शिव पुराण - रुद्र संहिता - सृष्टि खण्ड - 11

शिव पुराण – रुद्र संहिता – सृष्टि खण्ड – 11


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भगवान् शिवकी श्रेष्ठता तथा उनके पूजनकी अनिवार्य आवश्यकताका प्रतिपादन

नारदजी बोले—ब्रह्मन्! प्रजापते! आप धन्य हैं; क्योंकि आपकी बुद्धि भगवान् शिवमें लगी हुई है।

विधे! आप पुनः इसी विषयका सम्यक् प्रकारसे विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये।

ब्रह्माजीने कहा—तात! एक समयकी बात है, मैं सब ओरसे ऋषियों तथा देवताओंको बुलाकर उन सबको क्षीरसागरके तटपर ले गया, जहाँ सबका हित-साधन करनेवाले भगवान् विष्णु निवास करते हैं।

वहाँ देवताओंके पूछनेपर भगवान् विष्णुने सबके लिये शिवपूजनकी ही श्रेष्ठता बतलाकर यह कहा कि ‘एक मुहूर्त या एक क्षण भी जो शिवका पूजन नहीं किया जाता, वही हानि है, वही महान् छिद्र है, वही अंधापन है और वही मूर्खता है।

जो भगवान् शिवकी भक्तिमें तत्पर हैं, जो मनसे उन्हींको प्रणाम और उन्हींका चिन्तन करते हैं, वे कभी दुःखके भागी नहीं होते*।

जो महान् सौभाग्यशाली पुरुष मनोहर भवन, सुन्दर आभूषणोंसे विभूषित स्त्रियाँ, जितनेसे मनको संतोष हो उतना धन, पुत्र-पौत्र आदि संतति, आरोग्य, सुन्दर शरीर, अलौकिक प्रतिष्ठा, स्वर्गीय सुख, अन्तमें मोक्षरूपी फल अथवा परमेश्वर शिवकी भक्ति चाहते हैं, वे पूर्वजन्मोंके महान् पुण्यसे भगवान् सदाशिवकी पूजा-अर्चामें प्रवृत्त होते हैं।

जो पुरुष नित्य-भक्तिपरायण हो शिवलिंगकी पूजा करता है, उसको सफल सिद्धि प्राप्त होती है तथा वह पापोंके चक्करमें नहीं पड़ता।

भगवान् के इस प्रकार उपदेश देनेपर देवताओंने उन श्रीहरिको प्रणाम किया और मनुष्योंकी समस्त कामनाओंकी पूर्तिके लिये उनसे शिवलिंग देनेके लिये प्रार्थना की।

मुनिश्रेष्ठ उस प्रार्थनाको सुनकर जीवोंके उद्धारमें तत्पर रहनेवाले भगवान् विष्णुने विश्वकर्माको बुलाकर कहा—‘विश्वकर्मन्! तुम मेरी आज्ञासे सम्पूर्ण देवताओंको सुन्दर शिवलिंगका निर्माण करके दो।’ तब विश्वकर्माने मेरी और श्रीहरिकी आज्ञाके अनुसार उन देवताओंको उनके अधिकारके अनुसार शिवलिंग बनाकर दिये।

मुनिश्रेष्ठ नारद! किस देवताको कौन-सा शिवलिंग प्राप्त हुआ, इसका वर्णन आज मैं कर रहा हूँ; उसे सुनो।

इन्द्र पद्मराग-मणिके बने हुए शिवलिंगकी और कुबेर सुवर्णमय लिंगकी पूजा करते हैं।

धर्म पीतमणिमय (पुखराजके बने हुए) लिंगकी तथा वरुण श्यामवर्णके शिवलिंगकी पूजा करते हैं।

