शिव पुराण - रुद्र संहिता - सती खण्ड - 3


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शिव पुराण संहिता लिंकविद्येश्वर | रुद्र संहिता | शतरुद्र | कोटिरुद्र | उमा | कैलास | वायवीय


संध्याकी तपस्या, उसके द्वारा भगवान् शिवकी स्तुति तथा उससे संतुष्ट हुए शिवका उसे अभीष्ट वर दे मेधातिथिके यज्ञमें भेजना

ब्रह्माजी कहते हैं – मेरे पुत्रोंमें श्रेष्ठ महाप्राज्ञ नारद! तपस्याके नियमका उपदेश दे जब वसिष्ठजी अपने घर चले गये, तब तपके उस विधानको समझकर संध्या मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुई।

फिर तो वह सानन्द मनसे तपस्विनीके योग्य वेष बनाकर बृहल्लोहित सरोवरके तटपर ही तपस्या करने लगी।

वसिष्ठजीने तपस्याके लिये जिस मन्त्रको साधन बताया था, उसीसे उत्तम भक्तिभावके साथ वह भगवान् शंकरकी आराधना करने लगी।

उसने भगवान् शिवमें अपने चित्तको लगा दिया और एकाग्र मनसे वह बड़ी भारी तपस्या करने लगी।

उस तपस्यामें लगे हुए उसके चार युग व्यतीत हो गये।

तब भगवान् शिव उसकी तपस्यासे संतुष्ट हो बड़े प्रसन्न हुए तथा बाहर-भीतर और आकाशमें अपने स्वरूपका दर्शन कराकर जिस रूपका वह चिन्तन करती थी, उसी रूपसे उसकी आँखोंके सामने प्रकट हो गये।

उसने मनसे जिनका चिन्तन किया था, उन्हीं प्रभु शंकरको अपने सामने खड़ा देख वह अत्यन्त आनन्दमें निमग्न हो गयी।

भगवान् का मुखारविन्द बड़ा प्रसन्न दिखायी देता था।

उनके स्वरूपसे शान्ति बरस रही थी।

वह सहसा भयभीत हो सोचने लगी कि ‘मैं भगवान् हरसे क्या कहूँ? किस तरह इनकी स्तुति करूँ?’ इसी चिन्तामें पड़कर उसने अपने दोनों नेत्र बंद कर लिये।

नेत्र बंद कर लेनेपर भगवान् शिवने उसके हृदयमें प्रवेश करके उसे दिव्य ज्ञान दिया, दिव्य वाणी और दिव्य दृष्टि प्रदान की।

जब उसे दिव्य ज्ञान, दिव्य दृष्टि और दिव्य वाणी प्राप्त हो गयी, तब वह कठिनाईसे ज्ञात होनेवाले जगदीश्वर शिवको प्रत्यक्ष देखकर उनकी स्तुति करने लगी।

संध्या बोली – जो निराकार और परम ज्ञानगम्य हैं, जो न तो स्थूल हैं, न सूक्ष्म हैं और न उच्च ही हैं तथा जिनके स्वरूपका योगीजन अपने हृदयके भीतर चिन्तन करते हैं, उन्हीं लोकस्रष्टा आप भगवान् शिवको नमस्कार है।

जिन्हें शर्व कहते हैं, जो शान्तस्वरूप, निर्मल, निर्विकार और ज्ञानगम्य हैं, जो अपने ही प्रकाशमें स्थित हो प्रकाशित होते हैं, जिनमें विकारका अत्यन्त अभाव है, जो आकाशमार्गकी भाँति निर्गुण, निराकार बताये गये हैं तथा जिनका रूप अज्ञानान्धकारमार्गसे सर्वथा परे है, उन नित्यप्रसन्न आप भगवान् शिवको मैं प्रणाम करती हूँ।

