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अग्नि और सोमके स्वरूपका विवेचन तथा जगत् की अग्नीषोमात्मकताका प्रतिपादन
ऋषियोंने पूछा – प्रभो! पार्वतीदेवीका समाधान करते हुए महादेवजीने यह बात क्यों कही कि ‘सम्पूर्ण विश्व अग्नीषोमात्मक एवं वागर्थात्मक है।
ऐश्वर्यका सार एकमात्र आज्ञा ही है और वह आज्ञा तुम हो।’ अतः इस विषयमें हम क्रमशः यथार्थ बातें सुनना चाहते हैं।
वायुदेव बोले – महर्षियो! रुद्रदेवका जो घोर तेजोमय शरीर है, उसे अग्नि कहते हैं और अमृतमय सोम शक्तिका स्वरूप है; क्योंकि शक्तिका शरीर शान्तिकारक है।
जो अमृत है, वह प्रतिष्ठा नामक कला है और जो तेज है, वह साक्षात् विद्या नामक कला है।
सम्पूर्ण सूक्ष्म भूतोंमें वे ही दोनों रस और तेज हैं।
तेजकी वृत्ति दो प्रकारकी है।
एक सूर्यरूपा है और दूसरी अग्निरूपा।
इसी तरह रसवृत्ति भी दो प्रकारकी है – एक सोमरूपिणी और दूसरी जलरूपिणी।
तेज विद्युत् आदिके रूपमें उपलब्ध होता है तथा रस, मधुर आदिके रूपमें।
तेज और रसके भेदोंने ही इस चराचर जगत् को धारण कर रखा है।
अग्निसे अमृतकी उत्पत्ति होती है और अमृतस्वरूप घीसे अग्निकी वृद्धि होती है, अतएव अग्नि और सोमको दी हुई आहुति जगत् के लिये हितकारक होती है।
शस्य-सम्पत्ति हविष्यका उत्पादन करती है।
वर्षा शस्यको बढ़ाती है।
इस प्रकार वर्षासे ही हविष्यका प्रादुर्भाव होता है, जिससे यह अग्नीषोमात्मक जगत् टिका हुआ है।
अग्नि वहाँतक ऊपरको प्रज्वलित होता है, जहाँतक सोम-सम्बन्धी परम अमृत विद्यमान है और जहाँतक अग्निका स्थान है, वहाँतक सोम-सम्बन्धी अमृत नीचेको झरता है।
इसीलिये कालाग्नि नीचे है और शक्ति ऊपर।
जहाँतक अग्नि है, उसकी गति ऊपरकी ओर है और जो जलका आप्लावन है, उसकी गति नीचेकी ओर है।
आधारशक्तिने ही इस ऊर्ध्वगामी कालाग्निको धारण कर रखा है तथा निम्नगामी सोम शिवशक्तिके आधारपर प्रतिष्ठित है।
शिव ऊपर हैं और शक्ति नीचे तथा शक्ति ऊपर है और शिव नीचे।
इस प्रकार शिव और शक्तिने यहाँ सब कुछ व्याप्त कर रखा है।
बारंबार अग्निद्वारा जलाया हुआ जगत् भस्मसात् हो जाता है।
यह अग्निका वीर्य है।
भस्मको ही अग्निका वीर्य कहते हैं।
जो इस प्रकार भस्मके श्रेष्ठ स्वरूपको जानकर ‘अग्निः’ इत्यादि मन्त्रोंद्वारा भस्मसे स्नान करता है, वह बँधा हुआ जीव पाशसे मुक्त हो जाता है।
अग्निके वीर्यरूप भस्मको सोमने अयोगयुक्तिके द्वारा फिर आप्लावित किया; इसलिये वह प्रकृतिके अधिकारमें चला गया।
यदि योगयुक्तिसे शाक्त अमृतवर्षाके द्वारा उस भस्मका सब ओर आप्लावन हो तो वह प्रकृतिके अधिकारोंको निवृत्त कर देता है।
अतः इस तरहका अमृतप्लावन सदा मृत्युपर विजय पानेके लिये ही होता है।
शिवाग्निके साथ शक्ति-सम्बन्धी अमृतका स्पर्श होनेपर जिसने अमृतका आप्लावन प्राप्त कर लिया, उसकी मृत्यु कैसे हो सकती है।
जो अग्निके इस गुह्य स्वरूपको तथा पूर्वोक्त अमृतप्लावनको ठीक-ठीक जानता है, वह अग्नीषोमात्मक जगत् को त्यागकर फिर यहाँ जन्म नहीं लेता।
जो शिवाग्निसे शरीरको दग्ध करके शक्तिस्वरूप सोमामृतसे योगमार्गके द्वारा इसे आप्लावित करता है, वह अमृतस्वरूप हो जाता है।
इसी अभिप्रायको हृदयमें धारण करके महादेवजीने इस सम्पूर्ण जगत् को अग्नीषोमात्मक कहा था।
उनका वह कथन सर्वथा उचित है।
(अध्याय २८)
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