भगवान् विष्णु इन्द्रनीलमय तथा ब्रह्मा हेममय लिंगकी पूजा करते हैं।

मुने! विश्वेदेवगण चाँदीके शिवलिंगकी, वसुगण पीतलके बने हुए लिंगकी तथा दोनों अश्विनीकुमार पार्थिवलिंगकी पूजा करते हैं।

लक्ष्मीदेवी स्फटिकमय लिंगकी, आदित्यगण ताम्रमय लिंगकी, राजा सोम मोतीके बने हुए लिंगकी तथा अग्निदेव वज्र (हीरे)-के लिंगकी उपासना करते हैं।

श्रेष्ठ ब्राह्मण और उनकी पत्नियाँ मिट्टीके बने हुए शिवलिंगका, मयासुर चन्दननिर्मित लिंगका और नागगण मूँगेके बने हुए शिवलिंगका आदरपूर्वक पूजन करते हैं।

देवी मक्खनके बने हुए लिंगकी, योगीजन भस्ममय लिंगकी, यक्षगण दधिनिर्मित लिंगकी, छायादेवी आटेसे बनाये हुए लिंगकी और ब्रह्मपत्नी रत्नमय शिवलिंगकी निश्चितरूपसे पूजा करती हैं।

बाणासुर पारद या पार्थिवलिंगकी पूजा करता है।

दूसरे लोग भी ऐसा ही करते हैं।

ऐसे-ऐसे शिवलिंग बनाकर विश्वकर्माने विभिन्न लोगोंको दिये तथा वे सब देवता और ऋषि उन लिंगोंकी पूजा करते हैं।

भगवान् विष्णुने इस तरह देवताओंको उनके हितकी कामनासे शिवलिंग देकर उनसे तथा मुझ ब्रह्मासे पिनाकपाणि महादेवके पूजनकी विधि भी बतायी।

पूजन-विधिसम्बन्धी उनके वचनोंको सुनकर देवशिरोमणियोंसहित मैं ब्रह्मा हृदयमें हर्ष लिये अपने धाममें आ गया।

मुने! वहाँ आकर मैंने समस्त देवताओं और ऋषियोंको शिव-पूजाकी उत्तम विधि बतायी, जो सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तुओंको देनेवाली है।

उस समय मुझ ब्रह्माने कहा—देवताओंसहित समस्त ऋषियो! तुम प्रेमपरायण होकर सुनो; मैं प्रसन्नतापूर्वक तुमसे शिवपूजनकी उस विधिका वर्णन करता हूँ, जो भोग और मोक्ष देनेवाली है।

देवताओ और मुनीश्वरो! समस्त जन्तुओंमें मनुष्य-जन्म प्राप्त करना प्रायः दुर्लभ है।

उनमें भी उत्तम कुलमें जन्म तो और भी दुर्लभ है।

उत्तम कुलमें भी आचारवान् ब्राह्मणोंके यहाँ उत्पन्न होना उत्तम पुण्यसे ही सम्भव है।

यदि वैसा जन्म सुलभ हो जाय तो भगवान् शिवके संतोषके लिये उस उत्तम कर्मका अनुष्ठान करे, जो अपने वर्ण और आश्रमके लिये शास्त्रोंद्वारा प्रतिपादित है।

जिस जातिके लिये जो कर्म बताया गया है, उसका उल्लंघन न करे।

जितनी सम्पत्ति हो, उसके अनुसार ही दान करे।

कर्ममय सहस्रों यज्ञोंसे तपोयज्ञ बढ़कर है।

सहस्रों तपोयज्ञोंसे जपयज्ञका महत्त्व अधिक है।

ध्यानयज्ञसे बढ़कर कोई वस्तु नहीं है।

ध्यान ज्ञानका साधन है; क्योंकि योगी ध्यानके द्वारा अपने इष्टदेव समरस शिवका साक्षात्कार करता है।१ ध्यानयज्ञमें तत्पर रहनेवाले उपासकके लिये भगवान् शिव सदा ही संनिहित हैं।

