शिव पुराण - रुद्र संहिता - सृष्टि खण्ड - 3


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


भगवान् विष्णुका नारदजीको शिवका माहात्म्य जाननेके लिये कहना

नारदजीका भगवान् विष्णुको क्रोधपूर्वक फटकारना और शाप देना

सूतजी कहते हैं—महर्षियो! माया-मोहित नारदमुनि उन दोनों शिवगणोंको यथोचित शाप देकर भी भगवान् शिवके इच्छावश मोहनिद्रासे जाग न सके।

वे भगवान् विष्णुके किये हुए कपटको याद करके मनमें दुस्सह क्रोध लिये विष्णुलोकको गये और समिधा पाकर प्रज्वलित हुए अग्निदेवकी भाँति क्रोधसे जलते हुए बोले—उनका ज्ञान नष्ट हो गया था।

इसलिये वे दुर्वचनपूर्ण व्यंग सुनाने लगे।

नारदजीने कहा—हरे! तुम बड़े दुष्ट हो, कपटी हो और समस्त विश्वको मोहमें डाले रहते हो।

दूसरोंका उत्साह या उत्कर्ष तुमसे सहा नहीं जाता।

तुम मायावी हो, तुम्हारा अन्तःकरण मलिन है।

पूर्वकालमें तुम्हींने मोहिनीरूप धारण करके कपट किया, असुरोंको वारुणी मदिरा पिलायी, उन्हें अमृत नहीं पीने दिया।

छल-कपटमें ही अनुराग रखनेवाले हरे! यदि महेश्वर रुद्र दया करके विष न पी लेते तो तुम्हारी सारी माया उसी दिन समाप्त हो जाती।

विष्णुदेव! कपटपूर्ण चाल तुम्हें अधिक प्रिय है।

तुम्हारा स्वभाव अच्छा नहीं है, तो भी भगवान् शंकरने तुम्हें स्वतन्त्र बना दिया है।

तुम्हारी इस चाल-ढालको समझकर अब वे (भगवान् शिव) भी पश्चात्ताप करते होंगे।

अपनी वाणीरूप वेदकी प्रामाणिकता स्थापित करनेवाले महादेवजीने ब्राह्मणको सर्वोपरि बताया है।

हरे! इस बातको जानकर आज मैं बलपूर्वक तुम्हें ऐसी सीख दूँगा, जिससे तुम फिर कभी कहीं भी ऐसा कर्म नहीं कर सकोगे।

अबतक तुम्हें किसी शक्तिशाली या तेजस्वी पुरुषसे पाला नहीं पड़ा था।

इसलिये आजतक तुम निडर बने हुए हो।

परंतु विष्णो! अब तुम्हें अपनी करनीका पूरा-पूरा फल मिलेगा! भगवान् विष्णुसे ऐसा कहकर माया-मोहित नारदमुनि अपने ब्रह्मतेजका प्रदर्शन करते हुए क्रोधसे खिन्न हो उठे और शाप देते हुए बोले—‘विष्णो! तुमने स्त्रीके लिये मुझे व्याकुल किया है।

तुम इसी तरह सबको मोहमें डालते रहते हो।

यह कपटपूर्ण कार्य करते हुए तुमने जिस स्वरूपसे मुझे संयुक्त किया था, उसी स्वरूपसे तुम मनुष्य हो जाओ और स्त्रीके वियोगका दुःख भोगो।

तुमने जिन वानरोंके समान मेरा मुँह बनाया था, वे ही उस समय तुम्हारे सहायक हों।

तुम दूसरोंको (स्त्री-विरहका) दुःख देनेवाले हो, अतः स्वयं भी तुम्हें स्त्रीके वियोगका दुःख प्राप्त हो।

अज्ञानसे मोहित मनुष्योंके समान तुम्हारी स्थिति हो।’ अज्ञानसे मोहित हुए नारदजीने मोहवश श्रीहरिको जब इस तरह शाप दिया, तब उन्होंने शम्भुकी मायाकी प्रशंसा करते हुए उस शापको स्वीकार कर लिया।

तदनन्तर महालीला करनेवाले शम्भुने अपनी उस विश्वमोहिनी मायाको, जिसके कारण ज्ञानी नारदमुनि भी मोहित हो गये थे, खींच लिया।

उस मायाके तिरोहित होते ही नारदजी पूर्ववत् शुद्ध बुद्धिसे युक्त हो गये।


मायाके दूर हो जानेपर पश्चात्तापपूर्वक भगवान् के चरणोंमें गिरना और शुद्धिका उपाय पूछना

