शिव पुराण - रुद्र संहिता - सती खण्ड - 7


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दक्षकी साठ कन्याओंका विवाह, दक्ष और वीरिणीके यहाँ देवी शिवाका अवतार, दक्षद्वारा उनकी स्तुति तथा सतीके सद् गुणों एवं चेष्टाओंसे माता-पिताकी प्रसन्नता

ब्रह्माजी कहते हैं – देवर्षे! इसी समय दक्षके इस बर्तावको जानकर मैं भी वहाँ आ पहुँचा और पूर्ववत् उन्हें शान्त करनेके लिये सान्त्वना देने लगा।

तुम्हारी प्रसन्नताको बढ़ाते हुए मैंने दक्षके साथ तुम्हारा सुन्दर स्नेहपूर्ण सम्बन्ध स्थापित कराया।

तुम मेरे पुत्र हो, मुनियोंमें श्रेष्ठ और सम्पूर्ण देवताओंके प्रिय हो।

अतः बड़े प्रेमसे तुम्हें आश्वासन देकर मैं फिर अपने स्थानपर आ गया।

तदनन्तर प्रजापति दक्षने मेरी अनुनयके अनुसार अपनी पत्नीके गर्भसे साठ सुन्दरी कन्याओंको जन्म दिया और आलस्यरहित हो धर्म आदिके साथ उन सबका विवाह कर दिया।

मुनीश्वर! मैं उसी प्रसंगको बड़े प्रेमसे कह रहा हूँ, तुम सुनो।

मुने! दक्षने अपनी दस कन्याएँ विधिपूर्वक धर्मको ब्याह दीं, तेरह कन्याएँ कश्यप मुनिको दे दीं और सत्ताईस कन्याओंका विवाह चन्द्रमाके साथ कर दिया।

भूत (या बहुपुत्र), अंगिरा तथा कृशाश्वको उन्होंने दो-दो कन्याएँ दीं और शेष चार कन्याओंका विवाह तार्क्ष्य (या अरिष्टनेमि)-के साथ कर दिया।

इन सबकी संतान-परम्पराओंसे तीनों लोक भरे पड़े हैं।

अतः विस्तार-भयसे उनका वर्णन नहीं किया जाता।

कुछ लोग शिवा या सतीको दक्षकी ज्येष्ठ पुत्री बताते हैं।

दूसरे लोग उन्हें मझली पुत्री कहते हैं तथा कुछ अन्य लोग सबसे छोटी पुत्री मानते हैं।

कल्पभेदसे ये तीनों मत ठीक हैं।

पुत्र और पुत्रियोंकी उत्पत्तिके पश्चात् पत्नीसहित प्रजापति दक्षने बड़े प्रेमसे मन-ही-मन जगदम्बिकाका ध्यान किया।

साथ ही गद् गदवाणीसे प्रेमपूर्वक उनकी स्तुति भी की।

बारंबार अंजलि बाँध नमस्कार करके वे विनीतभावसे देवीको मस्तक झुकाते थे।

इससे देवी शिवा संतुष्ट हुईं और उन्होंने अपने प्रणकी पूर्तिके लिये मन-ही-मन यह विचार किया कि अब मैं वीरिणीके गर्भसे अवतार लूँ।

ऐसा विचार कर वे जगदम्बा दक्षके हृदयमें निवास करने लगीं।

मुनिश्रेष्ठ! उस समय दक्षकी बड़ी शोभा होने लगी।

फिर उत्तम मुहूर्त देखकर दक्षने अपनी पत्नीमें प्रसन्नतापूर्वक गर्भाधान किया।

तब दयालु शिवा दक्ष-पत्नीके चित्तमें निवास करने लगीं।

उनमें गर्भधारणके सभी चिह्न प्रकट हो गये।

तात! उस अवस्थामें वीरिणीकी शोभा बढ़ गयी और उसके चित्तमें अधिक हर्ष छा गया।

भगवती शिवाके निवासके प्रभावसे वीरिणी महामंगलरूपिणी हो गयी।

दक्षने अपने कुल-सम्प्रदाय, वेदज्ञान और हार्दिक उत्साहके अनुसार प्रसन्नतापूर्वक पुंसवन आदि संस्कारसम्बन्धी श्रेष्ठ क्रियाएँ सम्पन्न कीं।

उन कर्मोंके अनुष्ठानके समय महान् उत्सव हुआ।

प्रजापतिने ब्राह्मणोंको उनकी इच्छाके अनुसार धन दिया।

उस अवसरपर वीरिणीके गर्भमें देवीका निवास हुआ जानकर श्रीविष्णु आदि सब देवताओंको बड़ी प्रसन्नता हुई।

उन सबने वहाँ आकर जगदम्बाका स्तवन किया और समस्त लोकोंका उपकार करनेवाली देवी शिवाको बारंबार प्रणाम किया।

