवं श्रेष्ठ ब्राह्मण-भक्तोंके लिये संक्षेपसे वर्ण-धर्मका वर्णन करता हूँ।

तीनों काल स्नान, अग्निहोत्र, विधिवत् शिवलिंग-पूजन, दान, ईश्वर-प्रेम, सदा और सर्वत्र दया, सत्य-भाषण, संतोष, आस्तिकता, किसी भी जीवकी हिंसा न करना, लज्जा, श्रद्धा, अध्ययन, योग, निरन्तर अध्यापन, व्याख्यान, ब्रह्मचर्य, उपदेश-श्रवण, तपस्या, क्षमा, शौच, शिखा-धारण, यज्ञोपवीत-धारण, पगड़ी धारण करना, दुपट्टा लगाना, निषिद्ध वस्तुका सेवन न करना, रुद्राक्षकी माला पहनना, प्रत्येक पर्वमें विशेषतः चतुर्दशीको शिवकी पूजा करना, ब्रह्मकूर्चका* पान, प्रत्येक मासमें ब्रह्मकूर्चसे विधिपूर्वक मुझे नहलाकर मेरा विशेषरूपसे पूजन करना, सम्पूर्ण क्रियान्नका त्याग, श्राद्धान्नका परित्याग, बासी अन्न तथा विशेषतः यावक (कुल्थी या बोरो धान)-का त्याग, मद्य और मद्यकी गन्धका त्याग, शिवको निवेदित (चण्डेश्वरके भाग) नैवेद्यका त्याग – ये सभी वर्णोंके सामान्य धर्म हैं।

ब्राह्मणोंके लिये विशेष धर्म ये हैं – क्षमा, शान्ति, संतोष, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य, शिवज्ञान, वैराग्य, भस्म-सेवन और सब प्रकारकी आसक्तियोंसे निवृत्ति – इन दस धर्मोंको ब्राह्मणोंका विशेष धर्म कहा गया है।

अब योगियों (यतियों)-के लक्षण बताये जाते हैं।

दिनमें भिक्षान्न भोजन उनका विशेष धर्म है।

यह वानप्रस्थ आश्रमवालोंके लिये भी उनके समान ही अभीष्ट है।

इन सबको और ब्रह्मचारियोंको भी रातमें भोजन नहीं करना चाहिये।

पढ़ाना, यज्ञ कराना और दान लेना – इनका विधान मैंने विशेषतः क्षत्रिय और वैश्यके लिये नहीं किया है।

मेरे आश्रयमें रहनेवाले राजाओं या क्षत्रियोंके लिये थोड़ेमें धर्मका संग्रह इस प्रकार है।

सब वर्णोंकी रक्षा, युद्धमें शत्रुओंका वध, दुष्ट पक्षियों, मृगों तथा दुराचारी मनुष्योंका दमन करना, सब लोगोंपर विश्वास न करना, केवल शिव-योगियोंपर ही विश्वास रखना, ऋतुकालमें ही स्त्रीसंसर्ग करना, सेनाका संरक्षण, गुप्तचर भेजकर लोकमें घटित होनेवाले समाचारोंको जानना, सदा अस्त्र धारण करना तथा भस्ममय कंचुक धारण करना।

गोरक्षा, वाणिज्य और कृषि – ये वैश्यके धर्म बताये गये हैं।

शूद्रेतर वर्णों – ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंकी सेवा शूद्रका धर्म कहा गया है।

बाग लगाना, मेरे तीर्थोंकी यात्रा करना तथा अपनी धर्मपत्नीके साथ ही समागम करना गृहस्थके लिये विहित धर्म है।

