शिव पुराण - रुद्र संहिता - सृष्टि खण्ड - 12


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


शिवपूजनकी सर्वोत्तम विधिका वर्णन

ब्रह्माजी कहते हैं—अब मैं पूजाकी सर्वोत्तम विधि बता रहा हूँ, जो समस्त अभीष्ट तथा सुखोंको सुलभ करानेवाली है।

देवताओ तथा ऋषियो! तुम ध्यान देकर सुनो।

उपासकको चाहिये कि वह ब्राह्ममुहूर्तमें शयनसे उठकर जगदम्बा पार्वतीसहित भगवान् शिवका स्मरण करे तथा हाथ जोड़ मस्तक झुकाकर भक्तिपूर्वक उनसे प्रार्थना करे—‘देवेश्वर! उठिये, उठिये! मेरे हृदय-मन्दिरमें शयन करनेवाले देवता! उठिये! उमाकान्त! उठिये और ब्रह्माण्डमें सबका मंगल कीजिये।

मैं धर्मको जानता हूँ, किंतु मेरी उसमें प्रवृत्ति नहीं होती।

मैं अधर्मको जानता हूँ, परंतु मैं उससे दूर नहीं हो पाता।

महादेव! आप मेरे हृदयमें स्थित होकर मुझे जैसी प्रेरणा देते हैं, वैसा ही मैं करता हूँ।’ इस प्रकार भक्तिपूर्वक कहकर और गुरुदेवकी चरणपादुकाओंका स्मरण करके गाँवसे बाहर दक्षिणदिशामें मल-मूत्रका त्याग करनेके लिये जाय।

मलत्याग करनेके बाद मिट्टी और जलसे धोनेके द्वारा शरीरकी शुद्धि करके दोनों हाथों और पैरोंको धोकर दतुअन करे, सूर्योदय होनेसे पहले ही दतुअन करके मुँहको सोलह बार जलकी अंजलियोंसे धोये।

देवताओ तथा ऋषियो! षष्ठी, प्रतिपदा, अमावस्या और नवमी तिथियों तथा रविवारके दिन शिवभक्तको यत्नपूर्वक दतुअनको त्याग देना चाहिये।

अवकाशके अनुसार नदी आदिमें जाकर अथवा घरमें ही भलीभाँति स्नान करे।

मनुष्यको देश और कालके विरुद्ध स्नान नहीं करना चाहिये।

रविवार, श्राद्ध, संक्रान्ति, ग्रहण, महादान, तीर्थ, उपवास-दिवस अथवा अशौच प्राप्त होनेपर मनुष्य गरम जलसे स्नान न करे।

शिवभक्त मनुष्य तीर्थ आदिमें प्रवाहके सम्मुख होकर स्नान करे।

जो नहानेके पहले तेल लगाना चाहे, उसे विहित एवं निषिद्ध दिनोंका विचार करके ही तैलाभ्यंग करना चाहिये।

जो प्रतिदिन नियमपूर्वक तेल लगाता हो, उसके लिये किसी दिन भी तैलाभ्यंग दूषित नहीं है अथवा जो तेल, इत्र आदिसे वासित हो, उसका लगाना किसी दिन भी दूषित नहीं है।

सरसोंका तेल ग्रहणको छोड़कर दूसरे किसी दिन भी दूषित नहीं होता।

इस तरह देश-कालका विचार करके ही विधिपूर्वक स्नान करे।

स्नानके समय अपने मुखको उत्तर अथवा पूर्वकी ओर रखना चाहिये।

उच्छिष्ट वस्त्रका उपयोग कभी न करे।

शुद्ध वस्त्रसे इष्टदेवके स्मरणपूर्वक स्नान करे।

जिस वस्त्रको दूसरेने धारण किया हो अथवा जो दूसरोंके पहननेकी वस्तु हो तथा जिसे स्वयं रातमें धारण किया गया हो, वह वस्त्र उच्छिष्ट कहलाता है।

