शिव पुराण - रुद्र संहिता - सृष्टि खण्ड - 10


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


शिवपूजनकी विधि तथा उसका फल

ऋषि बोले—व्यासशिष्य महाभाग सूतजी! आपको नमस्कार है।

आज आपने भगवान् शिवकी बड़ी अद्भुत एवं परम पावन कथा सुनायी है।

दयानिधे! ब्रह्मा और नारदजीके संवादके अनुसार आप हमें शिवपूजनकी वह विधि बताइये, जिससे यहाँ भगवान् शिव संतुष्ट होते हैं।

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र—सभी शिवकी पूजा करते हैं।

वह पूजन कैसे करना चाहिये? आपने व्यासजीके मुखसे इस विषयको जिस प्रकार सुना हो, वह बताइये।

महर्षियोंका वह कल्याणप्रद एवं श्रुतिसम्मत वचन सुनकर सूतजीने उन मुनियोंके प्रश्नके अनुसार सब बातें प्रसन्नतापूर्वक बतायीं।

सूतजी बोले—मुनीश्वरो! आपने बहुत अच्छी बात पूछी है।

परंतु वह रहस्यकी बात है।

मैंने इस विषयको जैसा सुना है और जैसी मेरी बुद्धि है, उसके अनुसार आज कुछ कह रहा हूँ।

जैसे आपलोग पूछ रहे हैं, उसी तरह पूर्वकालमें व्यासजीने सनत्कुमारजीसे पूछा था।

फिर उसे उपमन्युजीने भी सुना था।

व्यासजीने शिवपूजन आदि जो भी विषय सुना था, उसे सुनकर उन्होंने लोकहितकी कामनासे मुझे पढ़ा दिया था।

इसी विषयको भगवान् श्रीकृष्णने महात्मा उपमन्युसे सुना था।

पूर्वकालमें ब्रह्माजीने नारदजीसे इस विषयमें जो कुछ कहा था, वही इस समय मैं कहूँगा।

ब्रह्माजीने कहा—नारद! मैं संक्षेपसे लिंगपूजनकी विधि बता रहा हूँ, सुनो।

जैसा पहले कहा गया है, वैसा जो भगवान् शंकरका सुखमय, निर्मल एवं सनातन रूप है, उसका उत्तम भक्तिभावसे पूजन करे, इससे समस्त मनोवांछित फलोंकी प्राप्ति होगी।

दरिद्रता, रोग, दुःख तथा शत्रुजनित पीड़ा—ये चार प्रकारके पाप (कष्ट) तभीतक रहते हैं, जबतक मनुष्य भगवान् शिवका पूजन नहीं करता।

भगवान् शिवकी पूजा होते ही सारे दुःख विलीन हो जाते और समस्त सुखोंकी प्राप्ति हो जाती है।

तत्पश्चात् समय आनेपर उपासककी मुक्ति भी होती है।

जो मानवशरीरका आश्रय लेकर मुख्यतया संतान-सुखकी कामना करता है उसे चाहिये कि वह सम्पूर्ण कार्यों और मनोरथोंके साधक महादेवजीकी पूजा करे।

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र भी सम्पूर्ण कामनाओं तथा प्रयोजनोंकी सिद्धिके लिये क्रमसे विधिके अनुसार भगवान् शंकरकी पूजा करे।

प्रातःकाल ब्राह्म मुहूर्तमें उठकर गुरु तथा शिवका स्मरण करके तीर्थोंका चिन्तन एवं भगवान् विष्णुका ध्यान करे।

फिर मेरा, देवताओंका और मुनि आदिका भी स्मरण-चिन्तन करके स्तोत्रपाठपूर्वक शंकरजीका विधिपूर्वक नाम ले।

उसके बाद शय्यासे उठकर निवासस्थानसे दक्षिण दिशामें जाकर मलत्याग करे।

मुने! एकान्तमें मलोत्सर्ग करना चाहिये।

उससे शुद्ध होनेके लिये जो विधि मैंने सुन रखी है, उसीको आज कहता हूँ।

मनको एकाग्र करके सुनो।

ब्राह्मण गुदाकी शुद्धिके लिये उसमें पाँच बार शुद्ध मिट्टीका लेप करे और धोये।

क्षत्रिय चार बार, वैश्य तीन बार और शूद्र दो बार विधिपूर्वक गुदाकी शुद्धिके लिये उसमें मिट् टी लगाये।

