शिव पुराण - रुद्र संहिता - सती खण्ड - 9

शिव पुराण – रुद्र संहिता – सती खण्ड – 9


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


ब्रह्माजीका रुद्रदेवसे सतीके साथ विवाह करनेका अनुरोध, श्रीविष्णुद्वारा अनुमोदन और श्रीरुद्रकी इसके लिये स्वीकृति

ब्रह्माजी कहते हैं – श्रीविष्णु आदि देवताओंद्वारा की हुई उस स्तुतिको सुनकर सबकी उत्पत्तिके हेतुभूत भगवान् शंकर बड़े प्रसन्न हुए और जोर-जोरसे हँसने लगे।

मुझ ब्रह्मा और विष्णुको अपनी-अपनी पत्नीके साथ आया हुआ देख महादेवजीने हमलोगोंसे यथोचित वार्तालाप किया और हमारे आगमनका कारण पूछा।

रुद्र बोले – हे हरे! हे विधे! तथा हे देवताओ और महर्षियो! आज निर्भय होकर यहाँ अपने आनेका ठीक-ठीक कारण बताओ।

तुमलोग किसलिये यहाँ आये हो और कौन-सा कार्य आ पड़ा है? वह सब मैं सुनना चाहता हूँ; क्योंकि तुम्हारे द्वारा की गयी स्तुतिसे मेरा मन बहुत प्रसन्न है।

मुने! महादेवजीके इस प्रकार पूछनेपर भगवान् विष्णुकी आज्ञासे मैंने वार्तालाप आरम्भ किया।

मुझ ब्रह्माने कहा – देवदेव! महादेव! करुणासागर! प्रभो! हम दोनों इन देवताओं और ऋषियोंके साथ जिस उद्देश्यसे यहाँ आये हैं, उसे सुनिये।

वृषभध्वज! विशेषतः आपके ही लिये हमारा यहाँ आगमन हुआ है; क्योंकि हम तीनों सहार्थी हैं – सृष्टि-चक्रके संचालनरूप प्रयोजनकी सिद्धिके लिये एक-दूसरेके सहायक हैं।

सहार्थीको सदा परस्पर यथायोग्य सहयोग करना चाहिये अन्यथा यह जगत् टिक नहीं सकता।

महेश्वर! कुछ ऐसे असुर उत्पन्न होंगे, जो मेरे हाथसे मारे जायँगे।

कुछ भगवान् विष्णुके और कुछ आपके हाथों नष्ट होंगे।

महाप्रभो! कुछ असुर ऐसे होंगे, जो आपके वीर्यसे उत्पन्न हुए पुत्रके हाथसे ही मारे जा सकेंगे।

प्रभो! कभी कोई विरले ही असुर ऐसे होंगे, जो मायाके हाथोंद्वारा वधको प्राप्त होंगे।

आप भगवान् शंकरकी कृपासे ही देवताओंको सदा उत्तम सुख प्राप्त होगा।

घोर असुरोंका विनाश करके आप जगत् को सदा स्वास्थ्य एवं अभय प्रदान करेंगे अथवा यह भी सम्भव है कि आपके हाथसे कोई भी असुर न मारे जायँ; क्योंकि आप सदा योगयुक्त रहते हुए राग-द्वेषसे रहित हैं तथा एकमात्र दया करनेमें ही लगे रहते हैं।

ईश! यदि वे असुर भी आराधित हों – आपकी दयासे अनुगृहीत होते रहें तो सृष्टि और पालनका कार्य कैसे चल सकता है।

उतः वृषभध्वज! आपको प्रतिदिन सृष्टि आदिके उपयुक्त कार्य करनेके लिये उद्यत रहना चाहिये।

यदि सृष्टि, पालन और संहार-रूप कर्म न करने हों तब तो हमने मायासे जो भिन्न-भिन्न शरीर धारण किये हैं, उनकी कोई उपयोगिता अथवा औचित्य ही नहीं है।