उससे तभी स्नान किया जा सकता है, जब उसे धो लिया गया हो।

स्नानके पश्चात् देवताओं, ऋषियों तथा पितरोंको तृप्ति देनेवाला स्नानांग तर्पण करना चाहिये।

उसके बाद धुला हुआ वस्त्र पहने और आचमन करे।

द्विजोत्तमो! तदनन्तर गोबर आदिसे लीप-पोतकर स्वच्छ किये हुए शुद्ध स्थानमें जाकर वहाँ सुन्दर आसनकी व्यवस्था करे।

वह आसन विशुद्ध काष्ठका बना हुआ, पूरा फैला हुआ तथा विचित्र होना चाहिये।

ऐसा आसन सम्पूर्ण अभीष्ट तथा फलोंको देनेवाला है।

उसके ऊपर बिछानेके लिये यथायोग्य मृगचर्म आदि ग्रहण करे।

शुद्ध बुद्धिवाला पुरुष उस आसनपर बैठकर भस्मसे त्रिपुण्ड्र लगाये।

त्रिपुण्ड्रसे जप-तप तथा दान सफल होता है।

भस्मके अभावमें त्रिपुण्ड्रका साधन जल आदि बताया गया है।

इस तरह त्रिपुण्ड्र करके मनुष्य रुद्राक्ष धारण करे और अपने नित्यकर्मका सम्पादन करके फिर शिवकी आराधना करे।

तत्पश्चात् तीन बार मन्त्रोच्चारणपूर्वक आचमन करे।

फिर वहाँ शिवकी पूजाके लिये अन्न और जल लाकर रखे।

दूसरी कोई भी जो वस्तु आवश्यक हो, उसे यथाशक्ति जुटाकर अपने पास रखे।

इस प्रकार पूजनसामग्रीका संग्रह करके वहाँ धैर्यपूर्वक स्थिरभावसे बैठे।

फिर जल, गन्ध और अक्षतसे युक्त एक अर्घ्यपात्र लेकर उसे दाहिने भागमें रखे।

उससे उपचारकी सिद्धि होती है।

फिर गुरुका स्मरण करके उनकी आज्ञा लेकर विधिवत् संकल्प करके अपनी कामनाको अलग न रखते हुए पराभक्तिसे सपरिवार शिवका पूजन करे।

एक मुद्रा दिखाकर सिन्दूर आदि उपचारोंद्वारा सिद्धि-बुद्धिसहित विघ्नहारी गणेशका पूजन करे।

लक्ष और लाभसे युक्त गणेशजीका पूजन करके उनके नामके आदिमें प्रणव तथा अन्तमें नमः जोड़कर नामके साथ चतुर्थी विभक्तिका प्रयोग करते हुए नमस्कार करे।

(यथा—ॐ गणपतये नमः अथवा ॐ लक्षलाभयुताय सिद्धिबुद्धिसहिताय गणपतये नमः) तदनन्तर उनसे क्षमा-प्रार्थना करके पुनः भाई कार्तिकेयसहित गणेशजीका पराभक्तिसे पूजन करके उन्हें बारंबार नमस्कार करे।

तत्पश्चात् सदा द्वारपर खड़े रहनेवाले द्वारपाल महोदयका पूजन करके सती-साध्वी गिरिराजनन्दिनी उमाकी पूजा करे।

चन्दन, कुंकुम तथा धूप, दीप आदि अनेक उपचारों तथा नाना प्रकारके नैवेद्योंसे शिवाका पूजन करके नमस्कार करनेके पश्चात् साधक शिवजीके समीप जाय।

यथासम्भव अपने घरमें मिट्टी, सोना, चाँदी, धातु या अन्य पारे आदिकी शिव-प्रतिमा बनाये और उसे नमस्कार करके भक्तिपरायण हो उसकी पूजा करे।

उसकी पूजा हो जानेपर सभी देवता पूजित हो जाते हैं।

मिट्टीका शिवलिंग बनाकर विधिपूर्वक उसकी स्थापना करे।

अपने घरमें रहनेवाले लोगोंको स्थापना-सम्बन्धी सभी नियमोंका सर्वथा पालन करना चाहिये।

