शिव पुराण – उमा संहिता – 18


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


देवीके क्रियायोगका वर्णन-देवीकी मूर्ति एवं मन्दिरके निर्माण, स्थापन और पूजनका महत्त्व, परा अम्बाकी श्रेष्ठता, विभिन्न मासों और तिथियोंमें देवीके व्रत, उत्सव और पूजन आदिके फल तथा इस संहिताके श्रवण एवं पाठकी महिमा

व्यासजी बोले – महामते, ब्रह्मपुत्र, सर्वज्ञ सनत्कुमार! मैं उमाके परम अद्भुत क्रिया-योगका वर्णन सुनना चाहता हूँ।

उस क्रियायोगका लक्षण क्या है? उसका अनुष्ठान करनेपर किस फलकी प्राप्ति होती है तथा जो परा अम्बा उमाको अधिक प्रिय है, वह क्रियायोग क्या है? ये सब बातें मुझे बताइये।

सनत्कुमारजीने कहा – महाबुद्धिमान् द्वैपायन! तुम जिस रहस्यकी बात पूछ रहे हो, वह सब मैं बताता हूँ; ध्यान देकर सुनो।

ज्ञानयोग, क्रियायोग, भक्तियोग – ये श्रीमाताकी उपासनाके तीन मार्ग कहे गये हैं, जो भोग और मोक्ष देनेवाले हैं।

चित्तका जो आत्माके साथ संयोग होता है, उसका नाम ‘ज्ञानयोग’ है; उसका बाह्य वस्तुओंके साथ जो संयोग होता है, उसे ‘क्रियायोग’ कहते हैं।

देवीके साथ आत्माकी एकताकी भावनाको भक्तियोग माना गया है।

तीनों योगोंमें जो क्रियायोग है, उसका प्रतिपादन किया जाता है।

कर्मसे भक्ति उत्पन्न होती है, भक्तिसे ज्ञान होता है और ज्ञानसे मुक्ति होती है – ऐसा शास्त्रोंमें निश्चय किया गया है।

मुनिश्रेष्ठ! मोक्षका प्रधान कारण योग है, परंतु योगके ध्येयका उत्तम साधन क्रियायोग है।

प्रकृतिको माया जाने और सनातन ब्रह्मको मायावी अथवा मायाका स्वामी समझे।

उन दोनोंके स्वरूपको एक-दूसरेसे अभिन्न जानकर मनुष्य संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है।* कालीनन्दन! जो मनुष्य देवीके लिये पत्थर, लकड़ी अथवा मिट्टीका मन्दिर बनाता है, उसके पुण्यफलका वर्णन सुनो।

प्रतिदिन योगके द्वारा आराधना करनेवालेको जिस महान् फलकी प्राप्ति होती है, वह सारा फल उस पुरुषको मिल जाता है, जो देवीके लिये मन्दिर बनवाता है।

श्रीमाताका मन्दिर बनवानेवाला धर्मात्मा पुरुष अपनी पहले बीती हुई तथा आगे आनेवाली हजार-हजार पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है।

करोड़ों जन्मोंमें किये हुए थोड़े या बहुत जो पाप शेष रहते हैं, वे श्रीमाताके मन्दिरका निर्माण आरम्भ करते ही क्षणभरमें नष्ट हो जाते हैं।

जैसे नदियोंमें गंगा, सम्पूर्ण नदोंमें शोणभद्र, क्षमामें पृथ्वी, गहराईमें समुद्र और समस्त ग्रहोंमें सूर्यदेवका विशिष्ट स्थान है, उसी प्रकार समस्त देवताओंमें श्रीपरा अम्बा श्रेष्ठ मानी गयी हैं।

वे समस्त देवताओंमें मुख्य हैं।

जो उनके लिये मन्दिर बनवाता है, वह जन्म-जन्ममें प्रतिष्ठा पाता है।

काशी, कुरुक्षेत्र, प्रयाग, पुष्कर, गंगासागर-तट, नैमिषारण्य, अमरकण्टक-पर्वत, परम पुण्यमय श्रीपर्वत, ज्ञानपर्वत, गोकर्ण, मथुरा, अयोध्या और द्वारका इत्यादि पुण्य प्रदेशोंमें अथवा जिस किसी भी स्थानमें माताका मन्दिर बनवानेवाला मनुष्य संसारबन्धनसे मुक्त हो जाता है।