वास्तवमें हम तीनों एक ही हैं, कार्यके भेदसे भिन्न-भिन्न देह धारण करके स्थित हैं।

यदि कार्यभेद न सिद्ध हो, तब तो हमारे रूपभेदका कोई प्रयोजन ही नहीं है।

देव! एक ही परमात्मा महेश्वर तीन स्वरूपोंमें अभिव्यक्त हुए हैं।

इस रूपभेदमें उनकी अपनी माया ही कारण है।

वास्तवमें प्रभु स्वतन्त्र हैं।

वे लीलाके उद्देश्यसे ही ये सृष्टि आदि कार्य करते हैं।

भगवान् श्रीहरि उनके बायें अंगसे प्रकट हुए हैं, मैं ब्रह्मा उनके दायें अंगसे प्रकट हुआ हूँ और आप रुद्रदेव उन सदाशिवके हृदयसे आविर्भूत हुए हैं; अतः आप ही शिवके पूर्ण रूप हैं।

प्रभो! इस प्रकार अभिन्नरूप होते हुए भी हम तीन रूपोंमें प्रकट हैं।

सनातनदेव! हम तीनों उन्हीं भगवान् सदाशिव और शिवाके पुत्र हैं, इस यथार्थ तत्त्वका आप हृदयसे अनुभव कीजिये।

प्रभो! मैं और श्रीविष्णु आपके आदेशसे प्रसन्नतापूर्वक लोककी सृष्टि और पालनके कार्य कर रहे हैं तथा कार्य-कारणवश सपत्नीक भी हो गये हैं; अतः आप भी विश्वहितके लिये तथा देवताओंको सुख पहुँचानेके लिये एक परम सुन्दरी रमणीको अपनी पत्नी बनानेके लिये ग्रहण करें।

महेश्वर! एक बात और है, उसे सुनिये; मुझे पहलेके वृत्तान्तका स्मरण हो आया है।

पूर्वकालमें आपने ही शिवरूपसे जो बात हमारे सामने कही थी, वही इस समय सुना रहा हूँ।

आपने कहा था, ‘ब्रह्मन्! मेरा ऐसा ही उत्तम रूप तुम्हारे अंगविशेष – ललाटसे प्रकट होगा, जिसकी लोकमें ‘रुद्र’ नामसे प्रसिद्धि होगी।

तुम ब्रह्मा सृष्टिकर्ता हो गये, श्रीहरि जगत् का पालन करनेवाले हुए और मैं सगुण रुद्ररूप होकर संहार करनेवाला होऊँगा।

एक स्त्रीके साथ विवाह करके लोकके उत्तम कार्यकी सिद्धि करूँगा।’ अपनी कही हुई इस बातको याद करके आप अपनी ही पूर्वप्रतिज्ञाको पूर्ण कीजिये।

स्वामिन्! आपका यह आदेश है कि मैं सृष्टि करूँ, श्रीहरि पालन करें और आप स्वयं संहारके हेतु बनकर प्रकट हों; सो आप साक्षात् शिव ही संहारकर्ताके रूपमें प्रकट हुए हैं।

आपके बिना हम दोनों अपना-अपना कार्य करनेमें समर्थ नहीं हैं; अतः आप एक ऐसी कामिनीको स्वीकार करें, जो लोकहितके कार्यमें तत्पर रहे।

शम्भो! जैसे लक्ष्मी भगवान् विष्णुकी और सावित्री मेरी सहधर्मिणी हैं, उसी प्रकार आप इस समय अपनी जीवनसहचरी प्राणवल्लभाको ग्रहण करें।

मेरी यह बात सुनकर लोकेश्वर महादेवजीके मुखपर मुसकराहट दौड़ गयी।

वे श्रीहरिके सामने मुझसे इस प्रकार बोले।

ईश्वरने कहा – ब्रह्मन्! हरे! तुम दोनों मुझे सदा ही अत्यन्त प्रिय हो।

तुम दोनोंको देखकर मुझे बड़ा आनन्द मिलता है।

तुमलोग समस्त देवताओंमें श्रेष्ठ तथा त्रिलोकीके स्वामी हो।

लोकहितके कार्यमें मन लगाये रहनेवाले तुम दोनोंका वचन मेरी दृष्टिमें अत्यन्त गौरवपूर्ण हैं।