वनवासियों, यतियों और ब्रह्मचारियोंके लिये ब्रह्मचर्यका पालन मुख्य धर्म है।

स्त्रियोंके लिये पतिकी सेवा ही सनातनधर्म है, दूसरा नहीं।

कल्याणि! यदि पतिकी आज्ञा हो तो नारी मेरा पूजन भी कर सकती है।

जो स्त्री पतिकी सेवा छोड़कर व्रतमें तत्पर होती है, वह नरकमें जाती है।

इस विषयमें विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है।

अब मैं विधवा स्त्रियोंके सनातन-धर्मका वर्णन करूँगा।

व्रत, दान, तप, शौच, भूमि-शयन, केवल रातमें ही भोजन, सदा ब्रह्मचर्यका पालन, भस्म अथवा जलसे स्नान, शान्ति, मौन, क्षमा, विधिपूर्वक सब जीवोंको अन्नका वितरण, अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा तथा विशेषतः एकादशीको विधिवत् उपवास और मेरा पूजन – ये विधवा स्त्रियोंके धर्म हैं।

देवि! इस प्रकार मैंने संक्षेपसे अपने आश्रमका सेवन करनेवाले ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों, संन्यासियों, ब्रह्मचारियों तथा वानप्रस्थों और गृहस्थोंके धर्मका वर्णन किया।

साथ ही शूद्रों और नारियोंके लिये भी इस सनातनधर्मका उपदेश दिया।

देवेश्वरि! तुम्हें सदा मेरा ध्यान और मेरे षडक्षर-मन्त्रका जप करना चाहिये।

यही सम्पूर्ण वेदोक्त धर्म है और यही धर्म तथा अर्थका संग्रह है।

लोकमें जो मनुष्य अपनी इच्छासे मेरे विग्रहकी सेवाका व्रत धारण किये हुए हैं, पूर्वजन्मकी सेवाके संस्कारसे युक्त होनेके कारण भावातिरेकसे सम्पन्न हैं, वे स्त्री आदि विषयोंमें अनुरक्त हों या विरक्त, पापोंसे उसी प्रकार लिप्त नहीं होते, जैसे जलसे कमलका पत्ता।

मेरे प्रसादसे विशुद्ध हुए उन विवेकी पुरुषोंको मेरे स्वरूपका ज्ञान हो जाता है।

फिर उनके लिये कर्तव्याकर्तव्यका विधि-निषेध नहीं रह जाता।

समाधि तथा शरणागति भी आवश्यक नहीं रहती।

जैसे मेरे लिये कोई विधि-निषेध नहीं है, वैसे ही उनके लिये भी नहीं है।

परिपूर्ण होनेके कारण जैसे मेरे लिये कुछ साध्य नहीं है, उसी प्रकार उन कृतकृत्य ज्ञानयोगियोंके लिये भी कोई कर्तव्य नहीं रह जाता है।

वे मेरे भक्तोंके हितके लिये मानवभावका आश्रय लेकर भूतलपर स्थित हैं।

उन्हें रुद्रलोकसे परिभ्रष्ट रुद्र ही समझना चाहिये; इसमें संशय नहीं है।

जैसे मेरी आज्ञा ब्रह्मा आदि देवताओंको कार्यमें प्रवृत्त करनेवाली है, उसी प्रकार उन शिवयोगियोंकी आज्ञा भी अन्य मनुष्योंको कर्तव्यकर्ममें लगानेवाली है।

वे मेरी आज्ञाके आधार हैं।

उनमें अतिशय सद्भाव भी है।

इसलिये उनका दर्शन करनेमात्रसे सब पापोंका नाश हो जाता है तथा प्रशस्त फलकी प्राप्तिको सूचित करनेवाले विश्वासकी भी वृद्धि होती है।

जिन पुरुषोंका मुझमें अनुराग है, उन्हें उन बातोंका भी ज्ञान हो जाता है, जो पहले कभी उनके देखने, सुनने या अनुभवमें नहीं आयी होती है।

उनमें अकस्मात् काम्प, स्वेद, अश्रुपात, कण्ठमें स्वरविकार तथा आनन्द आदि भावोंका बारंबार उदय होने लगता है।

ये सब लक्षण उनमें कभी एक-एक करके अलग-अलग प्रकट होते हैं और कभी सम्पूर्ण भावोंका एक साथ उदय होने लगता है।