उन्हें पूर्ववत् ज्ञान प्राप्त हो गया और उनकी सारी व्याकुलता जाती रही।

इससे उनके मनमें बड़ा विस्मय हुआ।

वे अधिकाधिक पश्चात्ताप करते हुए बारंबार अपनी निन्दा करने लगे।

उस समय उन्होंने ज्ञानीको भी मोहमें डालनेवाली भगवान् शम्भुकी मायाकी सराहना की।

तदनन्तर यह जानकर कि मायाके कारण ही मैं भ्रममें पड़ गया था—यह सब कुछ मेरा मायाजनित भ्रम ही था, वैष्णवशिरोमणि नारदजी भगवान् विष्णुके चरणोंमें गिर पड़े।

भगवान् श्रीहरिने उन्हें उठाकर खड़ा कर दिया।

उस समय अपनी दुर्बुद्धि नष्ट हो जानेके कारण वे यों बोले ‘नाथ! मायासे मोहित होनेके कारण मेरी बुद्धि बिगड़ गयी थी।

इसलिये मैंने आपके प्रति बहुत दुर्वचन कहे हैं, आपको शापतक दे डाला है।

प्रभो! उस शापको आप मिथ्या कर दीजिये।

हाय! मैंने बहुत बड़ा पाप किया है।

अब मैं निश्चय ही नरकमें पड़ूँगा।

हरे! मैं आपका दास हूँ।

बताइये, मैं क्या उपाय—कौन-सा प्रायश्चित्त करूँ, जिससे मेरा पाप-समूह नष्ट हो जाय और मुझे नरकमें न गिरना पड़े।’ ऐसा कहकर शुद्ध बुद्धिवाले मुनिशिरोमणि नारदजी पुनः भक्तिभावसे भगवान् विष्णुके चरणोंमें गिर पड़े।

उस समय उन्हें बड़ा पश्चात्ताप हो रहा था।

तब श्रीविष्णुने उन्हें उठाकर मधुर वाणीमें कहा— भगवान् विष्णु बोले—तात! खेद न करो।

तुम मेरे श्रेष्ठ भक्त हो, इसमें संशय नहीं है।

मैं तुम्हें एक बात बताता हूँ, सुनो।


भगवान् विष्णुका उन्हें समझा-बुझाकर शिवका माहात्म्य जाननेके लिये ब्रह्माजीके पास जानेका आदेश और शिवके भजनका उपदेश देना

उससे निश्चय ही तुम्हारा परम हित होगा, तुम्हें नरकमें नहीं जाना पड़ेगा।

भगवान् शिव तुम्हारा कल्याण करेंगे।

तुमने मदसे मोहित होकर जो भगवान् शिवकी बात नहीं मानी थी—उसकी अवहेलना कर दी थी, उसी अपराधका भगवान् शिवने तुम्हें ऐसा फल दिया है; क्योंकि वे ही कर्मफलके दाता हैं।

तुम अपने मनमें यह दृढ़ निश्चय कर लो कि भगवान् शिवकी इच्छासे ही यह सब कुछ हुआ है।

सबके स्वामी परमेश्वर शंकर ही गर्वको दूर करनेवाले हैं।

वे ही परब्रह्म परमात्मा हैं।

उन्हींका सच्चिदानन्दरूपसे बोध होता है।

वे निर्गुण और निर्विकार हैं।

सत्त्व, रज और तम—इन तीनों गुणोंसे परे हैं।

वे ही अपनी मायाको लेकर ब्रह्मा, विष्णु और महेश—इन तीन रूपोंमें प्रकट होते हैं।

निर्गुण और सगुण भी वे ही हैं।

निर्गुण अवस्थामें उन्हींका नाम शिव है।

वे ही परमात्मा, महेश्वर, परब्रह्म, अविनाशी, अनन्त और महादेव आदि नामोंसे कहे जाते हैं।

उन्हींकी सेवासे ब्रह्माजी जगत् के स्रष्टा हुए हैं और मैं तीनों लोकोंका पालन करता हूँ।

वे स्वयं ही रुद्ररूपसे सदा सबका संहार करते हैं।

वे शिवस्वरूपसे सबके साक्षी हैं, मायासे भिन्न और निर्गुण हैं।

स्वतन्त्र होनेके कारण वे अपनी इच्छाके अनुसार चलते हैं।

उनका विहार—आचार-व्यवहार उत्तम है और वे भक्तोंपर दया करनेवाले हैं।

नारदमुने! मैं तुम्हें एक सुन्दर उपाय बताता हूँ, जो सुखद, समस्त पापोंका नाशक और सदा भोग एवं मोक्ष देनेवाला है।

तुम उसे सुनो।

अपने सारे संशयोंको त्यागकर तुम भगवान् शंकरके सुयशका गान करो और सदा अनन्यभावसे शिवके शतनामस्तोत्रका पाठ करो।

