शिव पुराण – वायवीय संहिता – उत्तरखण्ड – 10


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


भगवान् शिवके प्रति श्रद्धा-भक्तिकी आवश्यकताका प्रतिपादन, शिवधर्मके चार पादोंका वर्णन एवं ज्ञानयोगके साधनों तथा शिवधर्मके अधिकारियोंका निरूपण, शिवपूजनके अनेक प्रकार एवं अनन्यचित्तसे भजनकी महिमा

तदनन्तर श्रीकृष्णके प्रश्न करनेपर उपमन्यु मन्दराचलपर घटित हुए शिव-पार्वती-संवादको प्रस्तुत करते हुए बोले – श्रीकृष्ण! एक समय देवी पार्वतीने भगवान् शिवसे पूछा – ‘महादेव! जो आत्मतत्त्व आदिके साधनमें नहीं लगे हैं तथा जिनका अन्तःकरण पवित्र एवं वशीभूत नहीं है, ऐसे मन्दमति, मर्त्यलोकवासी जीवात्माओंके वशमें आप किस उपायसे हो सकते हैं?’ महादेवजी बोले – देवि! यदि साधकके मनमें श्रद्धा-भक्ति न हो तो पूजनकर्म, तपस्या, जप, आसन आदि, ज्ञान तथा अन्य साधनसे भी मैं उसके वशीभूत नहीं होता हूँ।

यदि मनुष्योंकी मुझमें श्रद्धा हो तो जिस किसी भी हेतुसे मैं उसके वशमें हो जाता हूँ।

फिर तो वह मेरा दर्शन, स्पर्श, पूजन एवं मेरे साथ सम्भाषण भी कर सकता है।

अतः जो मुझे वशमें करना चाहे, उसे पहले मेरे प्रति श्रद्धा करनी चाहिये।

श्रद्धा ही स्वधर्मका हेतु है और वही इस लोकमें वर्णाश्रमी पुरुषोंकी रक्षा करनेवाली है।

जो मानव अपने वर्णाश्रम-धर्मके पालनमें लगा रहता है, उसीकी मुझमें श्रद्धा होती है, दूसरेकी नहीं।

वर्णाश्रमी पुरुषोंके सम्पूर्ण धर्म वेदोंसे सिद्ध हैं।

पूर्वकालमें ब्रह्माजीने मेरी ही आज्ञा लेकर उनका वर्णन किया था।

ब्रह्माजीका बताया हुआ वह धर्म अधिक धनके द्वारा साध्य है तथा अनेक प्रकारके क्रियाकलापसे युक्त होता है।

उससे मिलनेवाला अधिकांश फल अक्षय नहीं है तथा उस धनके अनुष्ठानमें अनेक प्रकारके क्लेश और आयास उठाने पड़ते हैं।

उस महान् धर्मसे परम दुर्लभ श्रद्धाको पाकर जो वर्णाश्रमी मनुष्य अनन्यभावसे मेरी शरणमें आ जाते हैं, उन्हें सुखद मार्गसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त होते हैं।

वर्णाश्रम-सम्बन्धी आचारकी सृष्टि मैंने ही बारंबार की है।

उसमें भक्तिभाव रखकर जो मेरे हो गये हैं, उन्हीं वर्णाश्रमियोंका मेरी उपासनामें अधिकार है, दूसरोंका नहीं, यह मेरी निश्चित आज्ञा है।

मेरी आज्ञाके अनुसार धर्ममार्गसे चलनेवाले वर्णाश्रमी पुरुष मेरी शरणमें आ मेरे कृपाप्रसादसे मल और माया आदि पाशोंसे मुक्त हो जाते हैं तथा मेरे पुनरावृत्ति-रहित धाममें पहुँचकर मेरा उत्तम साधर्म्य प्राप्त करके परमानन्दमें निमग्न हो जाते हैं।

इसलिये मेरे बताये हुए वर्णधर्मको पाकर अथवा न पाकर भी जो मेरी शरण ले मेरा भक्त बन जाता है, वह स्वयं ही अपनी आत्माका उद्धार कर लेता है।