भूतशुद्धि एवं मातृकान्यास करके प्राणप्रतिष्ठा करे।

शिवालयमें दिक्पालोंकी भी स्थापना करके उनकी पूजा करे।

घरमें सदा मूलमन्त्रका प्रयोग करके शिवकी पूजा करनी चाहिये।

वहाँ द्वारपालोंके पूजनका सर्वथा नियम नहीं है।

भगवान् शिवके समीप ही अपने लिये आसनकी व्यवस्था करे।

उस समय उत्तराभिमुख बैठकर फिर आचमन करे, उसके बाद दोनों हाथ जोड़कर तब प्राणायाम करे।

प्राणायामकालमें मनुष्यको मूलमन्त्रकी दस आवृत्तियाँ करनी चाहिये।

हाथोंसे पाँच मुद्राएँ दिखाये।

यह पूजाका आवश्यक अंग है।

इन मुद्राओंका प्रदर्शन करके ही मनुष्य पूजा-विधिका अनुसरण करे।

तदनन्तर वहाँ दीप निवेदन करके गुरुको नमस्कार करे और पद्मासन या भद्रासन बाँधकर बैठे अथवा उत्तानासन या पर्यंकासनका आश्रय लेकर सुखपूर्वक बैठे और पुनः पूजनका प्रयोग करे।

फिर अर्घ्यपात्रसे उत्तम शिवलिंगका प्रक्षालन करे।

मनको भगवान् शिवसे अन्यत्र न ले जाकर पूजासामग्रीको अपने पास रखकर निम्नांकित मन्त्रसमूहसे महादेवजीका आवाहन करे।

आवाहन कैलासशिखरस्थं च पार्वतीपतिमुत्तमम् ।। ४७ ।।

यथोक्तरूपिणं शम्भुं निर्गुणं गुणरूपिणम्।

पञ्चवक्त्रं दशभुजं त्रिनेत्रं वृषभध्वजम् ।। ४८ ।।

कर्पूरगौरं दिव्याङ्गं चन्द्रमौलिं कपर्दिनम्।

व्याघ्रचर्मोत्तरीयं च गजचर्माम्बरं शुभम् ।। ४९ ।।

वासुक्यादिपरीताङ्गं पिनाकाद्यायुधान्वितम् ।

सिद्धयोऽष्टौ च यस्याग्रे नृत्यन्तीह निरन्तरम् ।। ५० ।।

जयजयेति शब्दैश्च सेवितं भक्तपुञ्जकैः।

तेजसा दुस्सहेनैव दुर्लक्ष्यं देवसेवितम् ।। ५१ ।।

शरण्यं सर्वसत्त्वानां प्रसन्नमुखपङ्कजम् ।

वेदैः शास्त्रैर्यथागीतं विष्णुब्रह्मनुतं सदा ।। ५२ ।।

भक्तवत्सलमानन्दं शिवमावाहयाम्यहम् ।

(अध्याय १३)