वे सब देवता प्रसन्नचित्त हो दक्ष प्रजापति तथा वीरिणीकी भूरि-भूरि प्रशंसा करके अपने-अपने स्थानको लौट गये।

नारद! जब नौ महीने बीत गये, तब लौकिक गतिका निर्वाह कराकर दसवें महीनेके पूर्ण होनेपर चन्द्रमा आदि ग्रहों तथा ताराओंकी अनुकूलतासे युक्त सुखद मुहूर्तमें देवी शिवा शीघ्र ही अपनी माताके सामने प्रकट हुईं।

उनके अवतार लेते ही प्रजापति दक्ष बड़े प्रसन्न हुए और उन्हें महान् तेजसे देदीप्यमान देख उनके मनमें यह विश्वास हो गया कि साक्षात् वे शिवादेवी ही मेरी पुत्रीके रूपमें प्रकट हुई हैं।

उस समय आकाशसे फूलोंकी वर्षा होने लगी और मेघ जल बरसाने लगे।

मुनीश्वर! सतीके जन्म लेते ही सम्पूर्ण दिशाओंमें तत्काल शान्ति छा गयी।

देवता आकाशमें खड़े हो मांगलिक बाजे बजाने लगे।

अग्निशालाओंकी बुझी हुई अग्नियाँ सहसा प्रज्वलित हो उठीं और सब कुछ परम मंगलमय हो गया।

वीरिणीके गर्भसे साक्षात् जगदम्बाको प्रकट हुई देख दक्षने दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार किया और बड़े भक्ति-भावसे उनकी बड़ी स्तुति की।

बुद्धिमान् दक्षके स्तुति करनेपर जगन्माता शिवा उस समय दक्षसे इस प्रकार बोलीं, जिससे माता वीरिणी न सुन सके।

देवी बोलीं – प्रजापते! तुमने पहले पुत्रीरूपमें मुझे प्राप्त करनेके लिये मेरी आराधना की थी, तुम्हारा वह मनोरथ आज सिद्ध हो गया।

अब तुम उस तपस्याके फलको ग्रहण करो।

उस समय दक्षसे ऐसा कहकर देवीने अपनी मायासे शिशुरूप धारण कर लिया और शैशवभाव प्रकट करती हुई वे वहाँ रोने लगीं।

उस बालिकाका रोदन सुनकर सभी स्त्रियाँ और दासियाँ बड़े वेगसे प्रसन्नतापूर्वक वहाँ आ पहुँचीं।

असिक्नीकी पुत्रीका अलौकिक रूप देखकर उन सभी स्त्रियोंको बड़ा हर्ष हुआ।

नगरके सब लोग उस समय जय-जयकार करने लगे।

गीत और वाद्योंके साथ बड़ा भारी उत्सव होने लगा।

पुत्रीका मनोहर मुख देखकर सबको बड़ी ही प्रसन्नता हुई।

दक्षने वैदिक और कुलोचित आचारका विधिपूर्वक अनुष्ठान किया।

ब्राह्मणोंको दान दिया और दूसरोंको भी धन बाँटा।

सब ओर यथोचित गान और नृत्य होने लगे।

भाँति-भाँतिके मंगल-कृत्योंके साथ बहुत-से बाजे बजने लगे।

उस समय दक्षने समस्त सद् गुणोंकी सत्तासे प्रशंसित होनेवाली अपनी उस पुत्रीका नाम प्रसन्नतापूर्वक ‘उमा’ रखा।

तदनन्तर संसारमें लोगोंकी ओरसे उसके और भी नाम प्रचलित किये गये, जो सब-के-सब महान् मंगलदायक तथा विशेषतः समस्त दुःखोंका नाश करनेवाले हैं।

वीरिणी और महात्मा दक्ष अपनी पुत्रीका पालन करने लगे तथा वह शुक्लपक्षकी चन्द्रकलाके समान दिनोदिन बढ़ने लगी।

द्विजश्रेष्ठ! बाल्यावस्थामें भी समस्त उत्तमोत्तम गुण उसमें उसी तरह प्रवेश करने लगे, जैसे शुक्लपक्षके बाल चन्द्रमामें भी समस्त मनोहारिणी कलाएँ प्रविष्ट हो जाती हैं।

दक्षकन्या सती सखियोंके बीच बैठी-बैठी जब अपने भावमें निमग्न होती थी, तब बारंबार भगवान् शिवकी मूर्तिको चित्रित करने लगती थी।

मंगलमयी सती जब बाल्योचित सुन्दर गीत गाती, तब स्थाणु, हर एवं रुद्र नाम लेकर स्मरशत्रु शिवका स्मरण किया करती थी।

(अध्याय १४)


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