जो विज्ञानसे सम्पन्न हैं, उन पुरुषोंकी शुद्धिके लिये किसी प्रायश्चित्त आदिकी आवश्यकता नहीं है।

मनुष्यको जबतक ज्ञानकी प्राप्ति न हो, तबतक वह विश्वास दिलानेके लिये कर्मसे ही भगवान् शिवकी आराधना करे।

जगत् के लोगोंको एक ही परमात्मा अनेक रूपोंमें अभिव्यक्त हो रहा है।

एकमात्र भगवान् सूर्य एक स्थानमें रहकर भी जलाशय आदि विभिन्न वस्तुओंमें अनेक-से दीखते हैं।

देवताओ! संसारमें जो-जो सत् या असत् वस्तु देखी या सुनी जाती है, वह सब परब्रह्म शिवरूप ही है—ऐसा समझो।

जबतक तत्त्वज्ञान न हो जाय, तबतक प्रतिमाकी पूजा आवश्यक है।

ज्ञानके अभावमें भी जो प्रतिमा-पूजाकी अवहेलना करता है, उसका पतन निश्चित है।

इसलिये ब्राह्मणो! यह यथार्थ बात सुनो।

अपनी जातिके लिये जो कर्म बताया गया है, उसका प्रयत्नपूर्वक पालन करना चाहिये।

जहाँ-जहाँ यथावत् भक्ति हो, उस-उस आराध्य-देवका पूजन आदि अवश्य करना चाहिये; क्योंकि पूजन और दान आदिके बिना पातक दूर नहीं होते।२ जैसे मैले कपड़ेमें रंग बहुत अच्छा नहीं चढ़ता है किंतु जब उसको धोकर स्वच्छ कर लिया जाता है, तब उसपर सब रंग अच्छी तरह चढ़ते हैं, उसी प्रकार देवताओंकी भलीभाँति पूजासे जब त्रिविध शरीर पूर्णतया निर्मल हो जाता है, तभी उसपर ज्ञानका रंग चढ़ता है और तभी विज्ञानका प्राकट्य होता है।

जब विज्ञान हो जाता है, तब भेदभावकी निवृत्ति हो जाती है।

भेदकी सम्पूर्णतया निवृत्ति हो जानेपर द्वन्द्व-दुःख दूर हो जाते हैं और द्वन्द्व-दुःखसे रहित पुरुष शिवरूप हो जाता है।

मनुष्य जबतक गृहस्थ-आश्रममें रहे, तबतक पाँचों देवताओंकी तथा उनमें श्रेष्ठ भगवान् शंकरकी प्रतिमाका उत्तम प्रेमके साथ पूजन करे।

अथवा जो सबके एकमात्र मूल हैं, उन भगवान् शिवकी ही पूजा सबसे बढ़कर है; क्योंकि मूलके सींचे जानेपर शाखास्थानीय सम्पूर्ण देवता स्वतः तृप्त हो जाते हैं।

अतः जो सम्पूर्ण मनोवांछित फलोंको पाना चाहता है, वह अपने अभीष्टकी सिद्धिके लिये समस्त प्राणियोंके हितमें तत्पर रहकर लोककल्याणकारी भगवान् शंकरका पूजन करे।

(अध्याय १२) * भवभक्तिपरा ये च भवप्रणतचेतसः।

भवसंस्मरणा ये च न ते दुःखस्य भाजनाः।।

(शि० पु० रु० सृ० खं० १२।२१) १. ध्यानयज्ञात्परं नास्ति ध्यानं ज्ञानस्य साधनम्।

यतः समरसं स्वेष्टं योगी ध्यानेन पश्यति।।

(शि० पु० रु० सृ० १२।४६) २. यत्र यत्र यथाभक्तिः कर्तव्यं पूजनादिकम्।

विना पूजनदानादि पातकं न च दूरतः।।

(शि० पु० रु० सृ० खं० १२।६९)


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