जिनका रूप एक (अद्वितीय), शुद्ध, बिना मायाके प्रकाशमान, सच्चिदानन्दमय, सहज निर्विकार, नित्यानन्दमय, सत्य, ऐश्वर्यसे युक्त, प्रसन्न तथा लक्ष्मीको देनेवाला है, उन आप भगवान् शिवको नमस्कार है।

जिनके स्वरूपकी ज्ञानरूपसे ही उद्भावना की जा सकती है, जो इस जगत् से सर्वथा भिन्न है एवं सत्त्वप्रधान, ध्यानके योग्य, आत्मस्वरूप, सारभूत, सबको पार लगानेवाला तथा पवित्र वस्तुओंमें भी परम पवित्र है, उन आप महेश्वरको मेरा नमस्कार है।

आपका जो स्वरूप शुद्ध, मनोहर, रत्नमय आभूषणोंसे विभूषित तथा स्वच्छ कर्पूरके समान गौरवर्ण है, जिसने अपने हाथोंमें वर, अभय, शूल और मुण्ड धारण कर रखा है, उस दिव्य, चिन्मय, सगुण, साकार विग्रहसे सुशोभित आप योगयुक्त भगवान् शिवको नमस्कार है।

आकाश, पृथ्वी, दिशाएँ, जल, तेज तथा काल – ये जिनके रूप हैं, उन आप परमेश्वरको नमस्कार है।* प्रधान (प्रकृति) और पुरुष जिनके शरीररूपसे प्रकट हुए हैं अर्थात् वे दोनों जिनके शरीर हैं, इसीलिये जिनका यथार्थ रूप अव्यक्त (बुद्धि आदिसे परे) है, उन भगवान् शंकरको बारंबार नमस्कार है।

जो ब्रह्मा होकर जगत् की सृष्टि करते हैं, जो विष्णु होकर संसारका पालन करते हैं तथा जो रुद्र होकर अन्तमें इस सृष्टिका संहार करेंगे, उन्हीं आप भगवान् सदाशिवको बारंबार नमस्कार है।

जो कारणके भी कारण हैं, दिव्य अमृतरूप ज्ञान तथा अणिमा आदि ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले हैं, समस्त लोकान्तरोंका वैभव देनेवाले हैं, स्वयं प्रकाशरूप हैं तथा प्रकृतिसे भी परे हैं, उन परमेश्वर शिवको नमस्कार है, नमस्कार है।

यह जगत् जिनसे भिन्न नहीं कहा जाता, जिनके चरणोंसे पृथ्वी तथा अन्यान्य अंगोंसे सम्पूर्ण दिशाएँ, सूर्य, चन्द्रमा, कामदेव एवं अन्य देवता प्रकट हुए हैं और जिनकी नाभिसे अन्तरिक्षका आविर्भाव हुआ है, उन्हीं आप भगवान् शम्भुको मेरा नमस्कार है।

प्रभो! आप ही सबसे उत्कृष्ट परमात्मा हैं, आप ही नाना प्रकारकी विद्याएँ हैं, आप ही हर (संहारकर्ता) हैं, आप ही सद्ब्रह्म तथा परब्रह्म हैं, आप सदा विचारमें तत्पर रहते हैं।

जिनका न आदि है, न मध्य है और न अन्त ही है, जिनसे सारा जगत् उत्पन्न हुआ है तथा जो मन और वाणीके विषय नहीं हैं, उन महादेवजीकी स्तुति मैं कैसे कर सकूँगी?१ ब्रह्मा आदि देवता तथा तपस्याके धनी मुनि भी जिनके रूपोंका वर्णन नहीं कर सकते, उन्हीं परमेश्वरका वर्णन अथवा स्तवन मैं कैसे कर सकती हूँ? प्रभो! आप निर्गुण हैं, मैं मूढ़ स्त्री आपके गुणोंको कैसे जान सकती हूँ? आपका रूप तो ऐसा है, जिसे इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता और असुर भी नहीं जानते हैं।