‘जो कैलासके शिखरपर निवास करते हैं, पार्वतीदेवीके पति हैं, समस्त देवताओंसे उत्तम हैं, जिनके स्वरूपका शास्त्रोंमें यथावत् वर्णन किया गया है, जो निर्गुण होते हुए भी गुणरूप हैं, जिनके पाँच मुख, दस भुजाएँ और प्रत्येक मुखमण्डलमें तीन-तीन नेत्र हैं, जिनकी ध्वजापर वृषभका चिह्न अंकित है, अंगकान्ति कर्पूरके समान गौर है, जो दिव्यरूपधारी, चन्द्रमारूपी मुकुटसे सुशोभित तथा सिरपर जटाजूट धारण करनेवाले हैं, जो हाथीकी खाल पहनते और व्याघ्रचर्म ओढ़ते हैं, जिनका स्वरूप शुभ है, जिनके अंगोंमें वासुकि आदि नाग लिपटे रहते हैं, जो पिनाक आदि आयुध धारण करते हैं, जिनके आगे आठों सिद्धियाँ निरन्तर नृत्य करती रहती हैं, भक्तसमुदाय जय-जयकार करते हुए जिनकी सेवामें लगे रहते हैं, दुस्सह तेजके कारण जिनकी ओर देखना भी कठिन है, जो देवताओंसे सेवित तथा सम्पूर्ण प्राणियोंको शरण देनेवाले हैं, जिनका मुखारविन्द प्रसन्नतासे खिला हुआ है, वेदों और शास्त्रोंने जिनकी महिमाका यथावत् गान किया है, विष्णु और ब्रह्मा भी सदा जिनकी स्तुति करते हैं तथा जो परमानन्दस्वरूप हैं, उन भक्तवत्सल शम्भु शिवका मैं आवाहन करता हूँ।’ इस प्रकार साम्ब शिवका ध्यान करके उनके लिये आसन दे।

चतुर्थ्यन्त पदसे ही क्रमशः सब कुछ अर्पित करे (यथा—साम्बाय सदाशिवाय नमः आसनं समर्पयामि—इत्यादि)।

आसनके पश्चात् भगवान् शंकरको पाद्य और अर्घ्य दे।

फिर परमात्मा शम्भुको आचमन कराकर पंचामृत-सम्बन्धी द्रव्योंद्वारा प्रसन्नतापूर्वक शंकरको स्नान कराये।

वेदमन्त्रों अथवा समन्त्रक चतुर्थ्यन्त नामपदोंका उच्चारण करके भक्तिपूर्वक यथायोग्य समस्त द्रव्य भगवान् को अर्पित करे।

अभीष्ट द्रव्यको शंकरके ऊपर चढ़ाये।

फिर भगवान् शिवको वारुण-स्नान कराये।

स्नानके पश्चात् उनके श्रीअंगोंमें सुगन्धित चन्दन तथा अन्य द्रव्योंका यत्नपूर्वक लेप करे।

फिर सुगन्धित जलसे ही उनके ऊपर जलधारा गिराकर अभिषेक करे।

वेदमन्त्रों, षडंगों अथवा शिवके ग्यारह नामोंद्वारा यथावकाश जलधारा चढ़ाकर वस्त्रसे शिवलिंगको अच्छी तरह पोंछे।

फिर आचमनार्थ जल दे और वस्त्र समर्पित करे।

नाना प्रकारके मन्त्रोंद्वारा भगवान् शिवको तिल, जौ, गेहूँ, मूँग और उड़द अर्पित करे।

फिर पाँच मुखवाले परमात्मा शिवको पुष्प चढ़ाये।

प्रत्येक मुखपर ध्यानके अनुसार यथोचित अभिलाषा करके कमल, शतपत्र, शंखपुष्प, कुशपुष्प, धत्तूर, मन्दार, द्रोणपुष्प (गूमा), तुलसीदल तथा बिल्वपत्र चढ़ाकर पराभक्तिके साथ भक्तवत्सल भगवान् शंकरकी विशेष पूजा करे।

अन्य सब वस्तुओंका अभाव होनेपर शिवको केवल बिल्वपत्र ही अर्पित करे।

बिल्वपत्र समर्पित होनेसे ही शिवकी पूजा सफल होती है।

तत्पश्चात् सुगन्धित चूर्ण तथा सुवासित उत्तम तैल (इत्र आदि) विविध वस्तुएँ बड़े हर्षके साथ भगवान् शिवको अर्पित करे।

फिर प्रसन्नतापूर्वक गुग्गुल और अगुरु आदिकी धूप निवेदन करे।

तदनन्तर शंकरजीको घीसे बरा हुआ दीपक दे।

इसके बाद निम्नांकित मन्त्रसे भक्तिपूर्वक पुनः अर्घ्य दे और भावभक्तिसे वस्त्रद्वारा उनके मुखका मार्जन करे।