मन्दिरमें ईंटोंका जोड़ जबतक या जितने वर्ष रहता है, उतने हजार वर्षोंतक वह पुरुष मणिद्वीपमें प्रतिष्ठित होता है।

जो समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न उमाकी प्रतिमा बनवाता है, वह निर्भय होकर अवश्य उनके परम धाममें जाता है।

शुभ ऋतु, शुभ ग्रह और शुभ नक्षत्रमें देवीकी मूर्तिकी स्थापना करके योगमायाके प्रसादसे मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है।

कल्पके आरम्भसे लेकर अन्ततक कुलमें जितनी पीढ़ियाँ बीत गयी हैं और जितनी आनेवाली हैं, उन सबको मनुष्य सुन्दर देवीमूर्तिकी स्थापना करके तार देता है।

जो केवल जगद्योनि परा अम्बाकी शरण लेते हैं, उन्हें मनुष्य नहीं मानना चाहिये।

वे साक्षात् देवीके गण हैं।

जो चलते-फिरते, सोते-जागते अथवा खड़े होते समय ‘उमा’ इस दो अक्षरके नामका उच्चारण करते हैं, वे शिवाके ही गण हैं।

जो नित्य-नैमित्तिक कर्ममें पुष्प, धूप और दीपोंद्वारा देवी परा शिवाका पूजन करते हैं, वे शिवाके धाममें जाते हैं।

जो प्रतिदिन गोबर या मिट्टीसे देवीके मन्दिरको लीपते हैं अथवा उसमें झाड़ू देते हैं, वे भी उमाके धाममें जाते हैं।

जिन्होंने देवीके परम उत्तम एवं रमणीय मन्दिरका निर्माण कराया है, उनके कुलके लोगोंको माता उमा सदा आशीर्वाद देती हैं।

वे कहती हैं, ‘ये लोग मेरे हैं।

अतः मुझमें प्रेमके भागी बने रहकर सौ वर्षोंतक जीयें और इनपर कभी कोई आपत्ति न आये।’ इस प्रकार श्रीमाता रात-दिन आशीर्वाद देती हैं।

जिसने महादेवी उमाकी शुभ मूर्तिका निर्माण कराया है, उसके कुलके दस हजार पीढ़ियोंतकके लोग मणिद्वीपमें सम्मानपूर्वक रहते हैं।

महामायाकी मूर्तिको स्थापित करके उसकी भलीभाँति पूजा करनेके पश्चात् साधक जिस-जिस मनोरथके लिये प्रार्थना करता है, उस-उसको अवश्य प्राप्त कर लेता है।

जो श्रीमाताकी स्थापित की हुई उत्तम मूर्तिको मधुमिश्रित घीसे नहलाता है, उसके पुण्यफलकी गणना कौन कर सकता है? चन्दन, अगुरु, कपूर, जटामांसी तथा नागरमोथा आदिसे युक्त जल तथा एक रंगकी गौओंके दूधसे परमेश्वरीको नहलाये।

तत्पश्चात् अष्टादशांगधूपके द्वारा अग्निमें उत्तम आहुति दे तथा घृत और कर्पूरसहित बत्तियोंद्वारा देवीकी आरती उतारे।

कृष्ण-पक्षकी अष्टमी, नवमी, अमावास्यामें अथवा शुक्लपक्षकी पंचमी और दशमी तिथियोंमें गन्ध, पुष्प आदि उपचारोंद्वारा जगदम्बाकी विशेष पूजा करनी चाहिये।

रात्रिसूक्त, श्रीसूक्त अथवा देवीसूक्तको पढ़ते या मूलमन्त्रका जप करते हुए देवीकी आराधना करनी चाहिये।

विष्णुकान्ता और तुलसीको छोड़कर शेष सभी पुष्प देवीके लिये प्रीतिकारक जानने चाहिये।

कमलका पुष्प उनके लिये विशेष प्रीतिकारक होता है।

जो देवीको सोने-चाँदीके फूल चढ़ाता है, वह करोड़ों सिद्धोंसे युक्त उनके परम धाममें जाता है।

देवीके उपासकोंको पूजनके अन्तमें सदा अपने अपराधोंके लिये क्षमा-प्रार्थना करनी चाहिये।