कभी विलग न होनेवाले इन मन्द, मध्यम और उत्तम भावोंद्वारा उन श्रेष्ठ सत्पुरुषोंकी पहचान करनी चाहिये।

जैसे जब लोहा आगमें तपकर लाल हो जाता है, तब केवल लोहा नहीं रह जाता, उसी तरह मेरा सांनिध्य प्राप्त होनेसे वे केवल मनुष्य नहीं रह जाते – मेरा स्वरूप हो जाते हैं।

हाथ, पैर आदिके साधर्म्यसे मानव-शरीर धारण करनेपर भी वे वास्तवमें रुद्र हैं।

उन्हें प्राकृत मनुष्य समझकर विद्वान् पुरुष उनकी अवहेलना न करे।

जो मूढ़चित्त मानव उनके प्रति अवहेलना करते हैं, वे अपनी आयु, लक्ष्मी, कुल और शीलको त्यागकर नरकमें गिरते हैं, अथवा बहुत कहनेसे क्या लाभ? जिस किसी भी उपायसे मुझमें चित्त लगाना कल्याणकी प्राप्तिका एकमात्र साधन है।

उपमन्यु कहते हैं – इस प्रकार परमात्मा श्रीकण्ठनाथ शिवने तीनों लोकोंके हितके लिये ज्ञानके सारभूत अर्थका संग्रह प्रकट किया है।

सम्पूर्ण वेदशास्त्र, इतिहास, पुराण और विद्याएँ इस विज्ञान-संग्रहकी ही विस्तृत व्याख्याएँ हैं।

ज्ञान, ज्ञेय, अनुष्ठेय, अधिकार, साधन और साध्य – इन छः अर्थोंका ही यह संक्षिप्त संग्रह बताया गया है।

श्रीकृष्ण! जो शिव और शिवासम्बन्धी ज्ञानामृतसे तृप्त है और उनकी भक्तिसे सम्पन्न है, उसके लिये बाहर-भीतर कुछ भी कर्तव्य शेष नहीं है।

इसलिये क्रमशः बाह्य और आभ्यन्तर कर्मको त्यागकर ज्ञानसे ज्ञेयका साक्षात्कार करके फिर उस साधनभूत ज्ञानको भी त्याग दे।

यदि चित्त शिवमें एकाग्र नहीं है तो कर्म करनेसे भी क्या लाभ? और यदि चित्त एकाग्र ही है तो कर्म करनेकी भी क्या आवश्यकता है? अतः बाहर और भीतरके कर्म करके या न करके जिस-किसी भी उपायसे भगवान् शिवमें चित्त लगाये।

जिनका चित्त भगवान् शिवमें लगा है और जिनकी बुद्धि सुस्थिर है, ऐसे सत्पुरुषोंको इहलोक और परलोकमें भी सर्वत्र परमानन्दकी प्राप्ति होती है।

यहाँ ‘ॐ नमः शिवाय’ इस मन्त्रसे सब सिद्धियाँ सुलभ होती हैं; अतः परावर विभूति (उत्तम-मध्यम ऐश्वर्य)-की प्राप्तिके लिये इस मन्त्रका ज्ञान प्राप्त करना चाहिये।

(अध्याय ११) * पाराशरस्मृतिके ग्यारहवें अध्यायमें ब्रह्मकूर्चका वर्णन इस प्रकार है – गोमूत्रं गोमयं क्षीरं दधि सर्पिः कुशोदकम्।