किंतु सुरश्रेष्ठगण! मेरे लिये विवाह करना उचित नहीं होगा; क्योंकि मैं तपस्यामें संलग्न रहकर सदा संसारसे विरक्त ही रहता हूँ और योगीके रूपमें मेरी प्रसिद्धि है।

जो निवृत्तिके सुन्दर मार्गपर स्थित है, अपने आत्मामें ही रमण करता – आनन्द मानता है, निरंजन (मायासे निर्लिप्त) है, जिसका शरीर अवधूत (दिगम्बर) है, जो ज्ञानी, आत्मदर्शी और कामनासे शून्य है, जिसके मनमें कोई विकार नहीं है, जो भोगोंसे दूर रहता है तथा जो सदा अपवित्र और अमंगलवेशधारी है, उसे संसारमें कामिनीसे क्या प्रयोजन है – यह इस समय मुझे बताओ तो सही!* मुझे तो सदा केवल योगमें लगे रहनेपर ही आनन्द आता है।

ज्ञानहीन पुरुष ही योगको छोड़कर भोगको अधिक महत्त्व देता है।

संसारमें विवाह करना पराये बन्धनमें बँधना है।

इसे बहुत बड़ा बन्धन समझना चाहिये।

इसलिये मैं सत्य-सत्य कहता हूँ, विवाहके लिये मेरे मनमें थोड़ी-सी भी अभिरुचि नहीं है।

आत्मा ही अपना उत्तम अर्थ या स्वार्थ है।

उसका भलीभाँति चिन्तन करनेके कारण मेरी लौकिक स्वार्थमें प्रवृत्ति नहीं होती।

तथापि जगत् के हितके लिये तुमने जो कुछ कहा है, उसे करूँगा।

तुम्हारे वचनको गरिष्ठ मानकर अथवा अपनी कही हुई बातको पूर्ण करनेके लिये मैं अवश्य विवाह करूँगा; क्योंकि मैं सदा भक्तोंके वशमें रहता हूँ।

परंतु मैं जैसी नारीको प्रिय पत्नीके रूपमें ग्रहण करूँगा और जैसी शर्तके साथ करूँगा, उसे सुनो।

हरे! ब्रह्मन्! मैं जो कुछ कहता हूँ, वह सर्वथा उचित ही है।

जो नारी मेरे तेजको विभागपूर्वक ग्रहण कर सके, जो योगिनी तथा इच्छानुसार रूप धारण करनेवाली हो, उसीको तुम पत्नी बनानेके लिये मुझे बताओ।

जब मैं योगमें तत्पर रहूँ, तब उसे भी योगिनी बनकर रहना होगा और जब मैं कामासक्त होऊँ, तब उसे भी कामिनीके रूपमें ही मेरे पास रहना होगा।

वेदवेत्ता विद्वान् जिन्हें अविनाशी बतलाते हैं, उन ज्योतिःस्वरूप सनातन शिवका मैं सदा चिन्तन करता हूँ और करता रहूँगा।

ब्रह्मन्! उन सदाशिवके चिन्तनमें जब मैं न लगा होऊँ तभी उस भामिनीके साथ मैं समागम कर सकता हूँ।

जो मेरे शिवचिन्तनमें विघ्न डालनेवाली होगी, वह जीवित नहीं रह सकती, उसे अपने जीवनसे हाथ धोना पड़ेगा।