महेश्वर! आपको नमस्कार है।

तपोमय! आपको नमस्कार है।

देवेश्वर शम्भो! मुझपर प्रसन्न होइये।

आपको बारंबार मेरा नमस्कार है।२ ब्रह्माजी कहते हैं – नारद! संध्याका यह स्तुतिपूर्ण वचन सुनकर उसके द्वारा भलीभाँति प्रशंसित हुए भक्तवत्सल परमेश्वर शंकर बहुत प्रसन्न हुए।

उसका शरीर वल्कल और मृगचर्मसे ढका हुआ था।

मस्तकपर पवित्र जटाजूट शोभा पा रहा था।

उस समय पालेके मारे हुए कमलके समान उसके कुम्हलाये हुए मुँहको देखकर भगवान् हर दयासे द्रवित हो उससे इस प्रकार बोले।

महेश्वरने कहा – भद्रे! मैं तुम्हारी इस उत्तम तपस्यासे बहुत प्रसन्न हूँ।

शुद्ध बुद्धिवाली देवि! तुम्हारे इस स्तवनसे भी मुझे बड़ा संतोष प्राप्त हुआ है।

अतः इस समय अपनी इच्छाके अनुसार कोई वर माँगो।

जिस वरसे तुम्हें प्रयोजन हो तथा जो तुम्हारे मनमें हो, उसे मैं यहाँ अवश्य पूर्ण करूँगा।

तुम्हारा कल्याण हो।

मैं तुम्हारे व्रत-नियमसे बहुत प्रसन्न हूँ।

प्रसन्नचित्त महेश्वरका यह वचन सुनकर अत्यन्त हर्षसे भरी हुई संध्या उन्हें बारंबार प्रणाम करके बोली – महेश्वर! यदि आप मुझे प्रसन्नतापूर्वक वर देना चाहते हैं, यदि मैं वर पानेके योग्य हूँ; यदि पापसे शुद्ध हो गयी हूँ तथा देव! यदि इस समय आप मेरी तपस्यासे प्रसन्न हैं तो मेरा माँगा हुआ यह पहला वर सफल करें।

देवेश्वर! इस आकाशमें पृथ्वी आदि किसी भी स्थानमें जो प्राणी हैं, वे सब-के-सब जन्म लेते ही कामभावसे युक्त न हो जायँ।

नाथ! मेरी सकाम दृष्टि कहीं न पड़े।

मेरे जो पति हों, वे भी मेरे अत्यन्त सुहृद् हों।

पतिके अतिरिक्त जो भी पुरुष मुझे सकामभावसे देखे, उसके पुरुषत्वका नाश हो जाय – वह तत्काल नपुंसक हो जाय।

निष्पाप संध्याका यह वचन सुनकर प्रसन्न हुए भक्तवत्सल भगवान् शंकरने कहा – देवि! संध्ये! सुनो।

भद्रे! तुमने जो-जो वर माँगा है, वह सब तुम्हारी तपस्यासे संतुष्ट होकर मैंने दे दिया।

प्राणियोंके जीवनमें मुख्यतः चार अवस्थाएँ होती हैं – पहली शैशवावस्था, दूसरी कौमारावस्था, तीसरी यौवनावस्था और चौथी वृद्धावस्था।

तीसरी अवस्था प्राप्त होनेपर देहधारी जीव कामभावसे युक्त होंगे।

कहीं-कहीं दूसरी अवस्थाके अन्तिम भागमें ही प्राणी सकाम हो जायँगे।

तुम्हारी तपस्याके प्रभावसे मैंने जगत् में सकामभावके उदयकी यह मर्यादा स्थापित कर दी है, जिससे देहधारी जीव जन्म लेते ही कामासक्त न हो जायँ।

तुम भी इस लोकमें वैसे दिव्य सतीभावको प्राप्त करो, जैसा तीनों लोकोंमें दूसरी किसी स्त्रीके लिये सम्भव नहीं होगा।