लिंगमें भी एक बार प्रयत्नपूर्वक मिट्टी लगानी चाहिये।

तत्पश्चात् बायें हाथमें दस बार और दोनों हाथोंमें सात बार मिट्टी लगाकर धोये।

तात! प्रत्येक पैरमें तीन-तीन बार मिट्टी लगाये।

फिर दोनों हाथोंमें भी मिट्टी लगाकर धोये।

स्त्रियोंको शूद्रकी ही भाँति अच्छी तरह मिट्टी लगानी चाहिये।

हाथ-पैर धोकर पूर्ववत् शुद्ध मिट्टी ले और उसे लगाकर दाँत साफ करे।

फिर अपने वर्णके अनुसार मनुष्य दतुअन करे।

ब्राह्मणको बारह अंगुलकी दतुअन करनी चाहिये।

क्षत्रिय ग्यारह अंगुल, वैश्य दस अंगुल और शूद्र नौ अंगुलकी दतुअन करे।

यह दतुअनका मान बताया गया।

मनुस्मृतिके अनुसार कालदोषका विचार करके ही दतुअन करे या त्याग दे।

तात! षष्ठी, प्रतिपदा, अमावास्या, नवमी, व्रतका दिन, सूर्यास्तका समय, रविवार तथा श्राद्ध-दिवस—ये दन्तधावनके लिये वर्जित हैं—इनमें दतुअन नहीं करनी चाहिये।

दतुअनके पश्चात् तीर्थ (जलाशय) आदिमें जाकर विधिपूर्वक स्नान करना चाहिये, विशेष देश-काल आनेपर मन्त्रोच्चारणपूर्वक स्नान करना उचित है।

स्नानके पश्चात् पहले आचमन करके वह धुला हुआ वस्त्र धारण करे।

फिर सुन्दर एकान्त स्थलमें बैठकर संध्याविधिका अनुष्ठान करे।

यथायोग्य संध्याविधिका पालन करके पूजाका कार्य आरम्भ करे।

मनको सुस्थिर करके पूजागृहमें प्रवेश करे।

वहाँ पूजन-सामग्री लेकर सुन्दर आसनपर बैठे।

पहले न्यास आदि करके क्रमशः महादेवजीकी पूजा करे।

शिवकी पूजासे पहले गणेशजीकी, द्वारपालोंकी और दिक्पालोंकी भी भलीभाँति पूजा करके पीछे देवताके लिये पीठस्थानकी कल्पना करे।

अथवा अष्टदलकमल बनाकर पुजाद्रव्यके समीप बैठे और उस कमलपर ही भगवान् शिवको समासीन करे।

तत्पश्चात् तीन आचमन करके पुनः दोनों हाथ धोकर तीन प्राणायाम करके मध्यम प्राणायाम अर्थात् कुम्भक करते समय त्रिनेत्रधारी भगवान् शिवका इस प्रकार ध्यान करे—उनके पाँच मुख हैं, दस भुजाएँ हैं, शुद्ध स्फटिकके समान उज्ज्वल कान्ति है, सब प्रकारके आभूषण उनके श्रीअंगोंको विभूषित करते हैं तथा वे व्याघ्रचर्मकी चादर ओढ़े हुए हैं।

इस तरह ध्यान करके यह भावना करे कि मुझे भी इनके समान ही रूप प्राप्त हो जाय।

ऐसी भावना करके मनुष्य सदाके लिये अपने पापको भस्म कर डाले।

इस प्रकार भावनाद्वारा शिवका ही शरीर धारण करके उन परमेश्वरकी पूजा करे।

शरीरशुद्धि करके मूलमन्त्रका क्रमशः न्यास करे अथवा सर्वत्र प्रणवसे ही षडंगन्यास करे।

