शिव पुराण - रुद्र संहिता - सती खण्ड - 30


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


भगवान् शिवका दक्षको अपनी भक्तवत्सलता, ज्ञानी भक्तकी श्रेष्ठता तथा तीनों देवताओंकी एकता बताना, दक्षका अपने यज्ञको पूर्ण करना, सब देवता आदिका अपने-अपने स्थानको जाना, सतीखण्डका उपसंहार और माहात्म्य

ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! इस प्रकार श्रीविष्णुके, मेरे, देवताओं और ऋषियोंके तथा अन्य लोगोंके स्तुति करनेपर महादेवजी बड़े प्रसन्न हुए।

फिर उन शम्भुने समस्त ऋषियों, देवता आदिको कृपादृष्टिसे देखकर तथा मुझ ब्रह्मा और विष्णुका समाधान करके दक्षसे इस प्रकार कहा।

महादेवजी बोले – प्रजापति दक्ष! मैं जो कुछ कहता हूँ, सुनो।

मैं तुमपर प्रसन्न हूँ।

यद्यपि मैं सबका ईश्वर और स्वतन्त्र हूँ तो भी सदा ही अपने भक्तोंके अधीन रहता हूँ।

चार प्रकारके पुण्यात्मा पुरुष मेरा भजन करते हैं।

दक्ष प्रजापते! उन चारों भक्तोंमें पूर्व-पूर्वकी अपेक्षा उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं।

उनमें पहला आर्त, दूसरा जिज्ञासु, तीसरा अर्थार्थी और चौथा ज्ञानी है।

पहलेके तीन तो सामान्य श्रेणीके भक्त हैं।

किंतु चौथाका अपना विशेष महत्त्व है।

उन सब भक्तोंमें चौथा ज्ञानी ही मुझे अधिक प्रिय है।

वह मेरा रूप माना गया है।

उससे बढ़कर दूसरा कोई मुझे प्रिय नहीं है, यह मैं सत्य-सत्य कहता हूँ।* मैं आत्मज्ञ हूँ।

वेद-वेदान्तके पारगामी विद्वान् ज्ञानके द्वारा मुझे जान सकते हैं।

जिनकी बुद्धि मन्द है, वे ही ज्ञानके बिना मुझे पानेका प्रयत्न करते हैं।

कर्मके अधीन हुए मूढ़ मानव मुझे वेद, यज्ञ, दान और तपस्याद्वारा भी कभी नहीं पा सकते।

अतः दक्ष! आजसे तुम बुद्धिके द्वारा मुझ परमेश्वरको जानकर ज्ञानका आश्रय ले समाहितचित्त होकर कर्म करो।

प्रजापते! तुम उत्तम बुद्धिके द्वारा मेरी दूसरी बात भी सुनो।

मैं अपने सगुण स्वरूपके विषयमें भी इस गोपनीय रहस्यको धर्मकी दृष्टिसे तुम्हारे सामने प्रकट करता हूँ।

जगत् का परम कारणरूप मैं ही ब्रह्मा और विष्णु हूँ।

मैं सबका आत्मा ईश्वर और साक्षी हूँ।

स्वयम्प्रकाश तथा निर्विशेष हूँ! मुने! अपनी त्रिगुणात्मिका मायाको स्वीकार करके मैं ही जगत् की सृष्टि, पालन और संहार करता हुआ उन क्रियाओंके अनुरूप ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र नाम धारण करता हूँ।

उस अद्वितीय (भेदरहित) केवल (विशुद्ध) मुझ परब्रह्म परमात्मामें ही अज्ञानी पुरुष ब्रह्म, ईश्वर तथा अन्य समस्त जीवोंको भिन्नरूपसे देखता है।

जैसे मनुष्य अपने सिर और हाथ आदि अंगोंमें ‘ये मुझसे भिन्न हैं’ ऐसी परकीय बुद्धि कभी नहीं करता, उसी तरह मेरा भक्त प्राणिमात्रमें मुझसे भिन्नता नहीं देखता।

दक्ष! मैं, ब्रह्मा और विष्णु तीनों स्वरूपतः एक ही हैं तथा हम ही सम्पूर्ण जीवरूप हैं – ऐसा समझकर जो हम तीनों देवताओंमें भेद नहीं देखता, वही शान्ति प्राप्त करता है।

जो नराधम हम तीनों देवताओंमें भेदबुद्धि रखता है, वह निश्चय ही जबतक चन्द्रमा और तारे रहते हैं, तबतक नरकमें निवास करता है।१ दक्ष! यदि कोई विष्णुभक्त होकर मेरी निन्दा करेगा और मेरा भक्त होकर विष्णुकी निन्दा करेगा तो तुम्हें दिये हुए पूर्वोक्त सारे शाप उन्हीं दोनोंको प्राप्त होंगे और निश्चय ही उन्हें तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति नहीं हो सकती।२ ब्रह्माजी कहते हैं – मुने! भगवान् महेश्वरके इस सुखदायक वचनको सुनकर सब देवता, मुनि आदिको उस अवसरपर बड़ा हर्ष हुआ।