यह कोटि-कोटि गुना अधिक अलब्ध-लाभ है।

अतः मेरे मुखसे प्रतिपादित वर्णधर्मका पालन अवश्य करना चाहिये।

जो मोक्षमार्गसे विलग होकर दूसरी किसी वस्तुके लिये श्रम करता है, उसके लिये वही सबसे बड़ी हानि है, वही बड़ी भारी त्रुटि है, वही मोह है और वही अन्धता एवं मूकता है*।

देवेश्वरि! मेरा जो सनातनधर्म है, वह चार चरणोंसे युक्त बताया गया है।

उन चरणोंके नाम हैं – ज्ञान, क्रिया, चर्या और योग।

पशु, पाश और पतिका ज्ञान ही ज्ञान कहलाता है।

गुरुके अधीन जो विधिपूर्वक षडध्वशोधनका कार्य होता है, उसे क्रिया कहते हैं।

मेरे द्वारा विहित वर्णाश्रमप्रयुक्त जो मेरे पूजन आदि धर्म हैं, उनके आचरणका नाम चर्या है।

मेरे बताये हुए मार्गसे ही मुझमें सुस्थिरभावसे चित्त लगानेवाले साधकके द्वारा जो अन्तःकरणकी अन्य वृत्तियोंका निरोध किया जाता है उसीको योग कहते हैं।

देवि! चित्तको निर्मल एवं प्रसन्न बनाना अश्वमेध यज्ञोंके समूहसे भी श्रेष्ठ है; क्योंकि वह मुक्ति देनेवाला है।

विषयभोगकी इच्छा रखनेवाले लोगोंके लिये यह ‘मनः प्रसाद’ दुर्लभ है।

जिसने यम और नियमके द्वारा इन्द्रियसमुदायपर विजय प्राप्त कर लिया है, उस विरक्त पुरुषके लिये ही योगको सुलभ बताया गया है।

योग पूर्वपापोंको हर लेनेवाला है।

वैराग्यसे ज्ञान होता है और ज्ञानसे योग।

योगज्ञ पुरुष पतित हो तो भी मुक्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं है।

सब प्राणियोंपर दया करनी चाहिये।

सदा अहिंसाधर्मका पालन सबके लिये उचित है।

ज्ञानका संग्रह भी आवश्यक है।

सत्य बोलना, चोरीसे दूर रहना, ईश्वर और परलोकपर विश्वास रखना, मुझमें श्रद्धा करना, इन्द्रियोंको संयममें रखना, वेद-शास्त्रोंका पढ़ना-पढ़ाना, यज्ञ करना-कराना, मेरा चिन्तन करना, ईश्वरके प्रति अनुराग रखना और सदा ज्ञानशील होना ब्राह्मणके लिये नितान्त आवश्यक है।

जो ब्राह्मण ज्ञानयोगकी सिद्धिके लिये सदा इस प्रकार उपर्युक्त धर्मोंका पालन करता है, वह शीघ्र ही विज्ञान पाकर योगको भी सिद्ध कर लेता है।

प्रिये! ज्ञानी पुरुष ज्ञानाग्निके द्वारा इस कर्ममय शरीरको क्षणभरमें दग्ध करके मेरे प्रसादसे योगका ज्ञाता होकर कर्म-बन्धनसे छुटकारा पा जाता है।

पुण्य-पापमय जो कर्म है, उसे मोक्षका प्रतिबन्धक बताया गया है; इसलिये योगी पुरुष योगके द्वारा पुण्यापुण्यका परित्याग कर दे।

फलकी कामनासे प्रेरित होकर कर्म करनेसे ही मनुष्य बन्धनमें पड़ता है, केवल कर्म करनेमात्रसे नहीं; अतः कर्मके फलको त्याग देना चाहिये।

प्रिये! पहले कर्ममय यज्ञद्वारा बाहर मेरी पूजा करके फिर ज्ञानयोगमें तत्पर हो साधक योगका अभ्यास करे।

कर्मयज्ञसे मेरे यथार्थ स्वरूपका बोध प्राप्त हो जानेपर जीव योगयुक्त हो मेरे यजनसे विरत हो जाते हैं।