‘जगत् को आनन्द प्रदान करनेवाली परमेश्वरि! प्रसन्न होओ।’ इत्यादि वाक्योंद्वारा स्तुति एवं मन्त्रपाठ करता हुआ देवीके भजनमें लगा रहनेवाला उपासक उनका इस प्रकार ध्यान करे।

देवी सिंहपर सवार हैं।

उनके हाथोंमें अभय एवं वरकी मुद्राएँ हैं तथा वे भक्तोंको अभीष्ट फल प्रदान करनेवाली हैं।

इस प्रकार महेश्वरीका ध्यान करके उन्हें नैवेद्यके रूपमें नाना प्रकारके पके हुए फल अर्पित करे।

जो परात्मा शष्णुशक्तिका नैवेद्य भक्षण करता है; वह मनुष्य अपने सारे पापपंकको धोकर निर्मल हो जाता है।

जो चैत्र शुक्ला तृतीयाको भवानीकी प्रसन्नताके लिये व्रत करता है, वह जन्म-मरणके बन्धनसे मुक्त हो परमपदको प्राप्त होता है।

विद्वान् पुरुष इसी तृतीयाको दोलोत्सव करे।

उसमें शंकर-सहित जगदम्बा उमाकी पूजा करे।

फूल, कुंकुम, वस्त्र, कपूर, अगुरु, चन्दन, धूप, दीप, नैवेद्य, पुष्पहार तथा अन्य गन्ध-द्रव्योंद्वारा शिवसहित सर्वकल्याणकारिणी महामाया महेश्वरी श्रीगौरीदेवीका पूजन करके उन्हें झूलेमें झुलाये।

जो प्रतिवर्ष नियमपूर्वक उक्त तिथिको देवीका व्रत और दोलोत्सव करता है, उसे शिवादेवी सम्पूर्ण अभीष्ट पदार्थ देती हैं।

वैशाखमासके शुक्लपक्षमें जो अक्षय तृतीया तिथि आती है, उसमें आलस्यरहित हो जो जगदम्बाका व्रत करता है तथा बेला, मालती, चम्पा, जपा (अढ़उल), बन्धूक (दुपहरिया) और कमलके फूलोंसे शंकरसहित गौरीदेवीकी पूजा करता है, वह करोड़ों जन्मोंमें किये गये मानसिक, वाचिक और शारीरिक पापोंका नाश करके धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – इन चारों पुरुषार्थोंको अक्षयरूपमें प्राप्त करता है।

ज्येष्ठ शुक्ला तृतीयाको व्रत करके जो अत्यन्त प्रसन्नताके साथ महेश्वरीका पूजन करता है, उसके लिये कुछ भी असाध्य नहीं होता।

आषाढ़के शुक्लपक्षकी तृतीयाको अपने वैभवके अनुसार रथोत्सव करे।

यह उत्सव देवीको अत्यन्त प्रिय है।

पृथ्वीको रथ समझे, चन्द्रमा और सूर्यको उसके पहिये जाने, वेदोंको घोड़े और ब्रह्माजीको सारथि माने।

इस भावनासे मणिजटित रथकी कल्पना करके उसे पुष्पमालाओंसे सुशोभित करे।

फिर उसके भीतर शिवादेवीको विराजमान करे।

तत्पश्चात् बुद्धिमान् पुरुष यह भावना करे कि परा अम्बा उमादेवी सम्पूर्ण जगत् की रक्षाके लिये उसकी देखभाल करनेके निमित्त रथके भीतर बैठी हैं।

जब रथ धीरे-धीरे चले, तब जय-जयकार करते हुए प्रार्थना करे – ‘देवि! दीनवत्सले! हम आपकी शरणमें आये हैं।

आप हमारी रक्षा कीजिये।

(पाहि देवि जनानस्मान् प्रपन्नान् दीनवत्सले।’) इन वाक्योंद्वारा देवीको संतुष्ट करे और यात्राके समय नाना प्रकारके बाजे बजवाये।

ग्राम या नगरकी सीमाके अन्ततक रथको ले जाकर वहाँ उस रथपर देवीकी पूजा करे और नाना प्रकारके स्तोत्रोंसे उनकी स्तुति करके फिर उन्हें वहाँसे अपने घर ले आये।