‘ॐ अद्येत्यादि०’ रूपसे संकल्प-वाक्यका प्रयोग करके फिर पूजा आरम्भ करे।

पाद्य, अर्घ्य और आचमनके लिये पात्रोंको तैयार करके रखे।

बुद्धिमान् पुरुष विधिपूर्वक भिन्न-भिन्न प्रकारके नौ कलश स्थापित करे।

उन्हें कुशाओंसे ढककर रखे और कुशाओंसे ही जल लेकर उन सबका प्रोक्षण करे।

तत्पश्चात् उन-उन सभी पात्रोंमें शीतल जल डाले।

फिर बुद्धिमान् पुरुष देखभालकर प्रणवमन्त्रके द्वारा उनमें निम्नांकित द्रव्योंको डाले।

खस और चन्दनको पाद्यपात्रमें रखे।

चमेलीके फूल, शीतलचीनी, कपूर, बड़की जड़ तथा तमाल—इन सबको यथोचित-रूपसे कूट-पीसकर चूर्ण बना ले और आचमनीयके पात्रमें डाले।

इलायची और चन्दनको तो सभी पात्रोंमें डालना चाहिये।

देवाधिदेव महादेवजीके पार्श्वभागमें नन्दीश्वरका पूजन करे।

गन्ध, धूप तथा भाँति-भाँतिके दीपोंद्वारा शिवकी पूजा करे।

फिर लिंगशुद्धि करके मनुष्य प्रसन्नतापूर्वक मन्त्रसमूहोंके आदिमें प्रणव तथा अन्तमें ‘नमः’ पद जोड़कर उनके द्वारा इष्टदेवके लिये यथोचित आसनकी कल्पना करे।

फिर प्रणवसे पद्मासनकी कल्पना करके यह भावना करे कि इस कमलका पूर्वदल साक्षात् अणिमा नामक ऐश्वर्यरूप तथा अविनाशी है।

दक्षिणदल लघिमा है।

पश्चिमदल महिमा है।

उत्तरदल प्राप्ति है।

अग्निकोणका दल प्राकाम्य है।

नैर्ऋत्यकोणका दल ईशित्व है।

वायव्यकोणका दल वशित्व है।

ईशानकोणका दल सर्वज्ञत्व है और उस कमलकी कर्णिकाको सोम कहा जाता है।

सोमके नीचे सूर्य हैं, सूर्यके नीचे अग्नि हैं और अग्निके भी नीचे धर्म आदिके स्थान हैं।

क्रमशः ऐसी कल्पना करनेके पश्चात् चारों दिशाओंमें अव्यक्त, महत्तत्त्व, अहंकार तथा उनके विकारोंकी कल्पना करे।

सोमके अन्तमें सत्त्व, रज और तम—इन तीनों गुणोंकी कल्पना करे।

इसके बाद ‘सद्योजातं प्रपद्यामि’ इत्यादि मन्त्रसे परमेश्वर शिवका आवाहन करके ‘ॐ वामदेवाय नमः’ इत्यादि वामदेव-मन्त्रसे उन्हें आसनपर विराजमान करे।

फिर ‘ॐ तत्पुरुषाय विद्महे’ इत्यादि रुद्रगायत्रीद्वारा इष्टदेवका सांनिध्य प्राप्त करके उन्हें ‘अघोरेभ्योऽथ’ इत्यादि अघोरमन्त्रसे वहाँ निरुद्ध करे।

फिर ‘ईशानः सर्वविद्यानाम्’ इत्यादि मन्त्रसे आराध्य देवका पूजन करे।

पाद्य और आचमनीय अर्पित करके अर्घ्य दे।

तत्पश्चात् गन्ध और चन्दनमिश्रित जलसे विधिपूर्वक रुद्रदेवको स्नान कराये।

फिर पंचगव्यनिर्माणकी विधिसे पाँचों द्रव्योंको एक पात्रमें लेकर प्रणवसे ही अभिमन्त्रित करके उन मिश्रित गव्यपदार्थोंद्वारा भगवान् को नहलाये।

तत्पश्चात् पृथक्-पृथक् दूध, दही, मधु, गन्नेके रस तथा घीसे नहलाकर समस्त अभीष्टोंके दाता और हितकारी पूजनीय महादेवजीका प्रणवके उच्चारणपूर्वक पवित्र द्रव्योंद्वारा अभिषेक करे।