निर्दिष्टं पञ्चगव्यं च पवित्रं पापशोधनम्।। २९।।

गोमूत्रं कृष्णवर्णायाः श्वेतायाश्चैव गोमयम्।

पयश्च ताम्रवर्णाया रक्ताया गृह्यते दधि।। ३०।।

कपिलाया घृतं ग्राह्यं सर्वं कापिलमेव वा।

मूत्रमेकपलं दद्यादङ्गुष्ठार्द्धं तु गोमयम्।। ३१।।

क्षीरं सप्तपलं दद्याद्दधि त्रिपलमुच्यते।

घृतमेकपलं दद्यात् पलमेकं कुशोदकम्।। ३२।।

गायत्र्याऽऽदाय गोमूत्रं गन्धद्वारेति गोमयम्।

आप्यायस्वेति च क्षीरं दधिक्राव्णस्तथा दधि।। ३३।।

तेजोऽसि शुक्रमित्याज्यं देवस्य त्वा कुशोदकम्।

पञ्चगव्यमृचापूतं स्थापयेदग्निसंनिधौ।। ३४।।

आपो हि ष्ठेति चालोड्य मा नस्तोकेति मन्त्रयेत्।

सप्तावरास्तु ये दर्भा अच्छिन्नाग्राः शुकत्विषः।। ३५।।

एतैरुद् धृत्य होतव्यं पञ्चगव्यं यथाविधि।

इरावती इदं विष्णुर्मा नस्तोकेति शंवती।। ३६।।

एताभिश्चैव होतव्यं हुतशेषं पिबेद् द्विजः।

आलोड्य प्रणवेनैव निर्मथ्य प्रणवेन तु।। ३७।।

उद् धृत्य प्रणवेनैव पिबेच्च प्रणवेन तु।

यत्त्वगस्थिगतं पापं देहे तिष्ठति देहिनाम्।। ३८।।

ब्रह्मकूर्चं दहेत्सर्वं यथैवाग्निरिवेन्धनम्।

पवित्रं त्रिषु लोकेषु देवताभिरधिष्ठितम्।। ३९।।

‘गोमूत्र, गोबर, दूध, दही, घी और कुशाका जल – ये पवित्र और पापनाशक ‘पंचगव्य’ कहे जाते हैं।

(कुशोदकमिश्रित पंचगव्य ही ब्रह्मकूर्च कहलाता है।) ब्रह्मकूर्चका विधान करनेवालेको उचित है कि काली गौका गोमूत्र, सफेद गौका गोबर, ताँबेके रंगकी गौका दूध, लाल गौका दही और कपिला गौका घी अथवा कपिला गौका ही गोमूत्र आदि पाँचों वस्तु लाये; १ पल गोमूत्र, आधे अँगूठे भर गोबर, ७ पल दूध, ३ पल दही, १ पल घी और १ पल कुशाका जल ग्रहण करे।

‘गायत्री’ मन्त्रसे गोमूत्र, ‘गन्धद्वारा’ मन्त्रसे गोबर, ‘आप्यायस्व’ मन्त्रसे दूध, ‘दधिक्राव्ण’ मन्त्रसे दही, ‘तेजोऽसि शुक्र’ मन्त्रसे घी और ‘देवस्य त्वा’ मन्त्रसे कुशाका जल ग्रहण करे; इस प्रकार ऋचाओंसे पवित्र किये हुए पंचगव्यको अग्निके पास रखे।

‘आपो हि ष्ठा’ मन्त्रसे गोमूत्र आदिको चलाये, ‘मा नस्तोके’ मन्त्रसे अभिमन्त्रित करे (मथे) ‘इरावती’, ‘इदं विष्णुः’, ‘मा नस्तोके’ और ‘शंवती’ इन ऋचाओंद्वारा अग्रभागसे युक्त ७ हरित कुशाओंसे पंचगव्यका होम करे; होमसे बचे हुए पंचगव्यको ओंकार पढ़कर मिलाये, ओंकार उच्चारण करके मथे, ओंकार पढ़कर उठाये और ओंकार उच्चारण करके द्विज पीवे।

जैसे अग्नि काठको जलाता है, वैसे ही ब्रह्मकूर्च मनुष्योंके त्वचों और हाड़ोंमें टिके हुए पापोंको जला देता है।

देवताओंसे अधिष्ठित होनेके कारण ब्रह्मकूर्च तीनों लोकोंमें पवित्र हुआ है।। २९ – ३९।।


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