अर्घ्यमन्त्र रूपं देहि यशो देहि भोगं देहि च शङ्कर।

भुक्तिमुक्तिफलं देहि गृहीत्वार्घ्यं नमोऽस्तु ते।।

‘प्रभो! शंकर! आपको नमस्कार है।

आप इस अर्घ्यको स्वीकार करके मुझे रूप दीजिये, यश दीजिये, भोग दीजिये तथा भोग और मोक्षरूपी फल प्रदान कीजिये।’ इसके बाद भगवान् शिवको भाँति-भाँतिके उत्तम नैवेद्य अर्पित करे।

नैवेद्यके पश्चात् प्रेमपूर्वक आचमन कराये।

तदनन्तर सांगोपांग ताम्बूल बनाकर शिवको समर्पित करे।

फिर पाँच बत्तीकी आरती बनाकर भगवान् को दिखाये।

उसकी संख्या इस प्रकार है—पैरोंमें चार बार, नाभिमण्डलके सामने दो बार, मुखके समक्ष एक बार तथा सम्पूर्ण अंगोंमें सात बार आरती दिखाये।

तत्पश्चात् नाना प्रकारके स्तोत्रोंद्वारा प्रेमपूर्वक भगवान् वृषभध्वजकी स्तुति करे।

तदनन्तर धीरे-धीरे शिवकी परिक्रमा करे।

परिक्रमाके बाद भक्त पुरुष साष्टांग प्रणाम करे और निम्नांकित मन्त्रसे भक्तिपूर्वक पुष्पांजलि दे— पुष्पांजलिमन्त्र अज्ञानाद्यदि वा ज्ञानाद्यद्यत्पूजादिकं मया।

कृतं तदस्तु सफलं कृपया तव शङ्कर।।

तावकस्त्वद् गतप्राणस्त्वच्चित्तोऽहं सदा मृड ।

इति विज्ञाय गौरीश भूतनाथ प्रसीद मे।।

भूमौ स्खलितपादानां भूमिरेवावलम्बनम् ।

त्वयि जातापराधानां त्वमेव शरणं प्रभो।।

(अध्याय १३)

‘शंकर! मैंने अज्ञानसे या जान-बूझकर जो पूजन आदि किया है, वह आपकी कृपासे सफल हो।

मृड! मैं आपका हूँ, मेरे प्राण सदा आपमें लगे हुए हैं, मेरा चित्त सदा आपका ही चिन्तन करता है—ऐसा जानकर हे गौरीनाथ! भूतनाथ! आप मुझपर प्रसन्न होइये।

प्रभो! धरतीपर जिनके पैर लड़खड़ा जाते हैं, उनके लिये भूमि ही सहारा है; उसी प्रकार जिन्होंने आपके प्रति अपराध किये हैं उनके लिये भी आप ही शरणदाता हैं।’ —इत्यादि रूपसे बहुत-बहुत प्रार्थना करके उत्तम विधिसे पुष्पांजलि अर्पित करनेके पश्चात् पुनः भगवान् को नमस्कार करे।

फिर निम्नांकित मन्त्रसे विसर्जन करना चाहिये।

विसर्जन स्वस्थानं गच्छ देवेश परिवारयुतः प्रभो।

पूजाकाले पुनर्नाथ त्वयाऽऽगन्तव्यमादरात् ।।

‘देवेश्वर प्रभो! अब आप परिवारसहित अपने स्थानको पधारें।

नाथ! जब पूजाका समय हो, तब पुनः आप यहाँ सादर पदार्पण करें।’ इस प्रकार भक्तवत्सल शंकरकी बारंबार प्रार्थना करके उनका विसर्जन करे और उस जलको अपने हृदयमें लगाये तथा मस्तकपर चढ़ाये।

ऋषियो! इस तरह मैंने शिवपूजनकी सारी विधि बता दी, जो भोग और मोक्ष देनेवाली है।

अब और क्या सुनना चाहते हो? (अध्याय १३)


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