शिव पुराण - रुद्र संहिता - सती खण्ड - 5


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दक्षकी तपस्या और देवी शिवाका उन्हें वरदान देना

नारदजीने पूछा – पूज्य पिताजी! दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रतका पालन करनेवाले दक्षने तपस्या करके देवीसे कौन-सा वर प्राप्त किया तथा वे देवी किस प्रकार दक्षकी कन्या हुईं?

ब्रह्माजीने कहा – नारद! तुम धन्य हो! इन सभी मुनियोंके साथ भक्तिपूर्वक इस प्रसंगको सुनो।

मेरी आज्ञा पाकर उत्तम बुद्धिवाले महाप्रजापति दक्षने क्षीरसागरके उत्तर तटपर स्थित हो देवी जगदम्बिकाको पुत्रीके रूपमें प्राप्त करनेकी इच्छा तथा उनके प्रत्यक्ष दर्शनकी कामना लिये उन्हें हृदय-मन्दिरमें विराजमान करके तपस्या प्रारम्भ की।

दक्षने मनको संयममें रखकर दृढ़तापूर्वक कठोर व्रतका पालन करते हुए शौच-संतोषादि नियमोंसे युक्त हो तीन हजार दिव्य वर्षोंतक तप किया।

वे कभी जल पीकर रहते, कभी हवा पीते और कभी सर्वथा उपवास करते थे।

भोजनके नामपर कभी सूखे पत्ते चबा लेते थे।

मुनिश्रेष्ठ नारद! तदनन्तर यम-नियमादिसे युक्त हो जगदम्बाकी पूजामें लगे हुए दक्षको देवी शिवाने प्रत्यक्ष दर्शन दिया।

जगन्मयी जगदम्बाका प्रत्यक्ष दर्शन पाकर प्रजापति दक्षने अपने-आपको कृतकृत्य माना।

वे कालिकादेवी सिंहपर आरूढ़ थीं।

उनकी अंगकान्ति श्याम थी।

मुख बड़ा ही मनोहर था।

वे चार भुजाओंसे युक्त थीं और हाथोंमें वरद, अभय, नील कमल और खड्ग धारण किये हुए थीं।

उनकी मूर्ति बड़ी मनोहारिणी थी।

नेत्र कुछ-कुछ लाल थे।

खुले हुए केश बड़े सुन्दर दिखायी देते थे।

उत्तम प्रभासे प्रकाशित होनेवाली उन जगदम्बाको भलीभाँति प्रणाम करके दक्ष विचित्र वचनावलियोंद्वारा उनकी स्तुति करने लगे।

दक्षने कहा – जगदम्ब! महामाये! जगदीशे! महेश्वरि! आपको नमस्कार है।

आपने कृपा करके मुझे अपने स्वरूपका दर्शन कराया है।

भगवति! आद्ये! मुझपर प्रसन्न होइये।

शिवरूपिणि! प्रसन्न होइये।

भक्तवरदायिनि! प्रसन्न होइये।

जगन्माये! आपको मेरा नमस्कार है।* ब्रह्माजी कहते हैं – मुने! संयत चित्तवाले दक्षके इस प्रकार स्तुति करनेपर महेश्वरी शिवाने स्वयं ही उनके अभिप्रायको जान लिया तो भी दक्षसे इस प्रकार कहा – ‘दक्ष! तुम्हारी इस उत्तम भक्तिसे मैं बहुत संतुष्ट हूँ।

तुम अपना मनोवांछित वर माँगो।

तुम्हारे लिये मुझे कुछ भी अदेय नहीं है।’ जगदम्बाकी यह बात सुनकर प्रजापति दक्ष बहुत प्रसन्न हुए और उन शिवाको बारंबार प्रणाम करते हुए बोले।

दक्षने कहा – जगदम्ब! महामाये! यदि आप मुझे वर देनेके लिये उद्यत हैं तो मेरी बात सुनिये और प्रसन्नतापूर्वक मेरी इच्छा पूर्ण कीजिये।

मेरे स्वामी जो भगवान् शिव हैं, वे रुद्रनाम धारण करके ब्रह्माजीके पुत्ररूपसे अवतीर्ण हुए हैं।

वे परमात्मा शिवके पूर्णावतार हैं।

परंतु आपका कोई अवतार नहीं हुआ।

फिर उनकी पत्नी कौन होगी? अतः शिवे! आप भूतलपर अवतीर्ण होकर उन महेश्वरको अपने रूप-लावण्यसे मोहित कीजिये।