उस समय वे मिट्टी, पत्थर और सुवर्णमें भी समभाव रखते हैं।

जो मेरा भक्त नित्ययुक्त एवं एकाग्रचित्त हो ज्ञानयोगमें तत्पर रहता है, वह मुनियोंमें श्रेष्ठ एवं योगी होकर मेरा सायुज्य प्राप्त कर लेता है।

जो वर्णाश्रमी पुरुष मनसे विरक्त नहीं हैं, वे मेरा आश्रय ले ज्ञान, चर्या और क्रिया – इन तीनमें ही प्रवृत्त होनेके अधिकारी हैं, उन्हींके अनुष्ठानकी योग्यता रखते हैं।

मेरा पूजन दो प्रकारका है – बाह्य और आभ्यन्तर।

इसी तरह मन, वाणी और शरीर – इन त्रिविध साधनोंके भेदसे मेरा भजन तीन प्रकारका माना गया है।

तप, कर्म, जप, ध्यान और ज्ञान – ये मेरे भजनके पाँच स्वरूप हैं; अतः साधुपुरुष उसे पाँच प्रकारका भी कहते हैं।

मूर्ति आदिमें जो मेरा पूजन आदि होता है, जिसे दूसरे लोग जान लेते हैं, वह ‘बाह्य’ पूजन या भजन कहा गया है तथा वही भजन-पूजन जब मनके द्वारा होनेसे केवल अपने ही अनुभवका विषय होता है, तब ‘आभ्यन्तर’ कहलाता है।

मुझमें लगा हुआ चित्त ही ‘मन’ कहलाता है।

सामान्यतः मनमात्रको यहाँ मन नहीं कहा गया है।

इसी तरह जो वाणी मेरे नामके जप और कीर्तनमें लगी हुई है, वही ‘वाणी’ कहलाने योग्य है, दूसरी नहीं तथा जो मेरे शास्त्रमें बताये हुए त्रिपुण्ड्र आदि चिह्नोंसे अंकित है और निरन्तर मेरी सेवा-पूजामें लगा हुआ है, वही शरीर ‘शरीर’ है, दूसरा नहीं।

मेरी पूजाको ही ‘कर्म’ जानना चाहिये।

बाहर जो यज्ञ आदि किये जाते हैं, उन्हें ‘कर्म’ नहीं कहा गया है।

मेरे लिये शरीरको सुखाना ही ‘तप’ है, कृच्छ्र-चान्द्रायण आदिका अनुष्ठान नहीं।

पंचाक्षर-मन्त्रकी आवृत्ति, प्रणवका अभ्यास तथा रुद्राध्याय आदिका बारंबार पाठ ही यहाँ ‘जप’ कहा गया है, वेदाध्ययन आदि नहीं।

मेरे स्वरूपका चिन्तन-स्मरण ही ‘ध्यान’ है।

आत्मा आदिके लिये की हुई समाधि नहीं।

मेरे आगमोंके अर्थको भलीभाँति जानना ही ‘ज्ञान’ है, दूसरी किसी वस्तुके अर्थको समझना नहीं।

देवि! पूर्ववासनावश बाह्य अथवा आभ्यन्तर जिस पूजनमें मनका अनुराग हो, उसीमें दृढ़ निष्ठा रखनी चाहिये।

बाह्य पूजनसे आभ्यन्तर पूजन सौ गुना अधिक श्रेष्ठ है; क्योंकि उसमें दोषोंका मिश्रण नहीं होगा तथा प्रत्यक्ष दीखनेवाले दोषोंकी भी वहाँ सम्भावना नहीं रहती है।

भीतरकी शुद्धिको ही शुद्धि समझनी चाहिये।

बाहरी शुद्धिको शुद्धि नहीं कहते हैं।

जो आन्तरिक शुद्धिसे रहित है, वह बाहरसे शुद्ध होनेपर भी अशुद्ध ही है।

देवि! बाह्य और आभ्यन्तर दोनों ही प्रकारका भजन भाव (अनुराग)-पूर्वक ही होना चाहिये, बिना भावके नहीं।