पाणिग्रहण करनेवाले पतिके सिवा जो कोई भी पुरुष सकाम होकर तुम्हारी ओर देखेगा, वह तत्काल नपुंसक होकर दुर्बलताको प्राप्त हो जायगा।

तुम्हारे पति महान् तपस्वी तथा दिव्यरूपसे सम्पन्न एक महाभाग महर्षि होंगे, जो तुम्हारे साथ सात कल्पोंतक जीवित रहेंगे।

तुमने मुझसे जो-जो वर माँगे थे, वे सब मैंने पूर्ण कर दिये।

अब मैं तुमसे दूसरी बात कहूँगा, जो पूर्वजन्मसे सम्बन्ध रखती है।

तुमने पहलेसे ही यह प्रतिज्ञा कर रखी है कि मैं अग्निमें अपने शरीरको त्याग दूँगी।

उस प्रतिज्ञाको सफल करनेके लिये मैं तुम्हें एक उपाय बताता हूँ।

उसे निस्संदेह करो।

मुनिवर मेधातिथिका एक यज्ञ चल रहा है, जो बारह वर्षोंतक चालू रहनेवाला है।

उसमें अग्नि पूर्णतया प्रज्वलित है।

तुम बिना विलम्ब किये उसी अग्निमें अपने शरीरका उत्सर्ग कर दो।

इसी पर्वतकी उपत्यकामें चन्द्रभागा नदीके तटपर तापसाश्रममें मुनिवर मेधातिथि महायज्ञका अनुष्ठान करते हैं।

तुम स्वच्छन्दतापूर्वक वहाँ जाओ।

मुनि तुम्हें वहाँ देख नहीं सकेंगे।

मेरी कृपासे तुम मुनिकी अग्निसे प्रकट हुई पुत्री होओगी।

तुम्हारे मनमें जिस किसी स्वामीको प्राप्त करनेकी इच्छा हो, उसे हृदयमें धारणकर, उसीका चिन्तन करते हुए तुम अपने शरीरको उस यज्ञकी अग्निमें होम दो।

संध्ये! जब तुम इस पर्वतपर चार युगोंतकके लिये कठोर तपस्या कर रही थी, उन्हीं दिनों उस चतुर्युगीका सत्ययुग बीत जानेपर त्रेताके प्रथम भागमें प्रजापति दक्षके बहुत-सी कन्याएँ हुईं।

उन्होंने अपनी उन सुशीला कन्याओंका यथायोग्य वरोंके साथ विवाह कर दिया।

उनमेंसे सत्ताईस कन्याओंका विवाह उन्होंने चन्द्रमाके साथ किया।

चन्द्रमा अन्य सब पत्नियोंको छोड़कर केवल रोहिणीसे प्रेम करने लगे।

इसके कारण क्रोधसे भरे हुए दक्षने जब चन्द्रमाको शाप दे दिया, तब समस्त देवता तुम्हारे पास आये।

परंतु संध्ये! तुम्हारा मन तो मुझमें लगा हुआ था, अतः तुमने ब्रह्माजीके साथ आये हुए उन देवताओंपर दृष्टिपात ही नहीं किया।

तब ब्रह्माजीने आकाशकी ओर देखकर और चन्द्रमा पुनः अपने स्वरूपको प्राप्त करें, यह उद्देश्य मनमें रखकर उन्हें शापसे छुड़ानेके लिये एक नदीकी सृष्टि की, जो चन्द्र या चन्द्रभागा नदीके नामसे विख्यात हुई।

चन्द्रभागाके प्रादुर्भावकालमें ही महर्षि मेधातिथि यहाँ उपस्थित हुए थे।

तपस्याके द्वारा उनकी समानता करनेवाला न तो कोई हुआ है, न है और न होगा ही।

उन महर्षिने महान् विधि-विधानके साथ दीर्घकालतक चलनेवाले ज्योतिष्टोम नामक यज्ञका आरम्भ किया है।