देवि! आपके सिवा दूसरी कोई स्त्री रुद्रदेवको कभी मोहित नहीं कर सकती।

इसलिये आप मेरी पुत्री होकर इस समय महादेवजीकी पत्नी होइये।

इस प्रकार सुन्दर लीला करके आप हरमोहिनी (भगवान् शिवको मोहित करनेवाली) बनिये।

देवि! यही मेरे लिये वर है।

यह केवल मेरे ही स्वार्थकी बात हो, ऐसा नहीं सोचना चाहिये।

इसमें मेरे ही साथ सम्पूर्ण जगत् का भी हित है।

ब्रह्मा, विष्णु और शिवमेंसे ब्रह्माजीकी प्रेरणासे मैं यहाँ आया हूँ।

प्रजापति दक्षका यह वचन सुनकर जगदम्बिका शिवा हँस पड़ीं और मन ही-मन भगवान् शिवका स्मरण करके यों बोलीं।

देवीने कहा – तात! प्रजापते! दक्ष! मेरी उत्तम बात सुनो।

मैं सत्य कहती हूँ, तुम्हारी भक्तिसे अत्यन्त प्रसन्न हो तुम्हें सम्पूर्ण मनोवांछित वस्तु देनेके लिये उद्यत हूँ।

दक्ष! यद्यपि मैं महेश्वरी हूँ, तथापि तुम्हारी भक्तिके अधीन हो तुम्हारी पत्नीके गर्भसे तुम्हारी पुत्रीके रूपमें अवतीर्ण होऊँगी – इसमें संशय नहीं है।

अनघ! मैं अत्यन्त दुस्सह तपस्या करके ऐसा प्रयत्न करूँगी जिससे महादेवजीका वर पाकर उनकी पत्नी हो जाऊँ।

इसके सिवा और किसी उपायसे कार्य सिद्ध नहीं हो सकता; क्योंकि वे भगवान् सदाशिव सर्वथा निर्विकार हैं, ब्रह्मा और विष्णुके भी सेव्य हैं तथा नित्य परिपूर्णरूप ही हैं।

मैं सदा उनकी दासी और प्रिया हूँ।

प्रत्येक जन्ममें वे नानारूपधारी शम्भु ही मेरे स्वामी होते हैं।

भगवान् सदाशिव अपने दिये हुए वरके प्रभावसे ब्रह्माजीकी भ्रुकुटिसे रुद्ररूपमें अवतीर्ण हुए हैं।

मैं भी उनके वरसे उनकी आज्ञाके अनुसार यहाँ अवतार लूँगी।

तात! अब तुम अपने घरको जाओ।

इस कार्यमें जो मेरी दूती अथवा सहायिका होगी, उसे मैंने जान लिया है।

अब शीघ्र ही मैं तुम्हारी पुत्री होकर महादेवजीकी पत्नी बनूँगी।

दक्षसे यह उत्तम वचन कहकर मन-ही-मन शिवकी आज्ञा प्राप्त करके देवी शिवाने शिवके चरणारविन्दोंका चिन्तन करते हुए फिर कहा – ‘प्रजापते! परंतु मेरा एक प्रण है, उसे तुम्हें सदा मनमें रखना चाहिये।

मैं उस प्रणको सुना देती हूँ।

तुम उसे सत्य समझो, मिथ्या न मानो।

यदि कभी मेरे प्रति तुम्हारा आदर घट जायगा, तब उसी समय मैं अपने शरीरको त्याग दूँगी, अपने स्वरूपमें लीन हो जाऊँगी अथवा दूसरा शरीर धारण कर लूँगी।

मेरा यह कथन सत्य है।

प्रजापते! प्रत्येक सर्ग या कल्पके लिये तुम्हें यह वर दे दिया गया – मैं तुम्हारी पुत्री होकर भगवान् शिवकी पत्नी होऊँगी।’ मुख्य प्रजापति दक्षसे ऐसा कहकर महेश्वरी शिवा उनके देखते-देखते वहीं अन्तर्धान हो गयीं।

दुर्गाजीके अन्तर्धान होनेपर दक्ष भी अपने आश्रमको लौट गये और यह सोचकर प्रसन्न रहने लगे कि देवी शिवा मेरी पुत्री होनेवाली हैं।

(अध्याय ११ – १२)

* प्रसीद भगवत्याद्ये प्रसीद शिवरूपिणि।

प्रसीद भक्तवरदे जगन्माये नमोऽस्तु ते।।

(शि० पु० रु० सं० स० खं० १२।१४)


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