भावरहित भजन तो एकमात्र विप्रलम्भ (छलना)-का ही कारण होता है।

मैं तो सदा ही कृतकृत्य एवं पवित्र हूँ, मनुष्य मेरा क्या करेंगे? उनके द्वारा किये गये बाह्य अथवा आभ्यन्तर पूजनमें उनका जो भाव (प्रेम) है, उसीको मैं ग्रहण करता हूँ।

देवि! क्रियाका एकमात्र आत्मा भाव ही है।

वही मेरा सनातनधर्म है।

मन, वाणी और कर्मद्वारा कहीं भी किंचिन्मात्र फलकी इच्छा न रखकर ही क्रिया करनी चाहिये।

देवेश्वरि! फलका उद्देश्य रखनेसे मेरा आश्रय लघु हो जाता है; क्योंकि फलार्थीको यदि फल न मिला तो वह मुझे छोड़ सकता है।

सती साध्वी देवि! फलार्थी होनेपर भी जिस साधकका चित्त मुझमें ही प्रतिष्ठित है, उसे उसके भावके अनुसार फल मैं अवश्य देता हूँ।

जिनका मन फलकी इच्छा न रखकर ही मुझमें लगा हो, परंतु पीछे वे फल चाहने लगे हों, वे भक्त भी मुझे प्रिय हैं।

जो पूर्वसंस्कारवश ही फलाफलकी चिन्ता न करके विवश हो मेरी शरण लेते हैं, वे भक्त मुझे अधिक प्रिय हैं।

परमेश्वरि! उन भक्तोंके लिये मेरी प्राप्तिसे बढ़कर दूसरा कोई वास्तविक लाभ नहीं है तथा मेरे लिये भी वैसे भक्तोंकी प्राप्तिसे बढ़कर और कोई लाभ नहीं है।

मुझमें समर्पित हुआ उनका भाव मेरे अनुग्रहसे ही उनको मानो बलपूर्वक परम निर्वाणरूप फल प्रदान करता है।

जिन्होंने अपने चित्तको मुझे समर्पित कर दिया है, अतएव जो मेरे अनन्यभक्त हैं, वे महात्मा पुरुष ही मेरे धर्मके अधिकारी हैं।

उनके आठ लक्षण बताये गये हैं।

मेरे भक्तजनोंके प्रति स्नेह, मेरी पूजाका अनुमोदन, स्वयंकी भी मेरे पूजनमें प्रवृत्ति, मेरे लिये ही शारीरिक चेष्टाओंका होना, मेरी कथा सुननेमें भक्तिभाव, कथा सुनते समय स्वर, नेत्र और अंगोंमें विकारका होना, बारंबार मेरी स्मृति और सदा मेरे आश्रित रहकर ही जीवन-निर्वाह करना – ये आठ प्रकारके चिह्न यदि किसी म्लेच्छमें भी हों तो वह विप्रशिरोमणि श्रीमान् मुनि है।

वह संन्यासी है और वही पण्डित है।

जो मेरा भक्त नहीं है, वह चारों वेदोंका विद्वान् हो तो भी मुझे प्रिय नहीं है।

परंतु जो मेरा भक्त है, वह चाण्डाल हो तो भी प्रिय है।

उसे उपहार देना चाहिये, उससे प्रसाद ग्रहण करना चाहिये तथा वह मेरे समान ही पूजनीय है।

जो भक्तिभावसे मुझे पत्र, पुष्प, फल अथवा जल समर्पित करता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता हूँ और वह मेरी भी दृष्टिसे कभी ओझल नहीं होता है।*
(अध्याय १०) * सा हानिस्तन्महच्छिद्रं स मोहः सान्धमूकता।

यदन्यत्र श्रमं कुर्यान्मोक्षमार्गबहिष्कृतः।।

(शि० पु० वा० सं० उ० ख० १०।२९) * न मे प्रियश्चतुर्वेदी मद्भक्तः श्वपचोऽपि यः।

तस्मै देयं ततो ग्राह्यं स च पूज्यो यथा ह्यहम्।।

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।

तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति।।

(शि० पु० वा० सं० उ० ख० १०।७१-७२)


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