शिव पुराण – उमा संहिता – 7


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जलदान, जलाशय-निर्माण, वृक्षारोपण, सत्यभाषण और तपकी महिमा

सनत्कुमारजी कहते हैं – व्यासजी! जलदान सबसे श्रेष्ठ है।

वह सब दानोंमें सदा उत्तम है; क्योंकि जल सभी जीवसमुदायको तृप्त करनेवाला जीवन कहा गया है।१ इसलिये बड़े स्नेहके साथ अनिवार्यरूपसे प्रपादान (पौंसला चलाकर दूसरोंको पानी पिलानेका प्रबन्ध) करना चाहिये।

जलाशयका निर्माण इस लोक और परलोकमें भी महान् आनन्दकी प्राप्ति करानेवाला होता है – यह सत्य है, सत्य है।

इसमें संशय नहीं है।

इसलिये मनुष्यको चाहिये कि वह कुआँ, बावड़ी और तालाब बनवाये।

कुएँमें जब पानी निकल आता है, तब वह पापी पुरुषके पापकर्मका आधा भाग हर लेता है तथा सत्कर्ममें लगे हुए मनुष्यके सदा समस्त पापोंको हर लेता है।

जिसके खुदवाये हुए जलाशयमें गौ, ब्राह्मण तथा साधुपुरुष सदा पानी पीते हैं, वह अपने सारे वंशका उद्धार कर देता है।

जिसके जलाशयमें गरमीके मौसममें भी अनिवार्यरूपसे पानी टिका रहता है, वह कभी दुर्गम एवं विषम संकटको नहीं प्राप्त होता।

जिसके पोखरेमें केवल वर्षा-ऋतुमें जल ठहरता है, उसे प्रतिदिन अग्निहोत्र करनेका फल मिलता है – ऐसा ब्रह्माजीका कथन है।

जिसके तड़ागमें शरत्कालतक जल ठहरता है, उसे सहस्र गोदानका फल मिलता है – इसमें संशय नहीं है।

जिसके तालाबमें हेमन्त और शिशिर-ऋतुतक पानी मौजूद रहता है, वह बहुत-सी सुवर्ण-मुद्राओंकी दक्षिणासे युक्त यज्ञका फल पाता है।

जिसके सरोवरमें वसन्त और ग्रीष्मकालतक पानी बना रहता है, उसे अतिरात्र और अश्वमेधयज्ञोंका फल मिलता है – ऐसा मनीषी महात्माओंका कथन है।

मुनिवर व्यास! जीवोंको तृप्ति प्रदान करनेवाले जलाशयके उत्तम फलका वर्णन किया गया।

अब वृक्ष लगानेमें जो गुण हैं, उनका वर्णन सुनो।

जो वीरान एवं दुर्गम स्थानोंमें वृक्ष लगाता है, वह अपनी बीती तथा आनेवाली सम्पूर्ण पीढ़ियोंको तार देता है।

इसलिये वृक्ष अवश्य लगाना चाहिये२।

ये वृक्ष लगानेवालेके पुत्र होते हैं, इसमें संशय नहीं है।

वृक्ष लगानेवाला पुरुष परलोकमें जानेपर अक्षय लोकोंको पाता है।

पोखरा खुदानेवाला, वृक्ष लगानेवाला और यज्ञ करानेवाला जो द्विज है, वह तथा दूसरे-दूसरे सत्यवादी पुरुष – ये स्वर्गसे कभी नीचे नहीं गिरते।

सत्य ही परब्रह्म है, सत्य ही परम तप है, सत्य ही श्रेष्ठ यज्ञ है और सत्य ही उत्कृष्ट शास्त्रज्ञान है।

सोये हुए पुरुषोंमें सत्य ही जागता है, सत्य ही परमपद है, सत्यसे ही पृथ्वी टिकी हुई है और सत्यमें ही सब कुछ प्रतिष्ठित है।

तप, यज्ञ, पुण्य, देवता, ऋषि और पितरोंका पूजन, जल और विद्या – ये सब सत्यपर ही अवलम्बित हैं।

सबका आधार सत्य ही है।

सत्य ही यज्ञ, तप, दान, मन्त्र, सरस्वतीदेवी तथा ब्रह्मचर्य है।

ओंकार भी सत्यरूप ही है।

सत्यसे ही वायु चलती है, सत्यसे ही सूर्य तपता है, सत्यसे ही आग जलाती है और सत्यसे ही स्वर्ग टिका हुआ है।

लोकमें सम्पूर्ण वेदोंका पालन तथा सम्पूर्ण तीर्थोंका स्नान केवल सत्यसे सुलभ हो जाता है।