पवित्र जलपात्रोंमें मन्त्रोच्चारणपूर्वक जल डाले।

डालनेसे पहले साधक श्वेत वस्त्रसे उस जलको यथोचित रीतिसे छान ले।

उस जलको तबतक दूर न करे, जबतक इष्टदेवको चन्दन न चढ़ा ले।

तब सुन्दर अक्षतोंद्वारा प्रसन्नतापूर्वक शंकरजीकी पूजा करे।

उनके ऊपर कुश, अपामार्ग, कपूर, चमेली, चम्पा, गुलाब, श्वेत कनेर, बेला, कमल और उत्पल आदि भाँति-भाँतिके अपूर्व पुष्प एवं चन्दन आदि चढ़ाकर पूजा करे।

परमेश्वर शिवके ऊपर जलकी धारा गिरती रहे, इसकी भी व्यवस्था करे।

जलसे भरे भाँति-भाँतिके पात्रोंद्वारा महेश्वरको नहलाये।

मन्त्रोच्चारणपूर्वक पूजा करनी चाहिये।

वह समस्त फलोंको देनेवाली होती है।

तात! अब मैं तुम्हें समस्त मनोवांछित कामनाओंकी सिद्धिके लिये उन पूजा-सम्बन्धी मन्त्रोंको भी संक्षेपसे बता रहा हूँ, सावधानीके साथ सुनो।

पावमानमन्त्रसे, ‘वाङ् मे’ इत्यादि मन्त्रसे, रुद्रमन्त्र तथा नीलरुद्रमन्त्रसे, सुन्दर एवं शुभ पुरुषसूक्तसे, श्रीसूक्तसे, सुन्दर अथर्वशीर्षके मन्त्रसे, ‘आ नो भद्रा०’ इत्यादि शान्तिमन्त्रसे, शान्तिसम्बन्धी दूसरे मन्त्रोंसे, भारुण्डमन्त्र और अरुणमन्त्रोंसे, अर्थाभीष्टसाम तथा देवव्रतसामसे, ‘अभि त्वा०’ इत्यादि रथन्तरसामसे, पुरुषसूक्तसे, मृत्युंजयमन्त्रसे तथा पंचाक्षरमन्त्रसे पूजा करे।

एक सहस्र अथवा एक सौ एक जलधाराएँ गिरानेकी व्यवस्था करे।

यह सब वेदमार्गसे अथवा नाममन्त्रोंसे करना चाहिये।

तदनन्तर भगवान् शंकरके ऊपर चन्दन और फूल आदि चढ़ाये।

प्रणवसे ही मुखवास (ताम्बूल) आदि अर्पित करे।

इसके बाद जो स्फटिकमणिके समान निर्मल, निष्कल, अविनाशी, सर्वलोककारण, सर्वलोकमय परमदेव हैं; जो ब्रह्मा, रुद्र, इन्द्र और विष्णु आदि देवताओंकी भी दृष्टिमें नहीं आते; वेदवेत्ता विद्वानोंने जिन्हें वेदान्तमें मन-वाणीके अगोचर बताया है; जो आदि, मध्य और अन्तसे रहित तथा समस्त रोगियोंके लिये औषधरूप हैं; जिनकी शिवतत्त्वके नामसे ख्याति है तथा जो शिवलिंगके रूपमें प्रतिष्ठित हैं, उन भगवान् शिवका शिवलिंगके मस्तकपर प्रणवमन्त्रसे ही पूजन करे।

धूप, दीप, नैवेद्य, सुन्दर ताम्बूल एवं सुरम्य आरतीद्वारा यथोक्त विधिसे पूजा करके स्तोत्रों तथा अन्य नाना प्रकारके मन्त्रोंद्वारा उन्हें नमस्कार करे।

फिर अर्घ्य देकर भगवान् के चरणोंमें फूल बिखेरे और साष्टांग प्रणाम करके देवेश्वर शिवकी आराधना करे।

फिर हाथमें फूल लेकर खड़ा हो जाय और दोनों हाथ जोड़कर निम्नांकित मन्त्रसे सर्वेश्वर शंकरकी पुनः प्रार्थना करे— अज्ञानाद्यदि वा ज्ञानाज्जपपूजादिकं मया।