तुम, विष्णु और मैं तीनों ही ब्रह्मस्वरूप शिवके अंशभूत हैं।

अतः महाभागगण! हमारे लिये उनका निरन्तर चिन्तन करना ही उचित है।

कमलासन! उनके चिन्तनके लिये मैं बिना विवाहके भी रह लूँगा।

(किंतु उनका चिन्तन छोड़कर विवाह नहीं करूँगा।) अतः तुम मुझे ऐसी पत्नी प्रदान करो, जो सदा मेरे कर्मके अनुकूल चल सके।

ब्रह्मन्! उसमें भी मेरी एक और शर्त है, उसे तुम सुनो; यदि उस स्त्रीका मुझपर और मेरे वचनपर अविश्वास होगा तो मैं उसे त्याग दूँगा।

उनकी यह बात सुनकर मैंने और श्रीहरिने मन्द मुसकानके साथ मन-ही-मन प्रसन्नताका अनुभव किया; फिर मैं विनम्र होकर बोला – ‘नाथ! महेश्वर! प्रभो! आपने जैसी नारीकी खोज आरम्भ की है, वैसी ही स्त्रीके विषयमें मैं आपको प्रसन्नतापूर्वक कह रहा हूँ।

साक्षात् सदाशिवकी धर्मपत्नी जो उमा हैं, वे ही जगत् का कार्य सिद्ध करनेके लिये भिन्न-भिन्न रूपमें प्रकट हुई हैं।

प्रभो! सरस्वती और लक्ष्मी – ये दो रूप धारण करके वे पहले ही यहाँ आ चुकी हैं।

इनमें लक्ष्मी तो श्रीविष्णुकी प्राणवल्लभा हो गयीं और सरस्वती मेरी।

अब हमारे लिये वे तीसरा रूप धारण करके प्रकट हुई हैं।

प्रभो! लोकहितका कार्य करनेकी इच्छावाली देवी शिवा दक्षपुत्रीके रूपमें अवतीर्ण हुई हैं।

उनका नाम सती है।

सती ही ऐसी भार्या हो सकती हैं, जो सदा आपके लिये हितकारिणी हो।

देवेश! महातेजस्विनी सती आपके लिये, आपको पतिरूपमें प्राप्त करनेके लिये दृढ़तापूर्वक कठोर व्रतका पालन करती हुई तपस्या कर रही हैं।

महेश्वर! आप उन्हें वर देनेके लिये जाइये, कृपा कीजिये और बड़ी प्रसन्नताके साथ उन्हें उनकी तपस्याके अनुरूप वर देकर उनके साथ विवाह कीजिये।

शंकर! भगवान् विष्णुकी, मेरी तथा इन सम्पूर्ण देवताओंकी यही इच्छा है।

आप अपनी शुभ दृष्टिसे हमारी इस इच्छाको पूर्ण कीजिये, जिससे हम आदरपूर्वक इस उत्सवको देख सकें।

ऐसा होनेसे तीनों लोकोंमें सुख देनेवाला परम मंगल होगा और सबकी सारी चिन्ता मिट जायगी, इसमें संशय नहीं है।’ तदनन्तर मेरी बात समाप्त होनेपर लीला-विग्रह धारण करनेवाले भक्तवत्सल महेश्वरसे मधुसूदन अच्युतने इसीका समर्थन किया।

तब भक्तवत्सल भगवान् शिवने हँसकर कहा, ‘बहुत अच्छा, ऐसा ही होगा।’ उनके ऐसा कहनेपर हम दोनों उनसे आज्ञा ले अपनी पत्नी तथा देवताओं और मुनियोंके साथ अत्यन्त प्रसन्न हो अपने अभीष्ट स्थानको चले आये।

(अध्याय १६) * यो निवृत्तिसुमार्गस्थः स्वात्मारामो निरञ्जनः।

अवधूततनुर्ज्ञानी स्वद्रष्टा कामवर्जितः।।

अविकारी ह्यभोगी च सदा शुचिरमङ्गलः।

तस्य प्रयोजनं लोके कामिन्या किं वदाधुना।।

(शि० पु० रु० सं० स० खं० १५।३१-३२)


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