सत्यसे सब कुछ प्राप्त होता है, इसमें संशय नहीं है।

एक सहस्र अश्वमेध और लाखों यज्ञ एक ओर तराजूपर रखे जायँ और दूसरी ओर सत्य हो तो सत्यका ही पलड़ा भारी होगा।

देवता, पितर, मनुष्य, नाग, राक्षस तथा चराचर प्राणियोंसहित समस्त लोक सत्यसे ही प्रसन्न होते हैं।

सत्यको परम धर्म कहा गया है।

सत्यको ही परमपद बताया गया है और सत्यको ही परब्रह्म परमात्मा कहते हैं।

इसलिये सदा सत्य बोलना चाहिये।* सत्यपरायण मुनि अत्यन्त दुष्कर तप करके स्वर्गको प्राप्त हुए हैं तथा सत्यधर्ममें अनुरक्त रहनेवाले सिद्ध पुरुष भी सत्यसे ही स्वर्गके निवासी हुए हैं।

अतः सदा सत्य बोलना चाहिये।

सत्यसे बढ़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है।

सत्यरूपी तीर्थ अगाध, विशाल, सिद्ध एवं पवित्र जलाशय है।

उसमें योगयुक्त होकर मनके द्वारा स्नान करना चाहिये।

सत्यको परमपद कहा गया है।

जो मनुष्य अपने लिये, दूसरेके लिये अथवा अपने बेटेके लिये भी झूठ नहीं बोलते वे ही स्वर्गगामी होते हैं।

वेद, यज्ञ तथा मन्त्र – ये ब्राह्मणोंमें सदा निवास करते हैं; परंतु असत्यवादी ब्राह्मणोंमें इनकी प्रतीति नहीं होती।

अतः सदा सत्य बोलना चाहिये।

तदनन्तर तपकी बड़ी भारी महिमा बताते हुए सनत्कुमारजीने कहा – मुने! संसारमें ऐसा कोई सुख नहीं है जो तपस्याके बिना सुलभ होता हो।

तपसे ही सारा सुख मिलता है, इस बातको वेदवेत्ता पुरुष जानते हैं।

ज्ञान, विज्ञान, आरोग्य, सुन्दर रूप, सौभाग्य तथा शाश्वत सुख तपसे ही प्राप्त होते हैं।

तपस्यासे ही ब्रह्मा बिना परिश्रमके ही सम्पूर्ण विश्वकी सृष्टि करते हैं।

तपस्यासे ही विष्णु इसका पालन करते हैं।

तपस्याके बलसे ही रुद्रदेव संहार करते हैं तथा तपके प्रभावसे ही शेष अशेष भूमण्डलको धारण करते हैं।

(अध्याय १२) १- पानीयदानं परमं दानानामुत्तमं तदा।

सर्वेषां जीवपुञ्जानां तर्पणं जीवनं स्मृतम्।।

(शि० पु० उ० सं० १२।१) २- अतीतानागतान् सर्वान् पितृवंशांस्तु तारयेत्।

कान्तारे वृक्षरोपी यस्तस्माद् वृक्षांस्तु रोपयेत्।।

(शि० पु० उ० सं० १२।१७) * सत्यमेव परं ब्रह्म सत्यमेव परं तपः।

सत्यमेव परो यज्ञः सत्यमेव परं श्रुतम्।।

सत्यं सुप्तेषु जागर्ति सत्यं च परमं पदम्।

सत्येनैव धृता पृथ्वी सत्ये सर्वं प्रतिष्ठितम्।।

तपो यज्ञश्च पुण्यं च देवर्षिपितृपूजने।

आपो विद्या च ते सर्वे सर्वं सत्ये प्रतिष्ठितम्।।

सत्यं यज्ञस्तपो दानं मन्त्रा देवी सरस्वती।

ब्रह्मचर्यं तथा सत्यमोंकारः सत्यमेव च।।

सत्येन वायुरभ्येति सत्येन तपते रविः।

सत्येनाग्निर्दहति स्वर्गः सत्येन तिष्ठति।।

पालनं सर्ववेदानां सर्वतीर्थावगाहनम्।

सत्येन वहते लोके सर्वमाप्नोत्यसंशयम्।।

अश्वमेधसहस्रं च सत्यं च तुलया धृतम्।

लक्षाणि क्रतवश्चैव सत्यमेव विशिष्यते।।

सत्येन देवाः पितरो मानवोरगराक्षसाः।

प्रीयन्ते सत्यतः सर्वे लोकाश्च सचराचराः।।

सत्यमाहुः परं धर्मं सत्यमाहुः परं पदम्।

सत्यमाहुः परं ब्रह्म तस्मात्सत्यं सदा वदेत्।।

(शि० पु० उ० सं० १२।२३ – ३१)


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