उसमें अग्निदेव पूर्णरूपसे प्रज्वलित हो रहे हैं।

उसी आगमें तुम अपने शरीरको डाल दो और परम पवित्र हो जाओ।

ऐसा करनेसे इस समय तुम्हारी वह प्रतिज्ञा पूर्ण हो जायगी।

इस प्रकार संध्याको उसके हितका उपदेश देकर देवेश्वर भगवान् शिव वहीं अन्तर्धान हो गये। (अध्याय ६)

* संध्योवाच – निराकारं ज्ञानगम्यं परं यन्नैव स्थूलं नापि सूक्ष्मं न चोच्चम्।

अन्तश्चिन्त्यं योगिभिस्तस्य रूपं तस्मै तुभ्यं लोककर्त्रे नमोऽस्तु।।

शर्वं शान्तं निर्मलं निर्विकारं ज्ञानगम्यं स्वप्रकाशेऽविकारम्।

खाध्वप्रख्यं ध्वान्तमार्गात्परस्ताद् रूपं यस्य त्वां नमामि प्रसन्नम्।।

एकं शुद्धं दीप्यमानं विनाजां चिदानन्दं सहजं चाविकारि।

नित्यानन्दं सत्यभूतिप्रसन्नं यस्य श्रीदं रूपमस्मै नमस्ते।।

विद्याकारोद्भावनीयं प्रभिन्नं सत्त्वच्छन्दं ध्येयमात्मस्वरूपम्।

सारं पारं पावनानां पवित्रं तस्मै रूपं यस्य चैवं नमस्ते।।

यत्त्वाकारं शुद्धरूपं मनोज्ञं रत्नाकल्पं स्वच्छकर्पूरगौरम्।

इष्टाभीती शूलमुण्डे दधानं हस्तैर्नमो योगयुक्ताय तुभ्यम्।।

गगनं भूर्दिशश्चैव सलिलं ज्योतिरेव च।

पुनः कालश्च रूपाणि यस्य तुभ्यं नमोऽस्तु ते।।

(शि० पु० रु० सं० स० खं० ६।१२ – १७) १- प्रधानपुरुषौ यस्य कायत्वेन विनिर्गतौ।

तस्मादव्यक्तरूपाय शङ्कराय नमो नमः।।

यो ब्रह्मा कुरुते सृष्टिं यो विष्णुः कुरुते स्थितिम्।

संहरिष्यति यो रुद्रस्तस्मै तुभ्यं नमो नमः।।

नमो नमः कारणकारणाय दिव्यामृतज्ञानविभूतिदाय।

समस्तलोकान्तरभूतिदाय प्रकाशरूपाय परात्पराय।।

यस्यापरं नो जगदुच्यते पदात् क्षितिर्दिशः सूर्य इन्दुर्मनोजः।

बहिर्मुखा नाभितश्चान्तरिक्षं तस्मै तुभ्यं शम्भवे मे नमोऽस्तु।।

त्वं परः परमात्मा च त्वं विद्या विविधा हरः।

सद्ब्रह्म च परं ब्रह्म विचारणपरायणः।।

यस्य नादिर्न मध्यं च नान्तमस्ति जगद्यतः।

कथं स्तोष्यामि तं देवमवाङ् मनसगोचरम्।।

(शि० पु० रु० सं० स० खं० ६।१८ – २३) २- यस्य ब्रह्मादयो देवा मुनयश्च तपोधनाः।

न विपृण्वन्ति रूपाणि वर्णनीयः कथं स मे।।

स्त्रिया मया ते किं ज्ञेया निर्गुणस्य गुणाः प्रभो।

नैव जानन्ति यद् रूपं सेन्द्रा अपि सुरासुराः।।

नमस्तुभ्यं महेशान नमस्तुभ्यं तपोमय।

प्रसीद शम्भो देवेश भूयो भूयो नमोऽस्तु ते।।

(शि० पु० रु० सं० स० खं० ६।२४ – २६)


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