तदनन्तर सैकड़ों बार प्रणाम करके जगदम्बासे प्रार्थना करे।

जो विद्वान् इस प्रकार देवीका पूजन, व्रत एवं रथोत्सव करता है, वह इस लोकमें सम्पूर्ण भोगोंका उपभोग करके अन्तमें देवीके धामको जाता है।

श्रावण और भाद्रपदमासकी शुक्ला तृतीयाको जो विधिपूर्वक अम्बाका व्रत और पूजन करता है, वह इस लोकमें पुत्र, पौत्र एवं धन आदिसे सम्पन्न होकर सुख भोगता है तथा अन्तमें सब लोकोंसे ऊपर विराजमान उमालोकमें जाता है।

आश्विनमासके शुक्लपक्षमें नवरात्रव्रत करना चाहिये।

उसके करनेपर सम्पूर्ण कामनाएँ सिद्ध हो ही जाती हैं, इसमें संशय नहीं है।

इस नवरात्र-व्रतके प्रभावका वर्णन करनेमें चतुरानन ब्रह्मा, पंचानन महादेव तथा षडानन कार्तिकेय भी समर्थ नहीं हैं; फिर दूसरा कौन समर्थ हो सकता है।

मुनि-श्रेष्ठ! नवरात्र-व्रतका अनुष्ठान करके विरथके पुत्र राजा सुरथने अपने खोये हुए राज्यको प्राप्त कर लिया।

अयोध्याके बुद्धिमान् नरेश ध्रुवसंधिकुमार सुदर्शनने इस नवरात्रके प्रभावसे ही राज्य प्राप्त किया, जो पहले उनके हाथसे छिन गया था।

इस व्रतराजका अनुष्ठान और महेश्वरीकी आराधना करके समाधि वैश्य संसार-बन्धनसे मुक्त हो मोक्षके भागी हुए थे।

जो मनुष्य आश्विनमासके शुक्लपक्षमें विधिपूर्वक व्रत करके तृतीया, पंचमी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी एवं चतुर्दशी तिथियोंको देवीका पूजन करता है, देवी शिवा निरन्तर उसके सम्पूर्ण अभीष्ट मनोरथकी पूर्ति करती रहती हैं।

जो कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ और फाल्गुनमासके शुक्लपक्षमें तृतीयाको व्रत करता तथा लाल कनेर आदिके फूलों एवं सुगन्धित धूपोंसे मंगलमयी देवीकी पूजा करता है, वह सम्पूर्ण मंगलको प्राप्त कर लेता है।

स्त्रियोंको अपने सौभाग्यकी प्राप्ति एवं रक्षाके लिये सदा इस महान् व्रतका आचरण करना चाहिये तथा पुरुषोंको भी विद्या, धन एवं पुत्रकी प्राप्तिके लिये इसका अनुष्ठान करना चाहिये।

इनके सिवा अन्य भी जो देवीको प्रिय लगनेवाले उमा-महेश्वर आदिके व्रत हैं, मुमुक्षु पुरुषोंको उनका भक्तिभावसे आचरण करना चाहिये।

यह उमासंहिता परम पुण्यमयी तथा शिवभक्तिको बढ़ानेवाली है।

इसमें नाना प्रकारके उपाख्यान हैं।

यह कल्याणमयी संहिता भोग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाली है।

जो इसे भक्तिभावसे सुनता या एकाग्रचित्त होकर सुनाता अथवा पढ़ता या पढ़ाता है, वह परमगतिको प्राप्त होता है।

जिसके घरमें सुन्दर अक्षरोंमें लिखी गयी यह संहिता विधिवत् पूजित होती है, वह सम्पूर्ण अभीष्टोंको प्राप्त कर लेता है।

उसे भूत, प्रेत और पिशाचादि दुष्टोंसे कभी भय नहीं होता।

वह पुत्र-पौत्र आदि सम्पत्तिको अवश्य पाता है, इसमें संशय नहीं है।

अतः शिवाकी भक्ति चाहनेवाले पुरुषोंको सदा इस परम पुण्यमयी रमणीय उमासंहिताका श्रवण एवं पाठ करना चाहिये। (अध्याय ५१)

।। उमासंहिता सम्पूर्ण।।

* मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायावि ब्रह्म शाश्वतम्।
अभिन्नं तद्वपुर्जात्वा मुच्यते भवबन्धनात्।। (शि० पु० उ० सं० ५१।१२)


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