कृतं तदस्तु सफलं कृपया तव शंकर।।

‘कल्याणकारी शिव! मैंने अनजानमें अथवा जान-बूझकर जो जप-पूजा आदि सत्कर्म किये हों, वे आपकी कृपासे सफल हों।’ इस प्रकार पढ़कर भगवान् शिवके ऊपर प्रसन्नतापूर्वक फूल चढ़ाये।

स्वस्तिवाचन१ करके नाना प्रकारकी आशीः२ प्रार्थना करे।

फिर शिवके ऊपर मार्जन३ करना चाहिये।

मार्जनके बाद नमस्कार करके अपराधके लिये क्षमा४-प्रार्थना करते हुए पुनरागमनके लिये विसर्जन५ करना चाहिये।

इसके बाद ‘अद्या’६ से आरम्भ होनेवाले मन्त्रका उच्चारण करके नमस्कार करे।

फिर सम्पूर्ण भावसे विभोर हो इस प्रकार प्रार्थना करे— शिवे भक्तिः शिवे भक्तिः शिवे भक्तिर्भवे भवे।

अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम।।

‘प्रत्येक जन्ममें मेरी शिवमें भक्ति हो, शिवमें भक्ति हो, शिवमें भक्ति हो।

शिवके सिवा दूसरा कोई मुझे शरण देनेवाला नहीं।

महादेव! आप ही मेरे लिये शरणदाता हैं।’ इस प्रकार प्रार्थना करके सम्पूर्ण सिद्धियोंके दाता देवेश्वर शिवका पराभक्तिके द्वारा पूजन करे।

विशेषतः गलेकी आवाजसे भगवान् को संतुष्ट करे।

फिर सपरिवार नमस्कार करके अनुपम प्रसन्नताका अनुभव करते हुए समस्त लौकिक कार्य सुखपूर्वक करता रहे।

जो इस प्रकार शिवभक्तिपरायण हो प्रतिदिन पूजन करता है, उसे अवश्य ही पग-पगपर सब प्रकारकी सिद्धि प्राप्त होती है।

वह उत्तम वक्ता होता है तथा उसे मनोवांछित फलकी निश्चय ही प्राप्ति होती है।

रोग, दुःख, दूसरोंके निमित्तसे होनेवाला उद्वेग, कुटिलता तथा विष आदिके रूपमें जो-जो कष्ट उपस्थित होता है, उसे कल्याणकारी परम शिव अवश्य नष्ट कर देते हैं।

उस उपासकका कल्याण होता है।

भगवान् शंकरकी पूजासे उसमें अवश्य सद् गुणोंकी वृद्धि होती है—ठीक उसी तरह, जैसे शुक्लपक्षमें चन्द्रमा बढ़ते हैं।

मुनिश्रेष्ठ नारद! इस प्रकार मैंने शिवकी पूजाका विधान बताया।

अब तुम क्या सुनना चाहते हो? कौन-सा प्रश्न पूछनेवाले हो? (अध्याय ११) १. ‘ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।

स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।।’ इत्यादि स्वस्तिवाचनसम्बन्धी मन्त्र हैं।

२. ‘काले वर्षतु पर्जन्यः पृथिवी शस्यशालिनी।

देशोऽयं क्षोभरहितो ब्राह्मणाः सन्तु निर्भयाः।। सर्वे च सुखिनः सन्तु सर्वे सन्तु निरामयाः।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्।।’ इत्यादि आशीःप्रार्थनाएँ हैं।

३. ‘ॐ आपो हि ष्ठामयोभुवः’ (यजु० ११।

५०—५२) इत्यादि तीन मार्जन-मन्त्र कहे गये हैं।

इन्हें पढ़ते हुए इष्टदेवपर जल छिड़कना ‘मार्जन’ कहलाता है।

४. ‘अपराधसहस्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया।

तानि सर्वाणि मे देव क्षमस्व परमेश्वर।।’ इत्यादि क्षमा-प्रार्थनासम्बन्धी श्लोक हैं।

५. ‘यान्तु देवगणाः सर्वे पूजामादाय मामकीम्।

अभीष्टफलदानाय पुनरागमनाय च।।’ इत्यादि विसर्जनसम्बन्धी श्लोक हैं।

६. ‘ॐ अद्या देवा उदिता सूर्यस्य निर्ँ हस पिपृता निरवद्यात्।

तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः।’ (यजु० ३३।४२)


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