कुटुम्बसहित दक्ष बड़ी प्रसन्नताके साथ शिवभक्तिमें तत्पर हो गया।

वे देवता आदि भी शिवको ही सर्वेश्वर जानकर भगवान् शिवके भजनमें लग गये।

जिसने जिस प्रकार परमात्मा शम्भुकी स्तुति की थी, उसे उसी प्रकार संतुष्टचित्त हुए शम्भुने वर दिया।

मुने! तदनन्तर भगवान् शिवकी आज्ञा पाकर प्रसन्नचित्त हुए शिवभक्त दक्षने शिवके ही अनुग्रहसे अपना यज्ञ पूरा किया।

उन्होंने देवताओंको तो यज्ञभाग दिये ही, शिवको भी पूर्ण भाग दिया।

साथ ही ब्राह्मणोंको दान दिया! इस तरह उन्हें शम्भुका अनुग्रह प्राप्त हुआ।

इस प्रकार महादेवजीके उस महान् कर्मका विधिपूर्वक वर्णन किया गया।

प्रजापतिने ऋत्विजोंके सहयोगसे उस यज्ञकर्मको विधिवत् समाप्त किया।

मुनीश्वर! इस प्रकार परब्रह्मस्वरूप शंकरके प्रसादसे वह दक्षका यज्ञ पूरा हुआ।

तदनन्तर सब देवता और ऋषि संतुष्ट हो भगवान् शिवके यशका वर्णन करते हुए अपने-अपने स्थानको चले गये।

दूसरे लोग भी उस समय वहाँसे सुखपूर्वक विदा हो गये।

मैं और श्रीविष्णु भी अत्यन्त प्रसन्न हो भगवान् शिवके सर्वमंगलदायक सुयशका निरन्तर गान करते हुए अपने-अपने स्थानको सानन्द चले आये।

सत्पुरुषोंके आश्रयभूत महादेवजी भी दक्षसे सम्मानित हो प्रीति और प्रसन्नताके साथ गणोंसहित अपने निवासस्थान कैलास पर्वतको चले गये।

अपने पर्वतपर आकर शम्भुने अपनी प्रिया सतीका स्मरण किया और प्रधान-प्रधान गणोंसे उनकी कथा कही।

इस प्रकार दक्षकन्या सती यज्ञमें अपने शरीरको त्यागकर फिर हिमालयकी पत्नी मेनाके गर्भसे उत्पन्न हुईं, यह बात प्रसिद्ध है।

फिर वहाँ तपस्या करके गौरी शिवाने भगवान् शिवका पतिरूपमें वरण किया।

वे उनके वामांगमें स्थान पाकर अद्भुत लीलाएँ करने लगीं।

नारद! इस तरह मैंने तुमसे सतीके परम अद्भुत दिव्य चरित्रका वर्णन किया है, जो भोग और मोक्षको देनेवाला तथा सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण करनेवाला है।

यह उपाख्यान पापको दूर करनेवाला, पवित्र एवं परम पावन है।

स्वर्ग, यश तथा आयुको देनेवाला तथा पुत्र-पौत्ररूप फल प्रदान करनेवाला है।

तात! जो भक्तिमान् पुरुष भक्तिभावसे लोगोंको यह कथा सुनाता है, वह इस लोकमे सम्पूर्ण कर्मोंका फल पाकर परलोकमें परमगतिको प्राप्त कर लेता है।

(अध्याय ४३) ।। रुद्रसंहिताका सतीखण्ड सम्पूर्ण ।।

* चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनः सदा।

उत्तरोत्तरतः श्रेष्ठास्तेषां दक्ष प्रजापते।।

आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी चैव चतुर्थकः।

पूर्वे त्रयश्च सामान्याश्चतुर्थो हि विशिष्यते।।

तत्र ज्ञानी प्रियतरो मम रूपं च स स्मृत।

तस्मात्प्रियतरो नान्यः सत्यं सत्यं वदाम्यहम्।।

(शि० पु० रु० सं० स० खं० ४३।४ – ६) १- सर्वभूतात्मनामेकभावानां यो न पश्यति।

त्रिसुराणां भिदां दक्ष स शान्तिमधिगच्छति।।

यः करोति त्रिदेवेषु भेदबुद्धिं नराधमः।

नरके स वसेन्नूनं यावदाचन्द्रतारकम्।।

(शि० पु० रु० सं० स० खं० ४३।१६-१७) २- हरिभक्तो हि मां निन्देत्तथा शैवो भवेद्यदि।

तयोः शापा भवेयुस्ते तत्त्वप्राप्तिर्भवेन्नहि।।

(शि० पु० रु० सं० स० खं० ४३।२१)


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