मुने! तुम निरन्तर उन्हींकी उपासना और उन्हींका भजन करो।

उन्हींके यशको सुनो और गाओ तथा प्रतिदिन उन्हींकी पूजा-अर्चा करते रहो।

नारद! जो शरीर, मन और वाणीद्वारा भगवान् शंकरकी उपासना करता है, उसे पण्डित या ज्ञानी जानना चाहिये।

वह जीवन्मुक्त कहलाता है।

‘शिव’ इस नामरूपी दावानलसे बड़े-बड़े पातकोंके असंख्य पर्वत अनायास भस्म हो जाते हैं—यह सत्य है, सत्य है।

इसमें संशय नहीं है।१

जो भगवान् शिवके नामरूपी नौकाका आश्रय लेते हैं, वे संसार-सागरसे पार हो जाते हैं।

संसारके मूलभूत उनके सारे पाप निस्संदेह नष्ट हो जाते हैं।

महामुने! संसारके मूलभूत जो पातकरूपी वृक्ष हैं, उनका शिवनामरूपी कुठारसे निश्चय ही नाश हो जाता है।२ जो लोग पापरूपी दावानलसे पीड़ित हैं, उन्हें शिवनामरूपी अमृतका पान करना चाहिये।

पापदावाग्निसे दग्ध होनेवाले प्राणियोंको उस (शिवनामामृत)-के बिना शान्ति नहीं मिल सकती।

सम्पूर्ण वेदोंका अवलोकन करके पूर्ववर्ती विद्वानोंने यही निश्चय किया है कि भगवान् शिवकी पूजा ही उत्कृष्ट साधन तथा जन्म-मरणरूपी संसारबन्धनके नाशका उपाय है।

आजसे यत्नपूर्वक सावधान रहकर विधि-विधानके साथ भक्तिभावसे नित्य-निरन्तर जगदम्बा पार्वतीसहित महेश्वर सदाशिवका भजन करो, नित्य शिवकी ही कथा सुनो और कहो तथा अत्यन्त यत्न करके बारंबार शिवभक्तोंका पूजन किया करो।

मुनिश्रेष्ठ! अपने हृदयमें भगवान् शिवके उज्ज्वल चरणारविन्दोंकी स्थापना करके पहले शिवके तीर्थोंमें विचरो।

मुने! इस प्रकार परमात्मा शंकरके अनुपम माहात्म्यका दर्शन करते हुए अन्तमें आनन्दवन (काशी)-को जाओ, वह स्थान भगवान् शिवको बहुत ही प्रिय है।

वहाँ भक्तिपूर्वक विश्वनाथजीका दर्शन-पूजन करो।

विशेषतः उनकी स्तुति-वन्दना करके तुम निर्विकल्प (संशयरहित) हो जाओगे, नारदजी! इसके बाद तुम्हें मेरी आज्ञासे भक्तिपूर्वक अपने मनोरथकी सिद्धिके लिये निश्चय ही ब्रह्मलोकमें जाना चाहिये।

वहाँ अपने पिता ब्रह्माजीकी विशेषरूपसे स्तुति-वन्दना करके तुम्हें प्रसन्नतापूर्ण हृदयसे बारंबार शिव-महिमाके विषयमें प्रश्न करना चाहिये।

ब्रह्माजी शिव-भक्तोंमें श्रेष्ठ हैं।

वे तुम्हें बड़ी प्रसन्नताके साथ भगवान् शंकरका माहात्म्य और शतनामस्तोत्र सुनायेंगे।

मुने! आजसे तुम शिवाराधनमें तत्पर रहनेवाले शिवभक्त हो जाओ और विशेषरूपसे मोक्षके भागी बनो।

भगवान् शिव तुम्हारा कल्याण करेंगे।

इस प्रकार प्रसन्नचित्त हुए भगवान् विष्णु नारदमुनिको प्रेमपूर्वक उपदेश देकर श्रीशिवका स्मरण, वन्दन और स्तवन करके वहाँसे अन्तर्धान हो गये। (अध्याय ४)

१-शिवेतिनामदावाग्नेर्महापातकपर्वताः।
भस्मीभवन्त्यनायासात् सत्यं सत्यं न संशयः।।

(शि० पु० रु० सृ० ४।४५) २-शिवनामतरीं प्राप्य संसाराब्धिं तरन्ति ते।
संसारमूलपापानि तेषां नश्यन्त्यसंशयम्।।

संसारमूलभूतानां पातकानां महामुने।
शिवनामकुठारेण विनाशो जायते ध्रुवम्।।

(शि० पु० रु० सृ० ४।५१-५२)


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